Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

हेतुक

 14-Aug-2024

सुनील बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

“जहाँ प्रत्यक्ष एवं विश्वसनीय साक्ष्य उपस्थित हों, वहाँ हेतुक पीछे रह जाता है।”

न्यायमूर्ति राजीव गुप्ता, न्यायमूर्ति मोहम्मद अज़हर हुसैन इदरीसी

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति राजीव गुप्ता एवं न्यायमूर्ति मोहम्मद अज़हर हुसैन इदरीसी की पीठ ने कहा कि जहाँ प्रत्यक्ष साक्ष्य संदिग्ध प्रतीत होते हैं, वहाँ हेतुक का अस्तित्व या अनुपस्थिति महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सुनील बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

सुनील बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

15 जुलाई 2006 को रात्रि लगभग 9:30 बजे शिकायतकर्त्ता विनोद कुमार ने एक तहरीर प्रस्तुत की, जिसमें घटना वाले दिन की घटना का विवरण था।

इसके अनुसार 7:30 बजे जब शिकायतकर्त्ता वापस लौट रहा था तो उसने देखा कि सुनील (आरोपी) अपनी पत्नी को ज़मीन पर पटकने के बाद उसके सिर एवं चेहरे पर ईंट से वार कर रहा था।

उसके चिल्लाने एवं रोने पर कई अन्य लोग मौके पर एकत्र हो गए।

विवेचना प्रारंभ की गई तथा आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया।

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 304 एवं धारा 452 के अधीन आरोप-पत्र दायर किया गया।

अभियोजन पक्ष ने साक्ष्य प्रस्तुत किये तथा उसके बाद दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के अधीन आरोपी की जाँच की गई।

बचाव पक्ष ने कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया।

वर्तमान अपील अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित दोषसिद्धि के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में दायर की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

इस मामले में उच्च न्यायालय ने माना कि जहाँ परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं, वहाँ पूरी शृंखला अपीलकर्त्ता के अपराध की ओर इशारा करती है।

न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष ने स्वतंत्र साक्षियों की उपलब्धता और मौके पर उनकी उपस्थिति के बावजूद उनसे पूछताछ नहीं की है।

उपरोक्त निर्णय देते हुए न्यायालय ने साक्ष्य की सराहना के लिये कुछ बिंदुओं को दोहराया।

FIR दर्ज करने में विलंब:

न्यायालय ने कहा कि विधि में यह तथ्य स्थापित है कि जब FIR दर्ज करने में विलंब होता है तो इससे अभियोजन पक्ष के मामले पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।

यदि इसका स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है तो अभियोजन पक्ष के मामले को केवल इसी आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह अभियोजन पक्ष के साक्ष्य की अतिरिक्त सावधानी एवं सतर्कता के साथ जाँच करे।

संबंधित एवं इच्छुक साक्षी के मध्य अंतर:

न्यायालय ने माना कि संबंधित साक्षी, हितबद्ध साक्षी के समतुल्य नहीं है।

हितबद्ध साक्षी वह होता है जिसकी वाद के परिणाम में, किसी सिविल मामले के निर्णय में या अभियुक्त को दण्डित होते देखने में रुचि होती है।

हेतुक:

अपीलकर्त्ता का कहना था कि अभियुक्त पर कोई उद्देश्य आरोपित नहीं किया गया था, इसलिये अभियोजन पक्ष का मामला विफल होना चाहिये।

इस संबंध में न्यायालय ने माना कि आपराधिक न्याय के विधि का यह स्थापित सिद्धांत है कि उद्देश्य किसी भी आपराधिक कृत्य का अनिवार्य अंग है।

उद्देश्य किसी अपराध को करने का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

न्यायालय ने पूर्व उदाहरणों पर विश्वास करते हुए कहा कि जहाँ प्रत्यक्ष एवं विश्वसनीय साक्ष्य हैं, वहाँ हेतुक पीछे रह जाता है।

