करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
सिविल कानून
अभ्यावेदन दाखिल करना
07-May-2024
मो. सादिक बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य तथा अन्य। "अभ्यावेदन दाखिल करने से सीमा अवधि तब तक नहीं बढ़ती है जब तक उस पर कार्रवाई नहीं की जाती है”। न्यायमूर्ति संजय धर |
स्रोत: जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख का उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के उच्च न्यायालय द्वारा मोहम्मद सादिक बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य एवं अन्य के मामले में। यह माना गया है कि केवल अभ्यावेदन दाखिल करने से परिसीमा की अवधि नहीं बढ़ती है जब तक कि उन अभ्यावेदन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई हो।
- न्यायालय के निर्देशों के अनुपालन में पारित आदेश न तो पुराने दावे को पुनर्जीवित करता है और न ही याचिकाकर्त्ता के लिये कार्रवाई हेतु नया कारण शुरू करता है।
मोहम्मद सादिक बनाम जम्मू एवं कश्मीर राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता, सरकारी राल और तारपीन फैक्ट्री फतेहपुर में एक पूर्व संतरी/फील्ड सहायक, का दावा है कि उसने पुलिस को आतंकवादियों के बारे में सूचित किया था, जिसके परिणामस्वरूप उसे जान से मारने की धमकियाँ मिलीं और बाद में उसे सुरक्षा के लिये जम्मू शहर में स्थानांतरित कर दिया गया।
- 10 वर्षों के बाद, लौटने पर उन्होंने पाया कि कारखाना बंद है और उन्होंने सेवानिवृत्ति लाभ की मांग की, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। उत्तरदाताओं ने देरी और वर्ष 2002 से ड्यूटी से लगातार अनुपस्थिति का हवाला देते हुए बर्खास्तगी का तर्क दिया, जो सेवा छोड़ने का संकेत है।
- इस प्रकार याचिकाकर्त्ता ने वर्ष 2015 में उत्तरदाताओं के समक्ष अपने सेवानिवृत्ति लाभों की मांग करते हुए अभ्यावेदन दिया। हालाँकि याचिकाकर्त्ता के अभ्यावेदन को खारिज कर दिया गया। इस प्रकार, याचिकाकर्त्ता द्वारा रिट याचिका दायर की गई।
- इस न्यायालय द्वारा SWP संख्या 2113/2017 में पारित याचिकाकर्त्ता के अभ्यावेदन की अस्वीकृति को चुनौती देने वाली रिट याचिका खारिज कर दी गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति संजय धर ने कहा कि याचिकाकर्त्ता ने वर्ष 2002 में अपनी पोस्टिंग छोड़ दी और उसने वर्ष 2017 में उत्तरदाताओं के समक्ष अपना पहला अभ्यावेदन दायर किया। इस प्रकार, लगभग 15 वर्षों तक, याचिकाकर्त्ता ने अपनी सेवा की स्थिति जानने अथवा अपने कर्त्तव्यों को फिर से शुरू करने का कोई प्रयास नहीं किया। इसके अतिरिक्त, याचिकाकर्त्ता ने अपने दावे को सिद्ध करने के लिये रिकॉर्ड पर कोई सामग्री नहीं रखी है कि जब वह वर्ष 2002 में रेज़िन फैक्ट्री में काम कर रहा था तो उसे जान से मारने की धमकियों का सामना करना पड़ा था, जिसने उसे मानसिक रूप से परेशान कर दिया था।
- न्यायालय ने यह भी माना कि केवल अभ्यावेदन दाखिल करने से परिसीमा की अवधि नहीं बढ़ती जब तक कि उन अभ्यावेदन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई हो। यहाँ तक कि जब न्यायालय के निर्देशों के अनुपालन में याचिकाकर्त्ता के दावे को खारिज करने के साथ ही उस पर विचार करने का आदेश पारित किया जाता है, तो ऐसा आदेश पुराने दावे को पुनर्जीवित नहीं करता है और न ही यह कार्रवाई का एक नया कारण होता है।
- न्यायालय ने सी. जैकब बनाम भूविज्ञान तथा खनन निदेशक और अन्य (2008) के मामले का भी उल्लेख किया:
- इस मामले में, यह माना गया कि यदि कोई अभ्यावेदन प्रथम दृष्टया पुराना है या इसमें ये दर्शाने वाले विवरण नहीं हैं कि यह एक जीवित दावे के संबंध में है, तो न्यायालयों को ऐसे दावों पर विचार करने का निर्देश देने से बचना चाहिये।
परिसीमन अधिनियम क्या है?
