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आपराधिक कानून

पश्चातवर्ती चरण में दस्तावेज़ी साक्ष्य की स्वीकार्यता

 17-Jul-2024

बुधुवा उराँव बनाम घूरा उराँव

“न्यायालय विलंब के लिये पर्याप्त कारण बताए जाने पर आवश्यक दस्तावेज़ी साक्ष्य को विलंब से प्रस्तुत करने की अनुमति दे सकती हैं।”

न्यायमूर्ति सुभाष चंद

स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

झारखंड उच्च न्यायालय ने बुधुवा उराँव बनाम घुरा उराँव के मामले में अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय को पलट दिया, जिसमें लिखित बयानों के प्रारंभिक दाखिल होने के बाद दस्तावेज़ी साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति दी गई थी। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि यदि न्यायपूर्ण निर्णय के लिये यह महत्त्वपूर्ण है तथा विलंब उचित है तो न्यायालयों के पास विलंबित साक्ष्य को स्वीकार करने का विवेकाधिकार है।

  • उच्च न्यायालय का निर्णय सिविल प्रक्रिया की लचीली व्याख्या का पक्षधर है, जो प्रक्रियागत समयसीमा के बावजूद महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ी साक्ष्य को विलंब से प्रस्तुत करने की अनुमति देता है।

बुधुवा उराँव बनाम घुरा उराँव की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • घुरा उराँव ने बुधवा उराँव तथा अन्य के विरुद्ध वाद संस्थित किया, जिसमें कुछ विलेखों एवं म्यूटेशन आदेशों को रद्द करने की मांग की गई।
  • बुधवा उराँव (प्रतिवादी) ने एक लिखित बयान दायर किया, लेकिन बाद में वादी के साक्ष्य चरण के दौरान अतिरिक्त दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की मांग की।
  • 21 सितंबर 2016 को सिविल जज (जूनियर डिवीज़न)-I, गुमला ने इन अतिरिक्त दस्तावेज़ी को प्रस्तुत करने के प्रतिवादी के आवेदन को खारिज कर दिया।
  • बुधवा उराँव ने इस आदेश को चुनौती देते हुए झारखंड उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी के आवेदन को केवल इसलिये खारिज करके गलती की क्योंकि पहले दस्तावेज़ प्रस्तुत न करने का कोई कारण नहीं बताया गया था।
  • दस्तावेज़ी साक्ष्य को बाद में स्वीकार किया जा सकता है यदि:
    • इसे पहले प्रस्तुत करने के प्रयास में उचित सावधानी बरती गई थी।
    • ये दस्तावेज़ पक्षों के मध्य मुद्दों पर निर्णय लेने के लिये आवश्यक हैं।
  • यह छूट सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XVIII नियम 17A के विलोपन के बाद भी जारी रहती है।
  • निष्पक्षता बनाए रखने के लिये, यदि नए दस्तावेज़ स्वीकार किये जाते हैं, तो वादी को खंडन हेतु साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि प्रक्रियात्मक नियमों को उन मामलों के न्यायोचित समाधान में बाधा नहीं डालनी चाहिये, जब पक्षों के पास दस्तावेज़ प्रस्तुत करने में विलंब के लिये वैध कारण हों।

दस्तावेज़ी साक्ष्य क्या है?

