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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

ज़मानत आदेश का कार्यान्वयन

 03-Sep-2024

जितेन्द्र पासवान बनाम बिहार राज्य

“छह महीने उपरांत ज़मानत देने का आदेश लागू होना आश्चर्यजनक है।”

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ए.जी. मसीह की पीठ ने ज़मानत की शर्त को हटा दिया और कहा कि ज़मानत की शर्त छह महीने उपरांत निष्पादित की जाएगी।

  • उच्चतम न्यायालय ने जितेंद्र पासवान बनाम बिहार राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

जितेंद्र पासवान बनाम बिहार राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • आवेदक को इस मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 147, 148, 149, 341, 323, 324, 326, 307 और 302 के अधीन फँसाया गया था।
  • पटना उच्च न्यायालय ने ज़मानत स्वीकार की थी, जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्त्ता को ज़मानत पर रिहा किया जाएगा।
  • हालाँकि उच्च न्यायालय ने कहा कि ज़मानत देने का आदेश 6 महीने उपरांत ही प्रभावी होगा।
  • इस आदेश के विरुद्ध अपील दायर की गई थी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने आश्चर्यजनक ढंग से यह माना है कि ज़मानत देने का आदेश छह महीने बाद ही प्रभावी होगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और "परंतु आज से 6 महीने बाद" शब्दों को हटा दिया।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि एक बार जब कोई आरोपी ज़मानत का अधिकारी हो जाता है तो ज़मानत में देरी नहीं की जा सकती और ऐसा करना भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।

ज़मानत क्या है?

परिचय:

  • ज़मानत, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अंतर्गत एक विधिक प्रावधान है, जो प्रतिभूति जमा करने पर लंबित वाद या अपील के दौरान जेल से रिहाई की सुविधा प्रदान करता है।
  • CrPC की धारा 436 के अनुसार, ज़मानती अपराधों में ज़मानत का अधिकार होता है, जबकि गैर-ज़मानती अपराधों में न्यायालयों या नामित पुलिस अधिकारियों को विवेकाधिकार दिया जाता है, जैसा कि धारा 437 में उल्लिखित है।
  • राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977) के मामले में न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने माना कि मूल सिद्धांत ज़मानत नियम है, जेल नहीं। इसमें एक अवधारणा का उल्लेख किया गया है जो 'ज़मानत एक अधिकार है और जेल एक अपवाद है' के रूप में उल्लिखित है।

ज़मानत के प्रकार:

  • नियमित ज़मानत: यह न्यायालय (देश के किसी भी न्यायालय) द्वारा किसी व्यक्ति को रिहा करने का निर्देश है जो पहले से ही गिरफ़्तार है और पुलिस अभिरक्षा में है।
  • अंतरिम ज़मानत: न्यायालय द्वारा अस्थायी और छोटी अवधि के लिये दी गई ज़मानत जब तक कि अग्रिम ज़मानत या नियमित ज़मानत की मांग करने वाला आवेदन न्यायालय के समक्ष लंबित है।
  • अग्रिम ज़मानत: यह एक विधिक प्रावधान है जो किसी आरोपी व्यक्ति को गिरफ़्तार होने से पहले ज़मानत के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है। भारत में, गिरफ्तारी से पहले ज़मानत CrPC की धारा 438 के अधीन दी जाती है। यह केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाती है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अधीन ज़मानत से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

  • BNSS के अध्याय 35 में ज़मानत एवं बॉण्ड के संबंध में प्रावधान किये गए हैं।

धारा 478

किन मामलों में ज़मानत लेनी होगी?

