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सांविधानिक विधि

इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण 1975 SC 2299

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 16-Aug-2024

परिचय:

विधि का शासन एवं न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं और संसद विधियों में संशोधन करके ऐसे मूल तत्त्वों को अनदेखा नहीं कर सकती।

तथ्य:

  • यह मामला याचिकाकर्त्ता (इंदिरा नेहरू गांधी), जो उस समय प्रधानमंत्री थीं, के विरुद्ध चुनावी प्रक्रिया में अनुचित व्यवहार करने की शिकायत दर्ज करने के साथ प्रारंभ हुआ।
  • चुनाव के दौरान, याचिकाकर्त्ता ने कॉन्ग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व किया और प्रतिवादी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रतिनिधित्व किया, याचिकाकर्त्ता ने चुनाव जीता तथा भारत के प्रधानमंत्री के रूप में पुनः नियुक्त हुईं।
  • प्रतिवादी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर चुनाव को चुनौती दी।
    • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्त्ता ने सरकारी संसाधनों का अनुचित तरीके से उपयोग किया है और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RPA) में दिये गए चुनाव नियमों का उल्लंघन किया है।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को लोक प्रतिनिधि अधिनियम की धारा 123(7) के अंतर्गत दोषी पाया तथा उसके चुनाव को शून्य घोषित कर दिया।
  • उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को प्रधानमंत्री पद से भी हटा दिया एवं अगले 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील की और उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को संसदीय कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति देते हुए अस्थायी रूप से स्थगन आदेश जारी किया, परंतु उसके पास मतदान का कोई अधिकार नहीं था।
  • मामले के लंबित रहने के दौरान, राज्य में आपातकाल लागू कर दिया गया और भारत के संविधान के अनुच्छेद 329 A के अंतर्गत 39वाँ संविधान संशोधन प्रस्तुत किया गया, जिसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री एवं अध्यक्ष के चुनाव को किसी भी भारतीय न्यायालय में विधिक रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • इस संशोधन ने उच्चतम न्यायालय को चल रहे मामले के तहत क्षेत्राधिकार से वंचित कर दिया।
  • बाद में संशोधन की वैधता को चुनौती दी गई।

शामिल मुद्दे

  • क्या भारतीय संविधान का अनुच्छेद 329A खंड (4) वैध है?
  • क्या प्रधानमंत्री का चुनाव वैध है या शून्य?

 टिप्पणी

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है।
    • उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के निर्णय पर भरोसा किया, जहाँ संविधान के अनुच्छेद 329A (4) को असंवैधानिक घोषित किया गया था और यह स्पष्ट रूप से माना गया था कि संसद के पास संविधान के मूल ढाँचे को परिवर्तित करने वाले संशोधन करने की असीमित शक्ति है।
    • यह भी ध्यान दिया गया कि विधि का शासन और न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं तथा संसद विधानों में संशोधन करके ऐसे मूल तत्त्वों को समाप्त नहीं कर सकती है।
  • उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के चुनाव की वैधता को निरस्त करते हुए कहा कि संसाधनों और विधानों का दुरुपयोग करने के लिये याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध कोई प्रबल साक्ष्य नहीं मिला है।

निष्कर्ष:

उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया और चुनाव को वैध ठहराया।