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आपराधिक कानून
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के अधीन बाल साक्षियों की परीक्षा
« »22-Dec-2025
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मयंककुमार नटवरलाल कंकना पटेल और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य "घटना के सात वर्ष पश्चात्, विचारण के उन्नत प्रक्रम में, कथन को समकालीन रूप से अभिलिखित किये बिना, एक बाल साक्षी की परीक्षा करना, मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिये आवश्यक होने की शर्त को पूरा नहीं करेगा।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और ए.जी. मसीह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने मयंककुमार नटवरलाल कंकना पटेल और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2025) के मामले में उच्च न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दिया, जिसमें अभियोजन पक्ष को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 311 के अधीन विचारण के उन्नत प्रक्रम में एक अवयस्क बच्चे को साक्षी के रूप में परीक्षा करने की अनुमति दी गई थी
मयंककुमार नटवरलाल कंकना पटेल और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता और मृतक का विवाह 2010 में हुआ था और उनकी पुत्री आश्वी का जन्म 2013 में हुआ था।
- 1 दिसंबर 2017 को मृतक के पिता (परिवादकर्त्ता) ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 498क, 306, 323, 504, 506(2) और 114 तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 7 के अधीन अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में अभिकथित किया गया है कि मृतक ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होने से लगभग एक महीने पहले, 5 नवंबर 2017 को दुपट्टे से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी।
- अभिकथन है कि अभियुक्त ने मृतक को कार, घर और मोटरसाइकिल खरीदने के लिये पैसे की मांग के सिलसिले में मानसिक और शारीरिक क्रूरता से प्रताड़ित किया था।
- यह भी अभिकथित किया गया था कि अपीलकर्त्ता का मृतक के साथ विवाहेतर संबंध था, उसने मृतक को मौखिक रूप से गाली दी और उसे धमकी दी, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली।
- 23 फरवरी 2018 को आरोप पत्र दाखिल किया गया, आरोप विरचित किये गए और विचारण शुरू हुआ।
- 21 अभियोजन साक्षियों की परीक्षा के बाद, अभियोजन पक्ष ने 6 सितंबर 2023 को धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन एक आवेदन दायर कर अवयस्क पुत्री आश्वी को साक्षी के रूप में पेश करने की अनुमति मांगी।
- आवेदन में दावा किया गया कि घटना के समय बच्ची घर में मौजूद थी, उस समय उसकी आयु लगभग 4 साल और 9 महीने थी।
- विचारण न्यायालय ने आवेदन को यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि न तो प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में और न ही अन्वेषण के दौरान अभिलिखित किये गए कथनों में यह उल्लेख किया गया था कि घटना के समय अवयस्क बच्चा वहाँ मौजूद था।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने में लगभग एक महीने के विलंब के होते हुए भी, इस तथ्य को प्रकट नहीं किया गया था, और बच्चे की कम आयु और अस्पष्ट विलंब को ध्यान में रखते हुए, अनुमति देने से इंकार कर दिया।
- अभियोजन पक्ष ने गुजरात उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने विचारण न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया और अवयस्क साक्षी की परीक्षा की अनुमति दी।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय द्वारा विचारण न्यायालय के आदेश में हस्तक्षेप करना उचित नहीं था क्योंकि प्रत्यर्थी यह साबित करने में असफल रहे कि इस विलंबित प्रक्रम में अवयस्क साक्षी की परीक्षा मामले के उचित निर्णय के लिये आवश्यक थी।
निर्णय के प्रमुख आधार:
बच्चे की उपस्थिति का कोई भौतिक साक्ष्य नहीं:
- इस दावे को साबित करने के लिये अभिलेख में कोई सबूत नहीं था कि घटना के समय अवयस्क बच्चा वहाँ मौजूद था।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), अन्वेषण के दौरान अभिलिखित किये गए कथनों और परिवादकर्त्ता के परिसाक्ष्य में ऐसी किसी उपस्थिति का प्रकटीकरण नहीं हुआ।
- यह मान लेना कि वह एक प्रत्यक्षदर्शी थी, निराधार था, क्योंकि इससे केवल यही संकेत मिलता था कि बच्चा घर में था, न कि उस कमरे में जहाँ घटना घटी थी।
कम आयु और स्मृति की विश्वसनीयता:
- घटना के समय बच्चा बहुत छोटा था, और तब से सात वर्ष से अधिक समय बीत चुका है।
- न्यायालय ने कहा कि इतनी कम आयु में स्मृति विकृति और बाहरी प्रभावों के प्रति संवेदनशील होती है।
- इस पूरी अवधि के दौरान बच्ची का अपने नाना-नानी के साथ रहना, उसे सिखाने-पढ़ाने की उचित आशंका उत्पन्न करता है।
- इससे उनके प्रस्तावित परिसाक्ष्य की विश्वसनीयता और साक्ष्य मूल्य पर काफी असर पड़ा।
विचारण का उन्नत प्रक्रम:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के अधीन आवेदन 21 अभियोजन साक्षियो की परीक्षा के बाद और विचारण की उन्नत प्रक्रम में दायर किया गया था।
- यद्यपि धारा 311 के अंतर्गत शक्ति व्यापक है, फिर भी इसका प्रयोग संयम से और केवल तभी किया जाना चाहिये जब सत्य तक पहुँचने के लिये मांगे गए साक्ष्य आवश्यक हों।
- वर्तमान मामला इस आवश्यकता को पूरा नहीं करता है, और परीक्षा की अनुमति देने से केवल विचारण की अवधि लंबी खिंचेगी और अभियुक्त के साथ अन्याय होगा।
- न्यायालय ने विचारण न्यायालय के 30 मार्च 2024 के आदेश को बहाल कर दिया और विचारण न्यायालय को विधि के अनुसार विचारण की कार्यवाही आगे बढ़ाने का निदेश दिया।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 348) क्या है?
