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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

BNSS की धारा 210

 25-Jun-2024

रोशन लाल उर्फ ​​रोशन राजभर एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

“न्यायालय ने संज्ञान एवं समन आदेश को रद्द करते हुए निर्णय दिया कि न्यायिक आदेशों के लिये पूर्व-मुद्रित प्रपत्रों का उपयोग अस्वीकार्य है तथा इसमें उचित न्यायिक विचार का अभाव है”।

न्यायमूर्ति सैयद कमर हसन रिज़वी

स्रोत: इलाहाबाद  उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रोशन लाल उर्फ रोशन राजभर ​​बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा आजमगढ़ में एक मजिस्ट्रेट द्वारा जारी समन आदेश को रद्द करने के निर्णय के कारण ध्यान आकर्षित किया।

  • उच्च न्यायालय ने पाया कि मजिस्ट्रेट ने पूर्व-मुद्रित प्रोफार्मा का यंत्रवत् प्रयोग किया था तथा आदेश जारी करते समय न्यायिक विवेक का प्रयोग नहीं किया था।

रोशन लाल उर्फ ​​रोशन राजभर एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • रोशन लाल के विरुद्ध आजमगढ़ में अतिरिक्त सिविल जज (न्यायिक प्रभाग)/न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आपराधिक मामला चलाया गया था।
  • जुलाई 2022 में मजिस्ट्रेट ने इस मामले में संज्ञान एवं समन आदेश जारी किया।
  • रोशन लाल ने जुलाई 2022 से संज्ञान एवं समन आदेश और आपराधिक मामले में चल रही कार्यवाही को चुनौती देते हुए याचिका दायर की।
  • उन्होंने दावा किया कि उन्हें आपराधिक मामले में मिथ्या रूप से फँसाया गया है तथा उन्होंने आरोप लगाया कि विपक्षी पक्ष ने उन्हें परेशान करने और अनुचित दबाव डालने के लिये मामला दर्ज किया है।
  • रोशन लाल ने तर्क दिया कि उनके मध्य विवाद पूरी तरह से सिविल प्रकृति का था, न कि आपराधिक।
  • न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा जारी चुनौती वाले आदेश की समीक्षा की।
  • यह देखा गया कि मजिस्ट्रेट ने आदेश के लिये एक मुद्रित प्रोफार्मा का उपयोग किया था और मजिस्ट्रेट ने इस प्रोफार्मा पर न्यायालय की मुहर के ऊपर अपना संक्षिप्त हस्ताक्षर किया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 434 (शरारत) एवं 506 (आपराधिक धमकी) के अधीन मामले में आजमगढ़ में मजिस्ट्रेट न्यायालय द्वारा जारी संज्ञान एवं समन आदेश को खारिज कर दिया।
  • न्यायालय ने कहा कि किसी भी न्यायिक आदेश को पारित करते समय, जिसमें आरोप-पत्र का संज्ञान लेने का आदेश भी शामिल है, संबंधित न्यायालय न्यायिक विवेक प्रयोग करने के लिये बाध्य है। संज्ञान लेने का आदेश यंत्रों की सहायता लेकर पारित नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने 25 जुलाई 2022 के विवादित समन/संज्ञान आदेश को विधिक रूप से अस्थिर पाया। एक मुद्रित प्रोफार्मा पर रिक्त स्थान भरकर यंत्रों का व्यापक प्रयोग करके तैयार किया गया यह आदेश न्यायिक विवेक के स्पष्ट अनुपस्थिति को दर्शाता है, जिससे न्याय विफल हुआ।
  • न्यायालय ने पाया कि संबंधित मजिस्ट्रेट ने केवल वाद संख्या, अभियुक्त का नाम, भारतीय दण्ड संहिता की संबंधित धाराएँ, पुलिस स्टेशन का नाम, आदेश जारी करने की तिथि तथा अगली निर्धारित तिथि जैसे विशिष्ट विवरण भरे हैं। न्यायिक विवेक के उचित उपयोग के लिये यह कार्यवाही अपर्याप्त मानी गई।
  • न्यायालय ने पाया कि आरोपित संज्ञान एवं समन आदेश में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 434 एवं 506 के अधीन अपराधों का संज्ञान लेने से पहले आरोपी-आवेदक के विरुद्ध आगे बढ़ने के लिये रिकॉर्ड पर सामग्री की पर्याप्तता के विषय में संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा कोई विचार नहीं दर्शाया गया है।
  • न्यायालय ने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने एवं न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये, CrPC की धारा 482 के अधीन अपनी शक्ति के प्रयोग में वर्तमान आवेदन पर विचार करना आवश्यक पाया।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 210 क्या है?

