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आपराधिक कानून
‘ज़मानत’ नियम है, जबकि ‘जेल’ अपवाद
29-Aug-2024
प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ "यह सिद्धांत कि ज़मानत, नियम है तथा जेल, अपवाद है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का केवल एक संक्षिप्त रूप है"। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई तथा के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि धन शोधन निवारण अधिनियम 2002 (PMLA) में भी ज़मानत एक नियम है तथा जेल एक अपवाद है।
प्रेम प्रकाश बनाम प्रवर्तन निदेशालय के माध्यम से भारत संघ, मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 406, 420, 467, 468, 447, 504, 506, 341, 323 एवं 34 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
- IPC की धारा 420 एवं 467 के अधीन अपराध होने के मद्देनज़र PMLA के अधीन जाँच प्रारंभ की गई थी।
- प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने अपराध की जाँच की।
- आरोप यह था कि आरोपी राजेश राय ने अवैध रूप से और धोखाधड़ी से इम्तियाज़ अहमद एवं आरोपी भरत प्रसाद के नाम पर पावर ऑफ अटॉर्नी बनाई तथा उक्त पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर एक जाली विक्रय विलेख तैयार किया और अपीलकर्त्ता के साथी आरोपी पुनीत भार्गव को ज़मीन बेच दी।
- यह भी आरोप है कि आरोपी पुनीत भार्गव ने दो बिक्री विलेखों के माध्यम से उक्त ज़मीन को आरोपी बिष्णु कुमार अग्रवाल को अंतरित कर दिया।
- अपीलकर्त्ता को 11 अगस्त 2023 को अभिरक्षा में लिया गया था। वह पहले से ही 25 अगस्त 2022 से अभिरक्षा में था।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि विभिन्न साक्षियों की जाँच के कारण उसे ज़मानत नहीं दी गई जो उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- अपीलकर्त्ता की ज़मानत याचिका को विशेष न्यायाधीश एवं उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
- व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने PMLA की धारा 45 के प्रावधानों पर गौर किया, जिसमें ज़मानत देने के लिये दो शर्तें बताई गई हैं।
- यह प्रावधान ज़मानत के सामान्य नियम का अपवाद नहीं है, बल्कि यह ज़मानत देने से पहले पालन की जाने वाली दोहरी शर्तें प्रदान करता है।
- उच्चतम न्यायालय ने सामान्य नियम पर प्रकाश डालते हुए कहा कि "ज़मानत, एक नियम है तथा जेल, एक अपवाद है"।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि PMLA की धारा 45, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का संक्षिप्त रूप है, जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।
- उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि व्यक्ति की स्वतंत्रता सदैव नियम है तथा इससे वंचित किया जाना अपवाद है। ‘वंचित किया जाना’ केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा ही की जा सकती है जो वैध एवं उचित होनी चाहिये।
- इसलिये उच्चतम न्यायालय ने अपीलकर्त्ता की याचिका स्वीकार कर ली तथा ज़मानत दे दी।
PMLA के अधीन "ज़मानत नियम है" के सामान्य सिद्धांत की प्रयोज्यता क्या है?
