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आपराधिक कानून

फरलो (प्रावकाश)

 09-Aug-2024

प्रहलाद फेकू गुप्ता बनाम महाराष्ट्र राज्य 

“केवल दोषी की अविवाहित स्थिति के आधार पर फरलो देने से प्रतिषेध करना, प्रतिषेध करने का अपर्याप्त आधार है”।

न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति वृषाली जोशी    

स्रोत:  बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने निर्णय दिया कि जेल अधिकारी किसी अपराधी को केवल उसकी युवावस्था और वैवाहिक स्थिति के आधार पर फरलो या पैरोल देने से प्रतिषेध नहीं कर सकते। न्यायालय ने जेल के विशेष महानिरीक्षक को फरलो के लिये प्रहलाद गुप्ता के आवेदन पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया। इस निर्णय में इस धारणा को चुनौती दी गई है कि युवा, अविवाहित व्यक्तियों के भागने की संभावना अधिक होती है और इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ऐसी धारणाओं को पैरोल पात्रता निर्धारित नहीं करनी चाहिये ।

  • न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति वृषाली जोशी ने प्रह्लाद फेकू गुप्ता बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में यह व्यवस्था दी।

प्रहलाद फेकू गुप्ता बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता प्रहलाद गुप्ता भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अधीन हत्या, घर में जबरन प्रवेश और साक्ष्य नष्ट करने जैसे अपराधों के लिये आजीवन कारावास का दण्ड भोग रहा है।
  • लगभग 4 वर्ष और 5 महीने का दण्ड भुगतने के बाद, गुप्ता ने 8 मई, 2023 को 28 दिनों के फरलो के लिये आवेदन किया।
  • नागपुर के विशेष जेल महानिरीक्षक ने 11 सितंबर, 2023 को फरलो आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • नागपुर के विशेष जेल महानिरीक्षक ने 11 सितंबर, 2023 को फरलो आवेदन को अस्वीकार कर दिया।
  • रिपोर्ट में गुप्ता की आयु (26 वर्ष) और अविवाहित स्थिति को फरार होने के जोखिम का संकेत देने वाले कारक बताया गया है।
  • गुप्ता ने भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 और 227 के अंतर्गत बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के समक्ष एक रिट याचिका दायर की।
  • याचिका में विशेष जेल महानिरीक्षक के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें फरलो देने से इनकार कर दिया गया था।
  • गुप्ता ने उक्त आदेश को रद्द करने की मांग की तथा न्यायालय से अनुरोध किया कि वह प्राधिकारियों को उन्हें फरलो देने का निर्देश दे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय, नागपुर पीठ ने निर्णय दिया कि किसी दोषी की अविवाहित स्थिति और युवावस्था ही फरलो देने से प्रतिषेध करने के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि जेल प्राधिकारियों को पुलिस रिपोर्ट से परे फरलो आवेदनों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन करना चाहिये ।
  • न्यायालय ने पारिवारिक संपर्क बनाए रखने और पुनर्वास में सहायता के लिये फरलो के महत्त्व पर ज़ोर दिया तथा कहा कि परिवार से संपर्क के बिना लंबे समय तक कारावास में रहना कैदी और समाज दोनों के लिये हानिकारक है।
  • पीठ ने विशेष कारागार महानिरीक्षक के फरलो देने से इनकार करने के आदेश को रद्द कर दिया तथा आवेदन पर नए सिरे से विचार करने का निर्देश दिया, जिसमें कहा गया कि उपयुक्त शर्तों के माध्यम से फरार होने के जोखिम को कम किया जा सकता है।
  • निर्णय में फरलो को दोषियों का विधिक अधिकार (वैधानिक शर्तों के अधीन) माना गया तथा तीन सप्ताह के भीतर फरलो प्रदान करने का आदेश दिया गया तथा इस प्रकार के निर्णयों में प्राधिकारियों द्वारा विवेक का प्रयोग करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
  • ये निर्णय सार्वजनिक सुरक्षा और सुधारात्मक प्रणाली के पुनर्वास लक्ष्यों के बीच संतुलन पर प्रकाश डालते हैं तथा फरलो संबंधी निर्णयों के लिये अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

फरलो (Furlough) क्या है?

  • फरलो किसी कैदी को अभिरक्षा से अस्थायी रूप से रिहा करना है, जो विशिष्ट उद्देश्यों के लिये दिया जाता है, जैसे पारिवारिक संबंध बनाए रखना या तत्काल व्यक्तिगत मामलों को निपटाना।
  • इसे सामान्यतः पात्र कैदियों के लिये अधिकार का मामला माना जाता है, जो कुछ शर्तों और नियमों के अधीन है, जबकि पैरोल अधिक विवेकाधीन है।
  • फरलो का प्राथमिक उद्देश्य कैदियों को सामाजिक संपर्क और पारिवारिक रिश्ते बनाए रखने में सक्षम बनाना है, जिससे उनके पुनर्वास तथा समाज में पुनः एकीकरण में सहायता मिल सके।
  • फरलो के लिये पात्रता के लिये सामान्यतः यह आवश्यक है कि कैदी ने अपनी दण्ड अवधि का न्यूनतम भाग पूरा कर लिया हो तथा अच्छा आचरण बनाए रखा हो, हालाँकि विशिष्ट मानदण्ड क्षेत्राधिकार के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं।
  • फरलो विशिष्ट शर्तों के तहत दी जाती है, जिसमें स्थानीय पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना, आवागमन पर प्रतिबंध तथा निर्दिष्ट समय पर जेल लौटने की आवश्यकता शामिल हो सकती है।

