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आपराधिक कानून

CrP C की धारा 227 एवं 228

 05-Feb-2024

लिट्टी थॉमस बनाम केरल राज्य

"CrPC की धारा 228 के तहत आरोप तय करने से पूर्व न्यायाधीश को यह राय बनानी होगी कि यह मानने का आधार है कि अभियुक्त ने अपराध किया है।"

न्यायमूर्ति सोफी थॉमस

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय Kerala High Court

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने लिट्टी थॉमस बनाम केरल राज्य के मामले में कहा है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 228 के तहत आरोप तय करने से पूर्व न्यायाधीश को यह राय बनानी होगी कि यह मानने का आधार है कि अभियुक्त ने अपराध किया है।

लिट्टी थॉमस बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, याचिकाकर्त्ता ने अपने विरुद्ध लगाए गए आरोपों को रद्द करने के लिये CrPC की धारा 482 के तहत केरल उच्च न्यायालय के अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र का उपयोग किया।
  • याचिकाकर्त्ता द्वारा बताई गई शिकायत यह है कि हालाँकि ट्रायल कोर्ट ने CrPC की धारा 227 के तहत याचिकाकर्त्ता को सुना, यह मानने के आधार पर कि उसने कथित अपराध किये हैं या इस आशय का कोई निष्कर्ष निकाला कि आरोपमुक्त करने के लिये कोई पर्याप्त आधार नहीं था, इस आधार पर कोई राय बनाए बिना आरोप तय किया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने माना कि ट्रायल कोर्ट द्वारा तय किये गए आरोप को रद्द किया जाना चाहिये और संबंधित ट्रायल न्यायाधीश को CrPC की धारा 227 के तहत अभियोजन पक्ष तथा याचिकाकर्त्ता को एक बार फिर से सुनने का निर्देश दिया जाता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति सोफी थॉमस ने कहा कि यह मानने का आधार है कि अभियुक्त ने अपराध किया है, वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप तय करेगा। इसलिये, CrPC की धारा 228 के तहत यह ज़रूरी है कि न्यायाधीश आरोप तय करने के लिये आगे बढ़े, उसे यह राय बनानी होगी कि यह मानने का आधार है कि अभियुक्त ने अपराध किया है।
  • CrPC की धारा 227 और 228 का विश्लेषण करने पर, न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीश को अभियुक्त के विरुद्ध आरोप तय करने या आरोप तय करने से पहले रिकॉर्ड, प्रस्तुत दस्तावेज़ों पर विचार करना होगा तथा अभियोजन पक्ष एवं अभियुक्त की दलीलें सुननी होंगी।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 227

परिचय:

  • CrPC की धारा 227 सत्र मामलों में अभियुक्तों को बरी करने से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि यदि मामले के अभिलेख और उसके साथ दी गई दस्तावेज़ों पर विचार कर लेने पर तथा इस निमित्त अभियुक्त एवं अभियोजन के निवेदन की सुनवाई कर लेने के पश्चात् न्यायाधीश यह समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तो वह अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा व ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा।
  • यह धारा अभियुक्तों को अनावश्यक उत्पीड़न से बचाने के उद्देश्य से बनाई गई थी।

निर्णयज विधि:

  • कर्नाटक राज्य बनाम एल. मुनिस्वामी (1977) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रावधानों का उद्देश्य, जिसके तहत CrPC की धारा 227 के तहत उन्मोचन याचिका पर विचार करते समय सत्र न्यायाधीश को अपने कारण दर्ज करने की आवश्यकता होती है, प्रवर न्यायालय को आक्षेपित आदेश की अवैधता की जाँच करना है। उस मामले में ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को आरोपमुक्त करने से इनकार करते हुए आक्षेपित आदेश में कोई कारण नहीं बताया क्योंकि यह गंभीर दुर्बलता से ग्रस्त है।

CrPC की धारा 228

CrPC की धारा 228 सत्र न्यायालय के समक्ष मुकदमे के मामलों में आरोप तय करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि–

(1) यदि पूर्वोक्त रूप से विचार और सुनवाई के पश्चात् न्यायाधीश की यह राय है कि ऐसी उपधारणा करने का आधार है कि अभियुक्त ने ऐसा अपराध किया है जो-

(a) अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विरचित कर सकता है और आदेश द्वारा, मामले को विचारण के लिये मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित कर सकता है या कोई अन्य प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, ऐसी तारीख को जो वह ठीक समझे, अभियुक्त को, यथास्थिति, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष हाज़िर होने का निदेश दे सकेगा तथा तब ऐसा मजिस्ट्रेट उस मामले का विचारण पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वारंट मामलों के विचारण के लिए प्रक्रिया के अनुसार करेगा।

(b) अनन्यतः उस न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप लिखित रूप में विरचित करेगा।