धारा 479

विचाराधीन कैदी को अभिरक्षा में रखने की अधिकतम अवधि

धारा 480

गैर-ज़मानती अपराध के मामले में ज़मानत कब ली जा सकती है

धारा 481

ज़मानत के लिये आरोपी को अगली अपीलीय न्यायालय में उपस्थित होना आवश्यक होगा

धारा 482

गिरफ्तारी की आशंका वाले व्यक्ति को ज़मानत देने का निर्देश (अग्रिम गिरफ्तारी)

धारा 483

ज़मानत के संबंध में उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय की विशेष शक्तियाँ

धारा 484

ज़मानत की राशि एवं कटौती

धारा 485

अभियुक्त एवं ज़मानतदारों का बॉण्ड

धारा 486

ज़मानतदारों द्वारा घोषणा

धारा 487

अभिरक्षा से रिहाई

धारा 488

जब पहली बार ली गई ज़मानत अपर्याप्त हो तो पर्याप्त ज़मानत देने का अधिकार

धारा 489

ज़मानतदारों से उन्मुक्ति

धारा 490

पहचान-पत्र के बदले जमा

धारा 491

बॉण्ड ज़ब्त होने पर प्रक्रिया

धारा 492

बॉण्ड एवं ज़मानत बॉण्ड रद्द करना

 ज़मानत देते समय क्या शर्तें लगाई जा सकती हैं?

  • CrPC की धारा 437 (3) न्यायालय पर यह अनिवार्य कर्त्तव्य अध्यारोपित करती है कि वह ज़मानत देने से पहले अभियुक्त पर कुछ शर्तें लगाए। ये हैं:
    • अभियुक्त को उसके द्वारा निष्पादित बॉण्ड की शर्तों के अनुसार न्यायालय में उपस्थित होना होगा।
    • अभियुक्त समान प्रकृति का कोई अन्य अपराध नहीं करेगा।
    • अभियुक्त मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वचन नहीं देगा।
    • अभियुक्त मामले के साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा।
  • यह प्रावधान BNSS की धारा 480(3) में दोहराया गया है।

ज़मानत देते समय कौन-सी शर्तें अध्यारोपित की जा सकती हैं?

  • मुनीश भसीन एवं अन्य बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) (2009):
    • न्यायालय ने कहा कि जो शर्तें बोझिल एवं न्यायोचित नहीं हैं, उन्हें नहीं लगाया जाना चाहिये।
    • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498A के अधीन ज़मानत देते समय पत्नी को 12,500 रुपए प्रतिमाह भरण-पोषण देने की शर्त बोझिल है तथा इसलिये इसे खारिज किया जाना चाहिये।
  • सुमित मेहता बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2013):
    • न्यायालय ने ज़मानत दिये जाने पर “किसी शर्त” शब्द की व्याख्या की।
    • न्यायालय ने कहा कि “किसी शर्त” शब्द को न्यायालय को कोई भी शर्त लगाने का पूर्ण अधिकार प्रदान करने के रूप में नहीं माना जाना चाहिये।
    • कोई भी शर्त जो परिस्थितियों में स्वीकार्य तथ्यों में स्वीकार्य एवं व्यावहारिक अर्थों में प्रभावी एक उचित शर्त के रूप में लगाई जानी चाहिये तथा ज़मानत दिये जाने के आदेश को विफल नहीं करना चाहिये।
  • दाताराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2018):
    • ज़मानत देने की शर्तें इतनी सख्त नहीं होनी चाहिये कि उनका पालन करना असंभव हो जाए तथा ज़मानत देना भ्रामक हो जाए।
  • गुड्डन उर्फ रूप नारायण बनाम राजस्थान राज्य (2023):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने राजस्थान उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें 1,00,000 रुपए का कठोर अर्थदण्ड, 100,000 रुपए की ज़मानत एवं 50,000 रुपए के दो ज़मानत बॉण्ड लगाने का आदेश दिया गया था।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ये शर्तें अत्यधिक हैं तथा ज़मानत देने से मना करती हैं।
  • अपर्णा भट्ट बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021):
    • उच्चतम न्यायालय ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के उस विवादित आदेश को खारिज कर दिया जिसमें पीड़िता से राखी बंधवाने की शर्त पर ज़मानत दी गई थी।
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ज़मानत की शर्तों में आरोपी एवं पीड़िता के बीच व्यक्तिगत संपर्क से बचना चाहिये।
    • न्यायालय ने कहा कि शर्तों में रूढ़िवादी टिप्पणियों से बचना चाहिये।

सिविल कानून

आदेश VI नियम 17 का अनुप्रयोग

 03-Sep-2024

सिन्हा डेवलपमेंट ट्रस्ट एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 15 अन्य 

