करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
आपराधिक कानून
धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के अधीन ज़मानत
01-Aug-2024
रामकृपाल मीना बनाम प्रवर्तन निदेशालय “इस मामले के विशिष्ट तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिनियम की धारा 45 के अनुसार याचिकाकर्त्ता को सशर्त ज़मानत प्रदान करने के लिये उचित राहत प्रदान की जा सकती है”। न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने धन शोधन के एक मामले में आरोपी को ज़मानत दे दी।
- उच्चतम न्यायालय ने रामकृपाल मीना बनाम पोर्टफोलियो मामले में यह निर्णय दिया।
रामकृपाल मीना बनाम प्रवर्तन निदेशालय मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ता स्कूल में प्रबंधक के पद पर कार्यरत था तथा उसे REET परीक्षा के समन्वयक का सहायक नियुक्त किया गया था।
- स्ट्राँग रूम में रखे प्रश्न-पत्र तक उसकी पहुँच थी। याचिकाकर्त्ता पर आरोप है कि उसने कॉपी ले ली और उसे अन्य सह-आरोपियों को वितरित कर दिया।
- याचिकाकर्त्ता को पाँच करोड़ रुपए की रिश्वत मिलनी थी, जिसमें से जाँच अधिकारियों ने विभिन्न व्यक्तियों से 1,77,80,000/- (एक करोड़ सत्तर लाख अस्सी हज़ार रुपए) की राशि सफलतापूर्वक बरामद कर ली है।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), राजस्थान सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 1992 की धारा 4/6 तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420, 120B के अधीन दर्ज की गई थी।
- दूसरी FIR, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(2)(v) तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302, धारा 365 एवं धारा 120B के अधीन दर्ज की गई थी।
- इसके बाद, अपराध की प्रक्रिया का पता लगाने और संदिग्ध व्यक्तियों की भूमिका का पता लगाने के लिये धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के अधीन प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा जाँच प्रारंभ की गई थी।
- इस मामले में न्यायालय के समक्ष ज़मानत याचिका धन शोधन मामले के संबंध में थी।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में न्यायालय ने पाया कि शिकायत का मामला आरोप तय करने के चरण में है और 24 गवाहों से पूछताछ प्रस्तावित है।
- इस प्रकार कार्यवाही पूरी होने में कुछ उचित समय लगेगा। साथ ही, याचिकाकर्त्ता एक साल से अधिक समय से हिरासत में है।
- कोर्ट ने निम्नलिखित कारकों पर विचार करते हुए ज़मानत दी:
- अभिरक्षा में बिताई गई अवधि
- अल्प अवधि में विचारण के समापन की कोई संभावना नहीं
- याचिकाकर्त्ता पहले से ही संबंधित अपराध में ज़मानत पर है
- विचित्र तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए
- उच्चतम न्यायालय ने अंततः इस शर्त के साथ ज़मानत प्रदान की कि याचिकाकर्त्ता साक्षियों से संपर्क करने का प्रयास नहीं करेगा तथा अचल संपत्तियों आदि की सूची प्रस्तुत करेगा।
धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के अधीन ज़मानत का प्रावधान क्या है?
- धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) की धारा 45 धन शोधन के अपराध में आरोपित अभियुक्त को ज़मानत देने के लिये पूरी की जाने वाली शर्तें निर्धारित करती है।
- PMLA की धारा 45 में प्रावधान है कि किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को तब तक ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि
- लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; तथा
- जहाँ लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय संतुष्ट है कि इस विरोध को मानने के लिये उचित आधार हैं,
- कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है तथा
- कि ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है
- इसके अतिरिक्त, यह धारा यह भी प्रावधान करती है कि ये शर्तें उस स्थिति में लागू नहीं होंगी जब व्यक्ति बीमार या अशक्त हो।
- धारा यह भी प्रावधान करती है कि ज़मानत देने पर यह सीमा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) या ज़मानत देने पर वर्तमान में लागू किसी अन्य विधि के अंतर्गत निर्दिष्ट सीमाओं के अतिरिक्त है।
PMLA की धारा 45 का विकास:
- निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ (2018):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने PMLA की धारा 45 को इस आधार पर अपास्त कर दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मनमाना एवं उल्लंघनकारी है।
- इसका मुख्य कारण यह था कि इसने धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) से संबंधित अपराधों के बजाय PMLA की अनुसूची के भाग A में सूचीबद्ध अपराधों के संबंध में ज़मानत देने के लिये कठोर शर्तें लगाने की मांग की थी।
- वित्त अधिनियम, 2018 द्वारा धारा 45 में किये गए संशोधन:
- वित्त अधिनियम, 2018 द्वारा किये गए संशोधन के माध्यम से “अनुसूची के भाग A” शब्द समूह को “इस अधिनियम के अधीन” अभिव्यक्ति द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
- इसके बाद PMLA की धारा 45 की भाषा को अन्य विशेष विधियों के तुल्य किया गया।
धारा 45 ( संशोधन से पूर्व) |
धारा 45 ( संशोधन के पश्चात्) |
(1) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी तथ्य के होते हुए भी, अनुसूची के भाग-A के अधीन तीन वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध का अभियुक्त कोई व्यक्ति ज़मानत पर या अपने स्वयं के बंधपत्र पर तब तक रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि - (i) लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; तथा (ii) जहाँ लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय को विश्वास है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और यह कि ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है। |
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी तथ्य के होते हुए भी, अनुसूची के भाग-A के अधीन तीन वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध का अभियुक्त कोई व्यक्ति ज़मानत पर या अपने स्वयं के बंधपत्र पर तब तक रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि- (i) लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; तथा (ii) जहाँ लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय को विश्वास है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और यह कि ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है। |
- विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ (2022):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने 2018 के संशोधन के बाद PMLA की धारा 45 की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखा।
- न्यायालय ने माना कि 2018 के संशोधन के बाद PMLA की धारा 45 के रूप में प्रावधान उचित है तथा इसका 2002 अधिनियम द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्यों एवं लक्ष्य के साथ सीधा संबंध है और यह किसी भी तरह से मनमाना नहीं है।
- जहाँ तक ज़मानत देने की प्रार्थना का प्रश्न है, कार्यवाही की प्रकृति चाहे जो भी हो, जिसमें 1973 संहिता की धारा 438 के तहत या यहाँ तक कि संवैधानिक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करने पर भी, धारा 45 के अंतर्निहित सिद्धांत एवं कठोरताएँ लागू हो सकती हैं।
- 1973 संहिता की धारा 436 A के लाभकारी प्रावधान को 2002 अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये गिरफ्तार अभियुक्त द्वारा लागू किया जा सकता है।
- समीक्षा याचिका:
- विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ (2022) के उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध समीक्षा याचिका दायर की गई है।
- समीक्षा के लिये कई आधार हैं। हालाँकि PMLA की धारा 45 से संबंधित आधार इस प्रकार है:
- निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ (2018) के निर्णय में न्यायालय द्वारा दोहरा परीक्षण को असंवैधानिक माना गया था। हालाँकि निर्णय ने इस निर्णय के निष्कर्षों को निरस्त कर दिया है तथा दोहरी शर्तों को बहाल कर दिया है।
- तर्क यह दिया गया है कि ऐसी शर्तों का उल्लेख अन्य विधियों में भी किया गया है।
- हालाँकि यह ध्यान देने वाली बात है कि ऐसे सभी अन्य विधि जिनमें ऐसी दोहरी शर्तें शामिल हैं, वे उन अपराधों से संबंधित हैं जिनमें अंग या जीवन की हानि शामिल है और आमतौर पर आतंक से संबंधित होते हैं।
- इसके अतिरिक्त, अन्य अपराधों में CrPC के प्रावधानों का संरक्षण मौजूद है। हालाँकि इस अधिनियम के अधीन ऐसा नहीं है, जहाँ आरोपी को वास्तविक गिरफ्तारी के बाद अपनी गिरफ्तारी के आधार का पता चलता है।
- इसके अतिरिक्त, निर्णय में यह भी कहा गया है कि अग्रिम ज़मानत आवेदनों के मामले में भी दोहरी जाँच लागू होगी।
- तरसेम लाल बनाम प्रवर्तन निदेशालय जालंधर जोनल कार्यालय (2024):
- न्यायालय ने इस मामले में माना कि यदि अभियुक्त समन के अनुसरण में विशेष न्यायालय के समक्ष उपस्थित होता है, तो यह नहीं माना जा सकता कि वह अभिरक्षा में है।
- इसलिये, यहाँ अभियुक्त के लिये ज़मानत हेतु आवेदन करना आवश्यक नहीं है।
- हालाँकि विशेष न्यायालय अभियुक्त को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 88 के अधीन एक बॉण्ड निष्पादित करने का निर्देश दे सकता है। CrPC की धारा 88 के अधीन बॉण्ड स्वीकार करने का आदेश ज़मानत देने के तुल्य नहीं है तथा इसलिये ज़मानत देने की दोहरी शर्तें यहाँ लागू नहीं होती हैं।
सांविधानिक विधि
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमितता
01-Aug-2024
अरिजीत सिंह बनाम कोडिबल वेंचर्स LLP “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, किसी सेलिब्रिटी की सहमति के बिना उसके व्यक्तित्व का उल्लंघन करने या उसका शोषण करने का लाइसेंस नहीं है"। न्यायमूर्ति रियाज़ छागला |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में अरिजीत सिंह बनाम कोडिबल वेंचर्स LLP मामले में थर्ड पार्टी को बॉलीवुड गायक अरिजीत सिंह के व्यक्तित्व अधिकारों, जिसमें उनकी आवाज़, व्यक्तित्व और हस्ताक्षर शामिल हैं, का उनकी सहमति के बिना शोषण करने से प्रतिबंधित कर दिया। यह निर्णय AI कंटेंट क्रिएटर्स द्वारा मशहूर सेलिब्रिटीज़ की विशेषताओं के अनधिकृत उपयोग के बढ़ते मुद्दे पर विधिक प्रतिक्रिया को प्रकट करता है, जो डिजिटल युग में गोपनीयता और बौद्धिक संपदा के विषय में चिंताओं को दर्शाता है।
अरिजीत सिंह बनाम कोडिबल वेंचर्स LLP की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वादी, अरिजीत सिंह, एक प्रमुख भारतीय गायक हैं, जिन्होंने सेलिब्रिटी का दर्जा प्राप्त किया है तथा अपने कॅरियर के दौरान महत्त्वपूर्ण साख और प्रतिष्ठा अर्जित की है।
- सिंह ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक वाद दायर कर विभिन्न प्रतिवादियों द्वारा अनधिकृत व्यावसायिक शोषण के विरुद्ध अपने व्यक्तित्व अधिकारों और प्रचार के अधिकार की सुरक्षा की मांग की।
- प्रतिवादियों पर निम्नलिखित गतिविधियों में शामिल होने का आरोप है:
- बिना अनुमति के सिंह की आवाज़ की नकल करते हुए AI आवाज़ मॉडल बनाया।
- AI का उपयोग करके सिंह की आवाज़ की नकल करने के तरीके पर ट्यूटोरियल तैयार किया और साझा किया।
- बिना अनुमति के सिंह का नाम, चित्र और समानता वाली वस्तुएँ बेची।
- बिना अनुमति के सिंह का नाम, चित्र और समानता वाली वस्तुएँ बेचना।
- सिंह की छवि और व्यक्तित्व का उपयोग करके GIF और अन्य सामग्री बनाई तथा साझा की।
- सिंह का पूरा नाम शामिल करते हुए डोमेन नाम पंजीकृत किया।
- सिंह का तर्क है कि ये गतिविधियाँ कॉपीराइट अधिनियम के अंतर्गत एक कलाकार के रूप में उनके व्यक्तित्व अधिकारों, प्रचार के अधिकार और नैतिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।
- वादी का कहना है कि उसके व्यक्तित्व के अनधिकृत उपयोग से, विशेष रूप से AI वॉयस क्लोनिंग के माध्यम से, उसके करियर और प्रतिष्ठा को आर्थिक हानि पहुँचने का खतरा है।
- प्रतिवादी का तर्क है कि वादी के नाम, आवाज, फोटोग्राफ, छवि, समानता और व्यक्तित्व पर आधारित गाने तथा वीडियो सहित नई ऑडियो या वीडियो सामग्री बनाने के लिये AI प्रौद्योगिकी का उपयोग करना अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।
- प्रतिवादी का दावा है कि ऐसी सामग्री का निर्माण और उपयोग ऐसे तरीकों से किया जाता है जिन्हें कुछ संदर्भों में परिवर्तनकारी या गैर-वाणिज्यिक माना जाता है।
- प्रतिवादियों का यह भी कहना है कि उनकी गतिविधियों का उद्देश्य वादी के कॅरियर या आजीविका को खतरे में डालना नहीं है, बल्कि उनका उद्देश्य उचित उपयोग की सीमाओं के भीतर तकनीकी प्रगति और रचनात्मक अभिव्यक्तियों की खोज करना है।
- प्रतिवादियों के दृष्टिकोण से, वादी की विशेषताओं को दर्शाने वाली AI-जनरेटेड सामग्री के निर्माण और व्यवसायीकरण को प्रौद्योगिकी के अभिनव उपयोग के रूप में बचाव किया जाता है जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा रचनात्मक स्वतंत्रता के तहत संरक्षित किया जाना चाहिये।
- उनका मानना है कि बौद्धिक संपदा और व्यक्तित्व अधिकारों को नियंत्रित करने वाले विधिक ढाँचे की व्याख्या तकनीकी विकास को समायोजित करने के लिये की जानी चाहिये, जिससे संभवतः AI-जनित सामग्री के अनुमति योग्य उपयोगों की पुनर्परिभाषा की जा सके।
- अरिजीत सिंह ने अपने अधिकारों के आगे उल्लंघन को रोकने के लिये प्रतिवादियों के विरुद्ध एकपक्षीय अंतरिम निषेधाज्ञा की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने प्रथम दृष्टया पाया कि वादी अरिजीत सिंह ने अपनी सेलिब्रिटी स्थिति स्थापित कर ली है तथा अपना बहुमूल्य व्यक्तित्व अधिकार और प्रचार का अधिकार अर्जित कर लिया है।
- न्यायालय ने कहा कि किसी भी आवाज़ को सेलिब्रिटी की आवाज़ में बदलने के लिये AI उपकरणों का अनधिकृत उपयोग सेलिब्रिटी के व्यक्तित्व अधिकारों का उल्लंघन है।
- न्यायालय ने कहा कि इस तरह का तकनीकी शोषण, व्यक्ति के अपनी छवि और आवाज़ को नियंत्रित करने एवं उसकी रक्षा करने के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा उसकी पहचान के वाणिज्यिक व भ्रामक उपयोग को रोकने की उसकी क्षमता को क्षीण करता है।
- न्यायालय ने मशहूर हस्तियों, विशेषकर कलाकारों, के अनाधिकृत जनरेटिव AI सामग्री द्वारा निशाना बनाए जाने की आशंका पर आश्चर्य व्यक्त किया।
- न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादीगण वादी की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का लाभ उठाकर अपनी वेबसाइटों तथा AI प्लेटफाॅर्मों पर आगंतुकों को आकर्षित कर रहे थे, जिससे उसके व्यक्तित्व अधिकारों का दुरुपयोग होने की संभावना थी।
