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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

प्राइवेट प्रतिरक्षा

 08-May-2024

सी. गणेश नारायण बनाम कर्नाटक राज्य

"पेपर स्प्रे, जिसे एक खतरनाक हथियार के रूप में मान्यता प्राप्त है, का उपयोग उन स्थितियों में प्राइवेट प्रतिरक्षा के लिये नहीं किया जा सकता है, जहाँ जीवन के लिये कोई आसन्न खतरा या जोखिम नहीं है।"

न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?    

सी. गणेश नारायण बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय में कहा गया है कि पेपर स्प्रे का उपयोग, उन स्थितियों में प्राइवेट प्रतिरक्षा के लिये नहीं किया जा सकता है, जहाँ जीवन के लिये कोई तत्काल खतरा नहीं है। ऐसे में न्यायालय ने पेपर स्प्रे को खतरनाक हथियार माना।

सी. गणेश नारायण बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • शिकायतकर्त्ता राजदीप दास, कंपनी का एक कर्मचारी विनोद हयाग्रीव के साथ विवाद में उलझा हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप भवन के चारों ओर आवाजाही में बाधा उत्पन्न करने के कारण संपत्ति की स्थिति परिवर्तन को रोकने के लिये कंपनी के निदेशक सी. गणेश नारायण के विरुद्ध निषेधाज्ञा का वाद दायर किया गया था।
  • न्यायालय ने 28 मार्च, 2023 को संपत्ति की स्थिति परिवर्तन पर रोक लगाते हुए अंतरिम निषेधाज्ञा जारी की। 7 अप्रैल, 2023 को विनोद हयाग्रीव ने कंपनी के गेट पर दीवार बनाने का प्रयास किया, जिसके कारण विवाद उत्पन्न हुआ।
  • 29 अप्रैल, 2023 को विनोद हयाग्रीव के कर्मचारियों ने कथित तौर पर कंपनी की संपत्ति में हस्तक्षेप किया, जिससे शारीरिक एवं मौखिक विवाद हुआ, जिसमें याचिकाकर्त्ताओं द्वारा कथित तौर पर पेपर स्प्रे का प्रयोग किया गया था। परिणामस्वरूप याचिकाकर्त्ताओं को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की विभिन्न धाराओं के अधीन आरोपों के विचारण से गुज़रना पड़ा। उन्होंने संपत्ति में हस्तक्षेप के प्रत्युत्तर में पेपर स्प्रे के उपयोग का तर्क देते हुए IPC की धारा 100 के अधीन आत्मरक्षा का दावा किया।
  • हालाँकि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शिकायतकर्त्ता एवं सुरक्षा कर्मियों के विरुद्ध कथित तौर पर पेपर स्प्रे का उपयोग करने के लिये सी. गणेश नारायण एवं उनकी पत्नी के विरुद्ध आपराधिक मामले को खारिज करने से मना कर दिया। न्यायालय ने इस संदर्भ में पेपर स्प्रे के उपयोग को संभावित रूप से अविधिक माना और इसे आत्मरक्षा के रूप में खारिज कर दिया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने कहा कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के तौर पर पेपर स्प्रे के प्रयोग से प्रथम दृष्टया उसके जीवन को कोई आसन्न खतरा या जोखिम नहीं है। इसलिये मौजूदा मामले में कम-से- कम जाँच की आवश्यकता होगी।
  • न्यायालय ने कहा कि इस देश में पेपर स्प्रे जैसे खतरनाक हथियार के उपयोग के संबंध में विधि द्वारा कोई निर्धारण नहीं किया गया है।
  • इसके अतिरिक्त न्यायालय ने पीपुल्स बनाम सैंडल 84 N.Y.S. 3d 340 (N.Y. Sup.Ct.2018) में संयुक्त राज्य अमेरिका के मामले का उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया कि पेपर स्प्रे जैसे रासायनिक स्प्रे खतरनाक हथियार की तरह हैं।

 IPC में प्राइवेट प्रतिरक्षा के लिये क्या प्रावधान है?