हालाँकि जहाँ प्रत्यक्ष साक्ष्य संदिग्ध प्रतीत होता है, वहाँ हेतुक का अस्तित्व या अनुपस्थिति कुछ महत्त्व प्राप्त कर लेती है।

वर्तमान मामले में कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है। यहाँ तक ​​कि तथाकथित प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों की उपस्थिति भी संदिग्ध है। इसलिये हेतुक कुछ महत्त्व प्राप्त कर लेता है।

इस प्रकार, उच्च न्यायालय ने आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।

हेतुक क्या है?

अभिप्राय:

प्रेरणा एक ऐसी इच्छा है जो आचरण को प्रेरित करती है। यह एक ऐसी इच्छा है जो व्यावहारिक प्रोत्साहन या कार्यवाही के लिये उत्सुकता में परिवर्तित हो जाती है।

प्रेरणा एक मानसिक स्थिति है, एक इच्छा है, जो आवश्यक रूप से उस कार्य से पहले होती है जिसके लिये यह उत्तेजना प्रदान करती है।

प्रेरणा वह भावना है जो किसी कार्य को करने के लिये प्रेरित करती है।

हेतुक एवं आशय के मध्य अंतर:

आशय से तात्पर्य है किसी ऐसे कार्य में शामिल होने का सचेत उद्देश्य या उद्देश्य जिसे विधि में वर्जित है।

आशय उस तात्कालिक उद्देश्य को संदर्भित करता है जिसके लिये कार्य किया जाता है। हालाँकि हेतुक कार्य का गुप्त उद्देश्य है।

आशय उस उद्देश्य को संदर्भित करता है जिसके लिये कार्य किया जाता है तथा आशय वह कारण या वजह है जो किसी को इसे करने के लिये प्रेरित करता है।

आशय किसी व्यक्ति की जानबूझकर की गई इच्छा को दर्शाता हुआ कार्य के पीछे के लक्ष्य या उद्देश्य को दर्शाता है। उदाहरण के लिये, चाकू खरीदने वाला व्यक्ति इसे किसी भी उद्देश्य से खरीद सकता है- हत्या, खाना बनाना या कुछ और।

दूसरी ओर, आशय किसी कार्य के पीछे अंतर्निहित कारण या प्रेरणा को संदर्भित करता है। हेतुक किसी व्यक्ति की प्रेरणाओं या हितों या चिंताओं के रूप में हो सकता है। उदाहरण के लिये, कोई व्यक्ति वित्तीय हताशा, लालच आदि के कारण चोरी कर सकता है।

हेतुक की प्रासंगिकता:

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 8 के अधीन हेतुक की प्रासंगिकता का प्रावधान किया गया है।

IEA की धारा 5 के अनुसार साक्ष्य केवल मुद्दे एवं प्रासंगिक तथ्य के आधार पर दिया जा सकता है।

IEA की धारा 8 में प्रावधान है कि कोई भी तथ्य प्रासंगिक है जो दर्शाता है या गठित करता है:

हेतुक

तैयारी या

आचरण

किसी भी मुद्दे या प्रासंगिक तथ्य का

आचरण के संबंध में धारा 8 निम्नलिखित प्रावधान करती है:

किसका आचरण प्रासंगिक है?

पक्षकार

पक्षकार का अभिकर्त्ता

पीड़ित

किस प्रकार का आचरण प्रासंगिक है?

