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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सिविल कानून

CPC की धारा 151 के अंतर्गत अंतरिम भरण-पोषण

 05-Sep-2024

ABC बनाम XYZ

"जब संबंध विवादग्रस्त नहीं है, तो न्यायालय को अपनी अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए भरण-पोषण देने पर कोई रोक नहीं है।"

न्यायमूर्ति वी. लक्ष्मीनारायणन

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने ABC बनाम XYZ के मामले में माना है कि मुस्लिम महिलाओं को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 151 के अंतर्गत अंतरिम भरण पोषण का दावा करने का अधिकार है, जिन्होंने मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 (DMM) के अंतर्गत तलाक के लिये आवेदन किया है।

ABC बनाम XYZ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, याचिकाकर्त्ता पति है एवं प्रतिवादी पत्नी है।
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया क्योंकि वह उसके साथ अनुचित व्यवहार करता था और शारीरिक एवं मौखिक रूप से उस पर हमला किया करता था।
    • बाद में वह पुनः याचिकाकर्त्ता के पास आई, तब याचिकाकर्त्ता ने उसे आश्वासन दिया कि वह ऐसा दोबारा नहीं करेगा।
  • कुछ समय बाद याचिकाकर्त्ता ने फिर से उसके एवं उसकी बेटी के साथ दुर्व्यवहार किया। यह शारीरिक, मौखिक, भावनात्मक एवं आर्थिक रूप से दुर्व्यवहार था। उसने कहा कि वह अपनी बेटी को अपने साथ अपने गृहनगर ले जाएगा, जिसके लिये प्रतिवादी ने मना कर दिया, जिससे पति क्रोधित हो गया, जिसने उसे बुरी तरह पीटा और बेटी को बेलगाम ले गया।
  • प्रतिवादी को अपने पति के हाथों बहुत कष्ट सहना पड़ा, इसलिये उसने DMM अधिनियम की धारा 2(viii) के अंतर्गत कार्यवाही शुरू करने का निर्णय किया।
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध भरण-पोषण के लिये मामला दायर किया क्योंकि उसके पास कमाने का कोई साधन नहीं था क्योंकि उसकी नौकरी चली गई थी तथा वह आर्थिक संकट से जूझ रही थी, जबकि उसका पति अच्छा वेतन कमाता है और वह अपनी बेटी की शिक्षा के लिये भी भरण-पोषण चाहती थी।
  • याचिकाकर्त्ता ने सभी आरोपों से मना किया और कहा कि यह प्रतिवादी ही था जो याचिकाकर्त्ता को थप्पड़ मारता था एवं उसके साथ दुर्व्यवहार करता था।
  • यह मामला ट्रायल कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया और न्यायालय ने पत्नी/प्रतिवादी को सम्मान एवं आराम से रहने के लिये 20,000/- रुपए प्रतिमाह का भरण-पोषण देने का आदेश दिया तथा मुकदमेबाज़ी की लागत के रूप में 10,000/- रुपए दिये।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता/पति ने मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान पुनरीक्षण याचिका दायर की।
  • प्रतिवादी को अंतरिम भरण-पोषण देने में ट्रायल कोर्ट द्वारा CPC की धारा 151 की प्रयोज्यता को चुनौती देने के लिये याचिका दायर की गई थी।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि जब पक्षों के बीच संबंध स्वीकार कर लिया जाता है तथा मामले के गुण-दोष के आधार पर न्यायालय CPC की धारा 151 के अंतर्गत सशक्त न्यायालय की प्रथम दृष्टया संतुष्टि पर पत्नी एवं बच्चों को भरण-पोषण प्रदान कर सकता है।
    • न्यायालय ने के मामले पर विश्वास किया। हाजी महोमेद अब्दुल रहमान बनाम ताजुन्निसा बेगम एवं अन्य (1952)
  • उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भरण-पोषण देने का उद्देश्य दोनों पक्षों को समान अवसर प्रदान करना है।
    • यदि न्यायालय के पास ऐसी शक्ति नहीं है तो यह न्याय, समानता एवं अच्छे विवेक के विरुद्ध होगा।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि प्राचीन इस्लामी कानून के साथ-साथ DMM अधिनियम के अंतर्गत भी बेटी एवं पत्नी का भरण-पोषण करना पति का कर्त्तव्य है।
  • उच्च न्यायालय ने DMM अधिनियम की धारा 2 (ii) का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि यदि पति दो वर्ष की अवधि तक अपनी पत्नी का भरण-पोषण नहीं करता है तो यह तलाक का आधार है।
    • इसका तात्पर्य यह है कि अपनी पत्नी का भरण-पोषण करना पति का दायित्व है।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अनुसार पत्नी कई राहतों का दावा कर सकती है।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने वर्तमान याचिका को खारिज कर दिया और ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की।

CPC की धारा 151 क्या है?

