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आपराधिक कानून
प्राप्त दस्तावेज़ों का परिचय
05-Apr-2024
शिजू बनाम केरल राज्य CrPC की धारा 311 के अधीन एक दस्तावेज़ साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जिसे जाँच के दौरान प्राप्त नहीं किया गया था और न ही अंतिम रिपोर्ट के साथ प्रस्तुत किया गया था। न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने शिजू बनाम केरल राज्य के मामले में माना है कि एक दस्तावेज़ को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 311 के अधीन साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसे जाँच के दौरान प्राप्त नहीं किया गया था और न ही अंतिम रिपोर्ट के साथ में प्रस्तुत किया गया था।
शिजू बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, याचिकाकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के प्रावधानों के अधीन अपराधों के लिये अभियोग का सामना करना पड़ रहा है।
- उन पर पीड़िता पर एसिड से हमला करने का आरोप है। जिस पर हमला हुआ वह अंधी हो गई।
- मामले में साक्ष्य पूरे होने के उपरांत तथा जब मामले की सुनवाई शुरू हुई, तो लोक अभियोजक द्वारा एक याचिका दायर की गई जिसमें विकलांगता प्रमाण-पत्र पेश करने के लिये साक्ष्य पुनः सम्मिलित करने हेतु तथा उस डॉक्टर की जाँच करने की मांग की गई जिसने प्रमाण-पत्र जारी किया था कि पीड़िता 100% अंधी हो गई है।
- अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने प्रस्तुत आवेदन स्वीकार कर लिया।
- इससे व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने केरल उच्च न्यायालय में अपील की।
- याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के बाद अस्तित्त्व में आए नए साक्ष्यों को पुनः प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं है।
- लोक अभियोजक ने कहा कि किसी भी साक्ष्य को रिकॉर्ड पर लाने की अनुमति देने की न्यायालय की शक्ति उसकी अनिवार्यता से निर्धारित होती है, तथा इसलिये, साक्षियों को वापस बुलाने या साक्ष्यों को पुनः सम्मिलित करने की अनुमति देने की न्यायालय की शक्ति को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।
- अपील को खारिज करते हुए, उच्च न्यायालय ने विवादित आदेश में कोई त्रुटि नहीं पाई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति बेचू कुरियन थॉमस ने कहा कि एक दस्तावेज़ को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311 के अधीन साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसे जाँच के दौरान प्राप्त नहीं किया गया था और न ही अंतिम रिपोर्ट के साथ प्रस्तुत किया गया था।
- आगे यह माना गया कि यदि किसी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ या साक्षी को छोड़ दिया गया है या प्रस्तुत नहीं किया गया है, चाहे जो भी कारण हो, तो अभियोजन पक्ष को अभियोजन में साक्ष्य के रूप में इसे रिकॉर्ड पर लाने के अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता है।
CrPC की धारा 311 क्या है?
परिचय:
- CrPC की धारा 311 महत्त्वपूर्ण साक्षी को बुलाने या उपस्थित व्यक्ति की जाँच करने की शक्ति से संबंधित है, जबकि समान प्रावधानों को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 348 के अधीन शामिल किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि कोई भी न्यायालय, इस संहिता के अधीन किसी भी जाँच, मुकदमे या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण में, उपस्थिति में किसी भी व्यक्ति को बुला सकता है, भले ही उसे साक्षी के रूप में नहीं बुलाया गया हो, या पहले से ही जाँच किये गए किसी भी व्यक्ति को वापस बुला सकता है और पुनः पूछताछ कर सकता है तथा न्यायालय में उपस्थित होने का आदेश दे सकता है, और यदि ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य मामले के उचित निर्णय के लिये आवश्यक प्रतीत होता है, तो उसकी जाँच करना या उसे वापस बुलाना तथा दोबारा जाँच करने के लिये तो ऐसा कर सकता है।