  • परिभाषा:
    • दस्तावेज़ शब्द को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 2(d) के अधीन परिभाषित किया गया है।
      • किसी पदार्थ पर अक्षरों, अंकों या चिह्नों या किसी अन्य माध्यम से या उनमें से एक से अधिक माध्यमों से व्यक्त या वर्णित या अन्यथा दर्ज किया गया कोई मामला, जिसका उपयोग उस मामले को रिकॉर्ड करने के उद्देश्य से किया जाना है या किया जा सकता है तथा इसमें इलेक्ट्रॉनिक एवं डिजिटल रिकॉर्ड शामिल हैं।
    • BSA अध्याय 5 के अंतर्गत अधिनियम की धारा 56 से 73 तक दस्तावेज़ी साक्ष्य से संबंधित है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अंतर्गत स्थिति:
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 (IEA) के अधीन, दस्तावेज़ में लेख, मानचित्र एवं कार्टून शामिल हैं। BSA ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को भी दस्तावेज़ माना जाएगा।
  • प्रकार:
    • दस्तावेज़ी साक्ष्य में प्राथमिक एवं द्वितीयक साक्ष्य निहित हैं।
      • प्राथमिक साक्ष्य में मूल दस्तावेज़ एवं उसके हिस्से, जैसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड व वीडियो रिकॉर्डिंग शामिल हैं।
      • द्वितीयक साक्ष्य में वे दस्तावेज़ एवं मौखिक विवरण शामिल हैं जो मूल दस्तावेज़ की सामग्री को सिद्ध कर सकते हैं।
        • BSA द्वितीयक साक्ष्य का विस्तार करते हुए इसमें निम्नलिखित को शामिल करता है: (i) मौखिक एवं लिखित संस्वीकृति, तथा (ii) उस व्यक्ति की गवाही जिसने दस्तावेज़ की जाँच की है और जो दस्तावेज़ों की जाँच करने में कुशल है।
  • सिद्धांत:
    • यह सिद्धांत वॉक्स ऑडिटा पेरिट, लिट्रेरा स्क्रिप्टा मैनेट के सिद्धांत से आता है जिसका अर्थ है कि बोले गए शब्द गायब हो जाते हैं जबकि केवल लिखित शब्द ही रहते हैं।
    • इसका मतलब यह है कि जब न्यायालय के सामने साक्ष्य होते हैं, तो एक मौखिक साक्ष्य होता है, तथा दूसरा दस्तावेज़ी साक्ष्य होता है, दस्तावेज़ी साक्ष्य को सर्वोच्चता दी जाएगी।
  • साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड की स्वीकार्यता:
    • दस्तावेज़ी साक्ष्य में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में मौजूद जानकारी शामिल होती है जिसे कंप्यूटर द्वारा उत्पादित ऑप्टिकल या चुंबकीय मीडिया में मुद्रित या संग्रहीत किया गया हो।
    • ऐसी जानकारी को कंप्यूटर के संयोजन या विभिन्न कंप्यूटरों द्वारा संग्रहीत या संसाधित किया जा सकता है।
  • दस्तावेज़ी साक्ष्य को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है (BSA के अनुसार):
    • विभिन्न मामलों में दस्तावेज़ी साक्ष्य सिद्ध करने से संबंधित सामान्य नियमों को धारा 56 से 73 के अंतर्गत प्रावधानित है।
    • दूसरा सार्वजनिक दस्तावेज़ है, जिसे धारा 74 से 77 के अंतर्गत प्रावधानित है तथा
    • अंत में, धारा 78 से 93 है जो दस्तावेज़ी के संबंध में अनुमानों से संबंधित है।