परिचय:

  • यह धारा उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति से संबंधित है।
  • इसमें प्रक्रियात्मक नियमों से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिये उच्च न्यायालय की शक्ति के विषय में प्रावधान है।
  • इस शक्ति का प्रयोग न्यायालय द्वारा तब किया जाना है जब कोई स्पष्ट प्रावधान प्रदान नहीं किया गया हो।

CPC की धारा 151 की प्रयोज्यता:

  • न्यायालय को समानता, न्याय एवं अच्छे विवेक को सुनिश्चित करने के लिये निहित शक्ति का उपयोग करना चाहिये।
  • जब ​​कोई वैकल्पिक उपाय नहीं बचता है तो न्यायालय CPC की धारा 151 के अंतर्गत उत्तराधिकार में मिली शक्ति का उपयोग कर सकता है।
  • यह धारा पक्षकारों को कोई ठोस अधिकार प्रदान नहीं करती है, बल्कि न्याय के दौरान उत्पन्न होने वाली प्रक्रियागत असमानताओं को दूर करने में सहायता करती है।

CPC की धारा 151:

  • इसमें न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की सुरक्षा का उल्लेख किया गया है।
    • इस संहिता की कोई भी बात न्यायालय की ऐसे आदेश देने की अंतर्निहित शक्ति को सीमित करने या अन्यथा प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी, जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये आवश्यक हो सकते हैं।

CPC की धारा 151 पर आधारित निर्णयज विधियाँ:

  • हाजी मोहम्मद अब्दुल रहमान बनाम ताजुन्निसा बेगम एवं अन्य (1952):
    • इस मामले में यह माना गया कि जब पक्षों के बीच संबंध स्वीकार कर लिया जाता है, तो न्यायालय के पास अंतरिम भरण-पोषण देने की अंतर्निहित शक्ति होती है।
  • सावित्री बनाम गोविंद सिंह रावत (1985):
    • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जब भी कोई कार्य विधि द्वारा किया जाना अपेक्षित हो तथा उस कार्य को करना तब तक असंभव पाया जाए जब तक कि व्यक्त शर्तों में प्राधिकृत न किया गया कार्य भी न किया जाए, तो उस अन्य कार्य को आवश्यक आशय द्वारा पूरा किया जाएगा।
  • राम चंद बनाम कन्हयालाल (1966):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि CPC की धारा 151 के अंतर्गत निहित शक्तियों का प्रयोग न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये भी किया जा सकता है।
  • महेंद्र मणिलाल नानावती बनाम सुशीला (1965):
    • उच्चतम न्यायालय ने न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की प्रकृति पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए कहा कि CPC सिविल प्रकृति के वाद की कार्यवाही की प्रक्रियात्मक स्थितियों से निपटने के लिये विधि का एक विशेष टुकड़ा है।
    • संहिता के अंतर्गत ही, कार्यवाही के दौरान उभरती स्थितियों के अनुसार न्यायालयों को कुछ छिपी हुई शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं तथा न्यायालय स्पष्ट प्रावधानों के अभाव में उनका प्रयोग कर सकते हैं।
    • संहिता में जहाँ स्पष्ट प्रावधान हैं, वहाँ न्यायालयों को ऐसी शक्तियों का प्रयोग करने से रोक दिया गया है।
  • अब्दुल रहीम अत्तर बनाम अतुल अंबालाल बारोट (2005):
    • न्यायालय ने कहा कि अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग किसी भी विधि के अंतर्गत दिये गए प्रावधान को निष्प्रभावी करने के लिये नहीं किया जा सकता।

मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 का अवलोकन

  • यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति को सुधारने एवं बेहतर बनाने के लिये लाया गया था।
  • तलाक देते समय मुस्लिम महिलाओं पर होने वाली कठिनाइयों को कम करने के लिये यह अधिनियम लाया गया था।
  • पहले मुस्लिम महिलाओं का निकाह त्यागने पर स्वतः ही समाप्त हो जाता था। इस अधिनियम ने महिलाओं पर होने वाली ऐसी कठिनाइयों को रोका।
  • इस अधिनियम में कुल छह धाराएँ हैं।
  • इस अधिनियम की धारा 2 में तलाक के लिये स्पष्ट रूप से नौ आधार दिये गए हैं, जो मुस्लिम पत्नियों को होने वाले उत्पीड़न एवं कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
    • जब पति का पता चार वर्ष तक पता न चला हो।
    • जब पति ने दो वर्ष तक उसकी देखभाल करने में लापरवाही बरती हो या उसे देने में विफल रहा हो।
    • जब पति को सात वर्ष या उससे अधिक की कैद की सज़ा दी गई हो।
    • जब पति बिना किसी उचित कारण के तीन वर्ष तक अपने दांपत्य दायित्वों का पालन करने में विफल रहा हो।
    • जब पति विवाह के समय नपुंसक था तथा अब भी नपुंसक है।
    • जब पति दो वर्ष की अवधि से पागल हो या किसी भयंकर यौन रोग से पीड़ित हो।
    • जब वह अपने पिता या अन्य अभिभावक द्वारा पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले विवाहित हो गई हो, तथा अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले विवाह से मना कर दिया हो।
    • जब पति उसके साथ क्रूरता से पेश आता है।
    • किसी अन्य आधार पर जिसे मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिये वैध माना जाता है।

सिविल कानून

विधवा पुत्रवधू के भरण-पोषण का अधिकार

 05-Sep-2024

श्री राजपति बनाम श्रीमती भूरी देवी

विधि में यह अनिवार्य शर्त नहीं है कि भरण-पोषण का दावा करने के लिये पुत्रवधू को अपने ससुराल में रहने के लिये सहमत होना होगा”।

न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति दोनादी रमेश

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति दोनादी रमेश की पीठ ने कहा कि सिर्फ इसलिये कि पुत्रवधू अपनी ससुराल में नहीं रह रही है, वह भरण-पोषण पाने की अधिकारी नहीं है।      

श्री राजपति बनाम श्रीमती भूरी देवी मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रतिवादी का पति सिंचाई विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में कार्यरत था।
  • प्रतिवादी के पति की हत्या कर दी गई परंतु प्रतिवादी ने पुनर्विवाह नहीं किया।
  • उसने दावा किया कि उसके पास जीवनयापन का कोई स्रोत नहीं था और उसने दलील दी कि अपीलकर्त्ता, जो प्रतिवादी के पति का पिता है, को 80,000 रुपए का भुगतान किया गया था।
  • उन्होंने आगे आरोप लगाया कि अपीलकर्त्ता ने उसे दी गई राशि का गबन किया है तथा अपीलकर्त्ता के पास पर्याप्त कृषि भूमि है।
  • इस प्रकार, प्रतिवादी द्वारा अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भरण-पोषण का दावा किया गया।
  • अपीलकर्त्ता का मामला यह है कि उसके पुत्र की मृत्यु के कारण अंतिम देय राशि (टर्मिनल बकाया) के लिये उसे कोई राशि प्राप्त नहीं हुई।
  • अपीलकर्त्ता ने यह भी दावा किया है कि उसने प्रतिवादी के पक्ष में 20,000 रुपए की राशि सावधि जमा (फिक्स्ड डिपॉजिट) कराई थी और उसने अपनी ससुराल के घर में रहने से इनकार कर दिया है तथा घरेलू सहायिका के रूप में काम कर रही है।
  • उनका यह भी कहना है कि प्रतिवादी किसी स्थान पर लाभकारी नौकरी में कार्यरत है।
  • निचले न्यायालयों का निर्णय:
    • संबंधित ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को 3,000 रुपए प्रति माह का गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया।
    • उपरोक्त आदेश के विरुद्ध अपील दायर करने पर अंतरिम आदेश पारित किया गया, जिसमें 1,000 रुपए प्रतिमाह की दर से अंतरिम भरण-पोषण भुगतान का प्रावधान किया गया।
  • इस प्रकार मामला उच्च न्यायालय में स्थानांतरित किया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने कहा कि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि अपीलकर्त्ता ने 80,000 रुपए की राशि का गबन किया है।
  • इसके अतिरिक्त, इस दावे में भी कोई संदेह नहीं है कि अपीलकर्त्ता ने प्रतिवादी के पक्ष में 20,000 रुपए की सावधि जमा कराई थी।
  • इसके अतिरिक्त, अपीलकर्त्ता का यह दावा कि प्रतिवादी ने पुनर्विवाह कर लिया है या किसी विशेष स्थान पर लाभकारी नौकरी कर रही है, अविश्वसनीय है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि प्रतिवादी हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (HAMA) की धारा 19 के अंतर्गत भरण-पोषण के दावे का अधिकारी था।
  • भरण-पोषण की राशि की गणना के लिये, HAMA की धारा 23 में निहित सिद्धांत पर विचार किया जाना चाहिये।
  • यह तथ्य कि विधवा पुत्रवधू अपने ससुर से अलग रह रही थी, उसे अपने ससुर से भरण-पोषण पाने के अधिकार से वंचित नहीं करता।
  • सामाजिक संदर्भ में, जिसमें विधि को लागू किया जाना चाहिये, विभिन्न कारणों और परिस्थितियों के कारण विधवा महिलाओं का अपने माता-पिता के साथ रहना असामान्य नहीं है।
  • केवल इसलिये कि महिला ने वह विकल्प चुना है, हम न तो इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि वह बिना किसी उचित कारण के अपने वैवाहिक घर से अलग हो गई थी, न ही यह कि उसके पास अपने दम पर जीवित रहने के लिये पर्याप्त साधन होंगे।
  • यहाँ न्यायालय ने अपने द्वारा पारित अंतरिम आदेश में हस्तक्षेप करने से प्रतिषेध कर दिया।