फरलो से संबंधित विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS):
    • धारा 473: दण्डादेश को निलंबित या क्षमा करने की शक्ति।
    • किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिये दण्ड दिये जाने के उपरांत, किसी भी समय, समुचित सरकार को, शर्त सहित या बिना शर्त, सज़ा को निलंबित करने या क्षमा करने का अधिकार है।
    • निलंबन या क्षमा के लिये आवेदन पर विचार करते समय, सरकार उस पीठासीन न्यायाधीश की राय ले सकती है जिसने दोषी ठहराया था या दोषसिद्धि की पुष्टि की थी, साथ ही कारणों और प्रासंगिक परीक्षण रिकॉर्ड भी ले सकती है।
    • यदि शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो सरकार निलंबन या क्षमा को रद्द कर सकती है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को दण्ड का शेष भाग पूरा करने के लिये पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है।
    • 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों के लिये निलंबन या क्षमा (ज़ुर्माने को छोड़कर) के लिये याचिका, उस व्यक्ति के जेल में रहते हुए ही, प्रभारी अधिकारी के माध्यम से या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा कारावास की घोषणा के साथ प्रस्तुत की जानी चाहिये।
    • ये प्रावधान स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने या दायित्व लगाने वाले सभी आदेशों पर लागू होते हैं, जिसमें "उपयुक्त सरकार" या तो संघीय मामलों के लिये केंद्र सरकार होगी या अन्य मामलों के लिये राज्य सरकार होगी।
  • कारागार अधिनियम 1894:
    • जेल अधिनियम 1894 की धारा 59 के अनुसरण में बनाए गए फरलो और पैरोल नियम।
    • फरलो की स्वीकृति मुख्य रूप से जेल नियमों के नियम 3 और नियम 4 द्वारा विनियमित होती है।
    • नियम 3 में कैदियों को उनकी कारावास अवधि के आधार पर फरलो दिये जाने के लिये पात्रता मानदंड की रूपरेखा दी गई है।
    • नियम 4 फरलो देने पर सीमाएँ आरोपित करता है।
    • नियम 3 में "रिहा किया जा सकता है" शब्द से संकेत मिलता है कि फरलो कैदियों का पूर्ण अधिकार नहीं है।
    • नियम 17 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये नियम कैदियों को फरलो पर रिहाई का दावा करने का विधिक अधिकार नहीं देते हैं।
    • नियम 3 और 4 में उल्लिखित शर्तों के अधीन, फरलो प्रदान करना एक विवेकाधीन उपाय है।
    • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि फरलो कैदियों का विधिक अधिकार नहीं है।

पैरोल क्या है?

  • यह दण्ड को निलंबित करके कैदी को रिहा करने की प्रणाली है।
    • यह रिहाई सशर्त होती है, जो आमतौर पर कैदी के अच्छे व्यवहार पर निर्भर होती है, तथा इसके लिये एक निश्चित अवधि तक प्राधिकारियों को समय-समय पर रिपोर्ट करना आवश्यक होता है।
  • पैरोल कोई अधिकार नहीं है तथा यह किसी कैदी को किसी विशिष्ट कारण से दिया जाता है, जैसे परिवार में मृत्यु हो जाना या किसी रक्त संबंधी का विवाह होना।
  • किसी कैदी को पर्याप्त कारण बताने के बाद भी उसे रिहा करने से इनकार किया जा सकता है, यदि सक्षम प्राधिकारी इस बात से संतुष्ट हो कि दोषी को रिहा करना समाज के हित में नहीं होगा।

पैरोल और फरलो के बीच अंतर?

  • रिहाई की प्रकृति:
    • पैरोल और फरलो दोनों ही कारावास से एक अस्थायी सशर्त रिहाई के रूप हैं। हालाँकि पैरोल विशिष्ट उद्देश्यों के लिये दी जाती है, जबकि फरलो एक आवधिक रिहाई है जिसके लिये किसी विशेष कारण की आवश्यकता नहीं होती है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006)
  •  उद्देश्य:
    • पैरोल का उद्देश्य विशिष्ट आवश्यकताओं या कारणों को संबोधित करना है, जबकि फरलो का उद्देश्य कैदी के परिवार और सामाजिक संबंधों को बनाए रखना और लंबे समय तक कारावास में रहने के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006; असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • योग्यता:
    • नियम 3 के अनुसार फरलो की पात्रता न्यूनतम निर्धारित दण्ड अवधि पूरी करने के आधार पर निर्धारित की जाती है, जबकि पैरोल दर्शाए गए विशिष्ट कारण के आधार पर दी जा सकती है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006)
  • कारण की आवश्यकता:
    • पैरोल देने के लिये नियम 19 के अनुसार स्पष्ट रूप से कारण बताना होगा। इसके विपरीत, फरलो के लिये विशिष्ट कारणों का प्रावधान आवश्यक नहीं है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दर्वाकर, 2006)
  • विवेकाधीन प्रकृति:
    • फरलो पर रिहाई कैदी का पूर्ण अधिकार नहीं है और यह नियम 4(4) और 6 में उल्लिखित शर्तों के अधीन है। समाज के हित में इसे अस्वीकार किया जा सकता है। हालाँकि पैरोल केवल तभी दी जानी चाहिये जब पर्याप्त कारण प्रदर्शित किये गए हो। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दर्वाकर, 2006)
  • दण्ड अवधि की गणना:
    • फरलो पर बिताई गई अवधि को कारावास में बिताई गई अवधि माना जाता है और इसे कुल दण्डाविधि में गिना जाता है। इसके विपरीत, पैरोल की अवधि को सज़ा में क्षमा के रूप में नहीं गिना जाता है। (महाराष्ट्र राज्य बनाम सुरेश पांडुरंग दरवाकर, 2006 हरियाणा राज्य बनाम मोहिंदर सिंह, 2000)
  • अवधि एवं आवृत्ति:
    • पैरोल एक महीने तक बढ़ाया जा सकता है, जबकि फरलो अधिकतम चौदह दिनों तक सीमित है। पैरोल कई बार दी जा सकती है, जबकि फरलो सीमाओं के अधीन है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • अनुमति प्रदाता अधिकारी:
    • पैरोल संभागीय आयुक्त द्वारा दी जाती है, जबकि फरलो जेल उप महानिरीक्षक द्वारा दी जाती है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • दण्डावधि पर प्रयोज्यता:
    • अल्पावधि कारावास के मामलों में पैरोल पर विचार किया जा सकता है, जबकि फरलो आमतौर पर लंबी अवधि के कारावास के लिये दी जाती है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)
  • विधिक लक्षण वर्णन:
    • पैरोल को सशर्त क्षमा या दण्ड के निलंबन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिससे दण्ड की अवधि यथावत् रहती है। इसके विपरीत, फरलो को अच्छे आचरण के लिये क्षमा के रूप में दिया जाता है। (असफाक बनाम राजस्थान राज्य, 2017)

आपराधिक कानून

फेक एनकाउंटर में होने वाली हत्याएँ

 09-Aug-2024

NCT दिल्ली राज्य बनाम पूरन सिंह

“CrPC की धारा 197 के अधीन स्वीकृति, FIR के पंजीकरण को बाधित नहीं करेगी, क्योंकि इसे बाद में प्राप्त किया जा सकता है, यदि परिस्थितियाँ इसकी मांग करती हैं।”