वाद या कार्यवाही के संदर्भ में आचरण

मुद्दे या प्रासंगिक तथ्य से प्रभावित या प्रभावित आचरण

यह पिछला या बाद का आचरण हो सकता है

धारा 8 के स्पष्टीकरण 1 में यह प्रावधान है कि इस धारा में "आचरण" शब्द के अंतर्गत कथन शामिल नहीं हैं, जब तक कि वे कथन कथनों के अतिरिक्त अन्य कार्यों के साथ न हों तथा उन्हें स्पष्ट न करें; किंतु यह स्पष्टीकरण इस अधिनियम की किसी अन्य धारा के अंतर्गत कथनों की प्रासंगिकता को प्रभावित नहीं करेगा।

धारा 8 की व्याख्या 2 में यह प्रावधान है कि जब किसी व्यक्ति का आचरण प्रासंगिक हो, तो उसके समक्ष या उसकी उपस्थिति और विचारण में दिया गया कोई भी कथन, जो ऐसे आचरण को प्रभावित करता है, प्रासंगिक है। यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 6 में निहित है।

उद्देश्य के साक्ष्यात्मक मूल्य पर निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

बादाम सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2004)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "यद्यपि विश्वसनीय प्रत्यक्ष साक्ष्य होने पर हेतुक का अस्तित्व महत्त्व खो देता है, फिर भी ऐसे मामले में जहाँ प्रत्यक्ष साक्ष्य संदिग्ध प्रतीत होता है, हेतुक का अस्तित्व या अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले की संभावना के संबंध में कुछ महत्त्व प्राप्त कर लेता है।"

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम किशनपाल (2008)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि यह सर्वविदित है कि जहाँ प्रत्यक्षदर्शी का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध हो, वहाँ उद्देश्य अपना महत्त्व खो देता है।

इस प्रकार, जहाँ अपराध करने का कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं है, वहाँ अभियोजन पक्ष प्रत्यक्षदर्शी की स्पष्ट एवं विश्वसनीय गवाही के आधार पर भी सफल हो सकता है।

नंदू सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि ऐसा नहीं है कि मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा स्थापित किया जाने वाला एकमात्र हेतुक ही महत्त्वपूर्ण कड़ी है तथा इसके अभाव में अभियोजन पक्ष का आरोप विफल हो जाएगा।

हालाँकि हेतुक का पूर्ण अभाव निश्चित रूप से अभियुक्त के पक्ष में जाता है।

अनवर अली बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2020)

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने दोषसिद्धि के लिये एक परिस्थिति के रूप में हेतुक के संबंध में विभिन्न निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों का अवलोकन किया।

न्यायालय ने देखा कि सुरेश चंद्र बाहरी बनाम बिहार राज्य (1995) के मामले में यह माना गया था कि यदि हेतुक सिद्ध हो जाता है तो यह साक्ष्य की परिस्थितियों की शृंखला में एक कड़ी प्रदान करेगा, लेकिन हेतुक की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने का आधार नहीं हो सकती है।

वहीं बाबू बनाम केरल राज्य (2010) में न्यायालय ने माना कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर निर्भर किसी मामले में हेतुक एक ऐसा कारक है जो अभियुक्त के पक्ष में भारी पड़ता है।


आपराधिक कानून

वर्णित अभिकथन एवं वास्तविक अभिकथन

 14-Aug-2024

जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ

“अधीनस्थ न्यायालयों का ध्यान PFI की गतिविधियों पर अधिक था और इसलिये अपीलकर्त्ता के मामले का उचित मूल्यांकन नहीं किया जा सका”।

न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि आरोप-पत्र में साक्षी का अभिकथन, मजिस्ट्रेट के समक्ष दिये गए अभिकथन से भिन्न था और जाँच एजेंसियों को किसी के विरुद्ध आरोप लगाते समय निष्पक्ष होना चाहिये।