परिचय:
- परिसीमन अधिनियम' पीड़ित पक्ष को विभिन्न मुकदमों के लिये समय-सीमा प्रदान करता है जिसके अंर्तगत राहत के लिये न्यायालय से संपर्क कर सकती है।
- मुकदमा सक्षम न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है जहाँ परिसीमन अधिनियम द्वारा प्रदान की गई समय-सीमा समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति हो सकती है, जहाँ व्यक्ति अपनी शारीरिक अथवा मानसिक स्थिति के कारण मुकदमा या आवेदन दायर नहीं कर सकता है।
- ऐसे मामलों में, कानून समान नहीं हो सकता है और साथ ही विकलांग व्यक्तियों को अतिरिक्त अधिकार एवं लाभ प्रदान किये जा सकते हैं।
परिसीमा अवधि:
- परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2(j) परिसीमा की अवधि से संबंधित है।
- परिसीमा की अवधि का अर्थ है अनुसूची द्वारा किसी मुकदमे, अपील या आवेदन के लिये निर्धारित परिसीमा की अवधि, अथवा निर्धारित अवधि का अर्थ इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार गणना की गई परिसीमा की अवधि है।
जब परिसीमा की अवधि प्रारंभ होती है:
- जिस समय से परिसीमा की अवधि प्रारंभ होती है वह मामले की विषय-वस्तु पर निर्भर करता है और ऐसी अवधि का एक विशिष्ट प्रारंभिक बिंदु अधिनियम में अनुसूची द्वारा बड़े पैमाने पर प्रदान किया जाता है।
- यह आमतौर पर उस तारीख से शुरू होता है जब सम्मन या नोटिस दिया जाता है, अथवा वह तारीख जिस पर डिक्री या निर्णय पारित किया जाता है, या वह तारीख जिस पर मुकदमे का आधार बनने वाली घटना शामिल होती है।
सिविल कानून
गर्भवती महिला का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
07-May-2024
A (X की माँ) बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य "मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट में नाबालिग लड़की की शारीरिक और मानसिक स्थिति का मूल्यांकन होना चाहिये, भले ही गर्भकालीन आयु 24 सप्ताह से अधिक हो तथा भ्रूण में कोई महत्त्वपूर्ण असामान्यताएँ न हों”। मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने माना कि मेडिकल बोर्ड को गर्भधारण की समाप्ति पर अपनी राय बनाने में गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम,1971 (MTP Act) की धारा 3 (2-B) के तहत मानदण्डों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये। निर्णय के संदर्भ में गर्भवती व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का भी आकलन करना चाहिये।
A (X की माँ) बनाम महाराष्ट्र राज्य और एक अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- X, 14 वर्षीय लड़की (नाबालिग) है और आरोप है कि सितंबर 2023 में उसका यौन उत्पीड़न किया गया था।
- X ने मार्च 2024 में उस घटना के बारे में प्रकट किया जब वह 25 सप्ताह की गर्भवती थी।
- X को इस बात की जानकारी नहीं थी कि वह गर्भवती है। यह अनुमान लगाया गया है कि X को हमेशा अनियमित मासिक धर्म होता था और वह पहले अपनी गर्भावस्था का आकलन नहीं कर सकती थी।
- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 376 और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने संबंधी अधिनियम, 2012 की धारा 4, 8 तथा 12 के तहत दण्डनीय अपराधों के लिये कथित अपराधी के खिलाफ तुर्भे एमआईडीसी पुलिस स्टेशन में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी।
- X को मेडिकल जाँच के लिये अस्पताल ले जाया गया और फिर उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने के लिये जेजे ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स, मुंबई में स्थानांतरित कर दिया गया।