“वर्ष 2002 में संशोधन के माध्यम से सम्मिलित किया गया CPC का आदेश VI नियम 17, उन वादों पर लागू नहीं होगा, जो संशोधन होने की तिथि के पहले से ही लंबित हैं।”

न्यायमूर्ति नीरज तिवारी

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सिन्हा डेवलपमेंट ट्रस्ट एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 15 अन्य के मामले में माना है कि 2002 में संशोधन के माध्यम से सम्मिलित सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VI नियम 17, उन वादों पर लागू नहीं होंगे, जो संशोधन की तिथि से पहले लंबित हैं।

सिन्हा डेवलपमेंट ट्रस्ट एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 15 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में विवाद ट्रस्ट के नाम पर भूमि के अंतरण से संबंधित था, न कि किसी निजी व्यक्ति के नाम पर।
  • याचिकाकर्त्ता ने अंतिम चरण में संपत्ति को व्यक्ति के नाम पर न करके ट्रस्ट के नाम पर अंतरित करने के लिये एक औपचारिक संशोधन आवेदन प्रस्तुत किया।
  • अंतिम चरण में ट्रायल कोर्ट ने इस आधार पर आवेदन अस्वीकार कर दिया कि यह बहुत विलंब से दायर किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ता ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
  • याचिकाकर्त्ता ने स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद बनाम टाउन म्युनिसिपल काउंसिल (2007) के मामले का उदाहरण देते हुए तर्क दिया कि CPC के आदेश VI नियम 17 का वर्ष 2000 का संशोधन, संशोधन से पहले दर्ज किये गए मामलों पर लागू नहीं होता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद बनाम टाउन म्युनिसिपल काउंसिल (2007) के मामले में माना था कि CPC के आदेश VI नियम 17 का 2000 का संशोधन, संशोधन से पहले लंबित मामलों पर लागू नहीं होगा।
  • उपरोक्त निर्णय के आधार पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निचले न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और याचिकाकर्त्ता को वादपत्र में आवश्यक संशोधन करने की अनुमति दे दी।

CPC का आदेश VI नियम 17 क्या है?

परिचय:

  • CPC का आदेश VI सामान्य रूप से अभिवचन से संबंधित है।
  • अभिवचन का सामान्य अर्थ है वादपत्र या लिखित बयान।

अभिवचन:

  • अभिवचन लिखित रूप में दिये गए कथन होते हैं, जो प्रत्येक पक्षकार बारी-बारी से अपने प्रतिद्वंद्वी को देता है, जिसमें वह वाद के दौरान अपने तर्कों का वर्णन करता है तथा ऐसे सभी विवरण देता है, जो उसके प्रतिद्वंद्वी को उत्तर में अपना मामला तैयार करने के लिये जानने की आवश्यकता होती है।
  • यह अभिवचन की एक अनिवार्य आवश्यकता है कि अभिवचन में भौतिक तथ्य और आवश्यक विवरण अवश्य बताए जाने चाहिये तथा निर्णय अभिवचन के बाहर के आधारों पर आधारित नहीं हो सकते।

 नियम 17:

  • यह नियम अभिवचनों के संशोधन से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी पक्षकार को अपने अभिवचनों को ऐसे तरीके से और ऐसी शर्तों पर परिवर्तित या संशोधित करने की अनुमति दे सकता है, जो न्यायसंगत हो, और ऐसे सभी संशोधन किये जाएंगे जो पक्षों के बीच विवाद के वास्तविक प्रश्नों को निर्धारित करने के प्रयोजन के लिये आवश्यक हो सकते हैं।
  • बशर्ते कि विचारण प्रारंभ होने के पश्चात संशोधन के लिये कोई आवेदन स्वीकार नहीं किया जाएगा, जब तक कि न्यायालय इस निष्कर्ष पर न पहुँच जाए कि समुचित तत्परता के बावजूद पक्षकार विचारण प्रारंभ होने से पूर्व मामले को नहीं उठा सकता था।
  • नियम 17 का उद्देश्य वाद-प्रतिवाद को न्यूनतम करना, विलंब को न्यूनतम करना तथा वाद-प्रतिवाद की बहुलता से बचना है।