भरण-पोषण क्या है?

  • भरण-पोषण सामान्य पर जीवन के लिये आवश्यक वस्तुओं के व्यय भी समाहित करता है। हालाँकि यह केवल दावेदार के जीवित रहने का अधिकार नहीं है।
  • 'भरण-पोषण' शब्द को हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 3(b) के अंतर्गत भी परिभाषित किया गया है।
  • इसमें भोजन, वस्त्र, आवास तथा शिक्षा एवं चिकित्सा व्यय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं का प्रावधान शामिल है।
  • भरण-पोषण का प्रावधान कई विधानों में निहित है:

               विधान

       प्रावधान

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

धारा 125 से 128

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955

धारा 24, धारा 25

हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956

धारा 18 से धारा 28 (अध्याय III)

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005

धारा 20

माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007

धारा 4 से धारा 18 (अध्याय II)

विधवा पुत्रवधू को दिये जाने वाले भरण-पोषण से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 19 में विधवा पुत्रवधू के भरण-पोषण का प्रावधान है।
  • धारा 19 (1) में प्रावधान है कि हिंदू पत्नी अपने पति की मृत्यु के बाद अपने ससुर से भरण-पोषण पाने की अधिकारी होगी।
  • हालाँकि प्रावधान में एक शर्त जोड़ी गई है और यह प्रावधान है कि भरण-पोषण केवल तभी दिया जाएगा जब:
    • वह अपनी कमाई या अपनी संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, या
    • जहाँ उसकी अपनी कोई संपत्ति नहीं है, वहाँ वह गुज़ारा भत्ता पाने में असमर्थ है।:
      • उसके पति या उसके पिता या माता की संपत्ति, या
      • उसका बेटा या बेटी, यदि कोई हो, या उसकी संपत्ति।
  • धारा 19 (2) में प्रावधान है कि उपधारा (1) के अंतर्गत दायित्व समाप्त हो जाएगा यदि:
    • ससुर के पास अपने कब्ज़े में किसी भी सहदायिक संपत्ति से ऐसा करने का कोई साधन नहीं है, जिसमें से पुत्रवधू को कोई भाग नहीं प्राप्त हुआ है।
    • पुत्रवधू के पुनर्विवाह पर।

विधवा बहू को दिये जाने वाले भरण-पोषण संबंधी मामले क्या हैं?

  • अब्दुल खादर बनाम तस्लीम जमीला अगाड़ी (2024):
    • इस मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस बात पर चर्चा की कि क्या पुत्रवधू दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण का दावा कर सकती है।
    • न्यायालय ने कहा कि CrPC की धारा 125 को ध्यान से पढ़ने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि पुत्रवधू अपने सास-ससुर से भरण-पोषण की मांग नहीं कर सकती।
    • न्यायालय ने कहा कि विधिक प्रावधानों में यह प्रावधान है कि एक पत्नी भरण-पोषण के लिये दावा कर सकती है।
    • इस प्रकार, CrPC की धारा 125 के अंतर्गत न्यायालय को याचिका पर विचार करने के लिये प्रदत्त किसी भी शक्ति के अभाव में, न्यायालय CrPC की धारा 125 के अंतर्गत पुत्रवधू को राहत नहीं दे सकता है।
  • लक्ष्मी एवं अन्य बनाम श्याम प्रताप एवं अन्य (2022):
    • यह निर्णय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सुनाया गया जिसमें विधवा पुत्रवधू ने अपने ससुर से भरण-पोषण की मांग की थी।
    • न्यायालय ने कहा कि पुत्रवधू को अपने ससुर से भरण-पोषण की मांग नहीं करनी चाहिये, बशर्ते कि उसे उसके पति की कुछ संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त हुई हो।
    • इस मामले में न्यायालय ने विधवा पुत्रवधू को भरण-पोषण देने से प्रतिषेध कर दिया।
  • धन्ना साहू बनाम श्रीमती. सीताबाई साहू (2023):
    • छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने इस मामले में विधवा बहू को भरण-पोषण देने संबंधी विधानों की विस्तृत जानकारी दी।
    • न्यायालय ने कहा कि HAMA की धारा 19 के अंतर्गत भरण-पोषण प्रदान करने के लिये पहली शर्त यह है कि विधवा पुत्रवधू अपने ससुर से उस सीमा तक भरण-पोषण का दावा कर सकती है, जब तक कि वह अपनी कमाई से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो।
    • न्यायालय ने कहा कि विधवा पुत्रवधू को भरण-पोषण तभी दिया जाएगा जब उपरोक्त शर्त पूरी हो।

सिविल कानून

SRA की धारा 28

 05-Sep-2024

विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से ईश्वर (मृत) एवं अन्य बनाम भीम सिंह एवं अन्य

“यदि कोई निष्पादन न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 37 के अंतर्गत डिक्री पारित करने वाला न्यायालय है तो वह धारा 28 के अंतर्गत आवेदन पर विचार कर सकता है।”

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में निर्णय दिया कि निष्पादन न्यायालय विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 28 के अंतर्गत शेष राशि का भुगतान करने के लिये समय-सीमा बढ़ा सकता है, भले ही ऐसे आवेदनों पर आम तौर पर मूल वाद में ही निर्णय लिया जाता है। न्यायालय ने निष्पादन न्यायालय के निर्णय को यथावत् रखा, यह देखते हुए कि डिक्री में भुगतान के लिये विशिष्ट शर्तों का अभाव था तथा डिक्रीधारक की भुगतान करने की इच्छा ने विस्तार को उचित ठहराया।