मुख्य उपबंध:
- न्यायालय को आवश्यक साक्षियों को समन करने और जांच, विचारण या कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में उनकी परीक्षा करने का अधिकार देता है
- न्यायालय किसी भी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समन कर सकता है, उपस्थित व्यक्तियों की परीक्षा कर सकता है (भले ही उन्हें समन न गया हो), या पहले से परीक्षा किये गए व्यक्तियों को वापस बुलाकर उनकी पुन:परीक्षा कर सकता है।
दो-भाग संरचना:
- पहला भाग ("(may) सकते हैं") - विवेकाधीन शक्ति जो न्यायालय को यह तय करने की अनुमति देती है कि साक्षियों को बुलाया जाए या नहीं
- दूसरा भाग ("(shall) करेगा") - यह एक अनिवार्य दायित्त्व है जब मामले के न्यायसंगत निर्णय के लिये साक्ष्य आवश्यक हो।
दायरा:
- "कोई भी न्यायालय" और "किसी भी प्रक्रम में" शब्द न्यायालय को व्यापक विवेकाधिकार प्रदान करते हैं
- उच्चतम न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की है कि यह विवेकाधिकार व्यापक है और इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता (मोहनलाल शामजी सोनी बनाम भारत संघ, 1991)।
- इसका उद्देश्य न्यायसंगत निर्णय के लिये सत्य का अवधारण करना है (मंजू देवी बनाम राजस्थान राज्य, 2019)।
उद्देश्य:
- अभियुक्त और अभियोजन पक्ष को अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करता है।
- न्याय की विफलता को रोकता है।
- निष्पक्ष विचारण सुनिश्चित करता है।
महत्त्व:
- "दोषी साबित होने तक निर्दोष" सिद्धांत का समर्थन करता है।
- "Audi alteram partem" (दूसरे पक्ष की बात सुनना) नियम का पालन करता है।
- सभी पक्षकारों के लिये निष्पक्ष विचारण सुनिश्चित करता है।
मार्गदर्शक सिद्धांत:
- मामले के न्यायपूर्ण निर्णय के लिये साक्ष्य आवश्यक होना चाहिये।
- सत्य का अवधारण करने और उचित सबूत प्राप्त करने के लिये इसका उपयोग किया जाना चाहिए चाहिये।
- न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना चाहिये कि परीक्षा से न्याय सुनिश्चित होगा।
- साक्ष्य प्रस्तुति में त्रुटियों को दूर करने के लिये उदार दृष्टिकोण।
- अभियुक्तों को निष्पक्ष अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।
- इसका प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये, मनमाने ढंग से नहीं।
- अभियोजन पक्ष के मामले में विद्यमान कमियों को दूर करने के लिये नहीं।
- इससे पक्षकारों के प्रति गंभीर पूर्वाग्रह को रोका जा सकेगा।
- आवेदन के लिये वैध और ठोस कारण आवश्यक हैं।
- दूसरे पक्ष को खंडन का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में उपबंध:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 को अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता धारा 348 के रूप में संहिताबद्ध किया गया है- आवश्यक साक्षी को समन करने या उपस्थित व्यक्ति की परीक्षा करने की शक्ति
- कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समन कर सकेगा या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो उपस्थित हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन नहीं किया गया हो, परीक्षा कर सकेगा, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है पुनः बुला सकता है और उसकी पुनःपरीक्षा कर सकेगा।
- यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिये किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा और उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा।