Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

आपराधिक कानून

1 जुलाई से पूर्व किये गए अपराध पर IPC की प्रयोज्यता

 27-Aug-2024

दीपू एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

“न्यायालय ने निर्णय दिया कि 1 जुलाई, 2024 से पहले किये गए अपराधों के लिये या उससे पहले दर्ज की गई FIR, IPC के अधीन आएंगी, लेकिन विवेचना भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) के अनुसार होगी।”

न्यायमूर्ति विवेक कुमार बिड़ला एवं न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

भारत में हाल ही में लागू किये गए नये आपराधिक संविधियों, जो पूर्ववर्ती औपनिवेशिक संविधियों का स्थान लेंगे, के कारण उनकी प्रयोज्यता के विषय में विधिक भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। इस विषय में प्रश्न उठे हैं कि क्या ये नए विधान 1 जुलाई, 2024 की प्रभावी तिथि से पहले किये गए अपराधों पर लागू होते हैं तथा वे चल रही कार्यवाही को कैसे प्रभावित करते हैं। भारतीय न्याय संहिता, 2023 एवं भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 इस तिथि से नए अपराधों को नियंत्रित करेंगे, जबकि पहले के मामले पुराने IPC तथा CrPC के अधीन बने रहेंगे।

  • न्यायमूर्ति विवेक कुमार बिड़ला और न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल ने दीपू एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में निर्णय दिया।

दीपू एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला दीपू एवं 4 अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका से जुड़ा है, जिसमें प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) को रद्द करने की मांग की गई है।
  •  संबंधित FIR 3 जुलाई, 2024 को केस क्राइम नंबर 0271/2024 के रूप में दर्ज की गई थी।
  •  FIR भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 376(2)(n), 354, 147, 452, 504, 506 एवं पाॅक्सो अधिनियम की धारा 4 के अधीन दर्ज की गई थी।
  •  मामला हमीरपुर ज़िले के मौदहा पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया था।
  •  कथित घटनाएँ 2 अप्रैल, 2024 एवं 28 जून, 2024 के बीच हुईं।
  •  भारतीय न्याय संहिता (BNS) एवं भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 1 जुलाई, 2024 को क्रमशः भारतीय दण्ड संहिता, 1860 और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की जगह लागू हुईं।
  •  नई संविधियाँ लागू होने के बाद दर्ज किये जाने के बावजूद, IPC के प्रावधानों के अधीन FIR दर्ज की गई।
  •  इस विसंगति के कारण ऐसे मामलों में लागू किये जाने वाले उचित विधिक प्रावधानों के विषय में प्रश्न किये गए, जहाँ अपराध, नई संविधियाँ लागू होने से पहले हुआ था, लेकिन FIR उसके बाद दर्ज की गई।
  •  यह मामला नए आपराधिक संविधियों के लागू होने तथा चल रही तथा नई जाँचों पर उनके प्रभाव के विषय में महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न करता है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि यदि 1 जुलाई, 2024 को या उसके बाद उस तिथि से पहले किये गए अपराध के लिये FIR दर्ज की जाती है, तो इसे IPC के प्रावधानों के अधीन दर्ज किया जाना चाहिये, लेकिन जाँच BNSS के अनुसार आगे बढ़ेगी।
  • 1 जुलाई, 2024 को लंबित जाँच के लिये, न्यायालय ने कहा कि पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लिये जाने तक ये CrPC के अनुसार जारी रहनी चाहिये।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि 1 जुलाई, 2024 को या उसके बाद लंबित जाँच का संज्ञान BNSS के अनुसार लिया जाना चाहिये।
  • जाँच, परीक्षण या अपील सहित सभी बाद की कार्यवाही BNSS के अधीन प्रक्रिया के अनुसार प्रावधानित की जानी है।
  • न्यायालय ने BNSS की धारा 531 (2) (a) की व्याख्या केवल लंबित जाँच, परीक्षण, अपील, आवेदन एवं पूछताछ को बचाने के रूप में की।
  • 1 जुलाई, 2024 के बाद शुरू होने वाले किसी भी परीक्षण, अपील, संशोधन या आवेदन को BNSS प्रक्रिया के अनुसार आगे बढ़ाया जाना है।
  • 1 जुलाई, 2024 को लंबित लेकिन उसके बाद समाप्त होने वाले मुकदमों के लिये, निर्णय के विरुद्ध कोई भी अपील या संशोधन BNSS के अनुसार होगा।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि 1 जुलाई, 2024 को लंबित अपील में कोई आवेदन दायर किया जाता है, तो CrPC की प्रावधानित प्रक्रिया लागू होगी।
  • 1 जुलाई, 2024 को या उसके बाद उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई आपराधिक कार्यवाही या आरोप-पत्र, जहाँ जाँच CrPC के तहत की गई थी, उन्हें BNSS की धारा 528 के अधीन दायर किया जाना चाहिये, न कि धारा 482 CrPC के अधीन।
  • न्यायालय ने FIR पंजीकरण एवं जाँच की प्रक्रिया के संबंध में पुलिस तकनीकी सेवा मुख्यालय, यूपी द्वारा जारी परिपत्र की सत्यता की पुष्टि की।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि IPC और CrPC के निरस्त होने के बावजूद, IPC के अधीन दायित्व एवं दण्ड के प्रावधान बने रहेंगे, लेकिन प्रक्रियात्मक पहलुओं को BNSS द्वारा नियंत्रित किया जाएगा।

