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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

एक ही घटना के लिये दुबारा FIR

 15-Oct-2024

संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 6 अन्य

“जहाँ अपराध पहले FIR के दायरे में नहीं आता है, वहाँ दूसरी FIR की अनुमति होगी।”

न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 6 अन्य के मामले में माना है कि दूसरी प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) तभी स्वीकार्य है जब उसमें उसी मामले में प्राप्त निष्कर्षों एवं साक्ष्यों के भिन्न संस्करण हों जिसके लिये पहली FIR दर्ज की गई थी।

संगीता मिश्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं 6 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 एवं 201 के अधीन FIR दर्ज की गई थी।
  • आरोप लगाया गया था कि एक अज्ञात व्यक्ति का जला हुआ शव मिला था तथा पोस्टमार्टम रिपोर्ट के माध्यम से यह पाया गया कि उसकी हत्या गला घोंटकर की गई थी और साक्ष्य मिटाने के लिये शव को जला दिया गया था।
  • पुलिस अधिकारी द्वारा विवेचना के बाद शव की पहचान आवेदक एवं उसके बेटे द्वारा की गई, तथा घटना से पहले ही उनके द्वारा गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी।
  • यह कहा गया कि आवेदक के ससुर ने अपनी संपत्ति के संबंध में पारिवारिक समझौता किया था तथा अपने बेटों के बीच हिस्सा बांट दिया था, जो आवेदक या उसके पति के ज्ञान में नहीं था।
  • आवेदिका के पति, ससुर, जेठ व देवर के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया, अतः आवेदिका की सास द्वारा आवेदिका को पारिवारिक समझौते की शर्त के अनुपालन हेतु विधिक नोटिस भेजा गया।
  • उक्त विवाद को सुलझाने के लिये चन्द्र मोहन (आवेदिका का देवर) उसके पति के पास आया, तद्नुसार आवेदिका का पति भी उसके साथ चला गया।
  • पति के वापस न आने पर आवेदिका ने उसकी खोजबीन की, परन्तु वह नहीं मिला।
  • पुलिस ने आवेदक के गुमशुदगी की शिकायत दर्ज करने के निवेदन को अनदेखा कर दिया तथा इस बीच आवेदक के विरुद्ध मौजूदा मामला दर्ज कर लिया गया।
  • आरोप पत्र दाखिल करने के बाद आवेदक को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया।
  • रिहा होने के बाद आवेदक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन एक आवेदन दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने इस बात पर विचार किये बिना आवेदन को खारिज कर दिया कि आवेदक के पति की हत्या की FIR पहले ही दर्ज हो चुकी है जिसके लिये आवेदक को पहले ही दोषसिद्धि दी जा चुकी है।
  • इस तथ्य पर विचार किये बिना कि वास्तविक अपराधी अभी भी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं, पुनरीक्षण आवेदन को भी खारिज कर दिया गया।
  • इन सभी निर्णयों से व्यथित होकर आवेदक ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील प्रस्तुत की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मामले में पाया कि:
    • एक ही मामले के आधार पर एक ही आरोपी के विरुद्ध दो बार FIR नहीं हो सकतीं।
    • जब किसी मामले में एक-दूसरे के विरोधी संस्करण हों तो उसके लिये दो FIR दर्ज की जा सकती हैं तथा पुलिस दोनों FIR के अधीन जाँच कर सकती है।
    • जब पहली FIR दूसरी FIR के दायरे में नहीं आती है, तो दूसरी FIR की अनुमति होगी।
  • इसलिये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया तथा मामले को विधि द्वारा स्थापित परिस्थिति के आधार पर निपटान हेतु वापस भेज दिया।

FIR क्या है?

परिचय:

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 173 में संज्ञेय मामलों में सूचना से संबंधित प्रावधान दिये गए हैं।
  • पहले यह CrPC की धारा 154 के अंतर्गत आता था।
  • इसे आमतौर पर FIR के नाम से जाना जाता है, हालाँकि इस शब्द का प्रयोग संहिता में नहीं किया गया है।
  • जैसा कि इसके उपनाम से पता चलता है, यह किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा दर्ज की गई संज्ञेय अपराध की सबसे प्रारंभिक एवं पहली सूचना होती है।

उद्देश्य:

