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सांविधानिक विधि
e-DHCR पोर्टल
06-Aug-2024
"यह डिजिटल परिवर्तन समावेशिता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है"। मुख्य न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
5 अगस्त, 2024 को भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के रिपोर्ट योग्य निर्णयों के लिये एक नया पोर्टल e-DHCR लॉन्च किया।
- इस पोर्टल में वर्ष 2007 से मई 2024 तक दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय शामिल होंगे।
- यह दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णयों की रिपोर्टिंग के लिये एक उपयोगकर्त्ता के अनुकूल मंच है।
- पोर्टल को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और दिल्ली उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन एवं न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की उपस्थिति में लॉन्च किया गया।
- न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा e-DHCR समिति के अध्यक्ष हैं।
CJI डी. वाई. चंद्रचूड़ की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- CJI डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि यह विधिक ज्ञान के लोकतांत्रिक प्रसार को सुनिश्चित करने में एक परिवर्तन को चिह्नित करेगा। पूर्व निर्णय एवं न्यायिक निर्णय अब इंटरनेट किसी भी उपभोगकर्त्ता के लिये उपलब्ध होंगे।
- CJI डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि यह विधिक व्यवसायियों, शोधकर्त्ताओं, शिक्षाविदों एवं छात्रों के लिये एक बहुमूल्य संसाधन होगा।
- उन्होंने कहा कि यह पहल विधिक क्षेत्र में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व एवं समावेशिता के लिये नए मानक स्थापित करेगी।
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन ने प्लेटफॉर्म के विषय में क्या कहा?
- न्यायमूर्ति मनमोहन ने कहा कि शोध की सटीकता में सुधार के लिये इस प्लेटफॉर्म में उन्नत कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) शोध एल्गोरिदम का उपयोग किया गया है, जो उपयोगकर्त्ताओं को विधिक सूचना तक सटीक रूप से पहुँचने में सहायता करेगा।
- उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर की मदद से e-DHCR पोर्टल पर उपलब्ध न्यायिक रिकॉर्ड के 16435 पन्नों का अनुवाद किया गया है। इससे अंग्रेज़ी एवं हिंदी दोनों भाषाओं में भाषा वरीयता सुनिश्चित हुई है।
- इस प्रकार, उन्होंने कहा कि यह पोर्टल न केवल युवा अधिवक्ताओं बल्कि अंग्रेज़ी में पारंगत न होने वाले विधि के छात्रों के लिये भी सहायक सिद्ध होगा।
अन्य समान पहल क्या है?
- e- SCR पोर्टल
- इलेक्ट्रॉनिक उच्चतम न्यायालय रिपोर्ट्स (e- SCR) पोर्टल विभिन्न हितधारकों के लिये समान निर्णयों का पता लगाने के लिये डिज़ाइन किया गया एक पोर्टल है।
- यह उच्चतम न्यायालय के निर्णयों का डिजिटल संस्करण प्रदान करने की एक पहल है, जिस तरह से उन्हें आधिकारिक विधिक रिपोर्ट, उच्चतम न्यायालय रिपोर्ट्स में रिपोर्ट किया जाता है।
- वर्ष 1950 में उच्चतम न्यायालय की स्थापना से लेकर आज तक के निर्णय इस प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध होंगे।
- e- SCR में शोध सुविधा मुफ्त टेक्स्ट शोध, शोध के संदर्भ में खोज, मामले के प्रकार और मामले के वर्ष की खोज, न्यायाधीश के विषय में पता लगाना, वर्ष एवं वॉल्यूम की खोज बेच स्ट्रेंथ की खोज अदि अन्य विकल्प प्रदान करती है।