नियम 17 में संशोधन:

  • CPC के अंतर्गत याचिका में संशोधन आदेश VI नियम 17 के तहत किया जा सकता है।
  • नियम का पहला भाग न्यायालय को विवेकाधिकार शक्ति प्रदान करता है, जिसमें कहा गया है कि वह विवाद में वास्तविक प्रश्न का निर्धारण करने के लिये संशोधन के लिये आवेदन को अनुमति दे सकता है।
  • दूसरे भाग में यह अनिवार्य किया गया है कि यदि न्यायालय को यह पता चले कि पक्षकारों ने सुनवाई प्रारंभ होने से पहले समुचित तत्परता के बावजूद मुद्दा नहीं उठाया है तो वह आवेदन को स्वीकार कर ले।
  • आदेश VI में परंतुक के रूप में दूसरा भाग जोड़ा गया तथा नियम 17 वर्ष 2002 में जोड़ा गया।

CPC के आदेश VI नियम 17 की प्रयोज्यता पर आधारित मामले क्या हैं?

  • सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन, तमिलनाडु बनाम भारत संघ एवं अन्य (2005):
    • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि इस प्रावधान को जोड़ने का उद्देश्य उन तुच्छ आवेदनों को रोकना है, जो वाद में विलंब करने के लिये दायर किये जाते हैं।
  • रेवाजीतु बिल्डर्स एंड डेवलपर्स बनाम नारायणस्वामी एंड संस (2009):
    • उच्चतम न्यायालय ने आदेश VI नियम 17 के अंतर्गत आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिये निम्नलिखित मूलभूत सिद्धांत निर्धारित किये हैं:
      • संशोधन से दूसरे पक्ष को ऐसा कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिये जिसकी भरपाई धन के रूप में पर्याप्त रूप से न की जा सके।
      • संशोधन से प्रतिषेध करने से वस्तुतः अन्याय होगा या अनेक वाद-प्रतिवाद की स्थिति उत्पन्न होगी।
      • सामान्यतः न्यायालय को संशोधनों को अस्वीकार कर देना चाहिये, यदि संशोधित दावों पर नया मुकदमा, आवेदन तिथि की परिसीमा के कारण वर्जित हो।
  • प्रकाश कोडवानी बनाम श्रीमती विमला देवी लखवानी एवं अन्य (2023):
    • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने माना है कि CPC के आदेश VI के नियम 17 के प्रावधानों के अनुसार संशोधन आवेदन में केवल प्रस्तावित अभिवचनों पर ही विचार किया जाना चाहिये , न कि प्रस्तावित संशोधन के गुण-दोष पर।
  • खन्ना रेयॉन इंडस्ट्रीज़ प्रा. लिमिटेड बनाम स्वास्तिक एसोसिएट्स एवं अन्य। (2023):
    • न्यायालय ने कहा कि "यह नहीं कहा जा सकता कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम के अनुसार प्रक्रियात्मक विधान यानी CPC में प्रस्तुत की गई कठोरता को अनदेखा किया जा सकता है, क्योंकि वाणिज्यिक वादों के संदर्भ में CPC के आदेश VI नियम 17 में संशोधन नहीं किया गया है।"
    • न्यायालय ने आगे कहा कि "एक आवेदन, जो मूलतः वाणिज्यिक वादों के लिये लागू CPC के आदेश XI से संबंधित आवेदन है, CPC के आदेश VI नियम 17 के अंतर्गत संशोधन के लिये आवेदन के रूप में प्रच्छन्न हो सकता है।"

पारिवारिक कानून

विवाह का अपूरणीय विघटन

 03-Sep-2024

प्रभावती उर्फ प्रभामणी बनाम लक्ष्मीशा एम.सी. 