परिचय:

  • IPC के अध्याय IV में धारा 76 से 106 सामान्य अपवादों से संबंधित है, जिन्हें IPC के अधीन  अपराध की श्रेणी से छूट दी गई है।
  • IPC की धारा 100 इस बात से संबंधित है कि शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार, मृत्यु कारित होने से पहले तक विस्तारित होती है।
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अधीन उन परिस्थितियों को धारा 38 के अधीन शामिल किया गया है, जिनमें शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु का कारण बनने तक विस्तृत है।
  • प्राइवेट प्रतिरक्षा:
  • प्राइवेट प्रतिरक्षा शब्द को IPC में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है।
  • सरल शब्दों में यह किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति की सुरक्षा के लिये बल के प्रयोग को संदर्भित करता है।
  • IPC की धारा 100 जीवन या संपत्ति को खतरे में डालने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध आत्मरक्षा का अधिकार देती है। ऐसे मामलों में व्यक्तियों को रक्षात्मक बल का उपयोग करने की अनुमति दी जाती है, जिसे अन्यथा अविधिक माना जा सकता है।

IPC की धारा 100:

  • IPC की धारा 100 व्यक्तियों को अपने शरीर की रक्षा करने का अधिकार देती है, जिसमें हमलावर को नुकसान पहुँचाना या मृत्यु शामिल हो सकती है, बशर्ते कि अपराध, कुछ श्रेणियों के अंतर्गत आता हो, जैसे कि हमले से मृत्यु की संभावना, गंभीर चोट, बलात्संग, अप्राकृतिक वासना, अपहरण, सदोष कैद करना, या तेज़ाब फेंकना।
  • यह धारा उस स्थिति से संबंधित है, जिसमें शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार मृत्यु कारित करने तक विस्तारित है।
  • इसमें कहा गया है कि शरीर की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार, धारा 99 में उल्लिखित प्रतिबंधों के अधीन, स्वैच्छिक रूप से हमलावर की मृत्यु या किसी अन्य हानि तक विस्तृत है, यदि अपराध जो अधिकार के प्रयोग को बाधित करता है, वह किसी का हो, इसके बाद दिये गए विवरणों में से, अर्थात्: -
    • ऐसा हमला, जिससे उचित रूप से यह आशंका उत्पन्न हो सकती है कि अन्यथा, ऐसे हमले का परिणाम मृत्यु होगी।
    • ऐसा हमला जिससे उचित रूप से यह आशंका उत्पन्न हो सकती है कि अन्यथा, ऐसे हमले का परिणाम गंभीर चोट होगी।
    • बलात्संग के आशय से किया गया हमला।
    • अप्राकृतिक वासना की पूर्ति के आशय से किया गया हमला।
    • अपहरण या व्यपहरण के आशय से किया गया हमला।
    • किसी व्यक्ति को उन परिस्थितियों में सदोष कैद करने के आशय से किया गया हमला, जिससे उसे उचित रूप से यह आशंका हो कि वह अपनी स्वतंत्रता के लिये सार्वजनिक अधिकारियों का सहारा लेने में असमर्थ होगा।
    • तेज़ाब फेंकने या पिलाने का कार्य अथवा एसिड फेंकने या पिलाने का प्रयास, जिससे उचित रूप से यह आशंका पैदा हो सकती है कि अन्यथा, ऐसे कृत्य का परिणाम गंभीर चोट होगी।

 IPC की धारा 100 के लिये आवश्यक शर्तें:

  • IPC की धारा 100 के लिये निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी चाहिये:-
    • इससे तत्काल प्राण का खतरा या शरीर को गंभीर चोट लगनी चाहिये।
    • भागने का कोई उचित साधन उपलब्ध नहीं होना चाहिये।
    • अधिकारियों से सहायता लेने के लिये पर्याप्त समय नहीं होना चाहिये।
    • हमलावर की मृत्यु अपरिहार्य रही हो।

आपराधिक कानून

संस्वीकृति का अधिकार

 08-May-2024

चेक्कुट्टी बनाम केरल राज्य

"संस्वीकृति के अधिकार का प्रयोग कम सज़ा पाने के लिये एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाएगा।"

