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महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
विक्रम नाथ
« »30-Apr-2024
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ कौन हैं?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ का जन्म 24 सितंबर 1962 को हुआ था। विशेष रूप से, न्यायमूर्ति नाथ ने यूट्यूब चैनल पर न्यायालयी कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने वाले भारत में उच्च न्यायालय के पहले मुख्य न्यायाधीश के रूप में इतिहास रचा। वह लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि स्नातक हैं।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की करियर यात्रा कैसी रही?
- न्यायमूर्ति विक्रम नाथ 30 मार्च 1987 को बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश में नामांकित हुए थे।
- विधि के प्रति उनकी कुशाग्रता और समर्पण ने उन्हें 24 सितंबर 2004 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया।
- उन्होंने 27 फरवरी 2006 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में शपथ ली।
- बाद में उन्हें 10 सितंबर 2019 को गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति के रूप में पदोन्नत किया गया।
- इसके अलावा, उन्हें 31 अगस्त 2021 को भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया, तथा वह 23 सितंबर 2027 को सेवानिवृत्त होंगे।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ के उल्लेखनीय निर्णय क्या हैं?
- लोकनाथ चक्रपाणिदास महंत बनाम गुजरात राज्य (2021):
- इस मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने गुजरात सहकारी सोसायटी (संशोधन) अधिनियम, 2019 को असंवैधानिक तथा भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया।
- न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने यह भी कहा कि चुनाव कराने के लिये निर्दिष्ट समितियों की सूची से, बिना किसी उचित उद्देश्य या सार्वजनिक हित के सहकारी चीनी मिलों को बाहर करना भेदभावपूर्ण और मनमाना था।
- बरुण चंद्र ठाकुर बनाम मास्टर भोलू (2022):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि "मानसिक क्षमता और अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता एक ही है" एक गंभीर त्रुटि है।
- न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने यह भी माना कि किशोर न्याय बोर्ड एवं बाल न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिये प्रारंभिक मूल्यांकन करने में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया कि किशोर पर वयस्क के रूप में वाद चलाया जाना चाहिये या नहीं।
- न्यायालय ने प्रक्रियात्मक कमियों को सुधारने के बाद मामले को नए सिरे से विचार करने के लिये बोर्ड को वापस भेज दिया।
- रामतल बनाम के. राजमणि (2023):
- न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने यह भी कहा कि "विधि अच्छी तरह से स्थापित है कि जहाँ यह आरोप लगाया जाता है कि बिक्री का दस्तावेज़ शून्य है, तो कोई रद्दीकरण आवश्यक नहीं होगा तथा ऐसे दस्तावेज़ को विधि के अधीन नज़रअंदाज़ किया जा सकता है"।