  • FIR का मुख्य उद्देश्य आपराधिक विधि को गति प्रदान करना तथा कथित आपराधिक गतिविधि के विषय में सूचना एकत्रित करना तथा अपराध से जुड़ी घटनाओं का सही या लगभग सही संस्करण प्राप्त करना है।
  • यह अभियोजन पक्ष की ओर से अपने दम पर इस अंतराल को भरने की अवांछनीय प्रवृत्ति पर रोक लगाता है।
  • आरोपी को बाद में बदलाव या परिवर्धन से बचाने के लिये।

अर्हता:

  • यह संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित एक सूचना है।
  • यह मुखबिर द्वारा मौखिक या लिखित रूप में दी जाती है।
  • यदि मौखिक रूप से दी जाती है, तो इसे पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी या उसके निर्देश पर लिखित रूप में दिया जाना चाहिये तथा यदि लिखित रूप में दी जाती है या लिखित रूप में दी जाती है, तो इसे देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिये।
  • लिखित रूप में दी गई सूचना मुखबिर को पढ़कर सुनाई जानी चाहिये तथा इसकी एक प्रति मुखबिर को तुरंत निःशुल्क दी जानी चाहिये।
  • सूचना का सार एक पुस्तक में ऐसे प्रारूप में दर्ज किया जाएगा, जैसा राज्य सरकार इस संबंध में निर्धारित कर सकती है। इस पुस्तक को सामान्य डायरी कहा जाता है।

सामग्री:

  • इसमें घटित प्रत्येक छोटी-छोटी घटना का उल्लेख होना आवश्यक नहीं है।
  • इसमें केवल प्राप्त सूचना के सार का उल्लेख होना आवश्यक है तथा इसे प्रत्येक तथ्य का भंडार नहीं कहा जा सकता।

FIR  का साक्ष्य मूल्य:

  • विधि का एक स्थापित सिद्धांत यह है कि FIR को साक्ष्य का एक ठोस भाग नहीं माना जा सकता है तथा इसे केवल एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में माना जा सकता है।
  • इसका प्रयोग न तो वाद में प्रदाता के विरुद्ध किया जा सकता है अगर वह स्वयं आरोपी बन जाता है तथा न ही अन्य साक्षियों की पुष्टि या खंडन करने के लिये किया जा सकता है।
  • इसका प्रयोग केवल कुछ सीमित उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है जैसे:
    • FIR को अभियोजन पक्ष द्वारा प्रदाता के अभिकथन की पुष्टि करने के उद्देश्य से सिद्ध किया जाता है।
    • इसका उपयोग प्रथम सूचना प्रदाता के अभिकथन का खंडन करने के लिये भी किया जा सकता है। इसका प्रयोग यह दिखाने के लिये किया जा सकता है कि मामले में अभियुक्त को फंसाना बाद में नहीं सोचा गया था।
    • जहाँ FIR को मुखबिर के आचरण के एक भाग के रूप में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, इसे ठोस साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
    • यदि मुखबिर की मृत्यु हो जाती है, तथा FIR में उसकी मृत्यु के कारण या उसकी मृत्यु से संबंधित परिस्थितियों के विषय में अभिकथन होता है, तो इसे ठोस साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • राम लाल नारंग बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) (1979):
    • इस मामले में न्यायालय ने कहा कि उत्तरवर्ती FIR तभी कायम रखी जा सकेगी जब किसी बड़े षड़यंत्र के विषय में तथ्यात्मक आधार पर नई खोज की जाएगी।
  • करी चौधरी बनाम श्रीमती सीता देवी एवं अन्य (2002):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक ही मामले में एक ही आरोपी के विरुद्ध दुबारा FIR नहीं हो सकतीं। लेकिन जब एक ही घटना के संबंध में विरोधाभासी अभिकथन होते हैं, तो वे सामान्यतया दो अलग-अलग FIR का रूप ले लेते हैं तथा एक ही जाँच एजेंसी द्वारा दोनों के अधीन जाँच की जा सकती है।
  • उपकार सिंह बनाम वेद प्रकाश एवं अन्य (2004):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि उसी घटना के संबंध में प्रति-शिकायत के रूप में दूसरी शिकायत दर्ज करना CrPC के अधीन निषिद्ध नहीं है, यदि वास्तविक आरोपी द्वारा किये गए अपराध के संबंध में वह मिथ्या शिकायत दर्ज करने का पहला अवसर प्राप्त करता है तथा उसे क्षेत्राधिकार वाली पुलिस द्वारा पंजीकृत कर लिया जाता है, तो ऐसे अपराध का पीड़ित व्यक्ति, संबंधित घटना के विषय में अपना संस्करण देते हुए शिकायत दर्ज करने से वंचित हो जाएगा, परिणामस्वरूप वह वास्तविक आरोपी को सजा दिलाने के अपने वैध अधिकार से वंचित हो जाएगा।
  • निर्मल सिंह कहलों (2009):
    • इस मामले में यह देखा गया कि दुबारा FIR न केवल इसलिये यथावत रखी जा सकती है क्योंकि इसमें अलग-अलग संस्करण थे, बल्कि इसलिये भी कि तथ्यात्मक आधार पर नई खोज की गई है।
  • बाबू भाई बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (2010):
    • इस मामले में यह देखा गया कि उत्तरवर्ती FIR के मामले में, न्यायालय को दोनों FIR को संस्थित करने वाले तथ्यों एवं परिस्थितियों की जाँच करनी होगी तथा यह पता लगाने के लिये 'समानता का परीक्षण' लागू करना होगा कि क्या दोनों FIR एक ही घटना के संबंध में या एक ही लेनदेन के दो या अधिक भागों के संबंध में एक ही घटना से संबंधित हैं।
    • ऐसे मामले में जहाँ दूसरी FIR में संस्करण अलग है तथा वे दो अलग-अलग घटनाओं के संबंध में हैं, दूसरी FIR अनुमेय है।
    • यह भी देखा गया कि एक ही घटना के संबंध में प्रतिदावे से संबंधित FIR जिसमें घटनाओं का एक अलग संस्करण है, अनुमेय है।
  • अंजू चौधरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2013):
    • इस मामले में यह माना गया कि पहली FIR में निहित एक ही अपराध या घटना के संबंध में दूसरी FIR स्वीकार्य नहीं है, लेकिन, जहाँ अपराध पहले FIR के दायरे में नहीं आता है, वहाँ दूसरा FIR स्वीकार्य होगी।
    • समानता का परीक्षण लागू किया जाना चाहिये।
  • अवधेश कुमार झा उर्फ ​​अखिलेश कुमार झा एवं अन्य बनाम बिहार राज्य (2016):
    • इस मामले में यह माना गया कि दूसरी FIR में लगाए गए आरोपों का सार पहली FIR से भिन्न है तथा अलग लेनदेन से संबंधित है, इसलिये दूसरी FIR से उत्पन्न मामला कायम है।