- इनबिल्ट इलास्टिक सर्च त्वरित एवं उपयोगकर्त्ता के अनुकूल खोज परिणामों की सुविधा प्रदान करता है।
- ये निर्णय उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट, उसके मोबाइल ऐप एवं राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के निर्णय पोर्टल पर उपलब्ध होंगे।
- डिजिटल न्यायालय 2.0
- यह न्यायालयी कार्यवाही के वास्तविक समय प्रतिलेखन के लिये AI का उपयोग करता है।
- यह कुशल रिकॉर्ड रखने एवं न्यायिक प्रक्रियाओं की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उत्थान का प्रतिनिधित्व करता है।
- FASTER (इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का तेज़ एवं सुरक्षित प्रसारण)
- यह एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है, जो उच्चतम न्यायालय के अंतरिम आदेशों, स्थगन आदेशों, ज़मानत आदेशों आदि को संबंधित अधिकारियों तक सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक संचार चैनल के माध्यम से संप्रेषित करता है।
- ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ ऐसे आदेशों के संचार में विलंब के कारण उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित ज़मानत आदेशों के बावजूद जेल के कैदियों को रिहा नहीं किया गया है।
- इसलिये, न्यायालय के आदेशों के कुशल प्रसारण के लिये सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी उपकरणों का उपयोग करने की आवश्यकता थी।
- SUPACE (न्यायालय की दक्षता में सहायता के लिये उच्चतम न्यायालय पोर्टल)
- यह एक AI आधारित पोर्टल है जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों को विधिक शोध में सहायता करना है।
- यह एक ऐसा उपकरण है जो प्रासंगिक तथ्यों एवं विधियों को एकत्रित करता है तथा उन्हें न्यायाधीश को उपलब्ध कराता है।
- इसे निर्णय लेने के लिये नहीं बनाया गया है, बल्कि केवल तथ्यों को संसाधित करने एवं निर्णय के लिये इनपुट की तलाश कर रहे न्यायाधीशों को उपलब्ध कराने के लिये बनाया गया है।
- प्रारंभ में इसका प्रयोग बॉम्बे एवं दिल्ली उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा प्रायोगिक आधार पर किया जाएगा जो आपराधिक मामलों से निपटते हैं।
- e- कोर्ट्स प्रोजेक्ट्स
- वर्चुअल कोर्ट या ई-कोर्ट एक अवधारणा है जिसका उद्देश्य न्यायालय में वादियों या अधिवक्ताओं की उपस्थिति को समाप्त करना तथा मामले का ऑनलाइन निर्णय करना है।
- e-कोर्ट परियोजना की अवधारणा “भारतीय न्यायपालिका में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) के कार्यान्वयन के लिये राष्ट्रीय नीति एवं कार्य योजना - 2005” के आधार पर भारत के उच्चतम न्यायालय की e-समिति द्वारा प्रस्तुत की गई थी, जिसका उद्देश्य न्यायालयों को ICT सक्षमता द्वारा भारतीय न्यायपालिका को सहज बनाना था।
- e-कोर्ट मिशन मोड परियोजना, एक अखिल भारतीय परियोजना है, जिसकी निगरानी एवं वित्तपोषण देश भर के ज़िला न्यायालयों के लिये विधि एवं न्याय मंत्रालय के न्याय विभाग द्वारा किया जाता है।
- e-कोर्ट की सहायता से भारत में न्यायपालिका प्रणाली चुनौतियों पर नियंत्रण प्राप्त कर सकती है तथा सेवा वितरण तंत्र को पारदर्शी एवं लागत-कुशल बना सकती है।
- न्यायालयी कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग के लिये प्रारूप का नियम
- ये नियम न्यायपालिका में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) के कार्यान्वयन के लिये राष्ट्रीय नीति एवं कार्य योजना का हिस्सा हैं।
- ये नियम उच्च न्यायालयों, अधीनस्थ न्यायालयों और अधिकरणों में कार्यवाही की लाइव-स्ट्रीमिंग एवं रिकॉर्डिंग को शामिल करेंगे।
- प्रारूप के नियमों में यह प्रावधान है कि दाम्पत्य विवादों, लिंग आधारित हिंसा, अप्राप्तवय से संबंधित मामलों और “ऐसे मामलों को छोड़कर, जो पीठ की राय में समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा सकते हैं तथा जिसके परिणामस्वरूप विधि एवं व्यवस्था का उल्लंघन हो सकता है” उच्च न्यायालयों में सभी कार्यवाहियों का प्रसारण किया जा सकता है।
- NJDG पोर्टल
- CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने 2023 में घोषणा की कि अब लंबित मामलों एवं निपटान से संबंधित उच्चतम न्यायालय का डेटा NJDG पोर्टल पर उपलब्ध होगा।
- एनजेडीजी एक व्यापक संग्रह प्रदान करता है जिसमें ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों, उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालयों के आदेश, निर्णय व मामले के विवरण शामिल हैं।
- यह वेब पोर्टल सभी आगंतुकों के लिये आँकड़ों तक स्वतंत्र एक्सेस को सक्षम बनाता है।
- इसके अतिरिक्त, NJDG एक निर्णय समर्थन प्रणाली के रूप में कार्य करता है, जो विभिन्न विशेषताओं के आधार पर मामले के विलंब की निगरानी करने में न्यायालयों की सहायता करता है, जैसे कि वर्षवार, फोरमवार लंबित मामले एवं विधि की प्रत्येक शाखा जैसे कि सिविल, आपराधिक आदि में लंबित मामले।
सिविल कानून
न्यायालय अवमान अधिनियम के अंतर्गत अपील
06-Aug-2024
अजय कुमार भल्ला एवं अन्य बनाम प्रकाश कुमार दीक्षित "अवमानना कार्यवाही में पीड़ित व्यक्ति के पास उपाय नहीं होता। इस तरह के आदेश को अंतर-न्यायालय अपील में चुनौती दी जा सकती है या भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपील करने के लिये विशेष अनुमति मांगी जा सकती है।" भारत के मुख्य न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अजय कुमार भल्ला एवं अन्य बनाम प्रकाश कुमार दीक्षित के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि दण्ड आदेश न होने की स्थिति में भी खण्डपीठ के विरुद्ध अपील स्वीकार्य है।
अजय कुमार भल्ला एवं अन्य बनाम प्रकाश कुमार दीक्षित मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- प्रतिवादी केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल में ऑफिसर कमांडिंग के पद पर तैनात था, जब उसके विरुद्ध कथित कदाचार के कारण अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रारंभ हुई।
- उसे ट्रायल कोर्ट ने सेवा से हटा दिया था, जिसके विरुद्ध उसने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की थी।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को पलट दिया तथा प्रतिवादी को अन्य लाभों के साथ सेवा में पुनः नियुक्त किया।
- उच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन नहीं किया गया, जिसके कारण प्रतिवादी ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अवमानना कार्यवाही दायर की।
- 8 मार्च, 2021 को प्रतिवादी को सेवा में पुनः नियुक्त किया गया तथा 17 अक्तूबर 2021 को उन्हें 22 मार्च, 2023 के आदेश से काल्पनिक आधार पर डिप्टी कमांडेंट के पद पर पदोन्नत किया गया।
- प्रतिवादी 31 मार्च, 2023 को सेवानिवृत्त हो गया।
- उच्च न्यायालय के एकल पीठ के न्यायाधीश ने प्रतिवादी को 2021 से उसकी सेवानिवृत्ति तिथि 31 मार्च, 2023 तक महानिरीक्षक के पद तक सभी पदोन्नतियाँ देने का आदेश दिया।
- न्यायाधीश ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा पारित निर्देशों की जानबूझकर अवज्ञा की गई है।