नये आपराधिक संविधियों की प्रयोज्यता पर ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • कृष्णा जोशी बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2024)
    • राजस्थान उच्च न्यायालय: न्यायालय ने माना कि FIR पंजीकरण की तिथि पर लागू संविधि मुकदमे को नियंत्रित करेगी, भले ही यह 1 जुलाई, 2024 के बाद शुरू हो।
  • XXX बनाम केंद्रशासित राज्य, चंडीगढ़ (2024)
    • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय: न्यायालय ने निर्णय दिया कि IPC के अधीन दर्ज FIR के लिये, लेकिन जहाँ आवेदन या याचिकाएँ 1 जुलाई, 2024 के बाद दायर की जाती हैं, वहाँ BNSS के प्रावधान लागू होंगे।
  • अब्दुल खादर बनाम केरल राज्य (2024)
    • केरल उच्च न्यायालय: न्यायालय ने माना कि 1 जुलाई, 2024 को या उसके बाद दायर की गई अपीलें BNSS द्वारा शासित होंगी, भले ही वाद CrPC के अधीन संस्थित हुआ हो या नहीं।
  • श्री एस. रब्बन आलम बनाम CBI (निदेशक के माध्यम से) (2024)
    • दिल्ली उच्च न्यायालय: न्यायालय ने सुझाव दिया कि BNSS की धारा 531 (2) A) की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि BNSS के लागू होने से पहले लंबित अपीलें ही CrPC के तहत जारी रहेंगी।
  • प्रिंस बनाम दिल्ली सरकार एवं अन्य (2024)
    • दिल्ली उच्च न्यायालय: न्यायालय ने कहा कि 1 जुलाई, 2024 से पहले दर्ज अपराधों के लिये अग्रिम जमानत आवेदन BNSS के अधीन दायर किये जाने चाहिये।
  • हीरालाल नानसा भावसार एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य (1974)
    • गुजरात उच्च न्यायालय: न्यायालय ने माना कि निरसन प्रावधान के अंतर्गत केवल "लंबित कार्यवाही" ही संरक्षित की जाती है तथा नए संविधि के लागू होने के बाद प्रारंभ की गई नई कार्यवाही नए संविधि द्वारा शासित होगी।
  • रमेश चंद्र एवं अन्य बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (1976)
    • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय: न्यायालय ने पुष्टि की कि यदि नई संहिता के लागू होने के बाद इससे पहले किये गए किसी कार्य के लिये कार्यवाही शुरू की जाती है, तो वह नई संहिता द्वारा शासित होगी।