- न्यायालय ने पाया कि वादी की सहमति के बिना उसकी AI आवाज़ या प्रतिरूप में नई ऑडियो या वीडियो सामग्री का निर्माण, वादी के कॅरियर और आजीविका को संभावित रूप से खतरे में डाल सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि वादी के व्यक्तित्व के निरंतर अनधिकृत उपयोग की अनुमति देने से न केवल गंभीर आर्थिक हानि का खतरा है, बल्कि बेईमान व्यक्तियों द्वारा दुरुपयोग के अवसर भी उत्पन्न होते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आलोचना और टिप्पणी की अनुमति देती है, परंतु यह व्यावसायिक लाभ के लिये किसी सेलिब्रिटी के व्यक्तित्व का शोषण करने की छूट नहीं देती है।
- न्यायालय ने कहा कि वादी ने हाल के वर्षों में ब्रांड एंडोर्समेंट या अपने व्यक्तित्व लक्षणों के सकल व्यवसायीकरण से परहेज़ करने का सचेत व्यक्तिगत निर्णय लिया था।
- न्यायालय ने पाया कि सुविधा का संतुलन वादी के पक्ष में था और अनुरोधित राहत के बिना उसे अपूरणीय क्षति होगी।
- न्यायालय ने वादी के अधिकारों के संभावित भविष्य के उल्लंघन को संबोधित करने के लिये गतिशील निषेधाज्ञा प्रदान करना उचित समझा।
- न्यायालय ने कहा कि कुछ उल्लंघनकारी वीडियो क्लिप्स के लिये, उन्हें पूरी तरह से हटाने के बजाय, वादी के व्यक्तित्व लक्षणों के सभी संदर्भों को हटाना ही पर्याप्त होगा।
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित क्यों नहीं है?
- संवैधानिक ढाँचे में निहित वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार, लोकतांत्रिक समाजों की आधारशिला है, जो व्यक्तियों को अपनी राय व्यक्त करने तथा खुले विचार-विमर्श में शामिल होने की अनुमति देता है।
- यह अधिकार पूर्ण नहीं है तथा विधि द्वारा निर्धारित सीमाओं एवं प्रतिबंधों के अधीन है।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को गोपनीयता, बौद्धिक संपदा और सार्वजनिक व्यवस्था सहित अन्य अनिवार्य हितों तथा अधिकारों के साथ संतुलित किया जाना चाहिये।
- विधिक क्षेत्राधिकार सार्वभौमिक रूप से यह मानते हैं कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति के प्रयोग को दूसरों के अधिकारों को हानि पहुँचाने और उनके उल्लंघन से बचाकर रखना चाहिये।
- यद्यपि व्यक्तियों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है, परंतु यह अधिकार उन कार्यों तक विस्तारित नहीं होता है जो मानहानि, हिंसा को प्रोत्साहन, या सेलिब्रिटी सहित व्यक्तिगत विशेषताओं के अनधिकृत दोहन का गठन करते हों।
- बौद्धिक संपदा एवं व्यक्तित्व अधिकारों के संबंध में, यह विधि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनधिकृत उपयोग या शोषण के विरुद्ध विशिष्ट सुरक्षा प्रदान करती है।
- इसमें उनका नाम, उनकी छवि, आवाज़ और अन्य व्यक्तिगत विशेषताएँ शामिल हैं। न्यायालयों ने यह माना है कि इस तरह के अनाधिकृत शोषण को उचित ठहराने के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उदाहरण नहीं दिया जा सकता है, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि व्यक्तिगत अधिकारों और गोपनीयता का सम्मान एक वैध तथा लागू करने योग्य हित है।
- न्यायिक पूर्वनिर्णय इस बात की पुष्टि करते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बौद्धिक संपदा अधिकारों के उल्लंघन या किसी व्यक्ति की सहमति के बिना उसके व्यक्तित्व के व्यावसायिक शोषण की अनुमति नहीं देती है। इस प्रकार की सुरक्षा यह सुनिश्चित करने के लिये अभिन्न है कि स्वतंत्र भाषण का प्रयोग, व्यक्तियों के अपनी व्यक्तिगत और व्यावसायिक पहचान को नियंत्रित करने तथा उससे लाभ उठाने के अधिकारों का अतिक्रमण न करे।
- संक्षेप में, जबकि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक महत्त्वपूर्ण और संरक्षित अधिकार है, यह अन्य अधिकारों तथा हितों की रक्षा के लिये बनाए गए विधिक प्रतिबंधों से बंधा हुआ है। यह संतुलन सुनिश्चित करता है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति का प्रयोग व्यक्तियों के संरक्षित अधिकारों, जिसमें उनके व्यक्तिगत और बौद्धिक संपदा अधिकार शामिल हैं, को क्षीण या उल्लंघन नहीं करता है।
इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?