- इस आदेश के विरुद्ध वादी ने लैटर्स पेटेंट अपील दायर की, जिसे खण्ड पीठ ने खारिज कर दिया।
- पीठ ने कहा कि अपील स्वीकार्य नहीं है क्योंकि वादी के विरुद्ध कोई दण्डात्मक आदेश नहीं दिया गया है।
- पीठ ने कहा कि अपील स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यह न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 (CC) की धारा 19 की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करती है।
- वादी ने खण्ड पीठ निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने CC अधिनियम की धारा 19 की परिधि का अवलोकन किया।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि खंडपीठ के निष्कर्षों को निर्धारित करने की आवश्यकता है।
- उच्चतम न्यायालय ने मिदनापुर पीपुल्स को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड एवं अन्य बनाम चुन्नीलाल नंदा एवं अन्य (2006) के निर्णय पर विश्वास किया, जहाँ यह माना गया था कि धारा 19 के अधीन अपील केवल अवमान के लिये दण्ड देने वाले आदेश के विरुद्ध है।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी महानिरीक्षक के पद पर पदोन्नति का अधिकारी था तथा मिदनापुर पीपुल्स मामले से निष्कर्ष निकालते हुए अपील के लिये उत्तरदायी था।
- यह अनुमान लगाया गया कि अवमानना कार्यवाही में पीड़ित व्यक्ति के पास उपाय उपलब्ध है।
- इस तरह के आदेश को अंतर-न्यायालय अपील में चुनौती दी जा सकती है या विधि द्वारा दी गई अनुमति के आधार पर भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपील करने के लिये विशेष अनुमति मांगी जा सकती है।
- उच्चतम न्यायालय ने खण्ड पीठ के आदेश को पलट दिया तथा कहा कि लैटर पेटेंट अपील पर विचारण किया जाए।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि जब तक मामला दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष पुनः सूचीबद्ध नहीं हो जाता, तब तक अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 क्या है?
- C C अधिनियम वर्ष 1971 में संसद द्वारा पारित किया गया था तथा 24 दिसंबर, 1974 को लागू हुआ।
- C C अधिनियम का मुख्य उद्देश्य न्यायालयों की अखंडता की रक्षा करना है।
- यह C C अधिनियम न्यायालय को अपनी अवमानना के विरुद्ध दण्ड देने की अंतर्निहित शक्तियाँ प्रदान करता है।
- न्यायालय अवमान न्यायिक संस्थाओं को उत्प्रेरित हमलों एवं अनुचित आलोचना से बचाने का प्रयास करती है तथा इसके अधिकार को कम करने वालों को दण्डित करने के लिये एक विधिक तंत्र के रूप में कार्य करती है।
- जब संविधान को अपनाया गया था, तो न्यायालय अवमान को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अंतर्गत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों में से एक बनाया गया था।
- इसके अतिरिक्त, संविधान के अनुच्छेद 129 ने उच्चतम न्यायालय को स्वयं की अवमानना के लिये दण्डित करने की शक्ति प्रदान की।
- अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को इसी प्रकार की शक्ति प्रदान की।
न्यायालय अवमान के प्रकार
- सिविल अवमानना: यह न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या अन्य प्रक्रिया की जानबूझकर अवज्ञा या न्यायालय को दिये गए वचन का जानबूझकर उल्लंघन है।
- आपराधिक अवमानना: यह किसी भी मामले का प्रकाशन या किसी अन्य कार्य को करना है जो किसी भी न्यायालय के अधिकार को बदनाम या कम करता है या किसी भी न्यायिक कार्यवाही के नियत क्रम में हस्तक्षेप करता है या किसी अन्य तरीके से न्याय प्रशासन को बाधित करता है।
न्यायालय अवमान अधिनियम के अंतर्गत सज़ा