महत्त्वपूर्ण विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 57 प्राथमिक साक्ष्य से संबंधित है।
    • इसमें कहा गया है कि प्राथमिक साक्ष्य का अर्थ है न्यायालय के निरीक्षण के लिये प्रस्तुत किया गया दस्तावेज़।
      • स्पष्टीकरण 1. - जहाँ कोई दस्तावेज़ कई भागों में निष्पादित किया जाता है, वहाँ प्रत्येक भाग दस्तावेज़ का प्राथमिक साक्ष्य होता है।
      • स्पष्टीकरण 2. - जहाँ कोई दस्तावेज़ प्रतिरूप में निष्पादित किया जाता है, तथा प्रत्येक प्रतिरूप केवल एक या कुछ पक्षकारों द्वारा निष्पादित किया जाता है, वहाँ प्रत्येक प्रतिरूप उसे निष्पादित करने वाले पक्षकारों के विरुद्ध प्राथमिक साक्ष्य होता है।
      • स्पष्टीकरण 3. - जहाँ बहुत से दस्तावेज़ एक ही समान प्रक्रिया द्वारा बनाए गए हैं, जैसे मुद्रण, लिथोग्राफी या फोटोग्राफी के मामले में, वहाँ प्रत्येक दस्तावेज़ बाकी दस्तावेज़ की अंतर्वस्तु का प्राथमिक साक्ष्य है; लेकिन, जहाँ वे सभी एक ही मूल दस्तावेज़ की प्रतिलिपियाँ हैं, वहाँ वे मूल दस्तावेज़ की अंतर्वस्तु का प्राथमिक साक्ष्य नहीं हैं। स्वीकृत तथ्यों को सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। मौखिक साक्ष्य द्वारा तथ्यों का प्रमाण। मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिये। दस्तावेज़ों की अंतर्वस्तु का प्रमाण। प्राथमिक साक्ष्य।
      • स्पष्टीकरण 4. जहाँ कोई इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड बनाया या संग्रहीत किया जाता है, और ऐसा भंडारण एक साथ या क्रमिक रूप से कई फाइलों में होता है, ऐसी प्रत्येक फाइल प्राथमिक साक्ष्य है।
      • स्पष्टीकरण 5. जहाँ कोई इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड उचित अभिरक्षा से प्रस्तुत किया जाता है, ऐसा इलेक्ट्रॉनिक एवं डिजिटल रिकॉर्ड प्राथमिक साक्ष्य है, जब तक कि वह विवादित न हो।
      • स्पष्टीकरण 6. जहाँ एक वीडियो रिकॉर्डिंग को एक साथ इलेक्ट्रॉनिक रूप में संग्रहीत किया जाता है तथा दूसरे को प्रेषित या प्रसारित या स्थानांतरित किया जाता है, संग्रहीत रिकॉर्डिंग में से प्रत्येक प्राथमिक साक्ष्य है।
      • स्पष्टीकरण 7. जहाँ एक इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड कंप्यूटर संसाधन में कई भंडारण स्थानों में संग्रहीत किया जाता है, अस्थायी फ़ाइलों सहित प्रत्येक ऐसा स्वचालित भंडारण प्राथमिक साक्ष्य है।
  • धारा 58 द्वितीयक साक्ष्य से संबंधित है।
    • इसमें निहित है: -
      (i) इसमें आगे दिये गए प्रावधानों के अंतर्गत दी गई प्रामाणित प्रतियाँ;
      (ii) मूल से यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा बनाई गई प्रतियाँ जो स्वयं प्रतिलिपि की सटीकता सुनिश्चित करती हैं, तथा ऐसी प्रतियों के साथ तुलना की गई प्रतियाँ ;
      (iii) मूल से बनाई गई या उससे तुलना की गई प्रतियाँ;
      (iv) दस्तावेज़ों के प्रतिरूप, उन पक्षकारों के विरुद्ध जिन्होंने उन्हें निष्पादित नहीं किया;
      (v) किसी दस्तावेज़ की विषय-वस्तु का मौखिक विवरण, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया गया जिसने उसे स्वयं देखा हो;
      (vi) मौखिक संस्वीकृति;
      (vii) लिखित संस्वीकृति;
      (viii) ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य जिसने किसी दस्तावेज़ की जाँच की है, जिसके मूल में अनेक विवरण या अन्य दस्तावेज़ हैं, जिनकी जाँच न्यायालय में सुविधाजनक रूप से नहीं की जा सकती है, तथा जो ऐसे दस्तावेज़ों की जाँच करने में कुशल है।
  • BSA की धारा 65 से 73 प्रामाणित किये जाने वाले दस्तावेज़ों से संबंधित है। इससे तात्पर्य यह है कि जब भी आप न्यायालय जाते हैं तो आपको अपने द्वारा प्रस्तुत किये गए दस्तावेज़ की वास्तविक प्रकृति को भी सिद्ध करना होता है। इसलिये न्यायालय में दस्तावेज़ को प्रस्तुत करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे सिद्ध भी किया जाना चाहिये।
  • धारा 65 उस व्यक्ति के हस्ताक्षर एवं हस्तलेख के प्रमाण से संबंधित है, जिसने कथित तौर पर दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर या लिखित हस्ताक्षर किये हैं।
  • धारा 66 इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर के प्रमाण से संबंधित है। धारा 67 विधि द्वारा सत्यापित किये जाने के लिये आवश्यक दस्तावेज़ के निष्पादन के प्रमाण से संबंधित है।
  • धारा 68 ऐसे प्रमाण से संबंधित है जहाँ कोई सत्यापन करने वाला साक्षी नहीं मिला हो।
  • धारा 69 सत्यापित दस्तावेज़ के पक्षकार द्वारा निष्पादन की स्वीकृति से संबंधित है।
  • धारा 70 उस समय प्रमाण से संबंधित है जब सत्यापन करने वाला साक्षी निष्पादन से मना करता है।
  • धारा 71 उन दस्तावेज़ों के प्रमाण से संबंधित है जिन्हें सत्यापित करने की विधि द्वारा आवश्यकता नहीं है।
  • धारा 72 हस्ताक्षर, लेखन या मुहर की तुलना अन्य स्वीकृत या प्रामाणित दस्तावेज़ों से करने से संबंधित है।
  • धारा 73 डिजिटल हस्ताक्षर के सत्यापन के प्रमाण से संबंधित है।

आपराधिक कानून

BNSS के अंतर्गत अभियोजन का प्रत्याहरण

 17-Jul-2024

शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

"दोहरे हत्याकांड जैसे जघन्य अपराध के मामले में केवल आरोपी की अच्छी सार्वजनिक छवि के आधार पर उसके अभियोजन का प्रत्याहरण नहीं किया जा सकता।"

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि केवल आरोपी की अच्छी सार्वजनिक छवि के आधार पर उसके अभियोजन का प्रत्याहरण नहीं किया सकता।