  • न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से ईश्वर (अब मृत) एवं अन्य बनाम भीम सिंह एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से ईश्वर ( मृत) एवं अन्य बनाम भीम सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 18 मई 2005 को दोनों पक्षों ने एक विक्रय करार किया।
  • विवादित संपत्ति के लिये कुल प्रतिफल 18 लाख रुपए निर्धारित किया गया।
  • प्रतिवादियों (खरीदारों) ने अपीलकर्त्ताओं (विक्रेताओं) को 9.77 लाख रुपए का अग्रिम भुगतान किया।
  • बिक्री विलेख के निष्पादन का अनुरोध करने वाला नोटिस प्राप्त करने के बावजूद, अपीलकर्त्ता इसे निष्पादित करने में विफल रहे।
  • प्रतिवादियों ने विक्रय करार को लागू करने के लिये अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद संस्थित किया।
  • प्रारंभिक न्यायालय के निर्णय के बाद, प्रतिवादियों ने करार के विनिर्दिष्ट पालन की मांग करते हुए अपील दायर की।
  • अपीलीय न्यायालय के निर्णय के बाद, प्रतिवादियों ने 20 मार्च 2012 को विक्रय विलेख के निष्पादन एवं पंजीकरण की मांग करते हुए निष्पादन आवेदन दायर किया।
  • निष्पादन आवेदन लंबित रहने के दौरान, अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील दायर करके अपीलीय न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी।
  • दूसरी अपील खारिज होने के बाद, प्रतिवादियों ने 24 मार्च 2014 को निष्पादन न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें शेष राशि जमा करने की अनुमति मांगी गई।
  • इस आवेदन का विरोध करते हुए अपीलकर्त्ताओं ने विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 28 के अंतर्गत एक आवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें इस आधार पर संविदा को रद्द करने की मांग की गई कि डिक्री धारक निर्धारित दो महीने की अवधि के अंदर जमा करने में विफल रहे।
  • न्यायालय के समक्ष दो मुद्दे हैं:
    • क्या निष्पादन न्यायालय को आवेदनों पर विचार करने का अधिकार था?
      (a) संविदा का विखंडन तथा
      (b) शेष विक्रय प्रतिफल जमा करने के लिये समय का विस्तार?
    • यदि निष्पादन न्यायालय के पास क्षेत्राधिकार होता तो क्या उन आवेदनों पर वाद (अर्थात् मूल पक्ष) में एक के रूप में निर्णय लिया जाना चाहिये था?
      • यदि हाँ, तो क्या मामले के तथ्यों के आधार पर, केवल उसी आधार पर, आरोपित आदेश भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अधिकारिता के प्रयोग में हस्तक्षेप का आधार बनता है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 28 के अंतर्गत संविदा को रद्द करने या समय विस्तार की मांग करने वाले आवेदन पर उस मूल वाद में निर्णय लिया जाना चाहिये, जहाँ डिक्री पारित की गई थी, न कि निष्पादन कार्यवाही में।
  • न्यायालय ने कहा कि 1963 अधिनियम की धारा 28 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "उसी वाद में लागू हो सकती है जिसमें डिक्री पारित की गई है" को प्रथम दृष्टया न्यायालय को शामिल करने के लिये व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिये, भले ही निष्पादनाधीन डिक्री अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित की गई हो।
  • न्यायालय ने कहा कि 1963 अधिनियम की धारा 28 के अंतर्गत एक आवेदन पर निष्पादन न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है तथा निर्णय दिया जा सकता है, बशर्ते कि यह वह न्यायालय हो जिसने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 37 के अनुसार डिक्री पारित की हो।
  • न्यायालय ने दोहराया कि 1963 अधिनियम की धारा 28 के अंतर्गत संविदा को रद्द करने की शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है तथा इसका प्रयोग पक्षों के साथ पूर्ण न्याय करने के लिये किया जाना है।
  • न्यायालय ने कहा कि निष्पादन न्यायालय के पास समय बढ़ाने का अधिकार समाप्त नहीं होता, भले ही डिक्री में किसी निश्चित तिथि तक शेष राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया गया हो।
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 28 के अंतर्गत विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय न्यायालय को यह विचार करना चाहिये कि क्या चूक जानबूझकर की गई थी या विलंब के लिये कोई वास्तविक कारण था।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि डिक्री धारक की ओर से कोई चूक नहीं दिखती है, तो न्यायालय संविदा को रद्द करने से मना कर सकता है तथा चूक की गई राशि जमा करने के लिये समय बढ़ा सकता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उसकी अधिकारिता विवेकाधीन है तथा इसका प्रयोग न्याय के उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये किया जाना चाहिये, न कि केवल इसलिये कि ऐसा करना विधिक है।
  • न्यायालय ने कहा कि पूर्ण न्याय करने के उद्देश्य से, वह किसी आदेश में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, भले ही उसमें कोई विधिक त्रुटि हो।
  • न्यायालय ने कहा कि इस मामले में पक्षों के साथ पर्याप्त न्याय किया गया है तथा तकनीकी आधार पर विवादित आदेश में हस्तक्षेप करने से डिक्री धारकों के साथ गंभीर अन्याय होगा।

SRA की धारा 28 क्या है?

परिचय:

  • SRA की धारा 28, उन मामलों में अचल संपत्ति की बिक्री या पट्टे के लिये संविदाओं को रद्द करने के लिये एक तंत्र प्रदान करती है, जहाँ विनिर्दिष्ट पालन के लिये आदेश दिया गया है।
  • यह विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को उसी वाद में निरसन के लिये आवेदन करने की अनुमति देता है, यदि क्रेता या पट्टेदार निर्दिष्ट समय या न्यायालय द्वारा दी गई किसी विस्तारित अवधि के अंदर निर्धारित राशि का भुगतान करने में विफल रहता है।
  • न्यायालय के पास संविदा को आंशिक या पूर्ण रूप से निरस्त करने का विवेकाधीन अधिकार है, तथा वह संपत्ति के कब्ज़े की बहाली, किराए एवं लाभ का भुगतान और अग्रिम राशि की वापसी का आदेश दे सकता है, जैसा कि उचित माना जाए।
  • यह धारा क्रेता या पट्टेदार को अतिरिक्त राहत भी प्रदान करती है, यदि वे निर्दिष्ट समय के अंदर भुगतान करते हैं तथा इस धारा के अंतर्गत दावा योग्य राहत के लिये अलग-अलग वादों पर रोक लगाती है।