न्यायमूर्ति पी. सोमराजन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चेक्कुट्टी बनाम केरल राज्य के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना है कि संस्वीकृति के अधिकार का प्रयोग कम सज़ा पाने के लिये एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाएगा।

चेक्कुट्टी बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • मौजूदा मामले में आरोपी लंबे समय तक फरार रहा तथा विचारण न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं हुआ, हालाँकि कथित अपराध बहुत गंभीर प्रकृति का है, जो भारतीय दण्ड संहिता, 1860 ( IPC) के प्रावधानों के दायरे में आएगा।
  • जैसा कि मेडिकल रिपोर्ट से स्पष्ट है, पीड़ित को कथित तौर पर जो चोटें आई हैं, उससे पता चलता है कि किस तरह से चोटें पहुँचाई गईं, जो पीड़ित के सिर के महत्त्वपूर्ण हिस्से पर हैं।
  • मजिस्ट्रेट ने ज़ुर्माने की कम सज़ा, केवल इसलिये दी क्योंकि आरोपी ने विचारण न्यायालय के समक्ष संस्वीकृति कर लिया था।
  • इसके बाद शिकायतकर्त्ता ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • याचिका को स्वीकार करते हुए उच्च न्यायालय ने सज़ा के आदेश को रद्द कर दिया तथा मामले को नए सिरे से विचार करने एवं उचित सज़ा का आदेश देने के लिये विचारण न्यायालय में वापस भेज दिया गया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायमूर्ति पी. सोमराजन ने कहा कि संस्वीकृति के अधिकार का प्रयोग कम सज़ा पाने के उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। अभियुक्त द्वारा संस्वीकृति के मामले में न्यायालय  को उदार दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये तथा सज़ा देने के मामले में केवल इस आधार पर कोई रियायत नहीं दी जा सकती कि अभियुक्त ने संस्वीकृति कर लिया है। दूसरी ओर, वाक्य में उचित संतुलन प्रतिबिंबित होना चाहिये।

संस्वीकृति का अधिकार क्या है?

परिचय:

  • संस्वीकृति का अधिकार, एक ऐसा अधिकार है, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अधीन प्रदान किया गया है, जिसमें अभियुक्त को अवसर तय होने के बाद दोषी या दोषी न होने को स्वीकार करने का अवसर दिया गया है।
  • एक बार जब आरोपी स्वयं को दोषी नहीं मानता है, तो न्यायाधीश मामले की सुनवाई के लिये न्यायिक प्रक्रिया प्रारंभ करता है।
  • यदि अभियुक्त संस्वीकृति करता है, तो न्यायाधीश उसके तर्क को दर्ज करेगा तथा अपने विवेक से उसे दोषसिद्धि दे सकता है।

प्रासंगिक विधिक  प्रावधान:

विचारण

धारा

उद्देश्य

सत्र न्यायालय के समक्ष मुकदमा

CrPC की धारा 229

यदि अभियुक्त संस्वीकृति करता है, तो न्यायाधीश याचिका को रिकॉर्ड करेगा तथा अपने विवेक से उसे दोषसिद्धि दे सकता है

वारंट मामलों का विचारण

CrPC की धारा 241

यदि अभियुक्त संस्वीकृति करता है, तो मजिस्ट्रेट याचिका दर्ज करेगा तथा अपने विवेक से उसे दोषसिद्धि दे सकता है।

CrPC की धारा 242

यदि अभियुक्त तर्क देने से मना करता है या तर्क नहीं देता है या विचारण चलाए जाने का दावा नहीं करता है या मजिस्ट्रेट धारा 241 के अधीन अभियुक्त को दोषसिद्धि नहीं देता है, तो मजिस्ट्रेट अभियोजन के लिये साक्ष्य का विकल्प चुनेगा।