  • उच्चतम न्यायालय ने शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • पाँच नामजद आरोपियों के विरुद्ध तथा दो अज्ञात लोगों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 147, धारा 148, धारा 149, धारा 307 और धारा 302 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज की गई थी।
  • शिकायतकर्त्ता का आरोप है कि आरोपियों ने शिकायतकर्त्ता एवं अन्य लोगों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाईं, जिससे दो लोगों की मृत्यु कारित हो गई।
  • जाँच के दौरान छोटे सिंह एवं गंगा सिंह के नाम अज्ञात व्यक्तियों के रूप में दर्ज किये गए।
  • आरोपी छोटे सिंह विधानसभा के सदस्य चुने गए।
  • सभी आरोपियों के विरुद्ध अभियोजन के प्रत्याहरण के लिये एक सरकारी आदेश पारित किया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने छोटे सिंह के विरुद्ध अभियोजन के प्रत्याहरण की अनुमति इस आधार पर दी कि वह समाज के सम्मानित नागरिक हैं। अन्य आरोपियों के संबंध में आवेदन खारिज कर दिया गया।
  • प्रथम सूचना प्रदाता ने अभियोजन के प्रत्याहरण के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • वर्ष 2023 में, उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका अपास्त कर दी, जिसके बाद उन्होंने उच्चतम न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिये कि कोई अभियुक्त विधानसभा के लिये निर्वाचित हुआ है, यह आम जनता के बीच उसकी छवि का प्रमाण नहीं हो सकता।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि केवल अभियुक्त की अच्छी सार्वजनिक छवि के आधार पर अभियोजन का प्रत्याहरण अस्वीकार्य है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई अनुमति के अनुसार अभियुक्त के अभियोजन प्रत्याहरण अपास्त कर दिया।

CrPC  की धारा 321 के अधीन अभियोजन का प्रत्याहरण क्या है?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) में, CrPC की धारा 321 के अधीन अभियोजन का प्रत्याहरण का प्रावधान किया गया है।
  • CrPC की धारा 321 के अनुसार, केवल लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक जो किसी विशेष मामले का प्रभारी है, संबंधित मामले से प्रत्याहरण के लिये आवेदन कर सकता है।
  • इस धारा में प्रावधान है कि अभियोजन के प्रत्याहरण से पहले न्यायालय की सहमति ली जानी चाहिये ।
  • अभियोजन के प्रत्याहरण की प्रक्रिया निर्णय दिये जाने से पहले किसी भी समय हो सकती है।
  • इसके अतिरिक्त, यह सामान्य रूप से या किसी एक या अधिक अपराधों के संबंध में हो सकती है, जिसके लिये अभियुक्त का अभियोजन किया जा रहा है।
  • अभियोजन से प्रत्याहरण के परिणाम इस प्रकार हैं:

आरोप तय होने से पहले

उन्मोचन

आरोप तय होने के बाद

दोषमुक्ति

  •  उक्त प्रावधान यह दर्शाता है कि निम्नलिखित अपराधों के लिये अभियोजक को अभियोजन के प्रत्याहरण के लिये केंद्र सरकार से अनुमति लेनी होगी, यदि मामले का प्रभारी अभियोजक केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है।
    • इसके अतिरिक्त, उपरोक्त मामलों में सहमति देने से पहले न्यायालय अभियोजक को निर्देश देगा कि वह अभियोजन के प्रत्याहरण के लिये केंद्र सरकार द्वारा दी गई अनुमति उसके समक्ष प्रस्तुत करे।
    • जिन अपराधों पर प्रावधान लागू होता है वे हैं:

1. किसी ऐसे विषय से संबंधित किसी विधि के विरुद्ध अपराध जिस पर संघ की कार्यकारी शक्ति लागू होती है

2. दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 (1946 का 25) के अंतर्गत दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना द्वारा जाँच किया गया अपराध

3. केंद्रीय सरकार की किसी संपत्ति का दुरुपयोग, विनाश या क्षति पहुँचाने से संबंधित अपराध

4. केंद्रीय सरकार की सेवा में किसी व्यक्ति द्वारा अपने पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में कार्य करते समय या कार्य करने का प्रकल्पना करते हुए किया गया अपराध

BNSS की धारा 360 द्वारा संकलित की गई नई विशेषताएँ क्या हैं?

  • BNSS की धारा 360 में प्रावधान में परिवर्तन किया गया है, जो उन मामलों में लागू होगा जहाँ अभियोजन के प्रत्याहरण से पहले केंद्र सरकार की अनुमति आवश्यक है।
    • दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 (CrPC की धारा 321 के अधीन) द्वारा जाँच किये गए अपराधों के बजाय, नया प्रावधान किसी भी केंद्रीय अधिनियम के अधीन जाँच किये गए अपराध का प्रावधान करता है।
  • इसके अतिरिक्त, इस धारा में एक नया प्रावधान भी जोड़ा गया है जो पहले नहीं था।
    • नए प्रावधान में यह प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय मामले में पीड़ित को विचारण का अवसर दिये बिना ऐसी वापसी की अनुमति नहीं देगा।
    • इस प्रकार, यह पीड़ित के हित को आगे बढ़ाता है क्योंकि अभियोजन से वापसी से पहले उन्हें विचारण का अवसर दिया जाता है।
  • शेष सभी प्रावधान CrPC की धारा 321 के समान हैं।

BNSS की धारा 360 एवं CrPC की धारा 321 के अधीन अभियोजन से प्रत्याहरण की तुलनात्मक तालिका?