विवाह के अपूरणीय विघटन के सिद्धांत का प्रयोग उस पति या पत्नी को लाभ पहुँचाने के लिये नहीं किया जा सकता, जिसने दांपत्य संबंध को असफल बनाया।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एक ऐसे मामले पर प्रकाश डाला है जिसमें कुटुंब न्यायालय ने एक ऐसे पति को विवाह-विच्छेद का आदेश दिया जो दांपत्य जीवन के विघटन हेतु पूर्णरूपेण उत्तरदायी था। पत्नी की अपील के बावजूद, जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा स्थायी गुज़ारा भत्ता 25 लाख रुपए से घटाकर 20 लाख रुपए करने को चुनौती दी गई थी, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पति को विवाह विच्छेद से कोई लाभ नहीं मिलना चाहिये।

  • न्यायालय ने कहा कि विवाह विघटन का उत्तरदायी पक्ष द्वारा लाभ नहीं उठाया जा सकता।
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ ने प्रभावती उर्फ प्रभामनी बनाम लक्ष्मीशा एम.सी. के मामले में यह निर्णय दिया।

प्रभावती उर्फ प्रभामणि बनाम लक्ष्मीशा एम.सी. मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में पक्षकारों का विवाह 10 नवंबर 1991 को हुआ था।
  • 20 अगस्त 1992 को उनके विवाह से एक बेटा उत्पन्न हुआ।
  • वर्ष 1992 में बच्चे के जन्म के तुरंत बाद पति ने कथित तौर पर पत्नी को छोड़ दिया।
  • वर्ष 2002 में, पति ने क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद की मांग करते हुए याचिका दायर की।
  • कुटुंब न्यायालय ने 3 अगस्त 2006 को विवाह-विच्छेद का आदेश दिया।
  • पत्नी ने इस निर्णय के विरुद्ध अपील की और उच्च न्यायालय ने 26 अगस्त 2010 को आदेश को खारिज कर दिया तथा मामले को कुटुंब न्यायालय में वापस भेज दिया।
  • कुटुंब न्यायालय ने 21 फरवरी 2011 को विवाह के अपरिवर्तनीय टूटने के आधार पर पुनः विवाह-विच्छेद का आदेश दिया।
  • पत्नी ने इस दूसरे आदेश के विरुद्ध अपील की और उच्च न्यायालय ने 29 नवंबर 2013 को इसे खारिज कर दिया तथा मामले को कुटुंब न्यायालय में वापस भेज दिया।
  • 12 फरवरी 2016 को कुटुंब न्यायालय ने तीसरी बार विवाह-विच्छेद का आदेश दिया, इस बार पत्नी को 2500,000 (पच्चीस लाख) रुपए का स्थायी गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान किया गया।
  • पत्नी ने इस तीसरे आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
  • उच्च न्यायालय ने उसकी अपील को खारिज कर दिया तथा स्थायी गुज़ारा भत्ता घटाकर 20,00,000 (बीस लाख) रुपए कर दिया, जबकि पति ने गुज़ारा भत्ता राशि को चुनौती देने वाली कोई अपील दायर नहीं की थी।
  • इसके बाद पत्नी ने इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
  • ​​इस पूरी अवधि के दौरान, पति ने कथित तौर पर अपने बेटे की शिक्षा या भविष्य के लिये वित्तीय सहायता नहीं दी।
  • पति की माँ पत्नी के साथ रह रही है तथा उसने अपने बेटे (पति) के विरुद्ध उसकी स्थिति का समर्थन किया है। दोनों पक्ष लगभग 1992 से अलग-अलग रह रहे हैं।
  • दोनों पक्ष लगभग वर्ष 1992 से अलग-अलग रह रहे हैं।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि विवाह के अपूरणीय विघटन की अवधारणा का उपयोग उस पक्ष के लाभ के लिये नहीं किया जा सकता जो दांपत्य संबंध को नुकसान पहुँचाने के लिये पूरी तरह उत्तरदायी है।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी (पति) ने अपीलकर्त्ता के साथ वर्षों तक अत्यधिक क्रूरता की है।
  • यह देखा गया कि प्रतिवादी कभी भी अपने बेटे के बेहतर भविष्य को सुरक्षित करने में सहायता करने के लिये आगे नहीं आया या उसकी शिक्षा का व्यय वहन की पेशकश नहीं की।
  • न्यायालय ने उस बुद्धिरहित निर्णय की आलोचना की जिसमें कुटुंब न्यायालय ने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध बार-बार विवाह-विच्छेद के आदेश पारित किये।
  • न्यायालय ने सुझाव दिया कि कुटुंब न्यायालय की कार्यवाहियों ने संवेदनशीलता की कमी को प्रदर्शित किया तथा संभावित रूप से अपीलकर्त्ता के विरुद्ध छिपे हुए पूर्वाग्रह को इंगित किया।
  • न्यायालय ने कहा कि अधीनस्थ न्यायालयों को प्रतिवादी के दुराचार को कोई महत्त्व नहीं देना चाहिये था।