परिचय:
- भारत में ज़मानत के लिये विभिन्न अधिनियमों में अलग-अलग प्रावधान दिये गए हैं।
- वर्ष 2019 में PMLA की धारा 45 (1) में संशोधन किया गया तथा ज़मानत देने के लिये दी गई दो अतिरिक्त शर्तों को हटा दिया गया क्योंकि वे COI के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 का उल्लंघन कर रहे थे।
- निकेश तात्राचंद शाह बनाम भारत संघ एवं अन्य (2017) के ऐतिहासिक निर्णय द्वारा ये संशोधन किये गए थे।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438 एक प्रक्रियात्मक प्रावधान है जो प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है, जो निर्दोषता की धारणा के लाभ का अधिकारी है।
- विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 की धारा 43D (5) ज़मानत कार्यवाही के लिये आधार तैयार करती है, जिसमें रिहाई के लिये कठोर शर्तें निर्धारित की गई हैं।
- इस प्रावधान के अधीन, UAPA के अध्याय IV एवं VI के अधीन दण्डनीय आरोपों का सामना करने वाले आरोपी को केवल पुलिस के दस्तावेज़ों के आधार पर न्यायालय में यह सिद्ध करना होगा कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य नहीं हैं।
- यह विधिक ढाँचा निर्दोषता की मौलिक धारणा का उल्लंघन करते हुए, प्रभावी रूप से साक्ष्य का भार आरोपी पर डाल देता है।
PMLA के अधीन ज़मानत के लिये दो शर्तें:
- धारा 45: इसमें कहा गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में निहित किसी भी तथ्य के बावजूद, इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के आरोपी किसी भी व्यक्ति को ज़मानत पर या अपने स्वयं के बॉण्ड पर रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि:
- लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है।
- जहाँ सरकारी अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय को विश्वास है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है तथा यह कि वह ज़मानत पर रहते हुए कोई अपराध करने की संभावना नहीं है।
- बशर्ते कि कोई व्यक्ति, जो सोलह वर्ष से कम आयु का है, या महिला है या बीमार या अशक्त है, या अकेले या अन्य सह-अभियुक्तों के साथ एक करोड़ रुपए से कम की धनराशि के धन शोधन का आरोपी है, ज़मानत पर रिहा किया जा सकता है, यदि विशेष न्यायालय ऐसा निर्देश देती है।
- आगे यह भी प्रावधान है कि विशेष न्यायालय धारा 4 के अंतर्गत दण्डनीय किसी अपराध का संज्ञान लिखित रूप में की गई शिकायत के अतिरिक्त नहीं लेगा।
- निदेशक;
- या केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार का कोई अधिकारी जिसे केंद्रीय सरकार द्वारा इस निमित्त किये गए किसी साधारण या विशेष आदेश द्वारा लिखित रूप में प्राधिकृत किया गया हो।
ज़मानत क्या है?
परिचय:
- ज़मानत विधिक अभिरक्षा में रखे गए व्यक्ति की सशर्त/अस्थायी रिहाई है (ऐसे मामलों में, जिन पर न्यायालय द्वारा अभी निर्णय दिया जाना है), जिसके लिये न्यायालय में आवश्यकता पड़ने पर उपस्थित होने का वचन दिया जाता है। यह रिहाई के लिये न्यायालय के समक्ष जमा की गई सुरक्षा/संपार्श्विक को दर्शाता है।
- ज़मानत, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अंदर एक विधिक प्रावधान है, जो सुरक्षा जमा करने पर लंबित वाद या अपील के दौरान जेल से रिहाई की सुविधा प्रदान करता है।
भारत में ज़मानत के प्रकार:
- नियमित ज़मानत: यह न्यायालय (देश के किसी भी न्यायालय) द्वारा किसी व्यक्ति को रिहा करने का निर्देश है, जो पहले से ही गिरफ़्तार है एवं पुलिस अभिरक्षा में है।
- अंतरिम ज़मानत: न्यायालय द्वारा अस्थायी और छोटी अवधि के लिये दी गई ज़मानत, जब तक कि अग्रिम ज़मानत या नियमित ज़मानत की मांग करने वाला आवेदन न्यायालय के समक्ष लंबित है।
- अग्रिम ज़मानत या गिरफ्तारी से पहले की ज़मानत: यह एक विधिक प्रावधान है जो किसी आरोपी व्यक्ति को गिरफ़्तार होने से पहले ज़मानत के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है। भारत में, गिरफ्तारी से पहले की ज़मानत CrPC की धारा 438 के अधीन दी जाती है। यह केवल सत्र न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है।
- गिरफ्तारी से पहले ज़मानत का प्रावधान विवेकाधीन है, तथा न्यायालय अपराध की प्रकृति एवं गंभीरता, आरोपी के पिछले इतिहास और अन्य प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बाद ज़मानत दे सकती है। न्यायालय ज़मानत देते समय कुछ शर्तें भी लगा सकती है, जैसे पासपोर्ट सरेंडर करना, देश छोड़ने से बचना या नियमित रूप से पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना।
जेल एक अपवाद क्यों है?