- C C अधिनियम की धारा 12 में कहा गया है कि दोषी को छह महीने तक का कारावास या 2,000 रुपए का अर्थदण्ड या दोनों हो सकते हैं।
- वर्ष 2006 में इसमें बचाव के तौर पर “सत्य एवं सद्भावना” को शामिल करने के लिये संशोधन किया गया था।
- इसमें यह भी जोड़ा गया कि न्यायालय केवल तभी दण्ड लगा सकती है जब दूसरे व्यक्ति का कार्य न्याय के उचित तरीके में काफी हद तक हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता हो।
न्यायालय अवमान अधिनियम के अधीन बचाव
- सिविल अवमानना
- CC अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत निम्नलिखित बचाव शामिल किये जा सकते हैं।
- आदेश का कोई ज्ञान नहीं।
- अवज्ञा या उल्लंघन जानबूझकर नहीं किया गया था।
- जिस आदेश की अवहेलना की गई है वह अस्पष्ट या संदिग्ध है।
- आदेश में उचित व्याख्या से अधिक शामिल है।
- आदेश का अनुपालन असंभव है।
- आदेश अधिकार क्षेत्र के बिना पारित किया गया है।
- CC अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत निम्नलिखित बचाव शामिल किये जा सकते हैं।
- आपराधिक अवमानना
- सामग्री का निर्दोष प्रकाशन एवं वितरण (C C अधिनियम की धारा 3)
- न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष एवं सटीक रिपोर्ट (C C अधिनियम की धारा 4)
- न्यायिक कार्य की निष्पक्ष आलोचना (C C अधिनियम की धारा 5)
- अधीनस्थ न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के विरुद्ध सद्भावनापूर्ण शिकायत (C C अधिनियम की धारा 6)
- न्याय के उचित क्रम में कोई महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप नहीं ( C C अधिनियम की धारा 13)
- सत्य द्वारा औचित्य ( C C अधिनियम की धारा 13)।
- जिस कथन की शिकायत की गई है, उसकी अलग-अलग व्याख्याएँ की जा सकती हैं।
न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 के अधीन अपील
- अपील से संबंधित प्रावधान C C अधिनियम की धारा 19 के अधीन दिये गए हैं
- खंड (1) में कहा गया है कि अवमानना के लिये दण्डित करने के अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय के किसी आदेश या निर्णय के विरुद्ध अपीलीय अधिकार के रूप में होगी-
- जहाँ आदेश या निर्णय एकल न्यायाधीश का है, वहाँ न्यायालय के कम-से-कम दो न्यायाधीशों की पीठ को।
- जहाँ आदेश या निर्णय पीठ का है, वहाँ उच्चतम न्यायालय को परंतु जहाँ आदेश या निर्णय किसी संघ राज्यक्षेत्र में न्यायिक आयुक्त के न्यायालय का है, वहाँ ऐसी अपील उच्चतम न्यायालय में होगी।
- खंड (2) में कहा गया है कि किसी अपील के लंबित रहने तक अपीलीय न्यायालय आदेश दे सकता है कि-
- जिस सज़ा या आदेश के विरुद्ध अपील की गई है, उसका निष्पादन निलंबित किया जाए।
- यदि अपीलकर्त्ता कारावास में है, तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जाए।
- अपील पर विचारण की जाए, भले ही अपीलकर्त्ता ने अपनी अवमानना का परित्याग नहीं किया हो।
- खंड (3) में कहा गया है कि जहाँ कोई व्यक्ति किसी आदेश से व्यथित है, जिसके विरुद्ध अपील दायर की जा सकती है, वह उच्च न्यायालय को यह संतुष्टि देता है कि वह अपील करने का आशय रखता है, तो उच्च न्यायालय उप-धारा (2) द्वारा प्रदत्त सभी या किसी भी शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
- खंड (4) में कहा गया है कि उपधारा (1) के अंतर्गत अपील दायर की जाएगी-
- उच्च न्यायालय की पीठ में अपील के मामले में तीस दिन के अंदर।
- उच्चतम न्यायालय में अपील के मामले में उस आदेश की तिथि से साठ दिन के अंदर जिसके विरुद्ध अपील की गई है।