  • BNSS की धारा 210 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 190 के अधीन दिये गए अपराध का संज्ञान लेने की मजिस्ट्रेट की शक्ति से संबंधित है।
  • यह धारा मजिस्ट्रेट द्वारा अपराधों के संज्ञान से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि
    • इस अध्याय के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट और उपधारा (2) के अधीन इस निमित्त विशेष रूप से सशक्त कोई द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट किसी अपराध का संज्ञान ले सकेगा-
      • ऐसे तथ्यों की शिकायत प्राप्त होने पर जो ऐसे अपराध का गठन करते हैं
      • ऐसे तथ्यों की पुलिस रिपोर्ट पर
      • किसी पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर, या
      • अपने स्वयं के ज्ञान पर, कि ऐसा अपराध किया गया है।
  • मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) के अधीन ऐसे अपराधों का संज्ञान लेने के लिये सशक्त कर सकता है, जिनकी जाँच या विचारण करना उनके क्षेत्राधिकार के अंदर है।
  • यदि किसी मजिस्ट्रेट ने धारा 190(1) (a) या (b) के अधीन किसी अपराध का संज्ञान लिया है तथा यदि मजिस्ट्रेट को अधिकार क्षेत्र की कमी के आधार पर संज्ञान लेने के लिये विधि द्वारा सशक्त नहीं किया गया था, तो संज्ञान लेने के लिये उसके द्वारा की गई कार्यवाही तब तक रद्द नहीं की जाएगी जब तक यह ज्ञात हो कि संज्ञान सद्भावपूर्वक लिया गया था।
  • इस धारा के अधीन संज्ञान लेने के लिये अभियुक्त की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
  • मजिस्ट्रेट BNSS की धारा 210 द्वारा दी गई शक्ति के अधीन संज्ञेय अपराधों की जाँच का आदेश भी दे सकता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अबनी कुमार बनर्जी (1950)- इस मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने संज्ञान लेने वाले शब्दों के दायरे पर चर्चा की और कहा कि यह शब्द CrPC में कहीं भी परिभाषित नहीं है, लेकिन मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, यह कहा जा सकता है कि एक मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया है जब वह किसी मामले में अपने न्यायिक विवेक का उपयोग करता है।

सांविधानिक विधि

पेपर लीक से संबंधित विधि

 25-Jun-2024

सार्वजनिक परीक्षा अधिनियम, 2024

12 फरवरी 2024 को अधिनियमित सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 का उद्देश्य भारत में सार्वजनिक परीक्षाओं की शुचिता को बनाए रखना है”।

विधि एवं न्याय मंत्रालय

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीट परीक्षा में अनियमितता एवं नेट परीक्षा में पेपर लीक के आरोपों के कारण सार्वजनिक परीक्षाओं से संबंधित विधियों पर चर्चा प्रारंभ हो गई है।

सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 क्या है?

परिचय:

  • 12 फरवरी 2024 को अधिनियमित सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 का उद्देश्य भारत में सार्वजनिक परीक्षाओं की शुचिता को बनाए रखना है।
  • यह अधिनियम विभिन्न सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा आयोजित परीक्षाओं में बढ़ते कदाचार को संबोधित करता है।

अपराध:

  • अनुचित साधन (धारा 3):
    • प्रश्न-पत्रों या उत्तर कुंजियों का लीक होना: इसमें परीक्षा के आधिकारिक प्रारंभ से पूर्व परीक्षा के प्रश्नों या उत्तर कुंजियों का अनधिकृत रूप से लीक होना सम्मिलित है। इस तरह के लीक से परीक्षा प्रक्रिया की शुचिता को गंभीर रूप से खतरा हो सकता है।
    • पेपर लीक के लिये संलिप्तता: प्रश्नपत्रों या उत्तर कुंजियों के लीक होने में सहायता करने के लिये किसी भी प्रकार के षड़यंत्र में भाग लेना या सहयोग करना। यह अपराध परीक्षाओं में अनियमितता की संगठित प्रकृति को दर्शाता है।
    • परीक्षा सामग्री तक अनधिकृत पहुँच: उचित प्राधिकार के बिना प्रश्न-पत्रों या ऑप्टिकल मार्क रिकॉग्निशन (OMR) पत्रों तक पहुँच या उन्हें अपने कब्ज़े में लेना। इसमें अवैध तरीकों से परीक्षा सामग्री प्राप्त करने का कोई भी प्रयास शामिल है।
    • अनधिकृत समाधान प्रदान करना: परीक्षा के दौरान किसी अनधिकृत व्यक्ति द्वारा परीक्षा के प्रश्नों के समाधान प्रस्तुत करना। इसमें बाहरी व्यक्तियों द्वारा अभ्यर्थियों को उत्तर बताना शामिल हो सकता है।
    • अभ्यर्थियों को अनधिकृत सहायता: परीक्षा के दौरान किसी भी अनधिकृत तरीके से अभ्यथियों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करना। इस व्यापक श्रेणी में धोखाधड़ी में सहायता के विभिन्न रूप शामिल हैं।
    • उत्तर पुस्तिकाओं से छेड़छाड़: परीक्षा समाप्त होने के उपरांत ओएमआर(OMR) उत्तर पत्रक में परिवर्तन करना या छेड़छाड़ करना।
    • अनधिकृत मूल्यांकन परिवर्तन: उचित प्राधिकरण के बिना, वास्तविक त्रुटियों को सुधारने के अतिरिक्त, परीक्षा पत्रों के मूल्यांकन में परिवर्तन करना।
    • परीक्षा मानदंडों का उल्लंघन: सार्वजनिक परीक्षाओं के संचालन के लिये केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों या मानकों का जानबूझकर उल्लंघन करना।
    • दस्तावेज़ों में छेड़छाड़: अभ्यर्थियों की छंटनी या मेरिट सूची और रैंकिंग को अंतिम रूप देने के लिये उपयोग किये गए किसी भी दस्तावेज़ में छेड़छाड़ करना।
    • सुरक्षा उल्लंघन: परीक्षाओं में अनुचित साधनों के प्रयोग को रोकने के लिये लागू सुरक्षा उपायों का जानबूझकर उल्लंघन करना।
    • कंप्यूटर सिस्टम से छेड़छाड़: ​​परीक्षा प्रक्रिया में प्रयुक्त कंप्यूटर नेटवर्क, संसाधनों या प्रणालियों में हस्तक्षेप करना या उनमें हेर-फेर करना।
    • परीक्षा व्यवस्था में हेराफेरी: नकल करने के उद्देश्य से अभ्यर्थियों की बैठने की व्यवस्था, तिथियों या पालियों के आवंटन में परिवर्तन करना।
    • धमकी और बाधा: परीक्षा प्राधिकरण, सेवा प्रदाताओं या परीक्षा संचालन में शामिल सरकारी एजेंसियों से जुड़े व्यक्तियों को धमकाना या बाधा डालना।
    • साइबर अपराध: अभ्यर्थियों को धोखा देने या आर्थिक लाभ के लिये छ्द्म वेबसाइट बनाना और छद्म परीक्षाएँ आयोजित करना।
  • अनुचित साधनों के लिये षडयंत्र (धारा 4):
    • यह धारा किसी भी व्यक्ति, व्यक्तियों के समूह या संस्थाओं को परीक्षाओं में अनुचित साधनों के उपयोग को सुविधाजनक बनाने के लिये संलिप्तता या षड़यंत्र रचने से रोकती है। यह मानती है कि परीक्षा धोखाधड़ी में प्रायः कई पक्षों द्वारा समन्वित प्रयास शामिल होते हैं।
  • सार्वजनिक परीक्षा के संचालन में व्यवधान (धारा 5):
    • नाधिकृत प्रवेश: परीक्षा में बाधा डालने के आशय से आए अनाधिकृत व्यक्तियों को परीक्षा परिसर में प्रवेश करने से रोकता है।
    • प्रश्न-पत्रों तक समय से पूर्व पहुँच: अधिकृत कार्मियों को आधिकारिक समय से पहले प्रश्न-पत्रों को खोलने, लीक करने, रखने, उन तक पहुँचने या हल करने से प्रतिबंधित किया जाता है।
    • गोपनीय जानकारी का अनधिकृत प्रकटीकरण: यह मौद्रिक या अनुचित लाभ के लिये परीक्षा से संबंधित गोपनीय जानकारी को साझा करने से रोकता है।
    • गोपनीयता का उल्लंघन: अधिकृत कार्मियों को उनके आधिकारिक कर्त्तव्यों के माध्यम से प्राप्त जानकारी को प्रकट करने से रोकता है, सिवाय इसके जब ऐसा करना उनके कर्त्तव्य के लिये आवश्यक हो।
  • अन्य अपराध (धारा 6):
    • इस धारा में यह अनिवार्य किया गया है कि सेवा प्रदाताओं को धारा 3, 4 और 5 के अधीन किसी भी अपराध की सूचना पुलिस को देनी होगी तथा सार्वजनिक परीक्षा प्राधिकरण को सूचित करना होगा। यदि सेवा प्रदाता स्वयं अनुचित साधनों में शामिल है, तो परीक्षा प्राधिकरण को इसकी सूचना पुलिस को देनी होगी।
  • सार्वजनिक परीक्षा के लिये परीक्षा केंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य परिसर के उपयोग पर प्रतिबंध (धारा 7):
    • यह धारा के अधीन सेवा प्रदाताओं या संबद्ध व्यक्तियों द्वारा सार्वजनिक परीक्षा प्राधिकरण की लिखित अनुमति के बिना, परीक्षा आयोजित करने के लिये अधिकृत परीक्षा केंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य परिसर का उपयोग करना अपराध है।
    • अप्रत्याशित घटना के कारण होने वाले परिवर्तनों के लिये अपवाद बनाया गया है।
  • सेवा प्रदाताओं और अन्य व्यक्तियों के संबंध में अपराध (धारा 8):
    • अनधिकृत सहायता: किसी भी व्यक्ति, जिसमें सेवा प्रदाताओं से जुड़े लोग भी शामिल हैं, के लिये सार्वजनिक परीक्षाओं के संचालन में किसी भी अनधिकृत व्यक्ति की सहायता करना अपराध माना जाएगा।
    • सूचित करने में विफलता: यदि सेवा प्रदाता या संबद्ध व्यक्ति अनुचित साधनों या अन्य अपराधों की घटनाओं की सूचना देने में विफल रहते हैं तो यह अपराध है।
    • काॅर्पोरेट उत्तरदायित्व: यदि किसी सेवा प्रदाता द्वारा कोई अपराध किसी निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति या संलिप्तता द्वारा किया जाता है, तो ऐसे व्यक्तियों को भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 के अधीन दण्ड का प्रावधान क्या है?