जलालुद्दीन खान बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 121, 121A और 122 तथा विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (UAPA) की धारा 13, 18, 18A और 20 के अधीन वाद चलाया गया था।
  • अपीलकर्त्ता को आरोप-पत्र में प्रतिवादी संख्या 2 के रूप में संदर्भित किया गया था।
  • आरोप-पत्र में कहा गया कि साक्षियों ने निम्नलिखित अभिकथन दिये :
    • अपीलकर्त्ता की पत्नी, अहमद पैलेस नामक इमारत की मालिक थी और अपीलकर्त्ता ने गुप्त रूप से दिखाया था कि उक्त इमारत की पहली मंज़िल पर स्थित परिसर, अतहर परवेज़- आरोपी नंबर 1 को किराये पर दिया गया था।
    • आरोप है कि इस परिसर का उपयोग पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) नामक संगठन की आपत्तिजनक गतिविधियों के संचालन के लिये किया जा रहा था।
    • चर्चा में कथित तौर पर PFI के विस्तार, इसके सदस्यों के प्रशिक्षण, मुस्लिम सशक्तीकरण और इस्लाम के विषय में अपमानजनक टिप्पणी करने वाले व्यक्तियों को निशाना बनाने की योजना शामिल थी।
    • सह-अभियुक्त द्वारा अपीलकर्त्ता के बेटे के खाते में 25,000 रुपए की धनराशि अंतरित की गई।
    • अपीलकर्त्ता को पुलिस की छापेमारी से ठीक पहले परिसर से कुछ सामान हटाते हुए पाया गया था।
  • अपीलकर्त्ता ने सह-आरोपी के साथ विशेष अदालत में ज़मानत के लिये आवेदन किया, जिसे अस्वीकार कर दिया गया।
  • जब अपीलकर्त्ता और सह-अभियुक्त द्वारा पटना उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई, तो उच्च न्यायालय ने अन्य सह-अभियुक्तों को ज़मानत दे दी, परंतु अपीलकर्त्ता की ज़मानत अस्वीकार कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरोप-पत्र में तथा मजिस्ट्रेट के समक्ष साक्षी द्वारा दिये गए अभिकथन एक-दूसरे से भिन्न हैं तथा उनमें अनेक विसंगतियाँ हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि साक्षी के अभिकथन में कथित अपराध में अपीलकर्त्ता की संलिप्तता नहीं थी।
  • यह भी नोट किया गया कि ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं था जिससे पता चले कि अपीलकर्त्ता ने आरोप-पत्र में उल्लिखित हमलों के लिये कोई निर्देश दिया था।
  • यह भी ध्यान दिया गया कि अपीलकर्त्ता पुत्र के बैंक खाते में अंतरित की गई राशि किराये का अग्रिम भुगतान थी।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि पुलिस छापे से पहले हटाए गए सामान का हमलों से कोई संबंध नहीं था, क्योंकि आरोप-पत्र में सामान की प्रकृति का उल्लेख नहीं किया गया था।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जो यह दर्शा सके कि कथित अपराध में अपीलकर्त्ता की संलिप्तता थी।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को ज़मानत दे दी।

अभिकथन क्या है?

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 161 के अनुसार, कथित अपराध के पक्ष या विपक्ष में साक्ष्य एकत्र करने के लिये अभिकथन दर्ज किया जाता है।
  • पुलिस के समक्ष दिया गया अभिकथन निर्णायक साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है तथा उसे मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से पुष्ट किया जाना आवश्यक है।
  • CrPC की धारा 164 के अधीन साक्षियों के अभिकथन दर्ज करने का उद्देश्य यह है कि अभिकथन देने वाला व्यक्ति नैतिक दायित्वों के अंतर्गत आता है और उसके अभिकथन को परिवार्तित करने की संभावना कम हो जाती है।
  • न्यायालय के समक्ष साक्षी के साक्ष्य और CrPC की धारा 161 तथा 164 के अधीन दर्ज अभिकथन के बीच विरोधाभास का उद्देश्य मुख्य रूप से साक्षी की विश्वसनीयता को समाप्त करना है।
  • न्यायपालिका का यह कर्त्तव्य है कि वह मामले के प्रावधानों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अभिकथन के प्रत्येक पहलू की सूक्ष्मता से जाँच करे। 

निर्णयज विधियाँ:

  • NIA बनाम जहूर अहमद शाह वटाली, (2019): इस मामले में UAPA अधिनियम के तहत ज़मानत सीमाओं के आवेदन में न्यायालयों को किस दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये, इस पर विस्तृत दिशा-निर्देश दिये गए थे।
  • शोमा कांति सेन बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2024): यह माना गया कि UAPA की धारा 43D(5) के तहत आरोप की पुष्टि करने के लिये निर्धारित परीक्षण को पूरा किया जाना चाहिये।

सिविल कानून

सरोगेसी करार

 14-Aug-2024

शैलजा नितिन मिश्रा बनाम नितिन कुमार मिश्रा   

अंडाणु या शुक्राणु दान करने से IVF के माध्यम से उत्पन्न हुए बच्चे पर जैविक माता-पिता के समान अधिकार नहीं मिलते।”

न्यायमूर्ति मिलिंद जाधव   

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि अंडाणु या शुक्राणु दान करने से IVF के माध्यम से उत्पन्न हुए बच्चों पर जैविक माता-पिता के समान अधिकार नहीं मिलता। यह निर्णय तब आया जब एक महिला ने अपनी बहन और बहनोई को अंडाणु दान किये थे, उसने सरोगेसी के माध्यम से उत्पन्न हुए जुड़वाँ बच्चों पर मातृत्व अधिकारों का दावा किया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि माता-पिता के अधिकार मात्र आनुवंशिक योगदान के आधार पर नहीं दिये जाते बल्कि इसमें विधिक एवं करार संबंधी विचार शामिल होते हैं।

  • न्यायमूर्ति मिलिंद जाधव ने शैलजा नितिन मिश्रा बनाम नितिन कुमार मिश्रा मामले में यह निर्णय दिया।