- खंड (1) में कहा गया है कि अवमानना के लिये दण्डित करने के अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय के किसी आदेश या निर्णय के विरुद्ध अपीलीय अधिकार के रूप में होगी-
सिविल कानून
विविध आवेदनों में लिखित बयान हेतु समय-सीमा विस्तार
06-Aug-2024
फेडरल ब्रांड्स लिमिटेड बनाम कॉसमॉस प्रेमाइसिस प्राइवेट लिमिटेड “कोई भी सांविधिक प्रावधान, लंबित विविध आवेदनों के कारण लिखित बयान दाखिल करने की समय-सीमा को नहीं बढ़ाता है ”। न्यायमूर्ति भारत पी. देशपांडे |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति भारत पी. देशपांडे ने स्पष्ट किया कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) लिखित बयान दाखिल करने में विलंब की गणना करते समय विविध आवेदन के लंबित रहने की अवधि को ध्यान में नहीं रखती है। यह निर्णय इस बात को प्रभावित करता है कि न्यायालय सिविल मामलों में विलंब से कैसे निपटते हैं और प्रक्रियात्मक समय-सीमाओं का कठोरता से पालन सुनिश्चित करते है।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने फेडरल ब्रांड्स लिमिटेड बनाम कॉसमॉस प्रेमाइसिस प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह निर्णय दिया।
फेडरल ब्रांड्स लिमिटेड बनाम कॉसमॉस प्रीमाइसिस प्राइवेट लिमिटेड की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता (प्रतिवादी) को प्रत्यर्थी (वादी) द्वारा संस्थित वाद में 18 अगस्त, 2022 को ट्रायल कोर्ट से एक समन प्राप्त हुआ।
- प्रतिवादी ने प्रारंभ में लिखित बयान दाखिल करने के लिये समय-सीमा विस्तार की मांग की थी और उसे यह समय-सीमा प्रदान कर दी गई थी।
- लिखित बयान दाखिल करने के बजाय, प्रतिवादी ने 5 नवंबर, 2022 को शिकायत को खारिज करने के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया।
- ट्रायल कोर्ट ने 9 फरवरी, 2023 को इस आवेदन पर विचारण किया और उसे खारिज कर दिया।
- इस अस्वीकृति के उपरांत, प्रतिवादी ने 3 मार्च, 2023 को विलंब की क्षमा के लिये एक आवेदन दायर किया, साथ ही एक लिखित बयान भी रिकॉर्ड पर लिया जाना था।
- विलंब आवेदन का समर्थन करते हुए एक अतिरिक्त शपथ-पत्र, 27 जून, 2023 को दायर किया गया।
- ट्रायल कोर्ट ने 11 दिसंबर, 2023 को विलंब आवेदन को खारिज कर दिया।
- प्रतिवादी ने दावा किया कि उनके विधिक सलाहकार अधिवक्ता ने सलाह दी थी कि आदेश VII नियम 11 CPC के अंतर्गत आवेदन दायर करने से, आवेदन पर निर्णय होने तक लिखित बयान दायर करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
- प्रतिवादी ने यह भी तर्क दिया कि जिस अवधि के दौरान आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत किया गया आवेदन लंबित था (3 नवंबर, 2022 से 9 फरवरी, 2023 तक) उस अवधि को विलंब की गणना करते समय बाहर रखा जाना चाहिये।
- इस गणना के आधार पर, प्रतिवादी ने दावा किया कि लिखित बयान दाखिल करने में विलंब केवल 14 दिन का था।
- प्रतिवादी ने वर्तमान याचिका में विलंबित आवेदन को ट्रायल कोर्ट द्वारा खारिज किये जाने के निर्णय को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- CPC विविध आवेदन लंबित रहने के दौरान लिखित बयान दाखिल करने की समयावधि में किसी प्रकार के बहिष्करण या विस्तार का प्रावधान नहीं करता है।
- CPC के आदेश VIII नियम 1 के अनुसार समन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर लिखित बयान दाखिल करना आवश्यक है तथा न्यायालय द्वारा लिखित रूप में दर्ज कारणों से इसे 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी सरलता से वाद को खारिज करने के आवेदन के साथ लिखित बयान दाखिल कर सकता था।