न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने NCT दिल्ली राज्य बनाम पूरन सिंह के मामले में यह प्रावधान किया कि जब भी कोई कथित फेक एनकाउंटर की सूचना मिले तो पुलिस के विरुद्ध FIR दर्ज की जानी चाहिये।

दिल्ली राज्य बनाम पूरन सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता 1860 (IPC) की धारा 186, धारा 353, धारा 307, धारा 34 और आर्म्स एक्ट, 2019 (AA ) की धारा 25 एवं धारा 27 के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • अपराध शाखा, रोहिणी, दिल्ली की विशेष टीम को सूचना मिली थी कि एक खूँखार, कट्टर एवं हताश अपराधी मनोज उर्फ ​​मोरेखेरी अपने सहयोगियों के एक गिरोह के साथ, जो हत्या, उददापन (जबरन वसूली), व्यापारियों से संरक्षण राशि एकत्र करने आदि के अपराधों में लिप्त है, अलीपुर, दिल्ली के क्षेत्र में व्याप्त है।
  • आरोपी एवं गिरोह के अन्य सदस्य कार में पाए गए तथा जब पुलिस ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की तो उनके बीच गोलीबारी हुई, जिससे राकेश उर्फ ​​राका नामक अपराधी की मौत हो गई।
  • पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मौत का कारण आरोपी की पीठ के निचले हिस्से में पहले लगी चोटें थीं, जो गोली लगने के कारण बढ़ गई थीं।
  • यह भी तर्क दिया गया कि घटना की उप-मंडल मजिस्ट्रेट द्वारा गहन जाँच की गई थी, जिन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि पुलिस अधिकारियों द्वारा गोलियाँ उस कार सवार से स्वयं को बचाने के लिये आत्मरक्षा में चलाई गई थीं, जिसने उन पर गोली चलाई थी।
  • मृतक के पिता श्री पूरन सिंह (प्रतिवादी) ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 200 के अधीन और IPC की धारा 302 तथा 34 और धारा 27 AA  के तहत दण्डनीय अपराधों के लिये अपने बेटे की मृत्यु के लिये एक आपराधिक शिकायत दर्ज की।
  • यह भी तर्क दिया गया कि भागने के लिये कथित तौर पर भाग रहे तीन आरोपियों में से किसी ने भी पुलिस की ओर गोली नहीं चलाई थी और किसी भी पुलिस अधिकारी को कोई चोट नहीं आई।
  • कार की निरीक्षण रिपोर्ट ने यह भी स्थापित किया कि कार के सभी तरफ से गोलीबारी की गई थी क्योंकि सभी विंड स्क्रीन टूटी हुई थीं, जबकि राकेश घायल अवस्था में पिछली सीट पर रक्त रंजित पाया गया था।
  • मृतक के पास कोई हथियार नहीं था, पहले उसे बेरहमी से पीटा गया तथा फिर उस पर गोली चलाई गई और यह मुठभेड़ नहीं बल्कि हत्या का स्पष्ट मामला था।
  • मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (CMM) के समक्ष संज्ञान लिया गया, जिन्होंने पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध CrPC की धारा 156 (3) के अधीन FIR दर्ज करने का आदेश दिया।
  • इस आदेश को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष चुनौती दी गई, जिन्होंने CMM के आदेश की पुष्टि की।
  • ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर वर्तमान याचिका दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई।
  • पुलिस ने CrPC की धारा 197 के अधीन आधार बनाया कि पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध FIR दर्ज करने के लिये पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि न्याय की परिधि से बाहर किये गए किसी भी कृत्य की न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये पूरी सावधानी से विवेचना की जानी चाहिये।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों का उदहारण दिया तथा निष्कर्ष निकाला कि पुलिस CrPC की धारा 197 (अब BNSSकी धारा 218) का उपयोग सभी कृत्यों के विरुद्ध सुरक्षात्मक बाधा के रूप में नहीं कर सकती है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 197 पुलिस अधिकारियों को केवल उन कृत्यों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है जो उनके कर्त्तव्य निर्वहन में किये जाते हैं।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने सही कहा है कि जब भी कोई कथित फेक एनकाउंटर की सूचना मिलती है तो पुलिस के विरुद्ध FIR दर्ज की जानी चाहिये।

फेक एनकाउंटर क्या है?

परिचय:

  • यह उन व्यक्तियों की न्यायेतर हत्या का कृत्य है, जिन्हें विभिन्न अवसरों पर अपराधी बताया गया है और जो विधि प्रवर्तन एजेंसियों की अभिरक्षा में हैं।
  • यह कृत्य विधि की उचित प्रक्रिया का पालन किये बिना किया जाता है।
  • एनकाउंटर मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
  • फर्जी एनकाउंटर तेज़ी से बढ़ रहे हैं, जिससे पीड़ितों के मौलिक एवं संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन हो रहा है।

भारत में मुठभेड़ से संबंधित विधिक प्रावधान:

  • भारत में मुठभेड़ से संबंधित कोई प्रत्यक्ष प्रावधान नहीं हैं, जबकि कुछ प्रावधान पुलिस अधिकारियों या अन्य जाँच एजेंसियों को निम्नलिखित प्रावधानों के अनुसार आवश्यक कार्यवाही करने का अधिकार देते हैं।
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 34 से धारा 44 में गिरफ्तारी से संबंधित प्रावधान बताए गए हैं तथा साथ ही उन परिस्थितियों के विषय में भी बताया गया है जैसे कि मृत्यु, गंभीर चोट, बलात्संग, एसिड अटैक, जहाँ कोई व्यक्ति अपने निजी बचाव के लिये किसी की मृत्यु का कारण बनता है, तो उसे विधिक दायित्वों से छूट दी जाएगी।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 43 (3) पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी के समय किसी आरोपी को मौत की सज़ा देने का अधिकार देती है, जिसके लिये मृत्यु या आजीवन कारावास की सज़ा हो सकती है।
  • सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम की धारा 4 सशस्त्र बलों को विशेष शक्ति प्रदान करती है, जिसके अधीन यह अधिकारियों को आवश्यक होने पर आरोपी के विरुद्ध आवश्यक कार्यवाही करने में सक्षम बनाती है।

फेक एनकाउंटरों के पीड़ितों के अधिकार:

  • फेक एनकाउंटरों के पीड़ितों को निम्नलिखित प्रावधानों के अनुसार अधिकारियों के विरुद्ध अभियोजन चलाने का अधिकार है:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (COI): इस अनुच्छेद 14 के अनुसार, राज्य किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष संता से वंचित नहीं करेगा, लेकिन एनकाउंटर के कारण व्यक्ति के स्वयं उपस्थित होने एवं अभियोजन का सामना करने के अधिकार को क्षमा कर दिया गया है।
    • COI का अनुच्छेद 21: अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि किसी को भी व्यक्तिगत अधिकार एवं स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाना चाहिये, जो आपराधिक इतिहास वाले व्यक्ति की भी रक्षा करता है।
    • COI का अनुच्छेद 22: अनुच्छेद 22 किसी आरोपी व्यक्ति को तब तक कुछ अधिकार देता है, जब तक कि वह दोषी सिद्ध न हो जाए।
    • BNS की धारा 100: फेक एनकाउंटरों के कृत्य के लिये दोषी ठहराए जाने वाले अधिकारियों के विरुद्ध भी BNS की धारा 100 उपलब्ध है।

फेक एनकाउंटरों के विरुद्ध दिशा-निर्देश:

उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश:

  • PUCL बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले (2014) में, उच्चतम न्यायालय मुंबई पुलिस द्वारा की गई 99 एनकाउंटर हत्याओं की वास्तविकता पर प्रश्न करने वाली रिट याचिकाओं पर विचार कर रहा था, जिसमें वर्ष 1995 एवं वर्ष 1997 के मध्य 135 कथित अपराधियों को गोली मार दी गई थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने तब पुलिस एनकाउंटरों के दौरान मृत्यु के मामलों में गहन, प्रभावी एवं स्वतंत्र जाँच के लिये मानक प्रक्रिया के रूप में निम्नलिखित 16 सूत्री दिशा-निर्देश निर्धारित किये:
    • रिकॉर्ड टिप-ऑफ: जब भी पुलिस को किसी गंभीर आपराधिक अपराध से संबंधित आपराधिक गतिविधियों के विषय में कोई गुप्त जानकारी या टिप-ऑफ मिलती है, तो उसे लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में रिकॉर्ड किया जाना चाहिये। ऐसी रिकॉर्डिंग में संदिग्ध व्यक्ति या समूह के मिलने के स्थान का विवरण प्रकट करना ज़रूरी नहीं है।
    • FIR संस्थित किया जाना: यदि किसी सूचना के आधार पर पुलिस आग्नेयास्त्रों का प्रयोग करती है और इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उचित आपराधिक जाँच शुरू करने के लिये FIR दर्ज की जानी चाहिये तथा बिना किसी विलंब के न्यायालय को भेजी जानी चाहिये।
    • स्वतंत्र जाँच: ऐसी मौत की जाँच एक स्वतंत्र CID ​​टीम या किसी अन्य पुलिस स्टेशन की पुलिस टीम द्वारा वरिष्ठ अधिकारी की देखरेख में की जानी चाहिये। इसमें आठ न्यूनतम जाँच मानकों को पूरा करना होता है, जैसे पीड़ित की पहचान करना, साक्ष्य सामग्री को पुनः प्राप्त करना एवं संरक्षित करना, घटनास्थल के साक्षियों की पहचान करना आदि।
    • न्यायिक जाँच: मुठभेड़ में हुई मौतों के सभी मामलों की अनिवार्य न्यायिक जाँच की जानी चाहिये तथा इसकी रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिये।
    • NHRC को सूचित करना: NHRC या राज्य मानवाधिकार आयोग (जैसा भी मामला हो) को मुठभेड़ में हुई मौतों के विषय में तुरंत सूचित किया जाना चाहिये।
    • चिकित्सा सहायता: यह घायल पीड़ित/अपराधी को अवश्य प्रदान की जानी चाहिये तथा मजिस्ट्रेट या चिकित्सा अधिकारी को फिटनेस प्रमाण-पत्र के साथ उसका बयान दर्ज करना चाहिये ।
    • विलंब का प्रतिषेध: FIR, पंचनामा, स्केच एवं पुलिस डायरी प्रविष्टियों को बिना किसी विलंब के संबंधित न्यायालय को भेजना सुनिश्चित करना होता है।
    • न्यायालय को रिपोर्ट भेजना: घटना की पूरी जाँच के बाद, शीघ्र विचारण सुनिश्चित करने के लिये सक्षम न्यायालय को रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये।
    • परिजनों को सूचित करना: आरोपी अपराधी की मृत्यु के मामले में, उनके निकटतम परिजनों को जल्द-से-जल्द सूचित किया जाना चाहिये।
    • रिपोर्ट प्रस्तुत किया जाना: सभी मुठभेड़ हत्याओं का द्विवार्षिक विवरण DGP द्वारा NHRC को एक निर्धारित तिथि तक निर्धारित प्रारूप में भेजा जाना चाहिये।
    • शीघ्र कार्यवाही: IPC के अधीन अपराध के रूप में, गलत मुठभेड़ के दोषी पाए गए पुलिस अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिये तथा तत्काल प्रभाव से उस अधिकारी को निलंबित किया जाना चाहिये।
    • क्षतिपूर्ति: CrPC की धारा 357-A (अब BNSS की धारा 396) के अधीन वर्णित क्षतिपूर्ति योजना को पीड़ित के आश्रितों को क्षतिपूर्ति देने के लिये लागू किया जाना चाहिये।
    • हथियार का समर्पण: संबंधित पुलिस अधिकारी को संविधान के अनुच्छेद 20 के अंतर्गत उल्लिखित अधिकारों के अधीन, फोरेंसिक एवं बैलिस्टिक विश्लेषण के लिये अपने हथियार सौंपने चाहिये।
    • अधिकारी को विधिक सहायता: घटना के विषय में आरोपी पुलिस अधिकारी के परिवार को सूचना भेजी जानी चाहिये तथा अधिवक्ता/परामर्शदाता की सेवाएँ प्रदान की जानी चाहिये।
    • पदोन्नति: मुठभेड़ में मारे गए अधिकारियों को ऐसी घटनाओं के तुरंत बाद कोई आउट-ऑफ-टर्न पदोन्नति या तत्काल वीरता पुरस्कार नहीं दिया जाएगा।
    • शिकायत का निवारण: यदि पीड़ित परिवार को लगता है कि उपरोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है, तो वह घटनास्थल पर क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र वाले सत्र न्यायाधीश से शिकायत कर सकता है। संबंधित सत्र न्यायाधीश को शिकायत के गुण-दोष पर गौर करना चाहिये तथा उसमें की गई शिकायतों का समाधान करना चाहिये।
  • न्यायालय ने निर्देश दिया कि पुलिस मुठभेड़ों में मृत्यु एवं गंभीर चोट के सभी मामलों में इन आवश्यकताओं/मानदण्डों का भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के अधीन घोषित विधि मानकर इनका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिये।

NHRC दिशा-निर्देश:

  • मार्च 1997 में, न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया (तत्कालीन NHRC के अध्यक्ष) ने पुलिस द्वारा फेक एनकाउंटरों के मामलों से संबंधित आम जनता एवं गैर-सरकारी संगठनों की बढ़ती शिकायतों की पृष्ठभूमि में इस बात पर ज़ोर दिया कि पुलिस को दो परिस्थितियों को छोड़कर किसी की जान लेने का कोई अधिकार नहीं दिया गया है:
    • यदि निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग में मृत्यु हुई हो।
    • BNSS की धारा-43, पुलिस को बल प्रयोग करने का अधिकार देती है, जो मृत्यु तक विस्तारित हो सकता है, जैसा कि मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध के आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिये आवश्यक हो सकता है।
  • इस धारणा के आलोक में, NHRC ने सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों से यह सुनिश्चित करने को कहा कि पुलिस मुठभेड़ हत्याओं के मामलों में निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का पालन करे:
    • रजिस्टर: जब किसी पुलिस थाने के प्रभारी को मुठभेड़ में हुई मौतों के विषय में सूचना प्राप्त होती है, तो वह उस सूचना को उचित रजिस्टर में दर्ज करेगा।
    • जाँच: प्राप्त सूचना को संदेह के लिये पर्याप्त माना जाएगा तथा मृत्यु के लिये उत्तरदायी प्रासंगिक तथ्यों एवं परिस्थितियों की जाँच करने के लिये तत्काल कदम उठाए जाने चाहिये ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या कोई अपराध किया गया था और किसके द्वारा किया गया था।
    • क्षतिपूर्ति: यह मृतक के आश्रितों को तब दिया जा सकता है जब जाँच के परिणामों के आधार पर पुलिस अधिकारियों का अभियोजन किया जाता है।
    • स्वतंत्र एजेंसी: जब भी एक ही पुलिस स्टेशन से संबंधित पुलिस अधिकारी मुठभेड़ दल के सदस्य होते हैं, तो यह उचित है कि जाँच के लिये मामलों को किसी अन्य स्वतंत्र जाँच एजेंसी, जैसे राज्य CID ​​को भेजा जाए।
  • वर्ष 2010 में NHRC ने इन दिशा-निर्देशों को विस्तारित करते हुए निम्नलिखित को शामिल किया:
    • FIR दर्ज किया जाना: जब पुलिस के विरुद्ध कोई शिकायत की जाती है जिसमें आपराधिक मानव वध के संज्ञेय मामले के रूप में पहचाने जाने वाले आपराधिक कृत्य का आरोप लगाया जाता है, तो IPC की युक्तियुक्त धाराओं के अधीन FIR दर्ज की जानी चाहिये।
    • मजिस्ट्रेट जाँच: पुलिस कार्यवाही के दौरान होने वाली मौत के सभी मामलों में मजिस्ट्रेट जाँच जल्द-से-जल्द (अधिमानतः तीन महीने के भीतर) होनी चाहिये।
    • आयोग को रिपोर्ट करना: राज्यों में पुलिस कार्यवाही में मृत्यु के सभी मामलों की प्रारंभिक रिपोर्ट, जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक/पुलिस अधीक्षक द्वारा ऐसी मृत्यु के 48 घंटे के अंदर आयोग को भेजी जाएगी।
    • सभी मामलों में तीन महीने के अंदर आयोग को दूसरी रिपोर्ट भेजी जानी चाहिये , जिसमें पोस्टमार्टम रिपोर्ट, मजिस्ट्रेट जाँच के निष्कर्ष/वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा की गई जाँच आदि जैसी सूचना दी जानी चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि NHRC की भागीदारी तब तक अनिवार्य नहीं है जब तक कि इस बात पर गंभीर संदेह न हो कि जाँच निष्पक्ष नहीं थी।

महत्त्वपूर्ण निर्णय/मामले:

  • अनिल कुमार एवं अन्य बनाम एम.के. अयप्पा एवं अन्य (2013): उच्चतम न्यायालय ने माना कि मजिस्ट्रेट की वैध स्वीकृति आदेश के बिना किसी लोक सेवक के विरुद्ध FIR दर्ज करने के लिये धारा 156(3) के अधीन मामले को संदर्भित नहीं कर सकता। इसलिये, पुलिस अधिकारी के विरुद्ध अपराध का कोई भी संज्ञान तब तक वर्जित है जब तक कि CrPC की धारा 197 के अधीन किसी युक्तियुक्त प्राधिकारी से स्वीकृति प्राप्त न हो जाए।
  • रोहताश कुमार बनाम हरियाणा राज्य (2013): यह देखा गया कि NHRC द्वारा दिये गए दो महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया था कि एनकाउंटर में हुई मौत की जाँच एक स्वतंत्र जांच एजेंसी द्वारा की जानी चाहिये तथा जब भी पुलिस के विरुद्ध आपराधिक मानव वध का मामला बनाते हुए शिकायत की जाती है तो FIR दर्ज की जानी चाहिये।
  • विनोतिनी बनाम राज्य एवं अन्य (2023): जिसमें न्यायालय ने NHRC के दिशा-निर्देशों को दोहराया था तथा यह भी कहा था कि अगर पुलिस अधिकारी एनकाउंटर में शामिल हैं तो उनके विरुद्ध FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
  • देवेंद्र सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2016): यह देखा गया कि अपराध करना आधिकारिक कर्त्तव्य का हिस्सा नहीं है। इसलिये, स्वीकृति का प्रश्न प्रारंभिक चरण में प्रासंगिक नहीं हो सकता है, लेकिन परीक्षण के दौरान किसी भी चरण में प्रासंगिक हो सकता है।
  • बख्शीश सिंह बनाम गुरमेज कौर (1988): माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह निर्धारित करने के लिये कि क्या पुलिस अधिकारी ने अपने आधिकारिक कर्त्तव्य में कार्य करते हुए अपनी आधिकारिक क्षमता की सीमाओं का उल्लंघन किया है या नहीं, अपराध का संज्ञान लिया जाना चाहिये तथा इन परिस्थितियों में, आरोपी अधिकारी के अभियोजन के लिये स्वीकृति के अभाव में अभियोजन को रोका नहीं जाएगा।

सिविल कानून

ब्लैक लिस्टिंग

 09-Aug-2024

ब्लू ड्रीम्ज़ एडवरटाइजिंग बनाम कोलकाता नगर निगम 

“किसी व्यक्ति को, भले ही कुछ वर्षों के लिये ब्लैक लिस्ट करना, उसकी सिविल मृत्यु के समान है, क्योंकि वह व्यक्ति व्यावसायिक रूप से बहिष्कृत हो जाता है”।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, संजय करोल और के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि ब्लैकलिस्टिंग करने से एक पक्ष की सिविल मृत्यु हो जाती है।  

  • उच्चतम न्यायालय ने ब्लू ड्रीम्ज़ एडवरटाइजिंग बनाम कोलकाता नगर निगम मामले में यह निर्णय दिया।

ब्लू ड्रीम्ज़ एडवरटाइजिंग बनाम कोलकाता नगर निगम मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रतिवादी संख्या 1 (कोलकाता नगर निगम) ने अपने अधिकार क्षेत्र में स्ट्रीट होर्डिंग्स, बस यात्री शेल्टर और स्टाल पर विज्ञापन प्रदर्शित करने के लिये संविदा के आवंटन के लिये निविदाएँ आमंत्रित कीं।
  • 28 मई 2014 के निर्णय द्वारा अपीलकर्त्ता को सफल बोली लगाने वाले के रूप में अधिसूचित किया गया।
  • अपीलकर्त्ता को कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछा गया कि उसका आवंटन क्यों न समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि बकाया राशि और ब्याज का भुगतान नहीं किया गया है।
  • इसके उपरांत अंग्रेज़ी दैनिक समाचार पत्र ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में एक नोटिस प्रकाशित किया गया कि अपीलकर्त्ता को ब्लैक लिस्ट कर गया है।
  • अपीलकर्त्ता का कहना था कि मध्यस्थता कार्यवाही का प्रयोग किये बिना ब्लैक लिस्ट में डालने का निर्णय अवैध है।
  • दिनांक 2 मार्च 2016 के आदेश द्वारा, निगम ने अपीलकर्त्ता को कंपनी के उपेक्षापूर्ण प्रदर्शन/कार्यवाही एवं बड़ी राशि का भुगतान न करने के आरोप से मुक्त करने की तिथि तक या किसी भी प्राधिकरण/फोरम/न्यायालय के निर्देश के अंतर्गत ब्याज सहित संपूर्ण बकाया राशि का भुगतान करने की तिथि तक, जो भी बाद में हो, पाँच वर्षों के लिये किसी भी निविदा में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया।
  • उपर्युक्त आदेश को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी। मामले को आगे अपील में आगे बढ़ाया गया।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि चूँकि अपीलकर्त्ता को सुनवाई का अवसर दिया गया था, इसलिये अपीलकर्त्ता को सुनवाई से वंचित करने के लिये पर्याप्त आधार मौजूद थे।
  • अपीलकर्त्ता इस आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में गया था।
  • न्यायालय के समक्ष विचारणीय मुद्दा यह था कि क्या अपीलकर्त्ता को पाँच वर्ष के लिये प्रतिबंधित करने वाला निगम का 2 मार्च 2016 का आदेश वैध एवं विधिक रूप से न्यायोचित है?

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि उपचार के रूप में निषेध का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जाना चाहिये जहाँ सार्वजनिक हित को हानि हो या हानि होने की संभावना हो।
  • ऐसा केवल उन मामलों में किया जाना चाहिये जहाँ दण्ड के रूप में निषेध से ही सार्वजनिक हित की रक्षा की जा सके तथा व्यक्ति को उसके ऐसे कार्यों को दोहराने से रोका जा सकेगा जिनसे सार्वजनिक हित को खतरा हो सकता है।
  • भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) के अंतर्गत अनुबंध के सामान्य उल्लंघन के मामले में, जहाँ व्यक्ति द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण वास्तविक विवाद को उत्पन्न करता है, दण्ड के रूप में ब्लैक लिस्ट में डालने/निषेध करने का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये।

ब्लैकलिस्टिंग क्या है?

  • इंग्लैंड के विधिक के विश्वकोश के अनुसार ब्लैकलिस्ट का अर्थ है "ब्लैकलिस्ट उन व्यक्तियों या फर्मों की सूची है जिनके विरुद्ध इसका अनुपालक जनता या जनता के एक वर्ग को चेतावनी देता है कि; इस सूची में उल्लिखित व्यक्ति ऋण देने के लिये अयोग्य हैं, या इनके साथ संविदा करना उचित नहीं है।"
  • ब्लैकलिस्ट आदेश के परिणामस्वरूप सिविल परिणाम सामने आते हैं और व्यक्ति की व्यावसायिक संभावनाओं पर असर पड़ता है।
  • किसी भी प्राधिकारी को किसी व्यक्ति को ब्लैकलिस्ट में डालने के लिये मनमाने तरीके से कार्य नहीं करना चाहिये तथा निष्पक्ष तरीके से कार्य करना चाहिये।

ब्लैकलिस्टिंग कब उचित है?

  • निम्नलिखित स्थितियों में ब्लैकलिस्टिंग उचित है:
    • जब फर्म के स्वामी को न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया जाता है।
    • यदि इस बात पर प्रबल सहमति हो कि व्यक्ति रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी जैसे कदाचारों का दोषी है।
    • यदि फर्म में कोई सरकारी कर्मचारी कार्यरत है जिसे भ्रष्टाचार के कारण पदच्युत या निलंबित दिया गया हो।
    • जहाँ व्यक्ति ने बार-बार आदेश के बावजूद काम आरंभ करने से प्रतिषेध कर दिया हो।
    • ठेकेदार 25 दिन की समय-सीमा का पालन करने में विफल रहा और कारण बताओ नोटिस का कोई उपयुक्त उत्तर नहीं दिया गया। न्यायालय ने माना कि ब्लैकलिस्ट में डालने का आदेश उचित था और प्राकृतिक न्याय की कोई विफलता नहीं थी।
      • यह निर्णय बी.एस. कंस्ट्रक्शन कंपनी बनाम एम.सी.डी. कमिश्नर (2008) के मामले में दिया गया था।
    • जब एक ठेकेदार को इस आधार पर ब्लैकलिस्ट में डाल दिया गया कि उसने बिना अनुमोदन प्राप्त किये काम को दूसरे व्यक्ति को ठेके पर दे दिया, तो न्यायालय ने माना कि ब्लैकलिस्ट में डालने का आदेश न्यायोचित नहीं था।
      • यह माना गया कि सरकार ने संविदा की धाराओं की गलत व्याख्या की है तथा ब्लैकलिस्ट में डालने का आदेश विधिक दृष्टि से अनुचित है।
      • यह बात पी.टी. साम्बर मित्रा जया बनाम NHAI(2003) मामले में कही गई।

ब्लैकलिस्टिंग से संबंधित प्रमुख मामले क्या हैं?