- CrPC की धारा 311 के प्रावधानों के अधीन, न्यायालय के पास कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी व्यक्ति को साक्षी के रूप में बुलाने की पूर्ण शक्ति है। इस शक्ति में किसी भी व्यक्ति को पुनः बुलाना तथा उसकी दोबारा जाँच करना शामिल है, जिसकी पहले ही जाँच की जा चुकी है।
- पक्षकारों के अधिकारों या शक्तियों के अनुरूप शक्ति केवल न्यायालय के पास है तथा इस शक्ति का प्रयोग तब किया जाना चाहिये जब न्यायालय को मामले के उचित निर्णय के लिये किसी साक्षी को बुलाना/वापस बुलाना आवश्यक लगे।
निर्णयज विधि:
- नताशा सिंह बनाम CBI(2013) में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 311 का उद्देश्य न केवल आरोपी और अभियोजन पक्ष के दृष्टिकोण से, बल्कि एक व्यवस्थित समाज के दृष्टिकोण से भी न्याय करना है।
आपराधिक कानून
किसी विवाद को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करना
05-Apr-2024
यूनाइटेड मशीनरी एंड एप्लायंसेज बनाम ग्रीव्स कॉटन लिमिटेड “जब कोई विवाद छल एवं कूटरचना जैसे गंभीर प्रकृति के हों तथा मजिस्ट्रेट द्वारा इसका संज्ञान लिया गया हो तो ऐसी स्थिति में इस प्रकृति के विवाद को मध्यस्थता के लिये नहीं भेजा जाएगा।” न्यायमूर्ति कृष्णा राव |
स्रोत: कलकत्ता उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में यूनाइटेड मशीनरी एंड एप्लायंसेज बनाम ग्रीव्स कॉटन लिमिटेड के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना है कि जब कोई विवाद छल एवं कूटरचना जैसे गंभीर प्रकृति के हों तथा उसका संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया हो तो ऐसे विवाद को मध्यस्थता के लिये नहीं माना जाएगा।
यूनाइटेड मशीनरी एंड एप्लायंसेज बनाम ग्रीव्स कॉटन लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, वादी डीज़ल जनरेटर सेट का निर्माता है तथा संबद्ध व्यवसाय भी चलाता है।
- प्रतिवादी डीज़ल इंजन और डीज़ल जनरेटर इंजन का निर्माता है।
- वादी एवं प्रतिवादी ने वर्ष 2000 में एक समझौता किया कि प्रतिवादी वादी को अलग से इंजन की आपूर्ति करेगा।
- इस बात पर सहमति हुई कि प्रतिवादी किसी अन्य इकाई को इंजन की आपूर्ति नहीं करेगा तथा वादी किसी अन्य निर्माता के साथ समझौता नहीं करेगा।
- इस समझ के अनुसार, वादी ने निवेश किया, हालाँकि, वर्ष 2012 में, वादी ने पाया कि प्रतिवादी असम में संभावित खरीददारों को सीधे इंजन की आपूर्ति कर रहा था।
- इससे व्यथित होकर वादी ने क्षतिपूर्ति का दावा करते हुए दीवानी मुकदमा दायर किया।
- इसके बाद, कलकत्ता उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रतिवादी ने मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 8 के अधीन एक आवेदन किया तथा पक्षकारों के मध्य विवाद को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने की मांग की।
- बाद में उच्चतम न्यायालय ने अपील खारिज कर दी थी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति कृष्णा राव की पीठ ने कहा कि जब छल एवं कूटरचना जैसे गंभीर आरोप हों तथा समझौते के उपबंध में मध्यस्थता खंड अस्तित्त्व में हों तो उस विवाद को मध्यस्थता के लिये नहीं माना जाएगा।
इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?
छल:
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 415 छल के अपराध से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जो कोई, किसी भी व्यक्ति को धोखा देकर, धोखे से या बेईमानी से उस व्यक्ति को किसी भी संपत्ति को किसी भी व्यक्ति को देने के लिये प्रेरित करता है, या सहमति देने के लिये कि कोई भी व्यक्ति किसी भी संपत्ति को बनाए रखेगा, या जानबूझकर ऐसे धोखेबाज़ व्यक्ति को ऐसा करने के लिये प्रेरित करता है या ऐसा करने से चूक जाता है। ऐसा कुछ भी जो वह नहीं करेगा या छोड़ देगा यदि उसे धोखा न दिया गया हो, तथा जिस कार्य या चूक से उस व्यक्ति के शरीर, मन, प्रतिष्ठा या संपत्ति को नुकसान या नुकसान होने की संभावना हो, उसे "छल" कहा जाता है।
- इस धारा के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि इस धारा के अर्थ में तथ्यों को बेईमानी से छिपाना छल है।
- IPC की धारा 417 छल के लिये सज़ा से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि जो कोई भी छल करेगा उसे एक साल तक की कैद या ज़ुर्माना या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
कूटरचना:
- IPC के अध्याय XVIII में निहित धारा 463 कूटरचना के अपराध को परिभाषित करती है।
- इस धारा में कहा गया है कि जो कोई जनता या किसी व्यक्ति को नुकसान या चोट पहुँचाने के आशय से, या किसी दावे या शीर्षक का समर्थन करने के लिये, या किसी भी तरह का नुकसान पहुँचाने के आशय से कोई गलत दस्तावेज़ या गलत इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड या किसी दस्तावेज़ या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का हिस्सा बनाता है। व्यक्ति संपत्ति से अलग होने के लिये, या किसी व्यक्त या निहित अनुबंध में प्रवेश करने के लिये, या छल करने के आशय से या धोखाधड़ी की जा सकती है, कूटरचना करता है।
- IPC की धारा 465 कूटरचना के लिये सज़ा से संबंधित है जिसके अनुसार जो भी कूटरचना करेगा उसे दो वर्ष तक की कैद या ज़ुर्माना या दोनों से दण्डित किया जाएगा।
A & C अधिनियम की धारा 8
यह अनुभाग उन पक्षों को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने की शक्ति से संबंधित है, जहाँ मध्यस्थता हेतु समझौते का प्रावधान है। यह प्रकट करता है कि-
(1) एक न्यायिक प्राधिकरण, जिसके समक्ष एक मामले में कार्यवाही की जाती है जो एक मध्यस्थता समझौते का विषय है, यदि मध्यस्थता समझौते का कोई पक्ष या उसके माध्यम से या उसके अधीन दावा करने वाला कोई व्यक्ति, तो अपना पहला आवेदन जमा करने की तारीख से पहले लागू नहीं होता है। विवाद के सार पर बयान, फिर, उच्चतम न्यायालय या किसी भी न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के बावजूद, पक्षकारों को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करता है, जब तक कि यह नहीं पता चलता कि प्रथम दृष्टया कोई वैध मध्यस्थता समझौता मौजूद नहीं है।
(2) उप-धारा (1) में निर्दिष्ट आवेदन पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक कि वह मूल मध्यस्थता समझौते या उसकी विधिवत प्रामाणित प्रति के साथ न हो:
बशर्ते कि जहाँ मूल मध्यस्थता समझौता या उसकी प्रामाणित प्रति, उप-धारा (1) के अधीन मध्यस्थता के संदर्भ के लिये आवेदन करने वाले पक्ष के पास उपलब्ध नहीं है, तथा उक्त समझौता या प्रामाणित प्रति उस समझौते के दूसरे पक्ष द्वारा रखी जाती है, तो, ऐसा आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थता समझौते की एक प्रति एवं एक याचिका के साथ ऐसा आवेदन दायर करेगा जिसमें न्यायालय से प्रार्थना की जाएगी कि वह दूसरे पक्ष को मूल मध्यस्थता समझौते या उसकी विधिवत प्रामाणित प्रति उस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के लिये कहे।
(3) इस बात के बावजूद कि उप-धारा (1) के तहत एक आवेदन किया गया तथा यह मुद्दा न्यायिक प्राधिकरण के समक्ष लंबित है, एक मध्यस्थता शुरू की जा सकती है या जारी रखी जा सकती है और एक मध्यस्थ पुरस्कार दिया जा सकता है।
सिविल कानून
परिसीमा अधिनियम की धारा 5
05-Apr-2024
भारत संघ एवं अन्य. बनाम अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से जहाँगीर बायरामजी जीजीभॉय (D) “सीमा का प्रश्न केवल एक तकनीकी विचार नहीं है। परिसीमा के नियम सुदृढ़ सार्वजनिक नीति के सिद्धांतों एवं साम्यता के सिद्धांतों पर आधारित हैं|” न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस एवं जेबी पारदीवाला |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस एवं जे.बी. पारदीवाला ने कहा कि “सीमा का प्रश्न केवल एक तकनीकी विचार नहीं है। परिसीमा के नियम सुदृढ़ सार्वजनिक नीति के सिद्धांतों एवं साम्यता के सिद्धांतों पर आधारित हैं। हमें अपीलकर्त्ताओं की सनक एवं पसंद के आधार पर अनिश्चित काल तक प्रतिवादी के सिर पर 'डेमोकल्स की तलवार' लटकाए नहीं रखना चाहिये।”
- उच्चतम न्यायालय ने यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य बनाम अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से वी. जहाँगीर बायरामजी जीजीभॉय (D) मामले में यह सुनवाई की।
यूनियन ऑफ इंडिया एवं अन्य बनाम अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से वी. जहाँगीर बायरामजी जीजीभॉय (D) की पृष्ठभूमि क्या है?