- उच्च न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी द्वारा विलंब की गणना गलत अनुमान पर आधारित थी, क्योंकि आदेश VII नियम 11 में आवेदन लंबित रहने की अवधि को छोड़ने का कोई प्रावधान नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि लिखित बयान 160 दिनों के विलंब के उपरांत दाखिल किया गया था, न कि 14 दिनों के बाद जैसा कि प्रतिवादी ने दावा किया था।
- उच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विधि की अज्ञानता या गलत सलाह विलंब की क्षमा हेतु पर्याप्त आधार नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि किसी विधिक सलाहकार अधिवक्ता को प्रतिवाद या स्पष्टीकरण का अवसर दिये बिना उसे दोषी ठहराना उचित नहीं है।
विलंब की क्षमा हेतु मांगे गए आधार:
- प्रतिवादी ने दावा किया कि उनके विधिक सलाहकार अधिवक्ता ने सलाह दी थी कि आदेश VII नियम 11 CPC के अंतर्गत आवेदन दायर करने से आवेदन पर निर्णय होने तक लिखित बयान दायर करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
- प्रतिवादी ने तर्क दिया कि जिस अवधि के दौरान आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत किया गया आवेदन लंबित था, उसे विलंब की गणना करते समय बाहर रखा जाना चाहिये।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि यदि आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत किये गए आवेदन को अनुमति दी गई होती, तो लिखित बयान दाखिल करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती।
- प्रतिवादी ने दावा किया कि लिखित बयान दाखिल करने की आवश्यकता आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत किये गए आवेदन की अस्वीकृति के उपरांत ही उत्पन्न हुई।
- लंबित आवेदन की अवधि को छोड़कर उनकी गणना के आधार पर, प्रतिवादी ने दावा किया कि लिखित बयान दाखिल करने में वास्तविक विलंब मात्र 14 दिन का था।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि उनके पास अपने बचाव में उचित तथ्य हैं और यदि उन्हें लिखित बयान दर्ज करने का अवसर नहीं दिया गया तो उन्हें गंभीर हानि होगी।
- प्रतिवादी ने विलंब की क्षमा के लिये लागत शुल्क राशि जमा करने की इच्छा व्यक्त की तथा तर्क दिया कि विलंब की क्षमा देने से वादी/प्रतिवादी को कोई हानि नहीं होगी।
लिखित बयान क्या है?
परिचय
- प्रतिवादी की दलील है कि लिखित बयान का अर्थ, सामान्य तौर पर वादी द्वारा दायर शिकायत का उत्तर होता है। यह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VIII में लिखित बयानों से संबंधित प्रावधान हैं।
- CPC , 1908 के अंतर्गत एक लिखित बयान है-
- वादी के दावे या शिकायत पर प्रतिवादी द्वारा दायर औपचारिक प्रतिक्रिया।
- इसमें सामन्यतः प्रतिवादी के मामले के तथ्यों का संस्करण, वादी के आरोपों का खंडन तथा विधिक बचाव शामिल होते हैं।
- यह सामान्यतः प्रतिवादी को समन मिलने के 30 दिनों के भीतर दायर किया जाता है, हालाँकि कुछ परिस्थितियों में इसकी समय-सीमा को बढ़ाया जा सकता है।
- लिखित बयान के अंतर्गत शिकायत में आरोपित सभी तथ्यों का उल्लेख होना चाहिये तथा उन्हें विशेष रूप से स्वीकार या अस्वीकार किया जाना चाहिये।
- इसमें प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध किये जाने वाले किसी भी प्रतिवाद को भी शामिल किया जा सकता है।
- बयान को प्रतिवादी या उनके अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिये।
इसमें क्या विधिक प्रावधान शामिल हैं?