CrPC की धारा 321

BNSS की धारा 360

किसी मामले का भारसाधक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक, न्यायालय की सहमति से, निर्णय दिये जाने के पूर्व किसी भी समय, किसी व्यक्ति के अभियोजन से सामान्यतः या उन अपराधों में से किसी एक या अधिक के संबंध में, जिनके लिये उसका विचारण किया जा रहा है, प्रत्याहरण कर सकता है; तथा ऐसे प्रत्याहरण पर -

(a) यदि यह आरोप विरचित किये जाने के पूर्व किया गया है, तो अभियुक्त को ऐसे अपराध या अपराधों के संबंध में उन्मोचित कर दिया जाएगा;

(b) यदि यह आरोप विरचित किये जाने के पश्चात् किया गया है, या जब इस संहिता के अधीन कोई आरोप अपेक्षित नहीं है, तो वह ऐसे अपराध या अपराधों के संबंध में दोषमुक्त कर दिया जाएगा।

बशर्ते कि ऐसा अपराध-

(i) किसी ऐसे विषय से संबंधित किसी विधि के विरुद्ध था जिस पर संघ की कार्यपालिका शक्ति लागू होती है, या

(ii) दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (1946 का 25) के अधीन दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन द्वारा जाँच की गई थी, या

(iii) जिसमें केंद्रीय सरकार की किसी संपत्ति का दुरुपयोग या विनाश या क्षति शामिल है, या

(iv) केंद्रीय सरकार की सेवा में किसी व्यक्ति द्वारा अपने आधिकारिक कर्त्तव्य के निर्वहन में कार्य करते समय या कार्य करने का प्रकल्पना करते समय किया गया हो,

तथा मामले का प्रभारी अभियोजक केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है, तो वह, जब तक कि उसे केंद्रीय सरकार द्वारा ऐसा करने की अनुमति न दी गई हो, अभियोजन से हटने के लिये न्यायालय से उसकी सहमति के लिये आवेदन नहीं करेगा और न्यायालय, सहमति देने से पहले, अभियोजक को निर्देश देगा कि वह अभियोजन से हटने के लिये   केंद्रीय सरकार द्वारा दी गई अनुमति को उसके समक्ष प्रस्तुत करे।

किसी मामले का भारसाधक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक न्यायालय की सहमति से निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी भी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन से सामान्यतः या उन अपराधों में से किसी एक या अधिक के संबंध में, जिनके लिये उसका विचारण किया जा रहा है, प्रत्याहरण कर सकता है; तथा ऐसे प्रत्याहरण पर -

(a) यदि आरोप विरचित किये जाने के पूर्व किया गया हो, तो अभियुक्त को ऐसे अपराध या अपराधों के संबंध में उन्मोचित कर दिया जाएगा;

(b) यदि आरोप विरचित किये जाने के पश्चात् किया गया हो, या जब इस संहिता के अधीन आरोप अपेक्षित न हो, तो उसे ऐसे अपराध या अपराधों के संबंध में दोषमुक्त कर दिया जाएगा:

बशर्ते कि ऐसा अपराध-

(i) किसी ऐसे विषय से संबंधित किसी विधि के विरुद्ध था जिस पर संघ की कार्यपालिका शक्ति लागू होती है; या

(ii) किसी केंद्रीय अधिनियम के अधीन जाँच की गई थी; या

(iii) केंद्रीय सरकार की किसी संपत्ति का दुर्विनियोजन, विनाश या क्षति शामिल थी; या

(iv) केंद्रीय सरकार की सेवा में किसी व्यक्ति द्वारा अपने पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में कार्य करते समय या कार्य करने का प्रकल्पना करते समय किया गया था,

तथा मामले का भारसाधक अभियोजक केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त नहीं किया गया है, तो वह, जब तक कि उसे केंद्रीय सरकार द्वारा ऐसा करने की अनुमति न दी गई हो, अभियोजन से हटने के लिये न्यायालय से उसकी सहमति के लिये   आवेदन नहीं करेगा और न्यायालय, सहमति देने से पूर्व, अभियोजक को निर्देश देगा कि वह अभियोजन से हटने के लिये  केंद्रीय सरकार द्वारा दी गई अनुमति को उसके समक्ष प्रस्तुत करे:

आगे यह भी प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय मामले में पीड़ित को विचारण का अवसर दिये बिना ऐसी वापसी की अनुमति नहीं देगा।

 महत्त्वपूर्ण निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • एम. बालकृष्ण रेड्डी बनाम सरकार के प्रधान सचिव, गृह विभाग (1999)
    • आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि:
      • अपराध का शिकार न होने वाले व्यक्ति को भी अभियोजन से प्रत्याहरण के आवेदन का विरोध करने का उतना ही अधिकार है जितना कि अपराध के पीड़ित को।
      • न्यायालय ने आगे कहा कि तीसरा व्यक्ति उस समुदाय का अंश है जिसके विरुद्ध अपराध किया गया है, इसलिये उसे वापसी का विरोध करने का अधिकार है।
  • वी.एस. अच्युतानंदन बनाम आर. बालाकृष्णन पिल्लई (1995)
    • उच्चतम न्यायालय ने एक मंत्री के विरुद्ध अभियोजन के प्रत्याहरण के आवेदन का विरोध करने में विपक्षी नेता के अधिकार को स्वीकार कर लिया, क्योंकि कोई अन्य व्यक्ति ऐसे आवेदन का विरोध नहीं कर रहा था।

सिविल कानून

आदेश XXI नियम 16

 17-Jul-2024

श्री मोमिन जुल्फिकार कसम बनाम अजय बालकृष्ण दुर्वे

“अधिकार का अंतरिती व्यक्ति डिक्री के समनुदेशन के बिना डिक्री के निष्पादन का अधिकारी है”।

न्यायमूर्ति संदीप वी. मार्ने 

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने श्री मोमिन जुल्फिकार कसम बनाम अजय बालकृष्ण दुर्वे एवं अन्य के मामले में माना है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) में संशोधन के अनुसार अधिकार का अंतरिती व्यक्ति डिक्री के समनुदेशन के बिना डिक्री के निष्पादन का अधिकारी है। 

श्री मोमिन जुल्फिकार कसम बनाम अजय बालकृष्ण दुर्वे एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, वादी ने लाइसेंस समझौते के आधार पर प्रतिवादी को परिसर किराये पर दे दिया था, जिसकी अवधि समाप्त हो गई थी, इसलिये वादी ने परिसर का कब्ज़ा मांगा।
  • कई अधिसूचना के बाद भी प्रतिवादी ने अधिसूचना का पालन नहीं किया।
  • वादी ने प्रतिवादी को बेदखल करने के लिये महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999 की धारा 24 के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारी के समक्ष वाद दायर किया।
    • प्रतिवादी ने आपत्ति याचिका दायर कर कहा कि सक्षम प्राधिकारी को मामले पर निर्णय करने का अधिकार नहीं है, जिसे सक्षम प्राधिकारी ने अस्वीकार कर दिया।
  • वादी ने प्रतिवादी को बेदखल करने के लिये लघु वाद न्यायालय में वाद दायर किया।
    • लघु वाद न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय दिया तथा प्रतिवादी को कब्ज़े का वारंट जारी करने का आदेश दिया।
  • निर्णय से व्यथित प्रतिवादी ने अपीलीय लघु वाद न्यायालय के समक्ष अपील दायर की जिसे अपीलीय न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया।
  • इसके उपरांत वादी ने लघु वाद न्यायालय के समक्ष निष्पादन आवेदन दायर किया, जिसका प्रतिवादी द्वारा विरोध किया गया, जबकि लघु वाद न्यायालय द्वारा CPC के कब्ज़े के वारंट के आदेश XXI नियम 35 के अंतर्गत वादी के पक्ष में निष्पादन डिक्री पारित की गई थी।
  • प्रतिवादी ने लघु वाद न्यायालय के समक्ष आपत्ति याचिका दायर की, जिसमें आपत्ति की गई कि महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम की धारा 22 के प्रावधानों के अनुसार न्यायालय को निष्पादन डिक्री पारित करने का अधिकार नहीं है और कब्ज़े के वारंट पर स्थगन की भी प्रार्थना की, जबकि कब्ज़े के वारंट पर स्थगन का आवेदन न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था।
  • प्रतिवादी ने अपीलीय न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसने कब्ज़े के वारंट पर स्थगन हेतु याचिका को स्वीकार कर लिया तथा कब्ज़े के वारंट पर रोक लगाते हुए लघु वाद न्यायालय द्वारा पारित डिक्री को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि मात्र हस्तांतरण, CPC, 1908 के आदेश XXI नियम 16 ​​ के अनुसार डिक्री के हस्तांतरण के समान नहीं है।
  • अपीलीय न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर वादी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने पाया कि अपीलीय न्यायालय ने CPC के आदेश XXI नियम 16 को लागू किया है, परंतु संशोधित प्रावधान को लागू करने में विफल रहा है, जो अंतरिती को डिक्री के पृथक समनुदेशन के बिना डिक्री के निष्पादन के लिये आवेदन करने में सक्षम बनाता है।
  • न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि आदेश XXI नियम 16 के अंतर्गत कोई भी नियम CPC की धारा 146 को प्रभावित नहीं करता है।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी तय किया कि डिक्री के निष्पादन से संबंधित सभी प्रश्नों का समाधान निष्पादन न्यायालय द्वारा किया जाएगा, न कि CPC की धारा 47 के प्रावधानों के अनुसार अलग से वाद दायर करके।
  • न्यायालय ने कहा कि अपीलीय लघु वाद न्यायालय ने निष्पादन न्यायालय के आदेश को रद्द करने तथा कब्ज़े के वारंट पर रोक लगाने में गंभीर गलती की है।
  • इसलिये, न्यायालय ने लघु वाद न्यायालय/कार्यकारी न्यायालय के निर्णय को यथावत् रखा तथा वादी द्वारा दायर अपील को स्वीकार कर लिया। हालाँकि, क्षेत्राधिकार पर प्रतिवादी की आपत्ति याचिका लघु वाद न्यायालय के समक्ष लंबित है।