SRA की धारा 28 का विधिक प्रावधान:

  • यदि क्रेता या पट्टेदार निर्दिष्ट समय अवधि के अंदर आवश्यक राशि का भुगतान करने में विफल रहता है, तो न्यायालय के पास विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री जारी होने के बाद अचल संपत्ति की बिक्री या पट्टे के लिये संविदा को रद्द करने की शक्ति है।
  • विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को उसी मुकदमे में रद्दीकरण के लिये आवेदन करना चाहिये जिसमें विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री जारी की गई थी, न कि किसी अन्य कार्यवाही में।
  • संविदा को रद्द करने की न्यायालय की शक्ति विवेकाधीन है, जो मामले के न्याय के आधार पर इसे आंशिक रूप से (चूक करने वाले पक्ष के लिये) या पूरी तरह से रद्द करने की अनुमति देती है।
  • यदि क्रेता या पट्टेदार ने संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया है, तो निरस्तीकरण के बाद न्यायालय उन्हें विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को कब्ज़ा वापस करने का निर्देश देगा।
  • न्यायालय क्रेता या पट्टेदार को आदेश दे सकता है कि वे विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को संपत्ति पर कब्ज़ा करने से लेकर उसकी बहाली तक अर्जित सभी किराये एवं लाभ का भुगतान करें।
  • यदि न्याय की आवश्यकता हो, तो न्यायालय संविदा के संबंध में क्रेता या पट्टेदार द्वारा भुगतान की गई किसी भी बयाना राशि या जमा राशि की वापसी का आदेश दे सकता है।
  • यदि क्रेता या पट्टेदार निर्दिष्ट अवधि के अंदर आवश्यक राशि का भुगतान करता है, तो वे उसी वाद में आगे की राहत के लिये आवेदन कर सकते हैं जिसके वे अधिकारी हो सकते हैं।
  • क्रेता या पट्टेदार के लिये संभावित अतिरिक्त राहत में विक्रेता या पट्टाकर्त्ता द्वारा उचित अंतरण या पट्टे का निष्पादन शामिल है।
  • अतिरिक्त राहत का एक अन्य रूप कब्ज़े की डिलीवरी, या हस्तांतरण या पट्टे के निष्पादन पर संपत्ति का विभाजन एवं अन्य कब्ज़ा हो सकता है।
  • विधि स्पष्ट रूप से संविदा के किसी भी पक्ष द्वारा इस खंड के अंतर्गत दावा योग्य किसी भी राहत के लिये अलग-अलग वाद संस्थित करने पर रोक लगाता है।
  • इस धारा के अंतर्गत किसी भी कार्यवाही के लिये लागत निर्धारित करने में न्यायालय को विवेकाधिकार प्राप्त है।
  • न्यायालय के पास भुगतान के लिये समय अवधि को डिक्री में शुरू में निर्दिष्ट अवधि से आगे बढ़ाने की शक्ति है।
  • यह प्रावधान अचल संपत्ति के लिये बिक्री एवं पट्टे दोनों संविदाों पर समान रूप से लागू होता है।
  • यह धारा विनिर्दिष्ट पालन डिक्री में चूक को संबोधित करने के लिये एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करती है, जो संविदा के दोनों पक्षों के अधिकारों को संतुलित करती है।
  • न्यायालय की निरस्त करने की शक्ति गैर-भुगतान से शुरू होती है, जो ऐसे संविदाओं में मौद्रिक दायित्वों के समय पर निष्पादन के महत्त्व पर ज़ोर देती है।

SRA की धारा 28 का दायरा:

  • धारा 28 विशेष रूप से अचल संपत्ति की बिक्री या पट्टे के लिये संविदाओं पर लागू होती है, जहाँ विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री दी गई है।
  • यह न्यायालय को कुछ परिस्थितियों में ऐसे संविदाओं को रद्द करने का अधिकार देता है, मुख्य रूप से जब क्रेता या पट्टेदार निर्दिष्ट समय के अंदर आवश्यक राशि का भुगतान करने में विफल रहता है।
  • न्यायालय के पास भुगतान के लिये समय अवधि को डिक्री में शुरू में निर्दिष्ट अवधि से आगे बढ़ाने का विवेकाधिकार है।
  • प्रावधान के अनुसार, निरस्तीकरण या समय विस्तार के लिये आवेदन उसी वाद में किया जाना चाहिये, जिसमें मूल रूप से विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री दी गई थी।
  • इस धारा के अंतर्गत न्यायालय की शक्ति विवेकाधीन है, जो उसे मामले के न्याय एवं पक्षों के आचरण पर विचार करने की अनुमति देती है।
  • न्यायालय मामले की परिस्थितियों के आधार पर संविदा को आंशिक रूप से (केवल चूककर्त्ता पक्ष को प्रभावित करते हुए) या पूरी तरह से निरस्त कर सकता है।
  • निरस्तीकरण के पश्चात्, न्यायालय विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को संपत्ति का कब्ज़ा वापस करने का आदेश दे सकता है, यदि क्रेता या पट्टेदार ने संविदा के अंतर्गत इसे प्राप्त किया था।
  • न्यायालय न्याय की आवश्यकता के अनुसार संपत्ति से अर्जित किराये एवं लाभ का भुगतान करने तथा बयाना राशि या जमा राशि वापस करने का निर्देश दे सकता है।
  • यदि भुगतान निर्दिष्ट या विस्तारित समय के अंदर किया जाता है, तो न्यायालय क्रेता या पट्टेदार को उचित अंतरण या कब्ज़े की डिलीवरी सहित आगे की राहत दे सकता है।
  • यह धारा स्पष्ट रूप से इस धारा के अंतर्गत दावा किये जाने वाले किसी भी राहत के लिये अलग-अलग वादों पर रोक लगाती है।
  • इस धारा के अंतर्गत कार्यवाही के लिये लागत तय करने में न्यायालय को विवेकाधिकार प्राप्त है।
  • इस धारा का दायरा विनिर्दिष्ट पालन डिक्री में चूक के मामलों में दोनों पक्षों के हितों को संतुलित करने का लक्ष्य रखता है।

CPC, 1908 की धारा 37

  • "डिक्री पारित करने वाला न्यायालय" शब्द को डिक्री निष्पादित करने के प्रयोजनों के लिये एक विशिष्ट विधिक परिभाषा दी गई है।
  • यह परिभाषा तब तक लागू होती है जब तक कि विषय या संदर्भ में कोई विरोधाभासी बात न हो।
  • जहाँ निष्पादित की जाने वाली डिक्री अपीलीय क्षेत्राधिकार में पारित की गई थी, वहाँ प्रथम दृष्टया न्यायालय को वह न्यायालय माना जाता है जिसने डिक्री पारित की थी।
  • यदि प्रथम दृष्टया न्यायालय अब मौजूद नहीं है या डिक्री निष्पादित करने के लिये उसके पास क्षेत्राधिकार नहीं है, तो निष्पादन के लिये आवेदन करने के समय वाद का विचारण करने का क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय को ही डिक्री पारित करने वाला न्यायालय माना जाता है।
  • प्रथम दृष्टया न्यायालय केवल इसलिये डिक्री निष्पादित करने का अधिकार क्षेत्र नहीं खोता है क्योंकि वाद प्रारंभ होने के बाद या डिक्री पारित होने के बाद कोई क्षेत्र उसके अधिकार क्षेत्र से दूसरे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में स्थानांतरित हो गया है।
  • ऐसे मामलों में जहाँ कोई क्षेत्र स्थानांतरित किया गया है, वह न्यायालय जिसे वह क्षेत्र स्थानांतरित किया गया है, उसे भी डिक्री निष्पादित करने का अधिकार क्षेत्र प्राप्त होता है।
  • डिक्री निष्पादित करने के लिये नए न्यायालय का अधिकार क्षेत्र इस बात पर निर्भर करता है कि निष्पादन के लिये आवेदन किये जाने के समय उसके पास मूल वाद का विचारण करने का अधिकार क्षेत्र था या नहीं।
  • यह प्रावधान न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में परिवर्तन या कुछ न्यायालयों के बंद होने के बावजूद डिक्री के निष्पादन में निरंतरता सुनिश्चित करता है।
  • यह यह निर्धारित करने में लचीलापन प्रदान करता है कि कौन-सा न्यायालय डिक्री को निष्पादित कर सकती है, विशेष रूप से अपीलीय निर्णयों या अधिकार क्षेत्र में परिवर्तन के मामलों में।
  • स्पष्टीकरण स्पष्ट करता है कि अधिकार क्षेत्र में परिवर्तन मूल न्यायालय के अपने आदेशों को निष्पादित करने के अधिकार को अमान्य नहीं करता है, बल्कि ऐसे अधिकार वाले न्यायालयों की संख्या का विस्तार करता है।