  • अपराध की प्रकृति (धारा 9):
    • सभी अपराध संज्ञेय, गैर-ज़मानती एवं अशमनीय हैं।
  • सामान्य अपराध (धारा 10(1)):
    • कारावास: 3-5 वर्ष
    • अर्थदण्ड: 10 लाख रुपए तक
  • सेवा प्रदाता अपराध (धारा 10(2)):
    • अर्थदण्ड: 1 करोड़ रुपए तक
    • 4 वर्ष तक परीक्षा आयोजित करने पर रोक
    • अनुपातिक परीक्षा लागत की वसूली
  • वरिष्ठ प्रबंधन द्वारा किया गया अपराध (धारा 10(3)):
    • कारावास: 3-10 वर्ष
    • अर्थदण्ड: ₹1 करोड़
  • संगठित अपराध (धारा 11(1)):
    • कारावास: 5-10 वर्ष
    • अर्थदण्ड: 1 करोड़ से कम नहीं
  • संगठित अपराध में संस्थागत संलिप्तता (धारा 11(2)):
    • संपत्ति की कुर्की एवं ज़ब्ती
    • अनुपातिक जाँच लागत की वसूली

सांविधानिक विधि

विरोध प्रदर्शन का अधिकार

 25-Jun-2024

फेडरल बैंक लिमिटेड बनाम फेडरल बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन

आंदोलनकारी को अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान पर विरोध प्रदर्शन करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है तथा यदि ऐसा होता है तो उस विरोध प्रदर्शन पर तर्कसंगत प्रतिबंध लगाया जा सकता है”।

न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने फेडरल बैंक लिमिटेड बनाम फेडरल बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन के मामले में माना है कि आंदोलनकारी को अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान पर विरोध प्रदर्शन करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है तथा यदि ऐसा होता है तो ऐसे विरोध प्रदर्शन पर उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है।