- भारत में, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में निहित है।
- इस अनुच्छेद का दर्शन संविधान की प्रस्तावना में निहित है, जहाँ सभी नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का गंभीर संकल्प किया गया है।
- अनुच्छेद 19(1)(a) में निम्नलिखित आयाम शामिल हैं:
- प्रेस की स्वतंत्रता
- व्यावसायिक भाषण की स्वतंत्रता
- प्रसारण का अधिकार
- सूचना का अधिकार
- आलोचना का अधिकार
- राष्ट्रीय सीमाओं से परे अभिव्यक्ति का अधिकार
- न बोलने का अधिकार या चुप रहने का अधिकार
- संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a), के आवश्यक तत्त्व:
- यह अधिकार केवल भारत के नागरिकों को उपलब्ध है, विदेशी नागरिकों को नहीं।
- इसमें किसी भी मुद्दे पर किसी भी माध्यम से अपने विचार और राय व्यक्त करने का अधिकार शामिल है, जैसे मौखिक रूप से, लिखित रूप में, मुद्रण द्वारा, चित्र, फिल्म, चलचित्र आदि के माध्यम से।
- हालाँकि यह अधिकार असीमित नहीं है और यह सरकार को तर्कसंगत प्रतिबंध लगाने के लिये विधान बनाने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 19(2) भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिये उकसावे के मामले में इस अधिकार पर तर्कसंगत प्रतिबंध लगाता है।
- इन प्रावधानों की न्यायिक व्याख्या समय के साथ विकसित हुई है, जिसने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रूपरेखा को आकार दिया है।
निर्णयज विधियाँ:
- श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015):
- उच्चतम न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66A को रद्द कर दिया, जो संचार सेवाओं के माध्यम से "आपत्तिजनक" संदेश भेजने को अपराध बनाती थी।
- न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट है तथा इसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- इस निर्णय में ऑनलाइन अभिव्यक्ति की सुरक्षा के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिये उच्च मानदंड निर्धारित किये गये।
- हालाँकि न्यायालयों ने लगातार यह माना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है।
- सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ (2016):
- उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक मानहानि विधियों की संवैधानिक वैधता को यथावत रखते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का अर्थ किसी अन्य की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने की स्वतंत्रता नहीं है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त है।
- व्यक्तित्व अधिकार की अवधारणा, जिसमें प्रचार का अधिकार भी शामिल है, को भारतीय न्यायालयों द्वारा अनुच्छेद 21 के अंतर्गत गोपनीयता के अधिकार के विस्तार के रूप में मान्यता दी गई है।
- ICC डेवलपमेंट (इंटरनेशनल) लिमिटेड बनाम आर्वी एंटरप्राइजेज़ (2003):
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने सेलिब्रिटी की पहचान के व्यावसायिक मूल्य तथा उसे अनधिकृत शोषण से बचाने की आवश्यकता को स्वीकार किया।
सिविल कानून
मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत क्षतिपूर्ति
01-Aug-2024
बजाज आलियांज जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सुनीता वीरेंद्र साहनी "पिता जो मृतक का द्वितीय श्रेणी का उत्तराधिकारी है, वह अपने बेटे पर निर्भरता के कारण मोटर वाहन अधिनियम के अधीन क्षतिपूर्ति का दावा करने का अधिकारी है।" न्यायमूर्ति अरुण पेंडेकर |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बजाज आलियांज जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सुनीता वीरेंद्र साहनी के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना है कि निर्भरता के बिना भी बीमा कंपनी का दायित्व समाप्त नहीं होता है तथा यह दावेदारों को दावा याचिका दायर करने से नहीं रोकता है।
बजाज आलियांज जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सुनीता वीरेंद्र साहनी मामले की क्या पृष्ठभूमि थी?
