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आपराधिक कानून

चेक अनादरण मामले पर CrPC की धारा 482 का लागू होना

 02-Feb-2024

आत्मजीत सिंह बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य

"NI अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही में अंतर्निहित ऋण की समय-बाधित प्रकृति कानून और तथ्य का एक मिश्रित प्रश्न है जिसे CrPC की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने वाले उच्च न्यायालय द्वारा तय नहीं किया जाना चाहिये।"

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने आत्मजीत सिंह बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 के तहत कार्यवाही में अंतर्निहित ऋण की समय-बाधित प्रकृति कानून और तथ्य का एक मिश्रित प्रश्न है जिसे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने वाले उच्च न्यायालय द्वारा तय नहीं किया जाना चाहिये।

आत्मजीत सिंह बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में शिकायतकर्त्ता ने NI अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की थी कि प्रतिवादी ने अपने दायित्व का निर्वहन करने के लिये एक चेक जारी किया था।
  • लेखीवाल द्वारा भुगतान रोक दिये जाने के कारण चेक अनादरित हो गया था और ट्रायल कोर्ट द्वारा एक समन आदेश जारी किया गया था।
  • इसके बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने समन आदेश को रद्द कर दिया।
  • इससे व्यथित होकर उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय द्वारा स्वीकार किया गया।
  • न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
  • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि NI अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही में अंतर्निहित ऋण की समय-बाधित प्रकृति कानून एवं तथ्य का एक मिश्रित प्रश्न है जिसे CrPC की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने वाले उच्च न्यायालय द्वारा तय नहीं किया जाना चाहिये।
  • आगे यह माना गया कि एक बार जब चेक जारी किया जाता है और अनादरित होने पर कानूनी नोटिस जारी किया जाता है, तो NI अधिनियम के तहत उपलब्ध कानूनी अनुमान को खारिज़ करना अभियुक्त का कार्य है तथा CrPC की धारा 482 के तहत अभियुक्त द्वारा दायर आवेदन में निर्णय नहीं सुनाया जा सकता था।

प्रासंगिक कानूनी प्रावधान क्या हैं?

NI अधिनियम की धारा 138:

  • यह धारा खातों में अपर्याप्त निधियों, आदि के कारण चेक के अनादरण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
  • जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णत: या भागतः उन्मोचन के लिये किसी बैंककार के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से किसी अन्य व्यक्ति को किसी धनराशि के संदाय के लिये लिखा गया कोई चेक बैंक द्वारा संदाय किये बिना या तो इस कारण लौटा दिया जाता है कि उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिये अपर्याप्त है या वह उस रकम से अधिक है जिसका बैंक के साथ किये गए कराकर द्वारा उस खाते में से संदाय करने का ठहराव किया गया है, वहाँ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि उसने अपराध किया है और वह, इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी या ज़ुर्माने से, जो चेक की रकम का दुगुना तक हो सकेगा, या दोनों से, दंडनीय होगा:
  • परंतु इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक-
    (a) वह चेक उसके, लिखे जाने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर या उसकी विधिमान्यता की अवधि के भीतर, जो भी पूर्वतर हो, बैंक को प्रस्तुत न किया गया हो;
    (b) चेक का पाने वाला या धारक, सम्यक् अनुक्रम में चेक के लेखीवाल को, असंदत्त चेक के लौटाए जाने की बाबत बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर, लिखित रूप में सूचना देकर उक्त धनराशि के संदाय के लिये मांग नहीं करता है; और
    (c) ऐसे चेक का लेखीवाल, चेक के पाने वाले को या धारक को उक्त सूचना की प्राप्ति के पंद्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय सम्यक् अनुक्रम में करने में असफल नहीं रहता है ।
  • स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये, “ऋण या अन्य दायित्व” से विधितः प्रवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व अभिप्रेत है।

CrPC की धारा 482:

परिचय:

  • CrPC की धारा 482 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों को संरक्षित करने से संबंधित है, जबकि इसी प्रावधान को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के तहत शामिल किया गया है।
  • इसमें कहा गया है कि इस संहिता की कोई बात उच्च न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या प्रभावित करने वाली न समझी जाएगी जैसे इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की कार्यवाही का दुरुपयोग निवारित करने के लिये या किसी अन्य प्रकार से न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक हों।
  • यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है, और यह केवल इस तथ्य को मान्यता देती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।

निर्णयज विधि:

  • सूरज देवी बनाम प्यारे लाल और अन्य (1981), मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग ऐसा करने के लिये नहीं किया जा सकता है जो विशेष रूप से दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 द्वारा निषिद्ध है।
  • विनोद कुमार, IAS बनाम भारत संघ और अन्य (2021), मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 482 के तहत पिछली याचिका को खारिज़ करने से तथ्य उचित होने की स्थिति में उसके तहत अगली याचिका दायर करने पर रोक नहीं लगेगी।

सांविधानिक विधि

रिट ऑफ सर्टिओरीरी

 02-Feb-2024

एम./एस. फाल्गुनी स्टील्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

रिट ऑफ सर्टिओरीरी स्वाभाविक रूप से जारी नहीं की जाती है, बल्कि यह प्रवर न्यायालय के विवेक पर दी जाती है।

न्यायमूर्ति शेखर बी. सराफ

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एम./एस. फाल्गुनी स्टील्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि रिट ऑफ सर्टिओरीरी स्वाभाविक रूप से जारी नहीं की जाती है, बल्कि यह प्रवर न्यायालय के विवेक पर दी जाती है।

एम./एस. फाल्गुनी स्टील्स बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) का अधिकृत डीलर है।
  • 17 फरवरी, 2019 को, याचिकाकर्त्ता ने टैक्स चालान के तहत एक परेषण खरीदा जो SAIL द्वारा केंद्रीय माल और सेवा कर अधिनियम, 2017 (CGST अधिनियम) के प्रावधानों के अनुसार जारी किया गया था।
  • इसके बाद, याचिकाकर्त्ता ने अपने माल के परिवहन के लिये एक निजी सड़क वाहन की सेवा प्राप्त की। टैक्स चालान में उक्त वाहन का नंबर था।
  • याचिकाकर्त्ता ने आरोप लगाया कि प्रासंगिक समय के दौरान, विभाग का ई-वे बिल पोर्टल गड़बड़ियों और तकनीकी कमियों से ग्रस्त था तथा उक्त तथ्य के कारण, कई अवसरों पर ई-वे बिल उत्पन्न नहीं हो सके।
  • CGST अधिनियम की धारा 129 के तहत ज़ुर्माना आदेश इस आधार पर पारित किया गया था कि याचिकाकर्त्ता के माल के साथ ई-वे बिल नहीं जारी नहीं किया गया था। इसके बाद प्रथम अपीलीय प्राधिकारी ने ज़ुर्माने के आदेश को बरकरार रखा।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता द्वारा उच्च न्यायालय के समक्ष तत्काल याचिका दायर की गई और आदेश के विरुद्ध रिट ऑफ सर्टिओरीरी जारी करने के लिये प्रार्थना की गई।
  • उच्च न्यायालय द्वारा याचिका स्वीकार की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति शेखर बी. सराफ ने कहा कि रिट ऑफ सर्टिओरीरी स्वाभाविक रूप से जारी नहीं की जाती है, बल्कि अवर न्यायालयों, अधिकरणों या प्रशासनिक निकायों के निर्णयों की समीक्षा करने और उन्हें रद्द करने के लिये प्रवर न्यायालय के विवेक पर दी जाती है। आमतौर पर, सर्टिओरीरी उन मामलों में जारी की जाती है जिनमें रिकॉर्ड पर स्पष्ट रूप से कानून की त्रुटियाँ, अधिकार क्षेत्र संबंधी मुद्दे या प्रक्रियात्मक अनियमितताएँ शामिल होती हैं जिनका कार्यवाही की निष्पक्षता और वैधता पर प्रभाव पड़ सकता है।

प्रासंगिक कानूनी प्रावधान क्या हैं?

रिट ऑफ सर्टिओरीरी:

परिचय:

  • यह एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ 'पूरी तरह से सूचित होना’ है।
  • यह प्रवर न्यायालय द्वारा अवर न्यायालय को जारी किया गया एक समादेश या आदेश है
  • यह तब जारी किया जाता है जब अवर न्यायालय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
  • यदि कोई त्रुटि पाई जाती है तो प्रवर न्यायालय अवर न्यायालय द्वारा दिये गए आदेश को रद्द कर सकता है।
  • यह कानून के शासन और प्रशासनिक कार्यों पर न्यायिक निगरानी सुनिश्चित करने, त्रुटियों को ठीक करने एवं शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिये एक तंत्र प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

निर्णयज विधि:

  • नगेंद्र नाथ बोरा एवं अन्य बनाम हिल्स डिवीज़न और अपील आयुक्त, असम एवं अन्य (1958) मामले, में उच्चतम न्यायालय विभिन्न भारतीय एवं अंग्रेज़ी उदाहरणों की जाँच करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उस मामले में एक अवर अधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकल गया है या उसने कानून के अनुसार कार्य नहीं किया है, ऐसी में सर्टिओरीरी रिट जारी की जा सकती है।
  • सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंसेज़ एवं अन्य बनाम बिकर्तन दास एवं अन्य (2023) मामले, में उच्चतम न्यायालय ने माना कि अधिकार क्षेत्र की त्रुटियों को सुधारने के लिये सर्टिओरारी रिट जारी की जा सकती है।

CGST अधिनियम:

  • यह अधिनियम केंद्र सरकार द्वारा वस्तुओं या सेवाओं या दोनों की अंतर-राज्य आपूर्ति पर कर लगाने और संग्रह करने एवं उससे जुड़े मामलों के लिये प्रावधान करता है।
  • इस अधिनियम की धारा 129 अभिवहन में माल और वाहनों की हिरासत, अभिग्रहण एवं उनके निरोध से संबंधित है।

सिविल कानून

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम

 02-Feb-2024

इटारसी पाइप्स सेल्स एवं अन्य बनाम OMRF पाइप्स और उत्पाद एवं अन्य

"वाणिज्यिक न्यायालय ने एक संभाव्य दृष्टिकोण अपनाया है जो कानून के अनुरूप है।"

न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल और विवेक जैन

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल और विवेक जैन की पीठ वाणिज्यिक न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

इटारसी पाइप्स सेल्स एवं अन्य बनाम OMRF पाइप्स और उत्पाद एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रत्यर्थियों/वादियों ने एक वाणिज्यिक वाद शुरू किया जिसमें याचिकाकर्त्ताओं/प्रतिवादियों को 21 मार्च, 2023 को नोटिस दिया गया।
  • याचिकाकर्त्ता 10 अप्रैल, 2023 को वाणिज्यिक न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुए, लेकिन उनका लिखित बयान विलंब से 09 अगस्त, 2023 को दायर किया गया।
  • मुद्दा यह उठा, कि क्या 120 दिनों से अधिक समय के बाद दाखिल किया गया बयान स्वीकार किया जा सकता है?
  • वाणिज्यिक न्यायालय ने, CPC एवं उच्चतम न्यायालय के मामलों SCG कॉन्ट्रैक्ट्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड बनाम के.एस. चमनकर इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड एंड अदर्स (2019) और प्रकाश कॉरपोरेट्स बनाम डी. वी. प्रोजेक्ट्स लिमिटेड (2022) के निर्णयों का संदर्भ देते हुए, निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी नंबर 1 व 2 बयान के लिये विस्तारित 120-दिन की सीमा को पूर्ण करने में विफल रहे, जिससे वह अस्वीकार्य हो गया।
  • नतीजतन, न्यायालय ने लिखित बयान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि "वाणिज्यिक न्यायालय ने एक संभाव्य दृष्टिकोण अपनाया है जो कानून के अनुरूप है"।

वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 क्या है?

  • परिचय:
    • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 भारत के वाणिज्यिक परिदृश्य में बढ़ती जटिलताओं की पृष्ठभूमि में उभरा।
    • यह 23 अक्तूबर, 2015 को वर्ष 2016 की अधिनियम संख्या 4 के रूप में लागू हुआ।
    • वाणिज्य के विस्तार के साथ, विवाद अनिवार्य रूप से उत्पन्न होते हैं, जिनके समाधान के लिये कुशल एवं प्रभावी तंत्र की आवश्यकता होती है।
    • त्वरित और विशेष विवाद समाधान मंचों की आवश्यकता को सुनिश्चित करते हुए, विशेष रूप से वाणिज्यिक मुकदमेबाज़ी की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये इस अधिनियम की कल्पना की गई थी।
  • मुख्य प्रावधानः
    • वाणिज्यिक न्यायालयों की स्थापना:
      • यह अधिनियम पूरे देश में वाणिज्यिक वादियों तक पहुँच और निकटता सुनिश्चित करते हुए ज़िला स्तर पर वाणिज्यिक न्यायालयों की स्थापना का आदेश देता है।
      • ये न्यायालय निर्दिष्ट वाणिज्यिक मामलों पर अधिकार क्षेत्र से सुसज्जित हैं, जिससे न्यायनिर्णय में विशेषज्ञता और दक्षता को बढ़ावा मिलता है।
    • वाणिज्यिक विवादों की परिभाषा:
      • यह अधिनियम वाणिज्यिक विवादों के दायरे को रेखांकित करता है, जिसमें वाणिज्यिक लेनदेन, संविदा और समझौतों की एक विस्तृत शृंखला शामिल है। अपने दायरे में आने वाले विवादों के प्रकारों पर स्पष्टता प्रदान करके, अधिनियम वाणिज्यिक मुकदमेबाज़ी में पूर्वानुमान और संबद्धता को बढ़ाता है।
    • त्वरित कार्यवाही:
      • अधिनियम की प्रमुख विशेषताओं में से एक इसका त्वरित विवाद समाधान पर ज़ोर देना है।
      • मुकदमेबाज़ी के विभिन्न चरणों के लिये समय-सीमा निर्धारित की गई है, जिससे मामलों का त्वरित निपटान सुनिश्चित किया जा सके और इसके निपटान में होने वाली देरी को कम किया जा सके।
      • यह त्वरित प्रक्रिया लंबी मुकदमेबाज़ी से जुड़ी लागत और अनिश्चितताओं को कम करने में सहायक होती है।
    • विशेष न्यायनिर्णयन:
      • अधिनियम के तहत गठित वाणिज्यिक न्यायालयों में वाणिज्यिक मामलों में विशेष ज्ञान और अनुभव रखने वाले न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाता है।
      • यह विशेषज्ञता न्यायालयों को तुरंत सूचित निर्णय देने में सक्षम बनाती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में वादियों और हितधारकों के बीच विश्वास को बढ़ावा मिलता है।