- किसी व्यक्ति को बिना किसी कारण के अभिरक्षा में रखना उसकी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
- किसी व्यक्ति को जाँच के उद्देश्य से तथा ऐसा करने की उचित आशंका होने पर परीक्षण-पूर्व चरण में अभिरक्षा में लिया जा सकता है।
- किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण दण्डनीय है तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है।
- न्यायालयों का यह कर्त्तव्य है कि वे यह सुनिश्चित करें कि किसी व्यक्ति को तब तक अभिरक्षा में न रखा जाए जब तक कि यह न्याय के हित के विरुद्ध न हो।
ज़मानत नियम है जबकि जेल अपवाद, इस पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- विधिक मामलों के अधीक्षक एवं स्मरणकर्त्ता बनाम अमिय कुमार रॉय चौधरी (1973):
- इस मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने ज़मानत देने के पीछे के सिद्धांत को समझाया।
- राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977):
- न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने प्रसिद्ध रूप से कहा था, "मूल नियम शायद संक्षेप में ज़मानत के रूप में रखा जा सकता है, जेल के रूप में नहीं।"
- इसने निर्दोषता की धारणा एवं एक आरोपी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को रेखांकित किया।
- गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980):
- यह मामला अग्रिम ज़मानत से संबंधित था, लेकिन इसमें निर्दोषता की धारणा पर ज़ोर दिया गया।
- न्यायालय ने माना कि ज़मानत का अधिकार सीधे संविधान के अनुच्छेद 21 से जुड़ा हुआ है।
- सिद्धराम सतलिंगप्पा मेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2011):
- न्यायालय ने दोहराया कि ज़मानत नियम है जबकि जेल अपवाद है।
- न्यायालय ने ज़मानत आवेदनों पर विचार करते समय व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सामाजिक हितों के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
- केरल राज्य बनाम रानीफ (2011):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ज़मानत तभी दी जानी चाहिये जब अभियुक्त यह दिखा सके कि यह मानने के लिये उचित आधार मौजूद हैं कि वह अपराध का दोषी नहीं है।
- संजय चंद्रा बनाम CBI (2012):
- न्यायालय ने माना कि ज़मानत का उद्देश्य न तो दण्डात्मक है तथा न ही निवारक।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दण्डात्मक उपाय के रूप में ज़मानत देने से मना करना निर्दोषता की धारणा की अवधारणा के विपरीत होगा।
- NIA बनाम जहूर अहमद शाह वताली (2019):
- इस मामले ने एक उदाहरण स्थापित किया है जिसके अंतर्गत न्यायालय UAPA के अधीन ज़मानत की कार्यवाही के दौरान अभियोजन पक्ष के साक्ष्य की आलोचनात्मक जाँच करने से विवश हैं।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "ज़मानत के लिये प्रार्थना पर विचार करने के चरण में, सामग्री का मूल्यांकन करना आवश्यक नहीं है, बल्कि व्यापक संभावनाओं के आधार पर केवल सामग्री के आधार पर राय बनाना है"।
- वर्नोन बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2023):
- इस मामले में एक सूक्ष्म दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया, जिसमें ज़मानत पात्रता निर्धारित करने से पहले साक्ष्य के सतही स्तर के विश्लेषण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि, "यह प्रथम दृष्टया "परीक्षण" को संतुष्ट नहीं करेगा जब तक कि ज़मानत देने के प्रश्न की जाँच के चरण में साक्ष्य के सत्यापन योग्य मूल्य का कम-से-कम सतही विश्लेषण न हो और गुणवत्ता या सत्यापन योग्य मूल्य न्यायालय को उसके महत्त्व के विषय में संतुष्ट न कर दे"।
आपराधिक कानून
POCSO अधिनियम, 2012 के अंतर्गत पीड़िता के अनुकूल विचारण
29-Aug-2024