CPC का आदेश XXI क्या है?

  • परिचय:
    • यह आदेश डिक्री के निष्पादन की पूरी प्रक्रिया बताता है।
    • इसमें कहा गया है कि किसी आदेश पर उसे देने वाले न्यायाधीशों के हस्ताक्षर होने चाहिये तथा फिर उसे न्यायालय द्वारा रजिस्टर में दर्ज किया जाना चाहिये।
    • यह CPC के अंतर्गत सबसे लंबा आदेश है जिसमें 106 नियम शामिल हैं।
    • निष्पादन डिक्री पक्षकारों द्वारा निरीक्षण के लिये खुली है।
  • डिक्री के निष्पादन के विभिन्न तरीके:
    • संपत्ति की कुर्की और बिक्री
    • गिरफ्तारी एवं नज़रबंदी
    • रिसीवर की नियुक्ति
    • कब्ज़े का परिदान
  • आदेश XXI के अंतर्गत आवेदन करने की प्रक्रिया:
    • निर्णीत लेनदार द्वारा निष्पादन न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर किया जाएगा।
    • निष्पादन न्यायालय, निर्णीत ऋणी को नोटिस जारी करेगा।
    • न्यायालय सभी आवश्यक परीक्षणों के उपरांत डिक्री को निष्पादित करेगा तथा डिक्री के निष्पादन के लिये वारंट जारी कर सकता है, संपत्ति कुर्क कर सकता है, गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है या कोई अन्य आवश्यक उपाय कर सकता है।

श्री मोमिन जुल्फिकार कसम बनाम अजय बालकृष्ण दुर्वे एवं अन्य मामले में CPC, 1908 के महत्त्वपूर्ण नियम और धाराएँ क्या हैं?