जीरो FIR

  • जब किसी पुलिस स्टेशन को किसी अन्य पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में किये गए कथित अपराध के विषय में शिकायत मिलती है, तो वह एक FIR दर्ज करता है, तथा फिर इसे आगे की जाँच के लिये संबंधित पुलिस स्टेशन को अंतरित कर देता है। इसे जीरो FIR कहा जाता है। कोई नियमित FIR नंबर नहीं दिया जाता है।
  • जीरो FIR प्राप्त करने के बाद, संबंधित पुलिस स्टेशन एक नई FIR दर्ज करता है तथा जाँच प्रारंभ करता है।

सांविधानिक विधि

COI के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत कोई तथ्यात्मक जाँच नहीं

 15-Oct-2024

जाखरिया सलेमान मानेक एवं अन्य बनाम पर्यावरण वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय एवं अन्य

“अनुच्छेद 226 के दायरे में तथ्यात्मक जाँच अस्वीकार्य है।”

मुख्य न्यायाधीश श्रीमती सुनीता अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति प्रणव त्रिवेदी

स्रोत: गुजरात उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मुख्य न्यायाधीश श्रीमती सुनीता अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति प्रणव त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 (COI) के दायरे में तथ्यात्मक जाँच नहीं की जा सकती।

  • गुजरात उच्च न्यायालय ने जाखरिया सलमान मानेक एवं अन्य बनाम पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

जाखरिया सलीमान मानेक एवं अन्य बनाम पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • कच्छ जिले में मौजूदा कांडला पोर्ट ट्रस्ट सीमा के अंदर 7 एकीकृत सुविधाओं के विकास के लिये 19 दिसंबर 2016 को CRZ स्वीकृति दी गई थी।
  • एकीकृत सुविधाओं के लिये GCZMA द्वारा CRZ अनुशंसा पत्र जारी किया गया था, जिसमें कई शर्तों का प्रावधान किया गया था, जिनमें 2011 की CRZ अधिसूचना के प्रावधानों का सख्ती से पालन करना था।
  • प्रतिवादी संख्या 3 को GCZMA की अनुशंसा के अनुसार पर्यावरण स्वीकृति/CRZ स्वीकृति के लिये एक नया प्रस्ताव प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया था।
  • ताजा आवेदन प्रस्तुत करने पर, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 7 एकीकृत सुविधाओं के संबंध में अनुमोदित संदर्भ की शर्तें जारी कीं।
  • यह रिट याचिका प्रतिवादी संख्या 3 अर्थात दीन दयाल पोर्ट अथॉरिटी की दो परियोजनाओं को उपरोक्त स्वीकृति को इस आधार पर चुनौती देते हुए दायर की गई है कि प्रतिवादी संख्या 3 की परियोजनाएँ मैंग्रोव वनों वाली भूमि पर की जानी हैं।
  • चुनौती का सार यह है कि प्रतिवादी संख्या 3 की परियोजनाएँ मैंग्रोव वनों वाली भूमि पर की जानी हैं तथा यह 2011 की CRZ अधिसूचना के अंतर्गत CRZ-1A श्रेणी में आती है, जबकि CRZ स्वीकृति CRZ-1(B), CRZ-III एवं CRZ-IV श्रेणियों के अंतर्गत दी गई है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि यदि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 (EPA) की धारा 3 के अंतर्गत जारी CRZ अधिसूचना का उल्लंघन होता है तो EPA अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत दण्डात्मक परिणाम होंगे।
  • न्यायालय ने कहा कि इसमें शामिल मुद्दों के लिये तथ्यात्मक जाँच की आवश्यकता है जो COI के अनुच्छेद 226 के दायरे से बाहर है।
  • इस मामले में याचिकाकर्त्ताओं के तर्क की जाँच करने के लिये मौखिक साक्ष्य की रिकॉर्डिंग सहित कुछ अन्य साक्ष्यों की आवश्यकता होगी।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान मामले में एक जाँच शामिल है जो COI के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अनुमेय या संभव नहीं होगी।
  • इस तर्क पर कि रिट याचिका में सद्भावना का अभाव है, न्यायालय ने फिर से माना कि COI के अनुच्छेद 226 के दायरे में जाँच अस्वीकार्य है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता शिकायतों के निवारण के लिये राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) से संपर्क करने के लिये स्वतंत्र हैं क्योंकि उठाया गया प्राथमिक मुद्दा 2011 की CRZ अधिसूचना का उल्लंघन है।
  • इसलिये, न्यायालय ने इस टिप्पणी के साथ रिट याचिका का निपटारा किया कि याचिकाकर्त्ता कानून में उपलब्ध उचित उपाय का लाभ उठाने के लिये स्वतंत्र हैं।

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 क्या है?

  • परिचय:
    • EPA, 1986 पर्यावरण सुरक्षा की दीर्घकालिक आवश्यकताओं के अध्ययन, योजना एवं कार्यान्वयन के लिये रूपरेखा स्थापित करता है तथा पर्यावरण को खतरा पहुँचाने वाली स्थितियों पर त्वरित एवं पर्याप्त कार्यवाही की प्रणाली निर्धारित करता है।
  • पृष्ठभूमि:
    • EPA के अधिनियमन की जड़ें जून, 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (स्टॉकहोम सम्मेलन) में निहित हैं, जिसमें भारत ने मानव पर्यावरण के सुधार के लिये उचित कदम उठाने के लिये भाग लिया था।
    • अधिनियम स्टॉकहोम सम्मेलन में लिये गए निर्णयों को लागू करता है।
  • संवैधानिक उपबंध:
    • EPA अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 253 के अंतर्गत अधिनियमित किया गया था, जो अंतर्राष्ट्रीय करारों को प्रभावी बनाने के लिये विधि निर्माण का उपबंध करता है।
    • संविधान का अनुच्छेद 48A निर्दिष्ट करता है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करने तथा देश के वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा करने का प्रावधान करेगा।
    • अनुच्छेद 51A आगे यह भी प्रावधान करता है कि प्रत्येक नागरिक पर्यावरण की रक्षा करेगा।

COI का अनुच्छेद 226 क्या है?