माधब चंद्र प्रधान एवं अन्य बनाम ओडिशा राज्यॅ “पीड़िता को वापस बुलाने की अनुमति देने से संविधि (POCSO अधिनियम) का मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा”। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि जब पीड़िता को प्रतिपरीक्षा के लिये पर्याप्त अवसर दे दिये गए हैं तो CrPC की धारा 311 के अधीन पुनः बुलाने के लिये आवेदन की अनुमति देना लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पाॅक्सो) के उद्देश्य को विफल कर देगा।
- उच्चतम न्यायालय ने माधव चंद्र प्रधान एवं अन्य बनाम ओडिशा राज्य के मामले में यह निर्णय दिया।
माधव चंद्र प्रधान एवं अन्य बनाम ओडिशा राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ताओं ने अप्राप्तवय पीड़ित लड़की का अपहरण कर लिया तथा उसे अपने मामा के गांव ले आए।
- अभियोजन पक्ष का यह भी कहना है कि याचिकाकर्त्ता (आरोपी) ने उसकी विवाह दूसरे आरोपी से करवा दी।
- अभियोजन पक्ष का यह भी कहना है कि आरोपी व्यक्ति ने पीड़िता के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए।
- पीड़िता को आखिरकार उसके माता-पिता ने बचा लिया।
- आरोपी के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता, 1870 (IPC) की धारा 363, 366, 376 (2) एवं धारा 109 के साथ धारा 34 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 4,6 एवं 17 के साथ बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (PCMA) की धारा 9, 10 एवं 11 के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 311 के अधीन दायर आवेदन:
- याचिकाकर्त्ताओं ने पीड़िता को साक्षी के रूप में पुनः जाँच के लिये वापस बुलाने के लिये CrPC की धारा 311 के अधीन आवेदन दायर किया था।
- इस आवेदन को विशेष न्यायालय ने खारिज कर दिया।
- याचिकाकर्त्ता ने CrPC की धारा 311 के अधीन उनके आवेदन को खारिज करने वाले विशेष न्यायालय के आदेश को चुनौती देने के लिये CrPC की धारा 482 के अधीन उच्च न्यायालय में अपील किया।
- उच्च न्यायालय के समक्ष किया गया आवेदन भी खारिज कर दिया गया।
- इसलिये, याचिकाकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया है।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में दो प्रावधान लागू हैं: CrPC की धारा 311 तथा पाॅक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 33 (5)।
- यहाँ निर्धारित किया जाने वाला मुद्दा यह है:
- क्या CrPC की धारा 311 के अधीन अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए विशेष न्यायालय को अधिनियम की धारा 33(5) के अधीन अधिदेश को ध्यान में रखते हुए, पीड़िता को साक्षी के रूप में पुनः परीक्षा के लिये वापस बुलाना चाहिये था?
- राज्य (दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) बनाम शिव कुमार यादव (2016) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने CrPC की धारा 311 के अधीन गवाह को पुनः बुलाने की दलील के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
- धारा 311 के अधीन साक्षी को पुनः बुलाने की दलील सद्भावनापूर्ण एवं वास्तविक होनी चाहिये।
- धारा 311 के अधीन साक्षी को वापस बुलाने के आवेदन को स्वाभाविक रूप से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये तथा न्यायालय को दिये गए विवेक का प्रयोग मनमाने ढंग से नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने माना कि इस मामले में मामले के अभिलेखों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि बचाव पक्ष के वकील को पीड़िता से जिरह करने के लिये पर्याप्त अवसर दिये गए थे।
- यह देखा गया कि जब पीड़िता की जाँच की जा चुकी है तथा फिर दो बार लंबी प्रतिपरीक्षा की जा चुकी है, तो विशेष रूप से पाॅक्सो अधिनियम के अधीन मुकदमे में पीड़िता को पुनः बुलाने के आवेदन को यंत्रवत् अनुमति देना विधि के मूल उद्देश्य को ही विफल कर देगा।
- इसलिये, न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय या विशेष न्यायालय द्वारा पारित आदेश में कोई त्रुटि या अवैधता नहीं थी।
पाॅक्सो अधिनियम, 2012 के अंतर्गत विशेष न्यायालय क्या हैं?