  • धारा 47: डिक्री निष्पादित करने वाले न्यायालय द्वारा निर्धारित किये जाने वाले प्रश्न:
    • खंड (1) में कहा गया है कि जिस वाद में डिक्री पारित की गई थी, उसके पक्षकारों या उनके प्रतिनिधियों के बीच उत्पन्न होने वाले और डिक्री के निष्पादन, निर्वहन या संतुष्टि से संबंधित सभी प्रश्न, डिक्री को निष्पादित करने वाले न्यायालय द्वारा निर्धारित किये जाएंगे, न कि किसी अलग वाद द्वारा।
    • खंड (2) में कहा गया है कि न्यायालय, परिसीमा या अधिकारिता के संबंध में किसी आपत्ति के अधीन रहते हुए, इस धारा के अंतर्गत किसी कार्यवाही को वाद के रूप में या किसी वाद को कार्यवाही के रूप में मान सकता है और यदि आवश्यक हो, तो किसी अतिरिक्त न्यायालय शुल्क के भुगतान का आदेश दे सकता है।
    • खंड (3) में कहा गया है कि जहाँ यह प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं, तो ऐसे प्रश्न का निर्धारण इस धारा के प्रयोजनों के लिये न्यायालय द्वारा किया जाएगा।
    • स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिये, वह वादी जिसका वाद अस्वीकार कर दिया गया है और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद अस्वीकार कर दिया गया है, इस वाद में पक्षकार हैं।
  • धारा 146: प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध कार्यवाही:
    • इस संहिता या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही की जा सकती है या आवेदन किया जा सकता है वहाँ उसके अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है या आवेदन किया जा सकता है।
  • आदेश XXI नियम 16: डिक्री के अंतरिती द्वारा निष्पादन के लिये आवेदन:
    • इस नियम में यह कहा गया है कि जहाँ कोई डिक्री या, यदि कोई डिक्री दो या अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संयुक्त रूप से पारित की गई है, डिक्री में किसी डिक्रीधारक का हित, लिखित रूप में समनुदेशन द्वारा या विधि के प्रवर्तन द्वारा अंतरित किया जाता है, वहाँ अंतरिती डिक्री के निष्पादन के लिये उस न्यायालय को आवेदन कर सकता है जिसने उसे पारित किया था और डिक्री उसी रीति से तथा उन्हीं शर्तों के अधीन निष्पादित की जा सकेगी, जैसे कि आवेदन ऐसे डिक्रीधारक द्वारा किया गया हो।
    • परंतु जहाँ डिक्री या पूर्वोक्त हित समनुदेशन द्वारा अंतरित किया गया है, वहाँ ऐसे आवेदन की सूचना अंतरक और निर्णीत ऋणी को दी जाएगी तथा डिक्री तब तक निष्पादित नहीं की जाएगी जब तक न्यायालय उसके निष्पादन के संबंध में उनकी आपत्तियों (यदि कोई हों) पर विचारण नहीं कर लेता।
    • यह भी उपबंध है कि जहाँ दो या अधिक व्यक्तियों के विरुद्ध धन के संदाय के लिये डिक्री उनमें से किसी एक को अंतरित कर दी गई है, वहाँ उसे अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध निष्पादित नहीं किया जाएगा।
    • संशोधन द्वारा एक स्पष्टीकरण जोड़ा गया कि इस नियम की कोई भी बात धारा 146 के उपबंधों को प्रभावित नहीं करेगी तथा संपत्ति में अधिकारों का अंतरिती, जो वाद का विषय है, इस नियम द्वारा अपेक्षित डिक्री के पृथक समनुदेशन के बिना डिक्री के निष्पादन के लिये आवेदन कर सकता है।
  • आदेश XXI नियम 35: अचल संपत्ति के लिये डिक्री:
    • खंड (1) में कहा गया है कि जहाँ कोई डिक्री किसी अचल संपत्ति के परिदान के लिये है, वहाँ उसका कब्ज़ा उस पक्षकार को दिया जाएगा जिसके लिये वह अधिनिर्णीत की गई है, या ऐसे व्यक्ति को जिसे वह अपनी ओर से परिदान प्राप्त करने के लिये नियुक्त करे, और यदि आवश्यक हो तो डिक्री से आबद्ध किसी ऐसे व्यक्ति को हटाकर जो संपत्ति खाली करने से इनकार करता है।
    • खंड (2) में कहा गया है कि जहाँ डिक्री अचल संपत्ति के संयुक्त कब्ज़े के लिये है, वहाँ ऐसा कब्ज़ा संपत्ति पर किसी सार्वजनिक स्थान पर वारंट की एक प्रति चिपकाकर और किसी उपयुक्त स्थान पर ढोल बजाकर या अन्य परंपरागत तरीके से डिक्री का सार घोषित करके दिया जाएगा।
    • खंड (3) में कहा गया है कि जहाँ किसी अहाते या किसी भवन का कब्ज़ा दिया जाना है और कब्ज़ाधारी व्यक्ति, डिक्री से आबद्ध होने के कारण, अबाध प्रवेश नहीं कर सकता है, वहाँ न्यायालय अपने अधिकारियों के माध्यम से, देश की प्रथाओं के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित न होने वाली किसी महिला को उचित चेतावनी और सुविधा देने के पश्चात्, वह उस भवन का ताला हटाने, कुंडी हटाने या खोलने या किसी दरवाज़े को तोड़ने या डिक्रीधारक को कब्ज़ा दिलाने के लिये आवश्यक कोई अन्य कार्य कर सकता है।

आदेश XXI की प्रयोज्यता पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • जुगल किशोर सराफ बनाम रॉ कॉटन कंपनी लिमिटेड (1955): इस मामले में यह माना गया कि संपत्ति में अधिकारों का अंतरिती डिक्री के पृथक समनुदेशन के अभाव में डिक्री के निष्पादन के लिये आवेदन करने का अधिकारी नहीं है। CPC में संशोधन के उपरांत यह एक दोषपूर्ण विधि है।
  • वैष्णो देवी कंस्ट्रक्शन बनाम भारत संघ (2022): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि संपत्ति में अधिकारों का अंतरिती, डिक्री के पृथक समनुदेशन के अभाव में डिक्री के निष्पादन के लिये आवेदन करने का अधिकारी है।