सिविल कानून

विक्रय हेतु समझौता

 27-Aug-2024

राधेश्याम एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य

“विक्रय हेतु समझौते का पालन न करना छल एवं न्यासभंग नहीं है”

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं न्यायमूर्ति पी.बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं न्यायमूर्ति पी.बी. वराले की पीठ ने कहा कि विक्रय समझौते का पालन न करना मात्र छल एवं न्यासभंग का अपराध नहीं है।

  • उच्चतम न्यायालय ने राधेश्याम एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य के मामले में यह निर्णय दिया।

राधेश्याम एवं अन्य बनाम राजस्थान राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रतिवादी एवं अपीलकर्त्ता ने संपत्ति के विक्रय हेतु एक विक्रय समझौता किया।
  • प्रतिवादी द्वारा विक्रय समझौते के समय 11 लाख रुपए का अग्रिम भुगतान किया गया था तथा वह 30 सितंबर, 2020 तक 1 करोड़ रुपए का भुगतान करने के लिये सहमत हुआ था।
  •  संपूर्ण राशि विक्रय समझौते के निष्पादन की तिथि से 18 महीने के अंदर चुकाई जानी थी।
  •  ऐसा प्रतीत होता है कि विक्रय निष्पादित नहीं किया गया था तथा प्रतिवादी ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करवाया जिसमें कहा गया कि अपीलकर्त्ताओं ने रजिस्ट्री निष्पादित करने से मना कर दिया एवं उसके साथ 1 करोड़ रुपए का छल किया है।
  • उल्लेखनीय है कि इस संबंध में एक सिविल वाद लंबित है।
  •  इसके बाद अपीलकर्त्ताओं ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420 एवं धारा 406 के अधीन दर्ज FIR को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया।
  •  राजस्थान उच्च न्यायालय ने FIR रद्द करने से मना कर दिया।
  •  उपरोक्त आदेश के विरुद्ध अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने माना कि मात्र विक्रय समझौते का पालन न करना अपने आप में छल एवं आपराधिक न्यासभंग नहीं है।
  • यह देखा गया कि FIR दर्ज करने का कार्य प्रतिवादियों द्वारा विलेख निष्पादित करवाने के लिये दबाव डालने का कार्य प्रतीत होता है।
  • न्यायालय ने कहा कि FIR के मात्र अवलोकन से पता चल जाएगा कि पक्षों के बीच वाणिज्यिक लेन-देन हुआ था तथा केवल इसलिये कि विक्रय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये गए थे, इससे तात्पर्य यह नहीं है कि छल या न्यासभंग का अपराध किया गया था।
  •  यह देखा गया कि यह ऐसा मामला नहीं था जिसमें प्रतिवादियों को धोखा दिया गया था या उनके साथ छल किया गया था, बल्कि यह एक सिविल विवाद है, जिसमें विक्रय समझौते के गैर-निष्पादन के लिये सिविल मुकदमे के माध्यम से निवारण हो सकता है।
  •  इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च न्यायालय ने FIR को रद्द न करके एक त्रुटि की है।

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (TPA) के अंतर्गत विक्रय समझौता क्या है?

  •  विक्रय समझौता संपत्ति का अंतरण है जो भविष्य की किसी तिथि में हो सकता है।
  •  TPA की धारा 54 "विक्रय" को परिभाषित करती है।
  •  यह धारा "विक्रय-संविदा" को भी परिभाषित करती है। "विक्रय-संविदा" (विक्रय समझौता) एक संविदा है जिसके अंतर्गत अचल संपत्ति की बिक्री पक्षों के बीच तय शर्तों पर होगी।
    •  धारा 54 में आगे यह भी प्रावधान है कि वह स्वयं ऐसी संपत्ति पर कोई हित या भार नहीं बनाता है।

TPA के अंतर्गत विक्रय एवं विक्रय समझौते के बीच क्या अंतर है?

विक्रय

विक्रय करार

तत्काल अंतरण होता है।

अंतरण को बाद के चरण तक स्थगित कर दिया गया है।

यह क्रेता को पूर्ण अधिकार प्रदान करता है।

इससे कोई अधिकार, हक या हित नहीं बनता है।

यह स्वामित्व का अंतरण है

यह महज एक समझौता है।

अचल संपत्ति के संबंध में विक्रय समझौते की स्थिति क्या है?

  • घनश्याम बनाम योगेंद्र राठी (2023)
    • विक्रय समझौता स्वामित्व का दस्तावेज़ नहीं है तथा TPA की धारा 54 के आधार पर किसी पक्ष को पूर्ण स्वामित्व प्रदान नहीं कर सकता है।
    • हालाँकि विक्रय समझौता, भुगतान की रसीद द्वारा पुष्टि की गई पूरी बिक्री मूल्य का भुगतान तथा यह तथ्य कि किसी व्यक्ति को संपत्ति का कब्ज़ा दिया गया था, के परिणामस्वरूप पक्ष को वाद की संपत्ति पर कब्ज़ा करने का अधिकार होगा।
    •  इस अधिकार को बाधित नहीं किया जा सकता।
    • इस प्रकार, TPA की धारा 53A के अंतर्गत शर्तों के साथ संयुक्त विक्रय समझौते के परिणामस्वरूप आंशिक प्रदर्शन का उपाय होता है जो किसी व्यक्ति के अधिकार को सुरक्षित रखता है।
  • सूरज लैंप एंड इंडस्ट्रीज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (2012)
    • TPA की धारा 54 के अनुसार अचल संपत्ति की बिक्री केवल पंजीकृत दस्तावेज़ के माध्यम से ही हो सकती है तथा बिक्री के लिये किया गया समझौता विषय वस्तु में कोई अधिकार या हित नहीं बनाता है।
    • TPA के अनुसार कब्ज़े के साथ या उसके बिना बिक्री के लिये किया गया समझौता अंतरण योग्य नहीं है।

अपंजीकृत विक्रय समझौते का साक्ष्यात्मक मूल्य क्या है?

  •  पंजीकरण अधिनियम, 1908 (RA) की धारा 17 में उन दस्तावेज़ों का प्रावधान है जिनका पंजीकरण अनिवार्य है।
  •  वर्ष 2001 में संशोधन के माध्यम से जोड़ी गई धारा 17 (1ए) में यह प्रावधान है कि TPA की धारा 53A के प्रयोजनार्थ किसी अचल संपत्ति के अंतरण के लिये संविदा वाले दस्तावेज़ों को पंजीकृत किया जाएगा तथा यदि यह पंजीकृत नहीं है तो संशोधन के लागू होने के बाद ऐसे दस्तावेज़ का TPA की धारा 53A के प्रयोजनार्थ कोई प्रभाव नहीं होगा।
  •  इस प्रकार, इस संशोधन के परिणामस्वरूप धारा 53A के अंतर्गत आंशिक निष्पादन के लिये राहत का दावा केवल तभी किया जा सकेगा जब विक्रय करार पंजीकृत हो।
  •  आर. हेमलता बनाम कश्तूरी (2023)
  •  न्यायालय ने यहाँ विशिष्ट निष्पादन के लिये एक वाद में RA की धारा 49 की प्रयोज्यता पर चर्चा की।
  •  RA की धारा 49 उन दस्तावेज़ों के गैर-पंजीकरण के प्रभाव के विषय में प्रावधानित करती है जिन्हें पंजीकृत किया जाना आवश्यक है।
    •  उपधारा में यह प्रावधान है कि अचल संपत्ति को प्रभावित करने वाला कोई अपंजीकृत दस्तावेज़, जिसका TPA द्वारा पंजीकरण कराना आवश्यक हो, प्राप्त किया जा सकता है।
      •  विशिष्ट राहत अधिनियम (SRA) के अध्याय II के अंतर्गत विनिर्दिष्ट पालन के लिये एक वाद में संविदा के साक्ष्य के रूप में,
        • या पंजीकृत साधन द्वारा प्रभावी होने की आवश्यकता नहीं होने वाले संपार्श्विक लेन-देन के साक्ष्य के रूप में।
  • इसलिये, न्यायालय ने इस मामले में माना कि अपंजीकृत विक्रय करार विशिष्ट निष्पादन के वाद में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगा, क्योंकि प्रावधान RA की धारा 49 का अपवाद है।

सिविल कानून

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता

 27-Aug-2024

ओंकार रिटेलर्स एंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम कुशलराज लैंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड तथा अन्य

"लेन-देन का प्रमुख उद्देश्य यह पता लगाना है कि क्या इसका वाणिज्यिक गतिविधियों के हिस्से के रूप में किसी प्रकार के लाभ सृजन से कोई संबंध था"

न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा एवं पंकज मिथल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ओंकार रिटेलर्स एंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम कुशलराज लैंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 (CPA) की धारा 2(7) की प्रयोज्यता निर्धारित करने के लिये पक्षों की मंशा को मामलों के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिये।

ओंकार रिटेलर्स एंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम कुशलराज लैंड डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में प्रतिवादी एक निजी लिमिटेड कंपनी है जो रियल एस्टेट विकास के व्यवसाय में लगी हुई है।
  • प्रतिवादी ने अपने एक निदेशक एवं उसके परिवार के सदस्यों के आवासीय उपयोग के लिये अपीलकर्त्ता के साथ परियोजना ‘ओमकार 1973 वर्ली’ में 51,00,000/- रुपए की बुकिंग राशि का भुगतान करके एक फ्लैट बुक किया।
  • इसके बाद, प्रतिवादी ने अपीलकर्त्ता को प्रतिफल का एक हिस्सा, यानी 6,79,971 रुपए का भुगतान किया।
  • प्रतिवादी को एक आवंटन-पत्र जारी किया गया, जिसमें निर्दिष्ट किया गया था कि कब्ज़े की तिथि 31 दिसंबर, 2018 के बाद नहीं होगी।
  • प्रतिवादी को 30 दिनों के अंदर शेष राशि का भुगतान करके फ्लैट का जल्दी कब्ज़ा लेने के लिये कहा गया था।
  • प्रतिवादी ने राशि का प्रबंध करने का प्रयास किया, लेकिन बाद में पता चला कि आवंटित फ्लैट पहले से ही किसी और के लिये बुक किया जा चुका है, जिसका नाम नकुल आर्य है।
  • परिणामस्वरूप, प्रतिवादी ने शेष राशि का भुगतान करने से मना कर दिया तथा कब्ज़ा लेने से मना कर दिया।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने 31 अगस्त, 2017 को एक निपटान-पत्र जारी किया।
  • प्रतिवादी ने ब्याज सहित भुगतान की गई राशि की वापसी का अनुरोध किया, जबकि अपीलकर्त्ता ने राशि ज़ब्त कर ली।
  • इसके बाद प्रतिवादी ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) से संपर्क किया तथा सेवाओं में कमी की शिकायत की और अनुचित व्यापार प्रथाओं को अपनाने का आरोप लगाया।
  • प्रतिवादी ने जमा की गई पूरी राशि को 18% ब्याज के साथ वापस करने, मुकदमेबाज़ी का व्यय एवं मानसिक उत्पीड़न व यातना के लिये क्षतिपूर्ति की भी मांग की।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2(7) के अंतर्गत उपभोक्ता नहीं है, क्योंकि प्रतिवादी रियल एस्टेट व्यवसाय में था तथा उसने व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये फ्लैट खरीदा था।
  • अपीलकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि सेवा में कोई कमी नहीं थी, क्योंकि अगर पूरी राशि का भुगतान किया गया होता तो वह प्रतिवादी को फ्लैट आवंटित कर देता।
  • NCDRC ने माना कि अपीलकर्त्ता द्वारा सेवा में कमी की गई थी, क्योंकि दोहरे आवंटन के मुद्दे को हल करने से पहले प्रतिवादी के आवंटन को रद्द करने और जमा की गई राशि को ज़ब्त करने में अपीलकर्त्ता को न्यायोचित नहीं ठहराया गया था।
  • NCDRC के निर्णय से व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक सिविल अपील दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विभिन्न उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि यह निर्धारित करने के लिये कि कोई व्यक्ति उपभोक्ता है या नहीं, खरीद के उद्देश्य पर विचार किया जाना चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता पर यह सिद्ध करने का भार आरोपित किया कि प्रतिवादी का फ्लैट खरीदने का उद्देश्य वाणिज्यिक था, जिसे अपीलकर्त्ता पूरा करने में विफल रहा।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी द्वारा खरीदा गया फ्लैट आवासीय उद्देश्यों के लिये था, क्योंकि इसे निदेशक एवं उनके परिवार के लिये खरीदा गया था।
  • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि अपीलकर्त्ता ने दोहरे आवंटन के विवाद को हल किये बिना, आवंटन से मना कर दिया एवं प्रतिवादी द्वारा भुगतान की गई राशि ज़ब्त कर ली।
  • उच्चतम न्यायालय ने इसे अपीलकर्त्ता की ओर से सेवा में कमी एवं अनुचित व्यापार व्यवहार माना।
  • इसलिये , उच्चतम न्यायालय ने NCDRC के आदेश की पुष्टि की और अपील को खारिज कर दिया।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 क्या है?