(2) जहाँ न्यायाधीश उपधारा (1) के खण्ड (b) के अधीन कोई आरोप विरचित करता है वहाँ वह आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा तथा अभियुक्त से यह पूछा जाएगा कि क्या वह उस अपराध का, जिसका आरोप लगाया गया है, दोषी होने का अभिवचन करता है या विचारण किये जाने का दावा करता है।


सांविधानिक विधि

IT नियमों में संशोधन, 2023

 05-Feb-2024

कुणाल कामरा बनाम भारत संघ एवं संबंधित मामले

“सूचना और प्रौद्योगिकी नियम 2021 में संशोधन, 2023 के तहत प्रस्तावित तथ्य जाँच इकाई ने  स्पष्ट रूप से COI के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत प्रदान किये गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।”

न्यायमूर्ति पटेल

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कुणाल कामरा बनाम भारत संघ एवं संबंधित मामले के मामले में माना है कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी नियम 2021 में संशोधन, 2023 के तहत प्रस्तावित तथ्य जाँच इकाई ने ऑनलाइन और प्रिंट सामग्री के बीच अंतर के कारण भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत प्रदान किये गए मौलिक अधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया है।

कुणाल कामरा बनाम भारत संघ एवं संबंधित मामले के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 के तहत एक विशेष नियम 3(1)(b)(v) में केंद्र सरकार के संशोधन, 2023 के विरुद्ध शिकायत दर्ज की गई है।
  • संशोधन के माध्यम से, केंद्र सरकार ने स्वयं को इस बात का एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया है कि क्या फर्ज़ी, गलत या भ्रामक है या क्या नहीं है।
  • याचिकाकर्त्ताओं के अनुसार, प्रस्तावित तथ्य जाँच इकाई का ऐसा संशोधन विशेष रूप से संवैधानिक स्वतंत्रता, जिनकी COI के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत गारंटी दी गई है, का उल्लंघन है।
  • इसलिये, बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई है जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दे दी है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति पटेल ने कहा कि कोई भी विशेष जानकारी केवल डिजिटल होने से फर्ज़ी, गलत या भ्रामक नहीं हो जाती। उदाहरणों की संख्या अनंत है।
  • यह भी माना गया कि पिछले आधे दशक से सोशल मीडिया प्राथमिक समाचार माध्यम बन गया है। भारत में हार्ड-कॉपी अखबार पाठकों में भारी गिरावट दिखाने के लिये कुछ डेटा मौजूद है। इसका अर्थ विज्ञापन राजस्व में ठहराव या गिरावट है। इस प्रकार सोशल मीडिया समाचार प्रसार का प्राथमिक चालक है।
  • आगे कहा गया कि आक्षेपित नियम उन समाचार आउटलेट्स के लिये भी सोशल मीडिया डेटा को लक्षित करता है जिनके पास प्रिंट मीडिया है (और जिनके बारे में कुछ भी प्रस्तावित नहीं है या प्रस्तावित नहीं किया जा सकता है)। इस प्रकार, यह अनुच्छेद 9(1)(g) का स्पष्ट रूप से उल्लंघन है। आक्षेपित नियम किसी भी रिपोर्ताज के डिजिटल संस्करण को समाचार चक्र से बाहर कर देता है जिससे केंद्र सरकार असहमत है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021।

  • 25 फरवरी, 2021 को, भारत संघ ने सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 को अधिसूचित किया।
  • नियम 3 में संशोधन:
    • नियम 3 प्रतिविरोधात्मक नियम है। इसके कुछ भागों को वर्ष 2022 में और फिर वर्ष 2023 में संशोधित किया गया। वर्ष 2022 के संशोधन को कोई चुनौती नहीं है।
    • नियम 3 के उपखंड 1 के आधारों को 'मानहानिकारक' और 'अपमानलेखीय' शब्दों को हटाकर तर्कसंगत बनाया गया है।
    • कोई भी विषय-वास्तु मानहानिकारक या अपमानलेखीय है या नहीं, इसका निर्धारण न्यायिक समीक्षा के माध्यम से किया जाएगा।
    • नियम 3 (नियम 3(1)(b)) के उपखंड 1 में कुछ विषय-वास्तु श्रेणियों को विशेष रूप से गलत सूचना और विभिन्न धार्मिक/जाति समूहों के बीच हिंसा भड़काने वाली विषयवस्तु से निपटने के लिये दोबारा तैयार किया गया है।

COI का अनुच्छेद 19(1)(g)

  • COI का अनुच्छेद 19 (1) (g) अनुच्छेद 19 (6) के अधीन सभी नागरिकों को कोई भी पेशे का अभ्यास करने या कोई व्यवसाय, व्यापार करने का अधिकार प्रदान करता है जो राज्य द्वारा नागरिकों के उपर्युक्त  अधिकारों पर लगाए जा सकने वाले प्रतिबंध की प्रकृति का वर्णन करता है।