फेडरल बैंक लिमिटेड बनाम फेडरल बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता फेडरल बैंक लिमिटेड एक बैंकिंग कंपनी है।
  • प्रतिवादी फेडरल बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन है, जो एक ट्रेड यूनियन है, जिसमें याचिकाकर्त्ता के बैंक के स्केल I से लेकर III कैडर के अधिकारी इसके सदस्य हैं।
  • बैंक ने इस यूनियन तथा उसके सदस्यों एवं समर्थकों पर, बैंक अधिकारियों एवं ग्राहकों को बैंक के साथ लेन-देन करने में बाधा डालने से रोकने के लिये स्थायी निषेधाज्ञा हेतु ट्रायल कोर्ट के समक्ष वाद दायर किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने बैंक परिसर के 200 मीटर के दायरे में प्रदर्शन पर रोक लगाते हुए एक अस्थायी निषेधाज्ञा जारी की।
  • अपील में ज़िला न्यायालय ने इस आदेश को संशोधित किया और निर्देश दिया कि आंदोलनकारियों द्वारा बैंक के शांतिपूर्ण कामकाज में बाधा डालने वाले किसी भी तरह के प्रदर्शन से रोका जाए।
  • इसके उपरांत केरल उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई।
  • उच्च न्यायालय ने बैंक कार्यालय परिसर से 50 मीटर के अंदर किसी भी प्रकार के प्रदर्शन, धरना, नारेबाज़ी पर प्रतिबंध लगा दिया है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ की एकल पीठ ने कहा कि भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत अधिकार असीम नहीं हैं और इसका प्रयोग इस तरह से किया जाना चाहिये कि नियोक्ता के अपने वैध व्यवसाय को चलाने के अधिकार में हस्तक्षेप न हो। न्यायालय ने कहा कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य व्यक्ति के संपत्ति का आनंद लेने या व्यवसाय करने के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
  • आगे यह भी माना गया कि इस अधिकार का प्रयोग इस तरह से नहीं किया जा सकता कि नियोक्ताओं को डराकर उन्हें अधीनता में लाने के लिये बाध्य किया जा सके।

विरोध करने का अधिकार क्या है?

परिचय:

  • विरोध करने का अधिकार, मौलिक अधिकारों के अंतर्गत कोई स्पष्ट अधिकार नहीं है, इसे संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से प्राप्त किया जा सकता है।
  • यह अधिकार, प्रत्येक नागरिक को शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होने एवं राज्य की कार्यवाही या निष्क्रियता के विरुद्ध विरोध करने में सक्षम बनाते हैं।
  • विरोध का अधिकार यह सुनिश्चित करता है कि लोग निगरानीकर्त्ता के रूप में कार्य कर सकें और सरकार के कार्यों पर लगातार निगरानी रख सकें।
  • यह सरकार को उसकी नीतियों एवं कार्यों के विषय में प्रतिपुष्टि प्रदान करता है जिसके उपरांत सरकार परामर्श, बैठकों तथा चर्चा के माध्यम से अपनी गलतियों का संज्ञान लेती है और उसमें सुधार करती है।

संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 19(1)(a): वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, सरकार के आचरण पर स्वतंत्र रूप से राय व्यक्त करने के अधिकार में परिवर्तित हो जाता है।
  • अनुच्छेद 19(1)(b): राजनीतिक उद्देश्यों हेतु संघ बनाने के लिये, संघ बनाने के अधिकार की आवश्यकता होती है। इनका गठन सामूहिक रूप से सरकारी निर्णयों को चुनौती देने के लिये किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 19(1)(c): शांतिपूर्वक एकत्र होने का अधिकार, लोगों को प्रदर्शनों, आंदोलनों एवं सार्वजनिक सभाओं के माध्यम से सरकार के कार्यों पर प्रश्न उठाने और आपत्ति जताने तथा विरोध प्रदर्शन प्रारंभ करने की अनुमति देता है।

विरोध प्रदर्शन के अधिकार पर प्रतिबंध:

  • अनुच्छेद 19(2) वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर तर्कसंगत प्रतिबंध लगाता है। ये तर्कसंगत प्रतिबंध निम्नलिखित हितों के लिये अध्यारोपित किये जाते हैं:
    • भारत की संप्रभुता और अखंडता,
    • राज्य की सुरक्षा
    • विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध,
    • सार्वजनिक व्यवस्था
    • शालीनता या नैतिकता
    • न्यायालय की अवमानना
    • मानहानि
    • किसी अपराध के लिये उकसाना

निर्णयज विधियाँ:

  • रामलीला मैदान घटना बनाम गृह सचिव, भारत संघ एवं अन्य मामले (2012) में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि नागरिकों को एकत्रित होने और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार है, जिसे मनमानी कार्यकारी या विधायी कार्यवाही से नहीं छीना जा सकता।
  • ज़दूर किसान शक्ति संगठन बनाम भारत संघ एवं अन्य (2018) में, उच्चतम न्यायालय ने प्रदर्शन करने के लिये, स्थानीय निवासियों के हितों के साथ प्रदर्शनकारियों के हितों को संतुलित करने का प्रयास किया और पुलिस को शांतिपूर्ण विरोध एवं प्रदर्शनों के लिये क्षेत्र के सीमित उपयोग हेतु एक उचित तंत्र विकसित करने तथा मापदंड निर्धारित करने का निर्देश दिया।