  • यह अधिनियम उपभोक्ताओं को सेवा प्रदाताओं या आपूर्तिकर्त्ताओं की दोषपूर्ण प्रथाओं से बचाने में सहायता करता है।
  • यह अधिनियम एक ढाँचा प्रदान करता है जिसके माध्यम से उपभोक्ता उपभोक्ता फोरम के समक्ष मामले दर्ज कर सकता है।
  • फोरम आवश्यक विचार-विमर्श के बाद उपभोक्ता को राहत प्रदान करता है।

उपभोक्ता कौन है?

परिचय

  • कोई भी व्यक्ति जो किसी उत्पाद का अंतिम उपयोगकर्त्ता है, वह उपभोक्ता है।
  • उपभोक्ता वह व्यक्ति है जो किसी भी वस्तु या सेवा को अपने उपयोग के लिये खरीदता है, न कि किसी व्यावसायिक उद्देश्य के लिये ।
  • CPA की धारा 2 (7) के अनुसार उपभोक्ता को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
  • कोई भी व्यक्ति जो—
    • किसी माल को ऐसे प्रतिफल के लिये खरीदता है जिसका भुगतान किया जा चुका है या जिसका वचन दिया गया है या आंशिक रूप से भुगतान किया गया है तथा आंशिक रूप से वचन दिया गया है, या किसी आस्थगित भुगतान प्रणाली के तहत और इसमें ऐसे माल का कोई भी उपयोगकर्त्ता शामिल है, जो उस व्यक्ति के अतिरिक्त है जो ऐसे माल को भुगतान किये गए या वादा किये गए या आंशिक रूप से भुगतान किये गए या आंशिक रूप से वादा किये गए प्रतिफल के लिये या किसी आस्थगित भुगतान प्रणाली के अंतर्गत खरीदता है, जब ऐसा उपयोग ऐसे व्यक्ति के अनुमोदन से किया जाता है, लेकिन इसमें ऐसा व्यक्ति शामिल नहीं है जो ऐसे माल को पुनर्विक्रय के लिये या किसी वाणिज्यिक उद्देश्य के लिये प्राप्त करता है।
    •  किसी सेवा को ऐसे प्रतिफल के लिये किराये पर लेता है या प्राप्त करता है, जिसका भुगतान किया जा चुका है या जिसका वचन दिया गया है या आंशिक रूप से भुगतान किया गया है और आंशिक रूप से वचन दिया गया है, या आस्थगित भुगतान की किसी प्रणाली के अंतर्गत और इसमें ऐसी सेवा का कोई भी लाभार्थी शामिल है, जो उस व्यक्ति के अतिरिक्त है, जो भुगतान किये गए या वादा किये गए प्रतिफल के लिये या आंशिक रूप से भुगतान किये गए तथा आंशिक रूप से वादा किये गए, या आस्थगित भुगतान की किसी प्रणाली के तहत सेवाओं को किराये पर लेता है या प्राप्त करता है, जब ऐसी सेवाओं का लाभ पहले उल्लिखित व्यक्ति के अनुमोदन से उठाया जाता है, लेकिन इसमें ऐसा व्यक्ति शामिल नहीं है जो किसी भी वाणिज्यिक उद्देश्य के लिये ऐसी सेवा प्राप्त करता है।

उपभोक्ता के अधिकार

  • CPA की धारा 2(9) के अनुसार उपभोक्ता अधिकारों में शामिल हैं-
    • जीवन एवं संपत्ति के लिये खतरनाक वस्तुओं, उत्पादों या सेवाओं के विपणन के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार।
    • अनुचित व्यापार प्रथाओं के विरुद्ध उपभोक्ता की रक्षा के लिये वस्तुओं, उत्पादों या सेवाओं की गुणवत्ता, मात्रा, शक्ति, शुद्धता, मानक एवं मूल्य के विषय में सूचित किये जाने का अधिकार।
    • जहाँ भी संभव हो, प्रतिस्पर्द्धी कीमतों पर विभिन्न वस्तुओं, उत्पादों या सेवाओं तक पहुँच का आश्वासन पाने का अधिकार।
    • सुने जाने का अधिकार और यह आश्वासन पाने का अधिकार कि उपभोक्ता के हितों पर उचित समय पर उचित विचार किया जाएगा।
    • अनुचित व्यापार व्यवहार या प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार या उपभोक्ताओं के बेईमान शोषण के विरुद्ध निवारण की मांग करने का अधिकार।
    • उपभोक्ता जागरूकता का अधिकार।

सेवा में कमी क्या है?

  • "सेवाओं की कमी" की अवधारणा में उपभोक्ताओं को प्रदान की जाने वाली सेवाओं के अपेक्षित मानक में किसी भी तरह की विफलता या कमी शामिल है।
  • इसमें ऐसे मामले शामिल हैं जहाँ प्रदान की गई सेवा विधिक आवश्यकताओं, संविदात्मक दायित्वों या उपभोक्ता की उचित अपेक्षाओं से कम है।
  • सेवा प्रदाता द्वारा लापरवाही, जानबूझकर किये गए कार्यों या चूक के कारण कमी उत्पन्न हो सकती है, जिससे उपभोक्ता असंतुष्ट, असुविधा या क्षति हो सकती है।
  • CPA की धारा 2(11) "कमी" को किसी भी विधि के अंतर्गत बनाए रखने के लिये आवश्यक प्रदर्शन की गुणवत्ता, प्रकृति एवं तरीके में किसी भी दोष, अपूर्णता, कमी या अपर्याप्तता के रूप में परिभाषित करती है या किसी व्यक्ति द्वारा किसी संविदा के अंतर्गत या अन्यथा किसी सेवा के संबंध में प्रदर्शन करने के लिये प्रतिबद्ध है। इसमें शामिल हैं:
    • सेवा प्रदाता द्वारा की गई लापरवाही, चूक या कमीशन का कोई भी कार्य, जिससे उपभोक्ता को नुकसान या चोट पहुँचती है।
    • सेवा प्रदाता द्वारा उपभोक्ता से प्रासंगिक जानकारी को जानबूझकर छिपाना।

ऐतिहासिक मामले:

  • लीलावती कीर्तिलाल मेहता मेडिकल ट्रस्ट बनाम यूनिक शांति डेवलपर्स एवं अन्य (2019): इस मामले में नर्सों के लिये मेडिकल ट्रस्ट द्वारा खरीदे गए घरों को वाणिज्यिक लेन-देन के रूप में नहीं रखा गया था तथा ट्रस्ट को CPA के अंतर्गत उपभोक्ता माना गया था।
  • क्रॉम्पटन ग्रीव्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम डेमलर क्रिसलर इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2016): इस मामले में निदेशक ने अपने व्यक्तिगत उपयोग के लिये कुछ सेवाओं का लाभ उठाया, इसलिये उन्हें CPA के अंतर्गत उपभोक्ता माना गया।