  • एरूसियन इक्विपमेंट एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य (1975):
    • ब्लैकलिस्टिंग का प्रभाव यह होता है कि यह किसी व्यक्ति को लाभ के उद्देश्य से सरकार के साथ वैध संबंध बनाने के विशेषाधिकार और लाभ से वंचित कर देता है।
    • यह तथ्य कि ब्लैकलिस्ट में डालने के आदेश से अयोग्यता उत्पन्न होती है, दर्शाता है कि संबंधित प्राधिकारी को वस्तुनिष्ठ संतुष्टि प्राप्त हुई है।
  • श्री बी.एस.एन. जोशी एंड संस लिमिटेड बनाम नायर कोल सर्विसेज लिमिटेड (2006):
    • न्यायालय ने कहा कि ब्लैकलिस्ट में डालने से निविदाकर्त्ता पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा।
    • जब किसी निविदाकर्त्ता को डिफॉल्टर घोषित कर दिया जाता है, तो उसे कोई भी संविदा नहीं मिल पाती है तथा उसे अपना व्यवसाय बंद करना पड़ सकता है।
    • जब कोई मांग की जाती है और संबंधित व्यक्ति इस संबंध में सद्भावनापूर्ण विवाद उठाता है तो जब तक विवाद का समाधान नहीं हो जाता है, उसे डिफॉल्टर घोषित नहीं किया जा सकता।
  • कुलजा इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड बनाम मुख्य महाप्रबंधक पश्चिमी दूरसंचार परियोजना BSNL एवं अन्य (2014):
    • इस मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि किसी ठेकेदार को ब्लैकलिस्ट में डालने की शक्ति अंतर्निहित है और विधि द्वारा ऐसी शक्ति प्रदान करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
    • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि किसी ठेकेदार को ब्लैकलिस्ट में डालने के निर्णय के गंभीर परिणाम होते हैं तथा उच्च न्यायालय द्वारा इसकी जाँच की जा सकती है।
    • इसके अतिरिक्त, निर्णय की जाँच प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और आनुपातिकता के सिद्धांत पर भी की जानी चाहिये।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने ब्लैकलिस्टिंग (अमेरिकी विधि के तहत निषेध) के लिये अमेरिकी संघीय सरकार द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों पर निर्भरता प्रदर्शित की। उच्चतम न्यायालय ने उन कारकों के लिये दिशा-निर्देशों पर भी भरोसा किया जो अधिकारी के निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं।

पारिवारिक कानून

वक्फ संशोधन विधेयक, 2024

 09-Aug-2024

वक्फ संशोधन विधेयक, 2024

“यह विधेयक 8 अगस्त 2024 को लोकसभा में प्रस्तुत किया जाएगा।”

अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने संसद के चल रहे मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 अर्थात् विधेयक संख्या 109/2024 प्रस्तुत किया।

‘वक्फ’ एवं ‘वक्फ संपत्ति’ क्या है?

  • वक्फ की परिभाषा:
    • वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 3(r) के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी चल या अचल संपत्ति को मुस्लिम विधि द्वारा पवित्र, धार्मिक या धर्मार्थ के रूप में मान्यता प्राप्त किसी भी उद्देश्य के लिये स्थायी रूप से समर्पित करना वक्त है तथा इसमें शामिल हैं-
      (i) उपयोगकर्त्ता द्वारा वक्फ किया गया हो, किंतु ऐसा वक्फ केवल उपयोगकर्त्ता के समाप्त हो जाने के कारण वक्फ नहीं रह जाएगा, चाहे ऐसी समाप्ति की अवधि कुछ भी हो;
      (ii) शामलात पट्टी, शामलात देह, जुमला मलक्कान या राजस्व अभिलेख में दर्ज किसी अन्य नाम से;
      (iii) "अनुदान", जिसमें मुस्लिम विधि द्वारा पवित्र, धार्मिक या धर्मार्थ के रूप में मान्यता प्राप्त किसी भी उद्देश्य के लिये मशरत-उल-खिदमत भी शामिल है; और
      (iv) वक्फ-अल-औलाद, जिस सीमा तक संपत्ति मुस्लिम विधि द्वारा पवित्र, धार्मिक या धर्मार्थ के रूप में मान्यता प्राप्त किसी भी उद्देश्य के लिये समर्पित है, हालाँकि जब उत्तराधिकार की सीमा विफल हो जाती है, तो वक्फ की आय शिक्षा, विकास, कल्याण एवं मुस्लिम विधि द्वारा मान्यता प्राप्त ऐसे अन्य उद्देश्यों के लिये खर्च की जाएगी तथा "वाकिफ" का अर्थ ऐसा समर्पण करने वाला कोई भी व्यक्ति है।
  • वक्फ संपत्ति:
    • वक्फ मुसलमानों द्वारा धार्मिक, धर्मार्थ या निजी उद्देश्यों के लिये दी गई निजी संपत्ति है।
    • ‘वक्फ संपत्ति’ का स्वामित्व ईश्वर के पास माना जाता है।
    • वक्फ का गठन किसी विलेख, दस्तावेज़, मौखिक रूप से या धार्मिक/धर्मार्थ उद्देश्यों के लिये दीर्घकालिक उपयोग के माध्यम से किया जा सकता है।
    • एक बार वक्फ घोषित होने के बाद, संपत्ति का चरित्र स्थायी रूप से बदल जाता है, यह अनंतरणीय हो जाता है तथा सदैव के लिये संरक्षण में रहता है।

वक्फ संशोधन विधेयक, 2024 की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वक्फ अधिनियम पहली बार वर्ष 1954 में संसद द्वारा पारित किया गया था।
  • बाद में इसे निरस्त कर दिया गया तथा वर्ष 1995 में एक नया वक्फ अधिनियम पारित किया गया, जिसने वक्फ बोर्डों को अधिक अधिकार दिये।
  • वर्ष 2013 में अधिनियम में संशोधन करके वक्फ बोर्ड को संपत्ति को ‘वक्फ संपत्ति’ के रूप में नामित करने के लिये व्यापक अधिकार प्रदान किये गए।
  • वर्तमान वक्फ अधिनियम, 1995 में और संशोधन करने के लिये वक्फ संशोधन विधेयक को 8 अगस्त 2024 को केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत किया गया है।
  • विपक्षी दलों ने इसकी कड़ी आलोचना की है, जिन्होंने इसे "असंवैधानिक", "अल्पसंख्यक विरोधी" एवं "विभाजनकारी" कहा है।
  • सरकार ने विधेयक को आगे की जाँच के लिये संसद की संयुक्त समिति को भेज दिया है।

वक्फ संशोधन विधेयक, 2024 क्या है?