- पाॅक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 28 में विशेष न्यायालयों के पदनाम का प्रावधान है।
- राज्य सरकार उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से प्रत्येक ज़िले के लिये एक सत्र न्यायालय को अधिनियम के अधीन अपराधों के विचारण के लिये विशेष न्यायालय के रूप में नामित करेगी। (धारा 28 (1))
- यदि किसी न्यायालय को विशेष न्यायालय के रूप में नामित किया गया है-
- बाल अधिकार संरक्षण आयोग, 2005 के अधीन बाल न्यायालय,
- या किसी अन्य विधि के अधीन विशेष न्यायालय
- ऐसा न्यायालय विशेष न्यायालय माना जाएगा।
- पाॅक्सो अधिनियम की धारा 28 (2) के अनुसार, एक विशेष न्यायालय उस अपराध का भी विचारण करेगा, जिसके लिये अभियुक्त पर उसी मुकदमे में CrPC के अधीन आरोप लगाया जा सकता है।
- अधिनियम की धारा 28 (3) के अनुसार विशेष न्यायालय के पास सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67B के अधीन अपराधों का विचारण करने का क्षेत्राधिकार होगा।
- पाॅक्सो अधिनियम की धारा 31 के अनुसार, CrPC के प्रावधान विशेष न्यायालय के समक्ष कार्यवाही पर लागू होंगे, सिवाय अधिनियम में अन्यथा प्रावधान के।
- साथ ही, विशेष न्यायालय को सत्र न्यायालय माना जाएगा तथा अभियोजित करने वाला व्यक्ति लोक अभियोजक माना जाएगा।
पाॅक्सो अधिनियम, 2012 के अंतर्गत विचारण के संबंध में पीड़िता के अनुकूल प्रावधान क्या हैं?
- धारा 33(2):
- विशेष लोक अभियोजक एवं अभियुक्त के अधिवक्ता बालक की मुख्य परीक्षा, प्रतिपरीक्षा एवं पुनः परीक्षा दर्ज करते समय प्रश्नों को विशेष न्यायालय को सूचित करेंगे, जो बदले में बालक से ऐसे प्रश्न पूछेगा।
- धारा 33 (3):
- विशेष न्यायालय विचारण के दौरान बालक को बार-बार अवकाश की अनुमति दे सकता है।
- धारा 33 (4):
- विशेष न्यायालय, परिवार के किसी सदस्य, अभिभावक, मित्र या रिश्तेदार, जिन पर बच्चे का भरोसा या विश्वास हो, को न्यायालय में उपस्थित होने की अनुमति देकर बाल-अनुकूल वातावरण तैयार करेगा।
- धारा 33 (5):
- विशेष न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि बालक को न्यायालय में गवाही देने के लिये बार-बार न बुलाया जाए।
- धारा 33 (6):
- विशेष न्यायालय बच्चे से आक्रामक पूछताछ या चरित्र हनन की अनुमति नहीं देगा तथा यह सुनिश्चित करेगा कि विचारण के दौरान हर समय बच्चे की गरिमा बनी रहे।
- धारा 33 (7):
- विशेष न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि जाँच या विचारण के दौरान किसी भी समय बच्चे की पहचान का प्रकटन नहीं किया जाएगा।
- लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों से विशेष न्यायालय ऐसे प्रकटन की अनुमति दे सकता है, यदि यह बालक के हित में हो।
- स्पष्टीकरण में यह प्रावधान है कि बालक की पहचान में बच्चे के परिवार, स्कूल, रिश्तेदारों, पड़ोस या किसी अन्य जानकारी की पहचान शामिल है, जिसके द्वारा बच्चे की पहचान उजागर की जा सकती है।
- धारा 33 (8):
- विशेष न्यायालय दण्ड के अतिरिक्त, बालक को हुए किसी शारीरिक या मानसिक आघात के लिये अथवा ऐसे बालक के तत्काल पुनर्वास के लिये विहित प्रतिकर के भुगतान का निर्देश दे सकता है।
- धारा 36:
- न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि पीड़िता किसी भी तरह से अभियुक्त के संपर्क में न आए, साथ ही यह भी सुनिश्चित करेगा कि अभियुक्त बालक का बयान सुन सके तथा अपने अधिवक्ता से बातचीत कर सके।
- विशेष न्यायालय वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या एकल दृश्यता दर्पण या पर्दे या अन्य उपकरण के माध्यम से बच्चे का बयान दर्ज कर सकता है।
- धारा 37:
- विशेष न्यायालय बंद कमरे में तथा बालक के माता-पिता या किसी अन्य व्यक्ति, जिस पर बच्चे का भरोसा या विश्वास हो, की उपस्थिति में मामलों का विचारण करेगा।
- धारा 37 के प्रावधान में यह प्रावधान है कि जहाँ विशेष न्यायालय की यह राय है कि बच्चे की जाँच न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर की जानी चाहिये, तो वह CrPC की धारा 284 के प्रावधानों के अनुसार कमीशन जारी करने के लिये आगे बढ़ेगा।