समन मामलों का विचारण

CrPC की धारा 252

यदि अभियुक्त संस्वीकृति करता है, तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त द्वारा प्रयुक्त शब्दों में यथासंभव उसके तर्क दर्ज करेगा तथा अपने विवेक से उसे दोषसिद्धि दे सकता है।

CrPC की धारा 254

यह उस प्रक्रिया से संबंधित है, जब अभियुक्त संस्वीकृति नहीं  


सिविल कानून

अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनियमितता

 08-May-2024

मो. असगर अली बनाम गृह सचिव के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य

"केवल आशंकित पूर्वाग्रह के आधार पर विभागीय जाँच को रद्द करना स्वीकार्य नहीं होगा।"

न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता, केवल अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनियमितता के आरोप लगाकर और यह दिखाकर कि इससे उसके प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ है, अपने उत्तरदायित्व से नहीं बच सकता।

मो. असगर अली बनाम गृह सचिव के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?

  • याचिकाकर्त्ता को 12 अप्रैल, 1987 को CISF में कांस्टेबल के पद पर नियुक्त किया गया था।
  • 1996 में वह चुनाव ड्यूटी पर था तथा आरोप था कि याचिकाकर्त्ता को क्वार्टर गार्ड में रात 9 बजे से सुबह 5 बजे तक ड्यूटी पर तैनात किया गया था। हवलदार मेजर ने लगभग 2.00 बजे क्वार्टर गार्ड की जाँच की और याचिकाकर्त्ता वहाँ उपस्थित नहीं था तथा अपने कमरा नंबर 22 में राइफल बगल में रखकर सोता हुआ पाया गया।
  • उसे निलंबित कर दिया गया तथा आरोप-पत्र दे दिया गया।
  • मामले में आई.पी. सिंह, निरीक्षक को जाँच अधिकारी नियुक्त किया गया।
  • हालाँकि याचिकाकर्त्ता ने उच्च प्राधिकारी से जाँच अधिकारी को बदलने का अनुरोध किया। याचिकाकर्त्ता ने जाँच अधिकारी पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने का आरोप लगाया है।
  • जाँच अधिकारी बदलने का उसका अनुरोध अस्वीकृत कर दिया गया तथा याचिकाकर्त्ता ने जाँच की कार्यवाही में भाग लिया।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता का बयान दर्ज किया गया और जाँच रिपोर्ट की एक प्रति उसे दी गई तथा अपना पक्ष रखने का मौका दिया जा रहा है।
  • स्पष्टीकरण उसके पक्ष में नहीं रहा तथा उसे 1996 में सेवामुक्त कर दण्डित किया गया।
  • उसने उक्त आदेश के विरुद्ध अपील दायर की, जिसे 1997 में अपीलीय प्राधिकारी ने खारिज कर दिया। उक्त अपीलीय आदेश के विरुद्ध याचिकाकर्त्ता ने एक पुनरीक्षण याचिका को प्राथमिकता दी, जिसे 1998 में भी खारिज कर दिया गया।
  • वर्तमान अपील उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी तथा याचिकाकर्त्ता ने इन तीनों आदेशों को चुनौती दी थी।
  • याचिकाकर्त्ता के दो मुख्य तर्क ये थे कि:
    • याचिकाकर्त्ता ने पक्षपातपूर्ण होने के आधार पर जाँच अधिकारी को बदलने के लिये उच्च अधिकारियों को अभ्यावेदन भेजा था, लेकिन इसकी अनुमति नहीं दी गई।
    • याचिकाकर्त्ता को बचाव का पर्याप्त अवसर प्रदान नहीं किया गया, क्योंकि उसको दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं कराए गए थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता ने कार्यवाही में भाग लिया और साथ ही सात विभागीय साक्षियों से प्रतिपरीक्षा की तथा विभागीय कार्यवाही के दौरान कई दस्तावेज़ों पर विश्वास जताया। उक्त कार्यवाही के दौरान याचिकाकर्त्ता द्वारा पक्षपात की कोई रिपोर्ट नहीं की गई थी।
  • वास्तव में पूर्वाग्रह केवल आशंका या यहाँ तक कि उचित संदेह पर आधारित नहीं होना चाहिये। न्यायालय ने जाँच कार्यवाही में जाँच अधिकारी की नियुक्ति में किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात का कोई आधार नहीं पाया।
  • दूसरे तर्क के संबंध में न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता ने पूछताछ के दौरान स्वीकार किया है कि उसे सभी दस्तावेज़ प्राप्त हुए थे तथा उसे सभी अभिलेखों के निरीक्षण की भी अनुमति दी गई थी।
  • बिना किसी विशिष्ट गणना के दस्तावेज़ों की आपूर्ति न करने से संबंधित याचिकाकर्त्ता का तर्क योग्यता रहित है और इस प्रकार याचिकाकर्त्ता का वर्तमान आधार विफल हो जाता है।
  • इसका कोई आधार नहीं है और न ही इसका ज़रा भी उल्लेख है कि इससे याचिकाकर्त्ता पर कैसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • बी.सी. चतुवेर्दी बनाम भारत संघ एवं अन्य (1995):
    • जब किसी लोक सेवक द्वारा कदाचार के आरोप की जाँच की जाती है, तो न्यायालय/न्यायाधिकरण, यह निर्धारित करने के लिये चिंतित होता है कि क्या जाँच एक सक्षम अधिकारी द्वारा की गई थी या क्या प्राकृतिक न्याय के नियमों का पालन किया गया है।
    • न्यायालय/न्यायाधिकरण वहाँ हस्तक्षेप कर सकता है, जहाँ प्राधिकारी ने माना है कि अपराधी अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही, प्राकृतिक न्याय के नियमों के साथ असंगत है या जाँच के तरीके को निर्धारित करने वाले सांविधिक नियमों का उल्लंघन है या जहाँ निष्कर्ष या जहाँ अनुशासनात्मक प्राधिकारी बिना किसी साक्ष्य के निष्कर्ष पर पहुँचा है।
  • प्रबंध निदेशक, ECIL, हैदराबाद बनाम बी. करुणाकर (1993):
    • उचित अवसर का सिद्धांत और प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत विधि के शासन को बनाए रखने तथा व्यक्ति को उसके उचित अधिकारों की पुष्टि करने में सहायता करने के लिये विकसित हुए हैं।
    • वे न तो आह्वान करने के लिये मंत्र हैं और न ही सभी विविध अवसरों पर किये जाने वाले अनुष्ठान हैं।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान निहित हैं?

केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा नियम, 1969 का नियम 7-A:

यह धारा डिप्टी कमांडेंट के कर्त्तव्यों से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

(1)  डिप्टी कमांडेंट, कमांडेंट को उसके कर्त्तव्यों के निर्वहन में सहायता करेगा और जहाँ उसे यूनिट के प्रमुख के रूप में रखा गया है, वह एक कमांडेंट के सभी कर्त्तव्यों का निर्वहन करेगा तथा केवल उन वित्तीय शक्तियों का प्रयोग करेगा, जो प्रासंगिक नियमों के अधीन उसे सौंपी गई हैं।

(2) डिप्टी कमांडेंट अपने अधीनस्थ कर्मियों की दक्षता, अनुशासन और मनोबल के लिये उत्तरदायी होगा तथा उसे सौंपे गए उपक्रम या उसके हिस्से की सुरक्षा के लिये भी उत्तरदायी होगा।

केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 1968 की धारा 9(3):

  • यह धारा अपील एवं पुनरीक्षण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार इस धारा की धारा 8, उपधारा 8 (2), उपधारा (2A) या उपधारा (2B) के अधीन किसी भी कार्यवाही के रिकॉर्ड की मांग कर सकती है तथा उसकी जाँच कर सकती है, जाँच करेगी या ऐसी जाँच कराएगी और इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसा आदेश पारित कर सकती है, जैसा वह उचित समझे।
  • बशर्ते कि उप-धारा (2) या उप-धारा (3) के अधीन बढ़ा हुआ ज़ुर्माना लगाने का कोई आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि ऐसे आदेश से प्रभावित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया गया हो।