  • शीर्षक एवं परिधि:
    • विधेयक में वक्फ अधिनियम, 1995 (पूर्व में वक्फ अधिनियम, 1995) में संशोधन करने का प्रस्ताव है।
    • इसका उद्देश्य अधिनियम का नाम बदलकर "एकीकृत वक्फ प्रबंधन, सशक्तीकरण, दक्षता एवं विकास अधिनियम, 1995" करना है।
    • विधेयक में वक्फ संपत्तियों के प्रशासन एवं प्रबंधन में सुधार के लिये व्यापक संशोधन का प्रस्ताव है।
  • मुख्य परिभाषाएँ:
    • धारा 3 में "वक्फ" की परिभाषा को स्पष्ट किया गया है, जिसमें कम-से-कम पाँच वर्ष तक इस्लाम का पालन करने वाले एवं संपत्ति के मालिकाना हक वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा वक्फ के रूप में परिभाषित किया गया है।
    • इसमें "आगाखानी वक्फ", "बोहरा वक्फ", "कलेक्टर", "सरकारी संगठन", "सरकारी संपत्ति" आदि की परिभाषाएँ शामिल की गई हैं।
  • प्रशासन:
    • यह वक्फ बोर्ड/अधिकरण से अधिकार हटाकर राज्य सरकारों को सौंपता है।
    • धारा 11: यह राज्य वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिम CEO एवं सदस्यों को अनुमति देता है।
    • धारा 22: केंद्र सरकार, आदेश द्वारा, किसी भी समय भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा नियुक्त लेखा परीक्षक या उस उद्देश्य के लिये केंद्र सरकार द्वारा नामित किसी अधिकारी द्वारा किसी भी वक्फ का लेखा-परीक्षण करने का निर्देश दे सकती है।
  • पंजीकरण एवं सर्वेक्षण:
    • यह केवल वक्फ विलेख के निष्पादन के माध्यम से वक्फ के गठन को अनिवार्य बनाता है।
    • यह सर्वेक्षण कार्यों को सर्वेक्षण आयुक्त से कलेक्टर को अंतरित करता है।
    • यह केंद्रीय पोर्टल/डेटाबेस पर औकाफ की सूची अपलोड करने का प्रावधान करता है।
    • यह केंद्रीय पोर्टल/डेटाबेस के माध्यम से पंजीकरण प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करता है।
    • यह भूमि अभिलेखों को वक्फ संपत्ति के रूप में म्यूटेशन करने से पहले 90 दिन की सार्वजनिक सूचना को अनिवार्य बनाता है।
  • बोर्ड की संरचना:
    • यह केंद्रीय वक्फ परिषद एवं राज्य वक्फ बोर्डों की व्यापक संरचना का प्रावधान करता है।
    • यह मुस्लिम महिलाओं एवं गैर-मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है।
    • यह बोहरा एवं आगाखानी के लिये अलग-अलग बोर्ड बनाने की अनुमति देता है।
    • यह शिया, सुन्नी, बोहरा, आगाखानी एवं अन्य पिछड़े मुस्लिम समुदायों का प्रतिनिधित्व अनिवार्य करता है।
  • शक्तियाँ एवं कार्य:
    • यह बोर्ड की उस शक्ति पर धारा 40 को निरसित करता है जिसके अंतर्गत यह तय किया जाता है कि संपत्ति वक्फ संपत्ति है या नहीं।
    • यह बोर्ड को देय वार्षिक अंशदान को 7% से घटाकर 5% कर देता है।
    • यह केंद्रीय पोर्टल पर वक्फ खातों को दाखिल करना अनिवार्य बनाता है।
    • यह बोर्ड की कार्यवाही/आदेशों को प्रकाशित करने का प्रावधान करता है।
  • अधिकरण एवं अपील:
    • यह अधिकरण की संरचना में सुधार करके उसे दो सदस्यों वाला बना देता है।
    • यह अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध 90 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय में अपील करने की अनुमति देता है।
    • यह विभिन्न धाराओं में अधिकरण के निर्णयों की अंतिमता को हटा देता है।
  • अन्य प्रमुख परिवर्तन:
    • यह सुनिश्चित करता है कि वक्फ-अल-औलाद महिलाओं को उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित न करे।
    • यह "उपयोगकर्त्ता द्वारा वक्फ" से संबंधित प्रावधानों को छोड़ देता है।
    • यह विधि-विरुद्ध संगठन के सदस्य होने पर मुतवल्ली को हटाने का प्रावधान करता है।
    • यह धारा 107 को हटाकर परिसीमा अधिनियम, 1963 को लागू करता है।

धर्म के मामलों में राज्य के हस्तक्षेप से संबंधित ऐतिहासिक मामले कौन-से हैं?

  • सरदार सैयदना ताहेर सैफुद्दीन साहब बनाम बॉम्बे राज्य (1962):
    • भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णयों में यह अवधारित किया है कि धर्म के मामले आम तौर पर राज्य के हस्तक्षेप से परे होते हैं, लेकिन यह स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है।
    • राज्य धार्मिक प्रथाओं को विनियमित या प्रतिबंधित कर सकता है यदि वे सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के साथ संघर्ष करते हैं।
    • इससे तात्पर्य यह है कि धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जाती है, लेकिन अगर वे सामाजिक कल्याण, सार्वजनिक शांति या नैतिक मानकों को खतरा पहुँचाते हैं तो उन्हें कम किया जा सकता है।
  • ब्रह्मचारी सिद्धेश्वर भाई एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1995):
    • भारत के उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य को धार्मिक मामलों में, विशेष रूप से धार्मिक संप्रदायों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये, जब तक कि उनकी प्रथाएँ सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के साथ संघर्ष न करें।
    • न्यायालय ने रामकृष्ण मिशन को हिंदू धर्म के अंदर एक धार्मिक संप्रदाय के रूप में मान्यता दी तथा उसे अपने धार्मिक एवं शैक्षणिक संस्थानों का प्रबंधन करने की स्वायत्तता प्रदान की।