- मेडिकल बोर्ड का गठन गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971 के तहत किया गया था।
- मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, X उच्च न्यायालय की अनुमति के अधीन अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने के लिये शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ थी।
- अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय का रुख किया। मेडिकल बोर्ड ने X की दोबारा जाँच किये बिना ही स्पष्टीकरण निर्णय प्रदान कर दिया।
- रिपोर्ट में इस आधार पर गर्भावस्था को समाप्त करने से इनकार किया गया कि भ्रूण की गर्भकालीन आयु 27 से 28 सप्ताह थी और भ्रूण में कोई जन्मजात असामान्यताएँ नहीं थीं।
- उच्च न्यायालय ने उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया।
- अपीलकर्त्ता ने भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 136 के तहत उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर निर्णय दिया कि मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट, जिस पर उच्च न्यायालय ने विचार किया है, उसमें X के शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर गर्भावस्था के प्रभाव का ज़िक्र नहीं किया गया है।
- नए सिरे से मेडिकल बोर्ड गठित करने का निर्देश दिया गया
- न्यायालय ने कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में नाबालिग के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का आकलन शामिल नहीं है, इस तथ्य के बावजूद कि वह केवल 14 वर्ष की है। कथित यौन उत्पीड़न सहित गर्भावस्था के आस-पास की परिस्थितियों के मद्देनज़र यह विशेष रूप से चिंताजनक है।
- इसके बाद डीन (न्यू मेडिकल बोर्ड) द्वारा गठित छह डॉक्टरों की टीम ने नाबालिग की जाँच की।
- X की जाँच करने के बाद, मेडिकल बोर्ड ने राय दी कि भ्रूण की गर्भकालीन आयु 29.6 सप्ताह थी और गर्भावस्था जारी रहने से X के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया और X को अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दे दी।
- MTP अधिनियम की धारा 3(3) के तहत व्यक्ति के पूर्वानुमानित वातावरण का मूल्यांकन करने में गर्भवती व्यक्ति की राय को प्रधानता दी जानी चाहिये।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि चुनने का अधिकार और प्रजनन स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है।
इस मामले में कौन-से ऐतिहासिक निर्णय उद्धृत किये गए हैं?
- X बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) (2023):
- oमटीपी अधिनियम के तहत गर्भावस्था को समाप्त करने के मामलों में पंजीकृत चिकित्सा अधिकारी (RMP) की राय निर्णायक है।
- पंजीकृत चिकित्सा अधिकारी (RMP) की राय का उद्देश्य एमटीपी अधिनियम लिया गया है जो गर्भवती महिला के स्वास्थ्य की रक्षा करना और सुरक्षित, स्वच्छ तथा विधिक गर्भपात की सुविधा प्रदान करना है।
- गर्भपात का अधिकार गरिमा, स्वायत्तता और प्रजनन विकल्प का सहवर्ती अधिकार है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत इस अधिकार की गारंटी दी गई है।
- XYZ बनाम गुजरात राज्य (2023):
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि मेडिकल बोर्ड या उच्च न्यायालय केवल इसलिये गर्भपात से इनकार नहीं कर सकता क्योंकि गर्भवती महिला की गर्भकालीन आयु विधिक सीमा से अधिक है।
गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971 क्या है?
- भारत सरकार ने गर्भावस्था की समाप्ति के संबंध में कुछ कानून प्रस्तावित करने के लिये श्री शांतिलाल शाह के तहत ‘शाह समिति’ की स्थापना की।
- शाह समिति ने सिफारिश की कि गर्भपात को वैध बनाया जाना चाहिये।
- एमटीपी अधिनियम अगस्त 1971 में पारित किया गया और 1 अप्रैल 1972 को लागू हुआ।
- अधिनियम के तहत प्रदान की गई परिस्थितियों में एक पंजीकृत चिकित्सा अधिकारी द्वारा गर्भधारण की वैध समाप्ति प्रदान करने के लिये अधिनियम बनाया गया था।
- एमटीपी अधिनियम उस महिला को अधिकार प्रदान करता है जो गर्भपात की इच्छा रखती है और उसकी सहमति, कल्याण तथा स्वास्थ्य को आधार बनाया जाता है।
- एमटीपी अधिनियम की धारा 3 उन शर्तों को बताती है जिनके तहत गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है।
- एमटीपी अधिनियम की धारा 3 के अनुसार गर्भावस्था को केवल एक पंजीकृत चिकित्सा अधिकारी (RMP) द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
- यदि गर्भावस्था 12 सप्ताह की है तो एक RMP की राय के आधार पर इसे समाप्त किया जा सकता है और यदि अवधि 12 सप्ताह से 20 सप्ताह के बीच है, तो गर्भावस्था को समाप्त करने के लिये दो पंजीकृत चिकित्सा अधिकारियों की राय आवश्यक है।
- यदि गर्भावस्था 20 सप्ताह से अधिक हो जाती है, तो गर्भवती महिला को रिट याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करनी पड़ती है।
- न्यायालय एक मेडिकल बोर्ड के गठन के निर्देश दे सकता है और मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय गर्भपात की अनुमति या अनुमति नहीं दे सकता है।
- इसके अलावा, चूँकि एमटीपी अधिनियम केवल 24 सप्ताह से अधिक के गर्भपात की अनुमति देता है यदि भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताएँ पाई जाती हैं।
- अधिनियम की धारा 3(2-बी) में प्रावधान है कि महत्त्वपूर्ण असामान्यताओं वाले भ्रूण को समाप्त करने के लिये गर्भावस्था की अवधि पर कोई सीमा लागू नहीं होगी।
- एमटीपी अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है, कि गर्भकालीन आयु की परवाह किये बिना गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है, यदि चिकित्सक ने स्थिति के अनुसार यह राय बनाई है कि गर्भवती महिला के जीवन को बचाने के लिये गर्भपात तुरंत आवश्यक है।
- गर्भ का चिकित्सकीय समापन (संशोधन) अधिनियम, 2021 द्वारा महिलाओं की विशेष श्रेणियों के लिये गर्भधारण की ऊपरी सीमा को 20 से 24 सप्ताह तक बढ़ा दिया गया था, जिसमें बलात्कार से पीड़ित, अनाचार की शिकार और अन्य कमज़ोर महिलाएँ (अलग तरह से सक्षम महिलाएँ, नाबालिग, अन्य) शामिल थी।
- संशोधन अधिनियम, 2021 अविवाहित महिलाओं को भी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देता है।
सिविल कानून
लंबित वाद का सिद्धांत
07-May-2024
चंदर भान (D) शेर सिंह बनाम मुख्तियार सिंह और अन्य का मामला “संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 52 की गैर-प्रयोज्यता लंबित वाद का सिद्धांत की प्रयोज्यता पर रोक नहीं लगाएगी”। जस्टिस सुधांशु धूलिया और पी.बी. वराले |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में चंदर भान (D) थ्रू लार्ज शेर सिंह बनाम मुख्तियार सिंह और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 52 के प्रावधानों की गैर-प्रयोज्यता लंबित वाद के सिद्धांत की प्रयोज्यता पर रोक नहीं लगाएगी।