- धारा 38:
- बच्चे का बयान दर्ज करते समय न्यायालय अनुवादक या द्विभाषिये की सहायता ले सकता है।
- यदि बच्चा मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग है, तो न्यायालय विशेष शिक्षक की सहायता ले सकता है।
सांविधानिक विधि
अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत बैंक कर्मचारी
29-Aug-2024
के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य “न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत नियुक्त बैंक कर्मचारी अपनी जाति के अनुसूचित सूची हटाए जाने के बावजूद अपने पद पर बने रह सकते हैं।” न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने केनरा बैंक द्वारा अनुसूचित जाति (SC) कोटे के तहत वैध जाति प्रमाण-पत्रों के आधार पर नियुक्त कर्मचारियों को जारी किये गए कारण बताओ नोटिस को अस्वीकार कर दिया। ये नोटिस वर्ष 1977 के सरकारी परिपत्र के बाद जारी किये गए थे, जिसमें 'कोटेगारा' समुदाय को अनुसूचित जाति (SC) के समान माना गया था, जिसे बाद में महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, 2000 में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के उपरांत अमान्य माना गया था।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल राष्ट्रपति ही भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति सूचियों को संशोधित कर सकते हैं, जिससे राज्य सरकार द्वारा किया गया संशोधन निरर्थक हो जाता है।
- न्यायमूर्ति हिमा कोहली और संदीप मेहता ने के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।
के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अपीलकर्त्ता कर्नाटक में विभिन्न बैंकों और सरकारी उपक्रमों में अनुसूचित जाति (SC) के लिये आरक्षित पदों पर कार्यरत थे।
- अपीलकर्त्ताओं ने अनुसूचित जाति का जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त किया, जिससे प्रामाणित हुआ कि वे 'कोटेगारा' समुदाय से हैं, जिसे कर्नाटक सरकार के परिपत्रों द्वारा अनुसूचित जाति के अंतर्गत माना गया था।
- उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 2001 में निर्णय दिया था कि राज्य सरकारों को अनुसूचित जातियों की सूची में संशोधन या परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि ऐसा परिवर्तन करने की शक्ति संसद हेतु आरक्षित है।
- इस निर्णय के उपरांत वित्त मंत्रालय ने कर्नाटक सरकार के उस परिपत्र को अवैध घोषित कर दिया, जिसमें 'कोटेगारा' को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया गया था।
- इसके उपरांत कर्नाटक सरकार ने वर्ष 2002 और 2003 में परिपत्र जारी कर पूर्व में अमान्य किये गए जाति प्रमाण-पत्रों के आधार पर नौकरी पाने वाले व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान किया तथा उन्हें सामान्य योग्यता श्रेणी के अभ्यर्थी के रूप में स्वीकार किये जाने की अनुमति दी।
- ज़िला जाति सत्यापन समिति द्वारा अपीलकर्त्ताओं के जाति प्रमाण-पत्र रद्द कर दिये गए।
- कुछ अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही प्रारंभ की गई, परंतु बाद में उच्च न्यायालय ने उसे रद्द कर दिया।
- नियोक्ताओं (बैंकों एवं उपक्रमों) ने अपीलकर्त्ताओं को कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछा कि उनके जाति प्रमाण-पत्र रद्द करने के आधार पर उनकी सेवाएँ क्यों न समाप्त कर दी जाएँ।
- अपीलकर्त्ताओं ने इन नोटिसों को कर्नाटक उच्च न्यायालय में रिट याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी, जिन्हें एकल न्यायाधीश और खंडपीठ दोनों ने अस्वीकार कर दिया।