सिविल कानून

माध्यस्थम् अधिनियम में न्यायिक हस्तक्षेप

 05-Feb-2024

सुरेश धानुका बनाम शाहनाज़ हुसैन

"माध्यस्थम् पंचाट में हस्तक्षेप का दायरा तब तक बहुत सीमित है जब तक कि अभिलेख में स्पष्ट त्रुटि न हो और पंचाट में विकृति न हो।"

न्यायमूर्ति कृष्ण राव

स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में न्यायमूर्ति कृष्ण राव की पीठ एक माध्यस्थम् याचिका में आदेश के विरुद्ध अपील पर सुनवाई कर रही थी।

सुरेश धानुका बनाम शाहनाज़ हुसैन मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • संबंधित मध्यस्थ के समक्ष, दावेदार ने तर्क दिया कि प्रतिवादी नंबर 2 ने 11 जून, 2004 के आदेश द्वारा विशिष्ट आयामों और संरचना के लेड एंटीमनी मिश्रधातु ( Lead Antimony Alloy) के तार की मांग की।
  • याचिकाकर्त्ता ने पूर्व-निरीक्षण रिपोर्ट और बिलिंग के साथ अगस्त तथा सितंबर, 2004 में 141207 किलोग्राम तार की विधिवत आपूर्ति की।
  • इसके बावजूद, प्रतिवादी नंबर 2 भुगतान करने में विफल रहा और तार की उपयुक्तता के साथ मुद्दों का हवाला दिया, जिससे परिचालन में रुकावट आई।
  • चेतावनी और आदान-प्रदान के बाद, प्रतिवादी नंबर 2 ने पूरी खेप को अस्वीकार कर दिया तथा इसकी वापसी की मांग की।
  • याचिकाकर्त्ता ने विनिर्देशों के पालन का दावा करते हुए विरोध किया।
  • माध्यस्थम् शुरू हुई, जिसके परिणामस्वरूप 12 मई, 2006 को एक पंचाट आया।
  • मध्यस्थ ने प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा उपयोग की गई सामग्री के लियुए 2,48,289/- रुपए दिये, लेकिन याचिकाकर्त्ता द्वारा आपूर्ति शर्तों के अनुसार अस्वीकृत सामग्री की पुनर्प्राप्ति का हवाला देते हुए शेष 16,78,599/- रुपए देने से इनकार कर दिया।
  • प्रतिवादी नंबर 2 ने अपनी प्रतिरक्षा में निविदा विशिष्टताओं और अपेक्षित परीक्षण प्रमाण-पत्रों की कथित अनुपस्थिति पर प्रकाश डाला।
  • मध्यस्थ ने दोनों पक्षों के तर्कों पर विचार किया और दोनों पक्षों के बीच विवाद को सुलझाते हुए 2,78,083.68/- रुपए का पंचाट दिया।
  • याचिकाकर्त्ता/अपीलकर्त्ता ने वर्ष 2006 में माध्यस्थम् मूल याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया।
  • उन्होंने वर्ष 2006 की याचिका में दिये गए आदेश को रद्द करने की अपील की।
    • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि अवर न्यायालय और मध्यस्थ ने उसके दावों पर ठीक से विचार नहीं किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माध्यस्थम् पंचाटों में हस्तक्षेप के सीमित दायरे पर ध्यान दिया, हस्तक्षेप के आधार के रूप में अभिलेख पर स्पष्ट त्रुटियों या विकृतियों पर ज़ोर दिया।
    • इसमें उल्लेख किया गया है कि "माध्यस्थम् पंचाट में हस्तक्षेप का दायरा तब तक बहुत सीमित है जब तक कि अभिलेख में स्पष्ट त्रुटि न हो और पंचाट में विकृति न हो"।

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप क्या है?

  • परिचय:
    • अधिनियम की प्रमुख विशेषताओं में से एक माध्यस्थम् कार्यवाही में न्यायिक हस्तक्षेप का सीमित दायरा है।
    • माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 5, विशेष रूप से अधिनियम द्वारा शासित मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमा से संबंधित है।
  • धारा 5: न्यायिक हस्तक्षेप की सीमा:
    • तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, इस भाग द्वारा शासित मामलों में, कोई न्यायिक प्राधिकारी उस दशा के सिवाय मध्यक्षेप नहीं करेगा, जिसके लिये इस भाग में ऐसा उपबंध किया गया हो।
  • उद्देश्य:
    • यह धारा अनिवार्य रूप से स्थापित करती है कि माध्यस्थम् मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप सीमित होना चाहिये और न्यायालयों को मध्यस्थता कार्यवाही में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिये जब तक कि अधिनियम में स्पष्ट रूप से प्रावधान न किया गया हो।
    • अधिनियम का उद्देश्य न्यायिक हस्तक्षेप को कम करके और अधिक त्वरित समाधान प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाकर विवाद समाधान के पसंदीदा तरीके के रूप में माध्यस्थम् को बढ़ावा देना है।