नियम 11 आदेश VII, वादपत्र की अस्वीकृति से संबंधित है।
- वादपत्र की अस्वीकृति के आधार:
- न्यायालय निम्नलिखित परिस्थितियों में किसी शिकायत को खारिज कर देगा:
(a) जहाँ वादपत्र में कार्यवाही का कारण बताने में असफलता मिलती है;
(b) जहाँ वादी को न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट समय-सीमा के भीतर राहत के निम्नस्तरीय मूल्यांकन को सही करने का निर्देश दिये जाने पर, वह ऐसे निर्देश का पालन करने में विफल रहता है;
(c) जहाँ, अनुतोष के उचित मूल्यांकन के बावजूद, वादपत्र अपर्याप्त रूप से स्टाम्प किये गए कागज़ पर दायर किया जाता है और वादी को, जब न्यायालय द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर अपेक्षित स्टाम्प-पेपर प्रस्तुत करने का आदेश दिया जाता है, तो वह ऐसा करने में विफल रहता है;
(d) जहाँ दलीलों से यह स्पष्ट है कि वाद विधि के प्रवर्तन द्वारा वर्जित है;
(e) जहाँ वादपत्र दो प्रतियों में दायर नहीं किया गया है;
(f) जहाँ वादी नियम 9 में निर्धारित प्रावधानों का पालन करने में विफल रहता है। - बशर्ते कि न्यायालय मूल्यांकन में सुधार या अपेक्षित स्टाम्प-पेपर प्रस्तुत करने के लिये निर्धारित समय-सीमा को तब तक नहीं बढ़ाएगा जब तक कि:
(i) न्यायालय, दर्ज किये जाने वाले कारणों से, इस बात से संतुष्ट है कि वादी को असाधारण परिस्थितियों के कारण निर्दिष्ट समय के भीतर न्यायालय के निर्देश का पालन करने से रोका गया था; तथा
(ii) न्यायालय ने यह निर्णय लिया है कि ऐसा विस्तार करने से प्रतिषेध करने पर वादी के साथ घोर अन्याय होगा।
- न्यायालय निम्नलिखित परिस्थितियों में किसी शिकायत को खारिज कर देगा:
- आदेश VIII का नियम 1, लिखित बयानों से संबंधित है।
- दाखिल करने की अंतिम तिथि: प्रतिवादी को समन प्राप्त होने की तिथि से 30 दिनों के भीतर अपना लिखित बचाव कथन प्रस्तुत करना आवश्यक है।
- समय विस्तार: यदि प्रतिवादी प्रारंभिक 30 दिन की अवधि के भीतर दावा दायर करने में विफल रहता है, तो न्यायालय समय विस्तार दे सकता है।
- विस्तार के कारण: किसी भी विस्तार के लिये न्यायालय द्वारा लिखित रूप में कारण दर्ज किये जाने चाहिये।
- अधिकतम विस्तार: न्यायालय समन की तामील की तिथि से अधिकतम 120 दिन तक समय-सीमा बढ़ा सकता है।
- विलंब से दाखिल करने पर लागत शुल्क : यदि विस्तार दिया जाता है, तो न्यायालय प्रतिवादी पर लागत शुल्क लगा सकता है, जैसा वह उचित समझे।
- पूर्ण समय सीमा: किसी भी परिस्थिति में लिखित बयान समन की तामील की तिथि से 120 दिनों के उपरांत दायर नहीं किया जा सकता।
- अधिकार की ज़ब्ती: यदि प्रतिवादी 120 दिनों के भीतर लिखित बयान दाखिल करने में विफल रहता है, तो वह लिखित बयान दाखिल करने का अपना अधिकार पूरी तरह से खो देता है।
- न्यायालय का विवेकाधिकार : 120 दिन की अवधि समाप्त होने के उपरांत, न्यायालय को लिखित बयान को रिकॉर्ड पर लेने की अनुमति देने से प्रतिबंधित किया जाता है।