- इसके उपरांत अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय की शरण ली।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि यद्यपि अपीलकर्त्ताओं ने कर्नाटक सरकार के परिपत्रों के आधार पर उचित प्रक्रिया के माध्यम से अपने अनुसूचित जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त किये, परंतु राज्य के पास अनुसूचित जाति की सूची को संशोधित करने का संवैधानिक अधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत केवल संसद ही ऐसा कर सकती है।
- महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, 2000 के निर्णय के बाद कर्नाटक सरकार ने उन व्यक्तियों के रोजगार की रक्षा के लिये परिपत्र (दिनांक 11 मार्च 2002 और 29 मार्च 2003) जारी किये, जिन्होंने उनकी जाति को अनुसूचित जाति की सूची से हटाये जाने से पूर्व जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिया था तथा उन्हें भविष्य के प्रयोजनों के लिये सामान्य योग्यता वाले अभ्यर्थियों के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया था।
- न्यायालय ने कहा कि वित्त मंत्रालय का 17 अगस्त 2005 का पत्र, जिसमें कर्नाटक के निर्णय की पुष्टि की गई थी तथा बैंक कर्मचारियों को संरक्षण प्रदान किया गया था, 8 जुलाई 2013 को जारी किये गये उस कार्यालय ज्ञापन पर वरीयता रखता है, जो 29 मार्च 2003 के महत्त्वपूर्ण परिपत्र पर विचार किये बिना जारी किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपीलकर्त्ता 29 मार्च, 2003 के परिपत्र और 17 अगस्त, 2005 के वित्त मंत्रालय के पत्र के अंतर्गत अपनी सेवाओं की सुरक्षा के अधिकारी हैं, जिससे उनकी नौकरी समाप्त करने की किसी भी प्रस्तावित कार्यवाही को अस्वीकार कर दिया गया और उच्च न्यायालय की खंडपीठ के विवादित निर्णयों को स्वीकार कर दिया गया।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 क्या है?
- भारत का संविधान स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं करता कि अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ क्या हैं।
- अनुच्छेद 342 राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा किसी विशेष राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जनजाति मानी जाने वाली जनजातियों या जनजातीय समुदायों को निर्दिष्ट करने की शक्ति प्रदान करता है।
- राज्यों के लिये, राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले राज्यपाल से परामर्श करना होगा।
- अनुच्छेद 342(1) के अंतर्गत प्रारंभिक राष्ट्रपति अधिसूचना को अनुच्छेद 342(2) के अनुसार केवल संसद के अधिनियम द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
- संसद, विधि द्वारा, राष्ट्रपति की अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किसी जनजाति, जनजातीय समुदाय या उसके किसी भाग को अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित कर सकती है या उससे बाहर कर सकती है।
- एक बार जारी होने के उपरांत, अनुच्छेद 342(1) के अंतर्गत अधिसूचना को संसद के अधिनियम के अतिरिक्त किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
- किसी विशेष समूह के अनुसूचित जनजाति होने का निर्धारण अनुच्छेद 342(1) के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी सार्वजनिक अधिसूचना के आधार पर किया जाना चाहिये।
- संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अनुसूचित जातियों के लिये भी इसी प्रकार के प्रावधान मौजूद हैं।
- अनुच्छेद 342 के अंतर्गत किसी विशेष जनजाति को सम्मिलित करने या बाहर करने से संबंधित किसी भी प्रश्न का समाधान राष्ट्रपति की अधिसूचना के माध्यम से किया जाना चाहिये।
- संविधान में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के हितों की सुरक्षा के लिये विशेष प्रावधान किये गए हैं, यद्यपि इनका उल्लेख इस पाठ में नहीं किया गया है।
- अनुसूचित जनजातियों (या अनुसूचित जातियों) की सूची को संशोधित करने की शक्ति पूरी तरह से संसद में निहित है, जो ऐसे वर्गीकरणों के महत्त्व एवं संवेदनशीलता पर ज़ोर देता है।
अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 के विधिक प्रावधान क्या हैं?