विवाह का अपूरणीय विघटन क्या है?

  • विवाह का अपूरणीय विघटन एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति एवं पत्नी काफी समय से अलग-अलग रह रहे हैं तथा उनके फिर से साथ रहने की कोई संभावना नहीं है।
  • इससे तात्पर्य है कि विवाह में सामंजस्य स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है तथा अगर सामंजस्य स्थापित हो जाता है और विवाह-विच्छेद नहीं दिया जाता है तो यह क्रूरता होगी।
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अंतर्गत विवाह के अपूरणीय विघटन को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है।
  • इस अवधारणा की उत्पत्ति वर्ष 1921 में न्यूज़ीलैंड में लॉडर बनाम लॉडे के ऐतिहासिक निर्णय के माध्यम से हुई थी।
  • इस अवधारणा को पहली बार उच्चतम न्यायालय ने सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984) में स्वीकार किया था, जिसमें सुझाव दिया गया था कि जब विवाह टूटकर इतना दूषित हो जाए कि उसे सुधारा न जा सके, तो विवाह-विच्छेद दिया जा सकता है।
  • हालाँकि अमरेंद्र एन. चटर्जी बनाम श्रीमती कल्पना चटर्जी (2022) जैसे बाद के मामलों ने स्पष्ट किया कि सांविधिक प्रावधान की कमी के कारण न्यायालाय केवल इस आधार पर विवाह-विच्छेद नहीं दे सकती हैं।
  • अपूर्व मोहन घोष बनाम मानशी घोष (1988) में न्यायालय ने माना कि धारा 23 के अनुसार अधिनियम में उल्लिखित सांविधिक आधार पर ही राहत दी जा सकती है।
  • वी. भगत बनाम डी. भगत (1993) ने पुष्टि की कि अकेले अपूरणीय टूटना विवाह-विच्छेद का आधार नहीं है, लेकिन सांविधिक आधारों के लिये साक्ष्यों की जाँच करते समय इस पर विचार किया जा सकता है।
  • विधि आयोग ने विवाह-विच्छेद के लिये अपूरणीय विच्छेद को आधार बनाने का प्रस्ताव दिया है, लेकिन विधानमंडल ने इस अनुशंसा को नहीं अपनाया है।
  • सुश्री जॉर्डन डिएंगडेह बनाम एस.एस. चोपड़ा (1985) में उच्चतम न्यायालय ने विवाह संबंधी विधियों में व्यापक सुधार की अनुशंसा की थी, जिसमें विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में अपूरणीय विच्छेद को शामिल करना भी शामिल था।
  • न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने इस अवधारणा को इस प्रकार समझाया कि जब विवाह में असंगति दूर करना असंभव हो जाता है, तो विवाह के वास्तविक टूटने को मान्यता दी जाती है।
  • वर्तमान में, न्यायालय अपरिवर्तनीय टूटने को एक कारक के रूप में मान सकते हैं, लेकिन अन्य सांविधिक आवश्यकताओं को पूरा किये बिना केवल इस आधार पर विवाह-विच्छेद नहीं दे सकते।

अपूरणीय विघटन का सिद्धांत क्या है?