- इस मामले में एक व्यक्ति सड़क पार कर रहा था, जिसे ऑटो रिक्शा ने टक्कर मार दी और उसकी मृत्यु हो गई।
- मृतक (प्रतिवादी) के माता-पिता, पत्नी एवं बेटी ने मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT) के समक्ष दावा दायर किया।
- मृतक की आय सिद्ध नहीं हुई, लेकिन यह दलील दी गई कि मृतक एक कुशल श्रमिक था तथा उसकी आय 6,000 रुपए थी।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि मृतक के माता-पिता का दावा स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि वे एक गाँव में अलग-अलग रहते थे तथा इसलिये, वे मृतक के आश्रितों के रूप में दावा नहीं कर सकते।
- हालाँकि MACT ने प्रतिवादी के पक्ष में आदेश पारित किया तथा 14,14,000 रुपए की क्षतिपूर्ति निर्धारित की।
- MACT के निर्णय से व्यथित वादी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों का अवलोकन किया तथा निष्कर्ष निकाला कि आश्रितता की अनुपस्थिति में भी मृतक के अधीन दावा करने वाले व्यक्ति का क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार समाप्त नहीं होता।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि आश्रितता के बिना भी बीमा कंपनी की देयता समाप्त नहीं होती तथा दावेदारों को दावा याचिका दायर करने से नहीं रोकती।
- उच्च न्यायालय ने माना कि माता-पिता बेटे के आश्रित हैं, चाहे वे साथ रहते हों या अलग-अलग।
- इसलिये, वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता द्वारा वादी द्वारा की गई दलील को खारिज कर दिया गया तथा बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि सभी दावेदार क्षतिपूर्ति के अधिकारी हैं और MACT के निर्णय की पुष्टि की।
निर्णयज विधियाँ:
- मोंटफोर्ड ब्रदर्स ऑफ सेंट गेब्रियल एवं अन्य बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2014): इस मामले में यह माना गया कि मृतक का प्रत्येक विधिक प्रतिनिधि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 (MV) के अंतर्गत क्षतिपूर्ति का दावा करने का अधिकारी है।
मोटर वाहन अधिनियम का उद्देश्य:
- सड़क सुरक्षा।
- कुशल परिवहन।
- सड़क उपयोगकर्त्ताओं के अधिकारों का संरक्षण।
- यह अधिनियम यातायात विनियमन, वाहन मानकों, लाइसेंसिंग एवं उल्लंघन के लिये दण्ड हेतु एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करता है।
मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत विधिक प्रतिनिधि कौन हैं?
- मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166 के खंड (1) के अनुसार निम्नलिखित दावेदार एवं विधिक प्रतिनिधि हो सकते हैं:
- उसे चोट लगी है।
- वह संपत्ति का स्वामी है।
- वह मोटर दुर्घटना में मरने वाले व्यक्ति का विधिक प्रतिनिधि है।
- वह घायल व्यक्ति या मृतक के विधिक प्रतिनिधियों द्वारा अधिकृत अभिकर्त्ता (एजेंट) है।
दावा अधिकरणों के समक्ष दावा करने के लिये आवश्यक शर्तें क्या हैं?
- धारा 165, खंड (1) के अनुसार दावा अधिकरणों के समक्ष क्षतिपूर्ति का दावा करने के लिये निम्नलिखित परिस्थितियों का होना आवश्यक है:
- जब दुर्घटना में किसी व्यक्ति की मृत्यु या शारीरिक चोट शामिल हो।
- जब दुर्घटना के परिणामस्वरूप किसी तीसरे पक्ष की संपत्ति की हानि हो।
- जब ऐसी दुर्घटनाएँ मोटर वाहनों के उपयोग से उत्पन्न होती हैं।