अनुच्छेद 341:
- अनुच्छेद 341 अनुसूचित जातियों से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि:
- भारत के राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से यह निर्दिष्ट करने का अधिकार है कि कौन-सी जातियाँ, मूलवंश, जनजातियाँ या उनके भाग किसी विशेष राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जातियाँ मानी जाएंगी।
- राज्यों के लिये, राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श करना आवश्यक है।
- राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची को संशोधित करने की शक्ति विशेष रूप से भारत की संसद के लिये आरक्षित है।
- संसद विधान बनाकर किसी भी जाति, मूलवंश, जनजाति या उसके किसी भाग को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर सकती है या उससे बाहर कर सकती है।
- एक बार अनुच्छेद 341 के खंड (1) के अंतर्गत अधिसूचना जारी कर दी गई है तो उसे खंड (2) में निर्धारित संसद के अधिनियम के अतिरिक्त किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 342:
- अनुच्छेद 342 अनुसूचित जनजातियों से संबंधित है।
- भारत के राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से यह निर्दिष्ट करने का अधिकार है कि संवैधानिक प्रयोजनों के लिये किन जनजातियों या जनजातीय समुदायों को अनुसूचित जनजाति माना जाएगा।
- यह राष्ट्रपति शक्ति भारत के किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश पर लागू होती है।
- राज्यों के मामले में, राष्ट्रपति को ऐसी अधिसूचना जारी करने से पहले संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श करना होगा।
- अनुसूचित जनजातियों में संपूर्ण जनजातियाँ/समुदाय अथवा उनके भाग/समूह शामिल हो सकते हैं।
- एक बार अनुच्छेद 342 के खंड (1) के तहत अधिसूचना जारी कर दी जाए तो उसे किसी भी बाद की अधिसूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
- केवल भारत की संसद को, अधिनियमित विधान के माध्यम से, राष्ट्रपति की अधिसूचना में निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने या उससे बाहर करने की शक्ति है।
- सूची में संशोधन करने की संसद की शक्ति उस सामान्य नियम का अपवाद है जो मूल अधिसूचना में परिवर्तन पर रोक लगाता है।
- अनुसूचित जनजातियों को नामित करने की संवैधानिक प्रक्रिया में दो चरण शामिल हैं:
- प्रारंभिक विनिर्देशन राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा, तत्पश्चात् संसदीय विधान के माध्यम से ही इसमें संशोधन किया जा सकेगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 एवं अनुच्छेद 342 पर ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद, (2000):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत अधिनियम के माध्यम से अनुसूचित जातियों की सूची में संशोधन करने का अधिकार केवल संसद को है, राज्य सरकारों को इन सूचियों को संशोधित करने का अधिकार नहीं है।
- पंजाब राज्य बनाम दलबीर सिंह (2012):
- भारत के उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि संविधान के अनुच्छेद 341(1) के तहत राष्ट्रपति को यह निर्दिष्ट करने का विशेष अधिकार है कि किन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों को अनुसूचित जाति माना जाएगा।
- इस निर्णय ने अनुच्छेद 341 के विस्तार एवं व्याख्या को स्पष्ट किया तथा अनुसूचित जाति निर्धारित करने में राष्ट्रपति की भूमिका पर ज़ोर दिया।
- मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईराजन (1951):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक संस्थाओं में केवल जाति के आधार पर सीटें आरक्षित करना संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
- इस निर्णय में अनुच्छेद 15(4) की व्याख्या की गई, जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है तथा जाति-आधारित आरक्षण की सीमाओं के लिये एक उदाहरण स्थापित किया गया।
- इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992):
- इस ऐतिहासिक मामले में, जिसे मंडल आयोग मामले के रूप में भी जाना जाता है, उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण नीतियों की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखा।
- हालाँकि न्यायालय ने आरक्षण पर 50% की सीमा लगा दी और उनके कार्यान्वयन के लिये दिशा-निर्देश स्थापित किये, जिससे भारत की सकारात्मक कार्यवाही नीतियों को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार मिला।
- वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2004):
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुसूचित जातियों को उपसमूहों में वर्गीकृत करना राष्ट्रपति सूची में 'छेड़छाड़' नहीं है और यह संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत, हालाँकि राष्ट्रपति को अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को निर्दिष्ट करने की शक्ति है, परंतु इन सूचियों में कोई भी संशोधन केवल संसद द्वारा बनाये गए विधान के माध्यम से ही किया जा सकता है।
- यह निर्णय अनुसूचित जाति सूचियों के वर्गीकरण और संशोधन के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालता है।