चंदर भान (D) शेर सिंह बनाम मुख्तियार सिंह और अन्य का मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में अपीलकर्त्ता और प्रतिवादी नंबर 3 ने कुल 8 लाख रुपए में बेचने के लिये एक समझौता किया, जहाँ समझौते के समय 2.50 लाख रुपए का भुगतान किया गया था तथा शेष का भुगतान बिक्री विलेख के निष्पादन के समय किया जाना था।
- अपीलकर्त्ता को यह जानकारी मिली कि प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा मुकदमे की संपत्ति को अलग करने की संभावना है, तो वह प्रतिवादी संख्या 3 के खिलाफ स्थायी निषेधाज्ञा के लिये मुकदमा दायर करता है।
- इसके बाद विक्रय विलेख निष्पादित करने के अंतिम दिन, प्रतिवादी नंबर 3 उपस्थित होने में विफल रहा, इसलिये अपीलकर्त्ता ने अतिरिक्त सिविल न्यायाधीश, वरिष्ठ डिवीज़न के समक्ष विशिष्ट निष्पादन के लिये मुकदमा आरंभ किया।
- फिर भी, ट्रायल न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के मुकदमे को लागत के साथ तय कर दिया और प्रतिवादी नंबर 3 को शेष विक्रय विचार स्वीकार करने तथा विक्रय के समझौते को निष्पादित करने का निर्देश दिया।
- इसके बाद, प्रथम अपीलीय न्यायालय ने अपीलकर्त्ता द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया।
- अपीलकर्त्ता ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष दूसरी अपील दायर की।
- हालाँकि अपीलकर्त्ता को ज़मानत राशि और ब्याज की वापसी के रूप में आंशिक राहत मिली, लेकिन उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय ने ट्रायल न्यायालय तथा अपीलीय न्यायालय के समवर्ती निष्कर्षों को पलट दिया एवं विशिष्ट प्रदर्शन के लिये अपीलकर्त्ता के मुकदमे को खारिज कर दिया।
- इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
- उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- जस्टिस सुधांशु धूलिया और पीबी वराले की पीठ ने निर्णय दिया कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 52 वर्तमान मामले में अपने सख्त अर्थों में लागू नहीं होती है, फिर भी लंबित वाद का सिद्धांत, जो न्याय, समानता और विवेक पर आधारित हैं, निश्चित रूप से लागू होंगे।
- न्यायालय ने शिवशंकर और अन्य बनाम एच.पी. वेदव्यास (2023) मामले में दिये गए निर्णय का भी हवाला दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया कि यह एक अच्छी तरह से स्थापित स्थिति है कि, उन स्थितियों में जहाँ संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम लागू नहीं होता है, प्रासंगिक अधिनियम के प्रावधान में उल्लिखित सिद्धांत- जो न्याय, समानता और विवेक पर आधारित है- अन्य स्थितियों के अलावा, न्यायालय के निर्णय के समान दी गई स्थिति में लागू होता है।
लंबित वाद का सिद्धांत क्या है?
परिचय:
- लंबित वाद एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है- "लंबित मुकदमा"।
- यह एक कानूनी कहावत "पेंडेंट लाइट निहिल इनोवेचर" (pendente lite nihil innoveture) पर आधारित है जिसका अर्थ है कि मुकदमे के लंबित रहने के दौरान कुछ भी नया पेश नहीं किया जाना चाहिये।
- लंबित वाद का सिद्धांत भारत में संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TOPA) की धारा 52 के तहत निहित है।
- यह धारा किसी मुकदमे या कार्यवाही के लंबित रहने पर संपत्ति के अंतरण के प्रभाव से संबंधित है।
- यह निष्पक्षता और लोक नीति पर आधारित है।
संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (TPA) की धारा 52 की विधिक संरचना क्या है?
- संपत्ति के अंतरण से संबंधित लंबित मुकदमा:
- भारत की सीमा के भीतर या केंद्र सरकार द्वारा ऐसी सीमाओं से परे स्थापित किसी भी न्यायालय में लंबित होने के दौरान, कोई भी मुकदमा या कार्यवाही जो दुस्संधिपूर्ण नहीं है और जिसमें स्थावर संपत्ति का कोई अधिकार प्रत्यक्षतः तथा विनिर्दिष्टतः प्रश्नगत हो, वह संपत्ति उस वाद या कार्यवाही के किसी भी पक्षकार द्वारा उस न्यायालय के प्राधिकार के अधीन एवं ऐसे निबंधनों के साथ, जैसे वह अधिरोपित करे अंतरित या व्ययनित की जाने के सिवाय ऐसे अंतरित या अन्यथा व्ययनित नहीं की जा सकती कि उसके किसी अन्य पक्षकार के किसी डिक्री या आदेश के अधीन, जो उसमें दिया जाए, अधिकारों पर प्रभाव पड़े।
- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी वाद या कार्यवाही का लंबन इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस तारीख से प्रारंभ हुआ समझा जाएगा जिस तारीख को सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में वह वादपत्र प्रस्तुत किया गया या वह कार्यवाही संस्थित की गई और तब तक चलता हुआ समझा जाएगा जब तक उस वाद या कार्यवाही का निपटारा अंतिम डिक्री या आदेश द्वारा न हो गया हो तथा ऐसी डिक्री या आदेश की पूरी तुष्टि या उन्मोचन अभिप्राप्त न कर लिया गया हो या तत्समय-प्रवृत्त-विधि द्वारा उसके निष्पादन के लिये विहित किसी अवधि के अवसान के कारण वह अनभिप्राप्य न हो गया हो।
लंबित वाद की अनिवार्यताएँ क्या हैं?
- मुकदमा या कार्यवाही लंबित होनी चाहिये।
- मुकदमा दुस्संधिपूर्ण नहीं होना चाहिये।
- स्थावर संपत्ति से संबंधित अधिकार का प्रतिवाद किया जाना चाहिये।
- स्थावर संपत्ति का अधिकार सीधे और विशेष रूप से प्रश्न में है।
लंबित वाद का उद्देश्य क्या है?
- लंबित वाद के सिद्धांत के पीछे अंतर्निहित सिद्धांत कानूनी कार्रवाई में शामिल पक्षों के अधिकारों की रक्षा करना है और किसी मुकदमे के लंबित रहने के दौरान पक्षों को विवाद की विषय वस्तु को इस तरह से अंतरण करने से रोकना है जिससे मुकदमे के अंतिम परिणाम में बाधा आ सकती है।
- सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि किसी मुकदमे के लंबित रहने के दौरान संपत्ति में रुचि प्राप्त करने वाले तीसरे पक्ष को उस मुकदमे के परिणाम से बाध्य होना चाहिये।
लंबित वाद के अपवाद:
- यह धारा किसी मुकदमे या कार्यवाही में निर्णय या डिक्री या आदेश के प्रवर्तन को प्रभावित नहीं करती है जिसमें ऐसे स्थानांतरण का विरोध नहीं किया जाता है।
- यह सिद्धांत उस मुकदमे पर लागू नहीं होता जहाँ संपत्ति पहचान योग्य नहीं है।
- यह सिद्धांत कपटपूर्ण मुकदमों को सम्मिलित नहीं करता है।
निर्णयज विधि:
- उच्चतम न्यायालय ने राजेंद्र सिंह और अन्य बनाम सांता सिंह और अन्य (1973) मामले में निर्णय दिया कि लिस पेंडेंस का शाब्दिक अर्थ है "लंबित मुकदमा" तथा लंबित वाद का सिद्धांत को उस क्षेत्राधिकार, शक्ति या नियंत्रण के रूप में परिभाषित किया गया है जो एक न्यायालय की कार्रवाई जारी रहने तक एवं उसमें अंतिम निर्णय आने तक मुकदमे में शामिल संपत्ति पर अधिग्रहण करती है।
- विनोद सेठ बनाम देविंदर बजाज और अन्य (2010) में मुकदमे की संपत्ति को 3,00,000 रुपए की सुरक्षा के प्रावधान पर उच्चतम न्यायालय द्वारा लंबित वाद का सिद्धांत से मुक्त कर दिया गया था।