- यह अपील 9 जुलाई 2019 को बॉम्बे उच्च न्यायालय के एक विद्वान एकल न्यायाधीश द्वारा पारित एक आदेश से उत्पन्न हुई।
- उच्च न्यायालय ने 10 अक्टूबर 2006 को गैर-अभियोजन के कारण खारिज कर दी गई रिट याचिका संख्या 2307/1993 की बहाली के लिये आवेदन दायर करने में 12 साल और 158 दिनों की देरी को क्षमा करने से मना कर दिया।
- 09 मार्च, 1951 को पट्टे पर दी गई वाद संपत्ति, पट्टा उल्लंघनों के कारण वर्ष 1981 के सिविल सूट संख्या 2599 में चली गई।
- 29 अगस्त, 1992 को निर्णय एवं डिक्री के विरुद्ध अपील खारिज कर दी गई।
- इसके बाद विभिन्न विधिक कार्यवाहियाँ हुईं, जिनमें वर्ष 2006 में खारिज की गई याचिका को बहाल करने का असफल प्रयास भी सम्मिलित था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि “हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि उच्च न्यायालय से विवादित आदेश पारित करने में कोई चूक नहीं हुई है तथा विधि संबंधी कोई भूल नहीं हुई है। जबकि उच्चतम न्यायालय अपने पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर रहा था।
- SC के कई निर्णयों में कहा गया है कि विलंब को उदारता मानकर क्षमा नहीं किया जाना चाहिये। पर्याप्त न्याय प्रदान करना प्रतिपक्षी के मन में पूर्वाग्रह पैदा करना नहीं है।
- अपीलकर्त्ता यह सिद्ध करने में विफल रहे हैं कि वे मामले पर मुकदमा चलाने में उचित रूप से चिंतनशील थे तथा यह महत्त्वपूर्ण परीक्षण इस मामले में विलंब को क्षमा करने के लिये युक्तियुक्त कारक होने के रूप में असफल रहे हैं।
परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 क्या है?
- परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 विलंब क्षमा की अवधारणा से संबंधित है।
- विलंब क्षमा का अर्थ है कि कुछ मामलों में पर्याप्त कारण होने पर निर्धारित समय का विस्तार।
- विलंब को क्षमा करने की अवधारणा को मुख्य रूप से आवेदनों एवं अपीलों के लिये प्राथमिकता दी जाती है तथा यह मुकदमों को शामिल नहीं करती है।
- धारा 5 में कहा गया है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के अधीन आवेदन के अतिरिक्त कोई भी अपील या आवेदन, निर्धारित अवधि के बाद भी स्वीकार किया जा सकता है, यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक न्यायालय को इस प्रकार संतुष्ट करने में सफल हो जाए कि इतनी अवधि के अंदर अपील या आवेदन न करने के प्रस्तुत कारण युक्तियुक्त हैं।
- धारा 5 के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि यदि अपीलकर्त्ता या आवेदक निर्धारित अवधि का पता लगाने या गणना करने में HC के किसी भी आदेश, अभ्यास या निर्णय से चूक गया, तो इस धारा के अर्थ में पर्याप्त कारण हो सकते हैं।
- रहीम शाह एवं अन्य बनाम गोविंद सिंह एवं अन्य (2023) के मामले SC ने माना कि विधायिका ने वर्ष 1963 के परिसीमा अधिनियम की धारा 5 को अधिनियमित करके विलंब को क्षमा करने की शक्ति प्रदान की है, ताकि न्यायालय, गुण-दोष के आधार पर मामलों का निपटारा करके पक्षकारों को पर्याप्त न्याय प्रदान करने में सक्षम हो सकें। विधायिका द्वारा नियोजित पर्याप्त कारण की अभिव्यक्ति पर्याप्त रूप से लोचदार है, ताकि न्यायालयों को विधि को सार्थक तरीके से लागू करने में सक्षम बनाया जा सके, जो न्याय के उद्देश्यों को पूरा करता है- जो न्यायिक संस्था के अस्तित्त्व का जीवन-उद्देश्य है।