शैलजा नितिन मिश्रा बनाम नितिन कुमार मिश्रा की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता (पत्नी) और प्रतिवादी संख्या 1 (पति) विधिक रूप से विवाहित दंपत्ति हैं, जिनका विवाह अभी भी प्रभावी है।
  • दंपति चिकित्सीय समस्याओं के कारण स्वाभाविक रूप से गर्भधारण करने में असमर्थ थे, इसलिये उन्होंने पत्नी की छोटी बहन को अंडाणु दाता बनाकर सरोगेसी का सहारा लिया।
  • 30 नवंबर 2018 को दंपति, एक सरोगेट माँ और बंगलुरु के एक फर्टिलिटी क्लिनिक के डॉक्टर के बीच सरोगेसी करार पर हस्ताक्षर किये गए।
  • 25 अगस्त 2019 को सरोगेसी के माध्यम से जुड़वाँ पुत्रियों का जन्म हुआ।
  • अप्रैल 2019 में, बच्चों के जन्म से पहले, पत्नी की बहन (अंडाणु दाता) एक गंभीर दुर्घटना से ग्रस्त हो गई थी, जिसमें उसके पति और बच्चे की मृत्यु हो गई तथा वह विकलांग हो गई।
  • अगस्त 2019 से मार्च 2021 तक यह दंपति अपनी जुड़वाँ पुत्रियों के साथ रहा।
  • मार्च 2021 में पति, पत्नी को बिना बताए उसकी पुत्रियों को लेकर राँची चला गया।
    • पत्नी की बहन उनके साथ रहने लगी और बच्चों की देखभाल करने लगी।
  • पत्नी ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई और फिर पुत्रियों की संरक्षण के लिये न्यायालय में आवेदन दिया।
  • पत्नी ने मुलाकात के अधिकार की माँग करते हुए एक अंतरिम आवेदन भी दायर किया, जिसे सितंबर 2023 में ट्रायल कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया।
  • पत्नी ने अब अपने अंतरिम मुलाकात अधिकार आवेदन की अस्वीकृति को चुनौती देते हुए यह रिट याचिका दायर की है।
  • जुड़वाँ पुत्रियाँ अब 5 वर्ष की हो गई हैं और कथित तौर पर पत्नी की बहन को अपनी माँ के रूप में पहचानती हैं।
  • पति एवं पत्नी की बहन का तर्क है कि अंडाणु दाता के रूप में पत्नी की बहन को ही बच्चों की जैविक माँ माना जाना चाहिये।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • भारत में ART क्लीनिकों के प्रत्यायन, पर्यवेक्षण और विनियमन के लिये 2005 में लागू राष्ट्रीय दिशा-निर्देश इस मामले पर लागू होते हैं।
  • दिशा-निर्देश 3.12.1 के अनुसार, ART के माध्यम से उत्पन्न हुए बच्चे को दंपत्ति की वैध संतान माना जाएगा, जो विवाह के अंतर्गत और दोनों पति-पत्नी की सहमति से उत्पन्न हुआ हो।
  • दिशा-निर्देश 3.16.1 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शुक्राणु/अंडाणु दाता का बच्चे के संबंध में कोई अभिभावकीय अधिकार या कर्त्तव्य नहीं होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता की छोटी बहन, जो अंडाणु दाता है, को यह दावा करने का कोई विधिक अधिकार नहीं है कि वह जुड़वाँ पुत्रियों की जैविक माँ है।
  • सरोगेसी करार, इच्छुक माता-पिता (याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादी संख्या 1), सरोगेट माँ और डॉक्टर के बीच एक संविदा है।
    • अंडाणु दाता इस करार का पक्ष नहीं है।
  • निचले न्यायालय का विवादित आदेश पूरी तरह से बिना सोचे-समझे पारित किया गया है और यह स्पष्ट रूप से प्रवर्तनीय नहीं है।
  • याचिकाकर्त्ता की छोटी बहन की सीमित भूमिका अंडाणु दाता की है तथा अधिक-से-अधिक वह आनुवंशिक माता के रूप में योग्य हो सकती है, परंतु इससे उसे जैविक माता होने का दावा करने का कोई विधिक अधिकार नहीं मिल जाता।
  • याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादी संख्या 1, दिशा-निर्देशों तथा सरोगेसी अधिनियम के तहत परिभाषित इच्छुक दंपत्ति हैं एवं इसलिये वे जुड़वाँ पुत्रियों के जैविक पिता व माता होने के योग्य हैं।

सरोगेसी क्या है?

  • सरोगेसी एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक महिला (सरोगेट) किसी अन्य व्यक्ति या दंपत्ति (इच्छुक माता-पिता) की ओर से बच्चे को जन्म देने के लिये सहमत होती है।
  • सरोगेट, जिसे कभी-कभी गर्भावधि वाहक भी कहा जाता है, वह महिला होती है जो किसी अन्य व्यक्ति या दंपत्ति (इच्छुक माता-पिता) के लिये गर्भधारण करती है, बच्चे को जन्म देती है।
  • सरोगेसी, जिसमें गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज के अलावा सरोगेट माँ को कोई मौद्रिक प्रतिफल नहीं दिया जाता है, उसे अक्सर परोपकारी सरोगेसी कहा जाता है।
  • मूल चिकित्सा व्यय और बीमा कवरेज से अधिक मौद्रिक लाभ या पुरस्कार (नकद या वस्तु के रूप में) के लिये की जाने वाली सरोगेसी को वाणिज्यिक सरोगेसी कहा जाता है।

सरोगेसी करार क्या है?