  • विवाह के अपूरणीय विघटन को दांपत्य संबंध में विफलता के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहाँ पति-पत्नी के लिये पति-पत्नी के रूप में एक साथ रहने की कोई उचित संभावना नहीं रह जाती है।
  • भारत में वर्तमान में विवाह-विच्छेद के इस सिद्धांत से संबंधित कोई स्पष्ट विधायी प्रावधान नहीं है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अपूरणीय विघटन के आधार पर विवाह-विच्छेद देने के लिये आधार विकसित किये हैं, जिसमें निम्नलिखित कारकों पर विचार किया गया है:
    • सहवास की अवधि
    • अंतिम सहवास के बाद का समय
    • पक्षों द्वारा एक दूसरे के विरुद्ध लगाए गए आरोप
    • पक्षों के मध्य विधिक कार्यवाही में पारित आदेश
    • परिवार द्वारा विवाद निपटान हेतु किये गए प्रयास
    • पृथक्करण की अवधि 6 वर्ष से अधिक
  • भारतीय विधि आयोग ने अपनी 71वीं रिपोर्ट (1978) तथा 2009 की रिपोर्ट में विवाह-विच्छेद के लिये एक अतिरिक्त आधार के रूप में अपूरणीय विच्छेद को जोड़ने की अनुशंसा की थी।
  • न्यूज़ीलैंड ने वर्ष 1920 में इस अवधारणा की शुरुआत की थी, जिसमें तीन वर्ष या उससे अधिक के पृथक्करण समझौते के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिकाओं को अनुमति दी गई थी।
  • हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (HMA) वर्तमान में अपूरणीय विच्छेद को विवाह-विच्छेद के आधार के रूप में मान्यता नहीं देता है।
  • HMA के अंतर्गत आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद के लिये संयुक्त याचिका, एक वर्ष की पृथक्करण अवधि तथा दो प्रस्तावों के बीच अनिवार्य छह महीने की प्रतीक्षा अवधि की आवश्यकता होती है।
  • सिद्धांत यह मानता है कि जब दांपत्य संबंध सुलह से परे बिगड़ जाता है, तो विवाह को समाप्त कर दिया जाना चाहिये।
    • इसमें तर्क दिया गया है कि जब विवाह स्थायी न हो तो साझा अधिकार एवं उत्तरदायित्व बनाए रखना अनुचित है।

विवाह के अपूरणीय विघटन का विधिक प्रावधान क्या है?

  • विवाह-विच्छेद देने वाले कई न्यायिक निर्णयों में इसके अनुप्रयोग के माध्यम से इस सिद्धांत को अनौपचारिक वैधता प्राप्त हुई है।
  • हालाँकि इसे अभी तक हिंदू विवाह अधिनियम में शामिल नहीं किया गया है, लेकिन विभिन्न विधि आयोग की रिपोर्टों में इसकी दृढ़ता से अनुशंसा की गई है।
  • विवाह कानून (संशोधन) विधेयक, 2010 को संसद में प्रस्तुत किया गया था, जिसका उद्देश्य औपचारिक रूप से विवाह-विच्छेद के लिये इस आधार को प्रस्तुत करना था।
  • भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करके इस आधार पर विवाह-विच्छेद देने का अधिकार देता है।
    • अनुच्छेद 142 के अंतर्गत, उच्चतम न्यायालय इस आधार पर विवाह-विच्छेद देते समय पृथक्करण के कारण, पृथक्करण की अवधि और अन्य प्रासंगिक परिस्थितियों जैसे कारकों पर विचार कर सकता है।
    • अनुच्छेद 142(1) उच्चतम न्यायालय को किसी भी मामले में 'पूर्ण न्याय' करने के लिये आवश्यक डिक्री पारित करने या आदेश देने की अनुमति देता है।
    • अनुच्छेद 142(1) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग पूर्ण आधार पर होना चाहिये।
  • इस सिद्धांत का अनुप्रयोग मौलिक अधिकारों, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद एवं संविधान की अन्य मूलभूत विशेषताओं के साथ संरेखित होना चाहिये।
  • इस अवधारणा को तभी लागू किया जा सकता है जब किसी भी मूल संविधि में इसके विरुद्ध कोई स्पष्ट निषेध न हो।
  • हालाँकि सांविधिक आधार नहीं है, लेकिन न्यायालयों ने कुछ मामलों में अपूरणीय विघटन के प्रकाश में विवाह-विच्छेद के लिये मौजूदा आधारों की व्याख्या की है।