  • सरोगेसी करार, एक विधिक अनुबंध है जो इच्छुक माता-पिता और सरोगेट माँ के बीच नियमों एवं शर्तों को परिभाषित करता है, जो इच्छुक माता-पिता के लिये बच्चे को जन्म देती है।
  • इस करार में चिकित्सा प्रक्रियाओं, माता-पिता के अधिकारों और वित्तीय व्यवस्थाओं के विषय में विवरण शामिल हैं।
  • दोनों पक्ष सरोगेसी करार पर हस्ताक्षर करने की अपनी सहमति की घोषणा करते हैं, जिसमें सरोगेट महिला, इच्छुक माता-पिता के लिये एक बच्चे को जन्म देने के लिये सहमत होती है।
  • यह करार सरोगेसी प्रक्रिया के दौरान और उसके बाद सरोगेट तथा इच्छुक माता-पिता दोनों के अधिकारों, ज़िम्मेदारियों एवं दायित्वों को निर्धारित करता है।
  • सरोगेट (और पति/पत्नी, यदि लागू हो) इस सरोगेसी व्यवस्था से उत्पन्न किसी भी बच्चे (बच्चों) के लिये इच्छुक माता-पिता के पूर्ण अभिभावकीय अधिकारों की पुष्टि और स्वीकृति करते हैं।
  • इच्छुक माता-पिता इस सरोगेसी व्यवस्था के कारण उत्पन्न हुए किसी भी बच्चे के लिये सभी अभिभावकीय अधिकारों और उत्तरदायित्वों को ग्रहण करने की अपनी स्पष्ट सहमति व्यक्त करते हैं।
  • करार में सरोगेट को प्रदान किये जाने वाले प्रतिफल को निर्दिष्ट किया जाएगा, जिसमें कवर किये गए व्ययों की गणना भी शामिल होगी, जैसे कि जीवन-यापन का व्यय और चिकित्सा व्यय जो अन्यथा बीमाकृत नहीं हैं।
  • यहाँ दी गई शर्तों के अनुसार, इच्छुक माता-पिता से सरोगेट तक भुगतान की सुविधा के लिये एक वित्तीय तंत्र (जैसे- निलंब खाता या ट्रस्ट) स्थापित किया जाएगा।
  • इस करार में सरोगेसी प्रक्रिया और प्रसवोत्तर अवधि के दौरान सरोगेट, बच्चे (बच्चों) तथा इच्छुक माता-पिता के लिये स्वास्थ्य बीमा कवरेज की रूपरेखा तैयार की जाएगी।
  • दोनों पक्ष एक संचार प्रोटोकॉल पर सहमत होते हैं, जिसमें संपर्क की आवृत्ति और विधि शामिल होती है, जिसे संपूर्ण गर्भावस्था के दौरान बनाए रखा जाना होता है।
  • गर्भावस्था के दौरान चिकित्सीय निर्णय लेने में इच्छुक माता-पिता की भागीदारी की सीमा को इसमें स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाएगा।
  • सरोगेट माँ, गर्भावस्था के दौरान निर्दिष्ट स्वास्थ्य और जीवनशैली विकल्पों का पालन करने के लिये सहमत होती है, जिसमें आहार संबंधी प्रतिबंध, व्यायाम संबंधी नियम, यात्रा संबंधी सीमाएँ तथा उच्च जोखिम वाली गतिविधियों से दूर रहना शामिल है।
  • इस करार में संभावित आकस्मिकताओं के लिये समाधान प्रदान किया जाएगा, जिसमें एकाधिक गर्भधारण, चयनात्मक कमी, गुणसूत्र संबंधी असामान्यताएँ और सरोगेट के लिये स्वास्थ्य जोखिम शामिल हैं।
  • दोनों पक्ष पारस्परिक रूप से सहमत गोपनीयता प्रोटोकॉल का पालन करने के लिये सहमत हैं, जिसमें सरोगेसी व्यवस्था से संबंधित सोशल मीडिया प्रकटनों पर सीमाएँ भी शामिल हैं।
  • करार में किसी भी पक्ष द्वारा करार की शर्तों के उल्लंघन के परिणामों को निर्दिष्ट किया जाएगा, जिसमें संभावित उपचार और विवाद समाधान तंत्र भी शामिल होंगे।