  • संविधान के भाग V के अंतर्गत अनुच्छेद 226 उपबंधित है जो उच्च न्यायालय को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • COI के अनुच्छेद 226(1) में उपबंधित किया गया है कि प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन एवं अन्य उद्देश्यों के लिये किसी व्यक्ति या सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा एवं उत्प्रेषण सहित आदेश या रिट जारी करने की शक्ति होगी।
  • अनुच्छेद 226(2) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय को किसी व्यक्ति, सरकार या प्राधिकरण को रिट या आदेश जारी करने की शक्ति है -
    • इसके अधिकारिता के अंदर स्थित या
    • इसके स्थानीय अधिकारिता के बाहर यदि कार्यवाही के कारण की परिस्थितियाँ पूरी तरह या आंशिक रूप से इसके क्षेत्रीय अधिकारिता के अंदर उत्पन्न होती हैं।
  • अनुच्छेद 226(3) में यह उपबंधित किया गया है कि जब किसी पक्ष के विरुद्ध उच्च न्यायालय द्वारा निषेधाज्ञा, स्थगन या अन्य माध्यम से अंतरिम आदेश पारित किया जाता है, तो वह पक्ष ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये न्यायालय में आवेदन कर सकता है तथा ऐसे आवेदन का न्यायालय द्वारा दो सप्ताह की अवधि के अंदर निपटान किया जाना चाहिये।
  • अनुच्छेद 226(4) कहता है कि इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को दी गई शक्ति अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को दिये गए अधिकार को न्यून नहीं करनी चाहिये।
  • यह अनुच्छेद सरकार सहित किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।
  • यह केवल एक संवैधानिक अधिकार है, मौलिक अधिकार नहीं है तथा इसे आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद 226 मौलिक अधिकारों के मामले में अनिवार्य प्रकृति का है और “किसी अन्य उद्देश्य” के लिये जारी किये जाने पर विवेकाधीन प्रकृति का है।
  • यह न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करता है, बल्कि अन्य विधिक अधिकारों को भी लागू करता है।

तथ्यात्मक जाँच क्या है?

परिचय:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 2 (g) के अधीन परिभाषित जाँच का अर्थ मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा इस संहिता के अधीन किये गए अभियोजन का वाद के अतिरिक्त प्रत्येक जाँच है।
  • भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अधीन जाँच को धारा 2 (k) के अधीन परिभाषित किया गया है।
  • दोनों प्रावधानों की विषय-वस्तु एक जैसी है।
  • तथ्यात्मक जाँच केवल किसी विशेष मामले के तथ्यों से संबंधित होती है।
  • तथ्यात्मक जाँच में मौखिक साक्ष्य भी दर्ज करना निहित है।

तथ्यात्मक जाँच और COI के अनुच्छेद 226 के बीच संबंध:

  • यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि COI के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट याचिका के मामले में कोई तथ्यात्मक जाँच नहीं हो सकती है।
  • संजय कुमार झा बनाम प्रकाश चंद्र चौधरी एवं अन्य (2018) के मामले में न्यायमूर्ति आर. भानुमति तथा न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की एक उच्चतम न्यायालय की पीठ ने माना कि अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय शपथपत्रों, तथ्य के विवादित प्रश्नों पर निर्णय नहीं लेता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किये:
    • अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय शपथपत्रों, तथ्य के विवादित प्रश्नों पर निर्णय नहीं लेता है।
    • उच्च न्यायालय सक्षम प्रशासनिक प्राधिकारी द्वारा दर्ज किये गए निष्कर्षों पर अपील न्यायालय के रूप में नहीं मान सकता है, न ही तथ्य की त्रुटि को सुधारने के लिये साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन कर सकता है।
    • यहाँ तक ​​कि ऐसे मामलों में भी जहाँ स्पष्ट तथ्यात्मक त्रुटि है जो निर्णय के मूल में जाती है, कार्यवाही का उचित कारण संबंधित प्राधिकारी को त्रुटि को सुधारने का अवसर देना है।
    • यह केवल दुर्लभतम मामलों में ही होता है जहाँ तथ्यात्मक त्रुटि को विलंब, परिणामी अस्वीकृति एवं न्याय की विफलता को रोकने के लिये न्यायालय द्वारा सुधारा जा सकता है।

सिविल कानून

अचल संपत्ति का अंतरण

 15-Oct-2024

नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य

“बिक्री को संविदा के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जाता है, इसलिये अप्राप्तवय को अचल संपत्ति अंतरित करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है”

न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अप्राप्तवय व्यक्ति बिक्री विलेख के माध्यम से अचल संपत्ति प्राप्त कर सकता है, इस बात पर बल देते हुए कि इस तरह का अंतरण भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत परिभाषित संविदा नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अप्राप्तवय व्यक्ति अंतरणकर्त्ता नहीं हो सकते, लेकिन वे अंतरिती हो सकते हैं, जिससे अप्राप्तवय व्यक्ति को संपत्ति के स्वामित्व का विधिक अंतरण संभव हो जाता है।

  • न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार और संजय कुमार ने नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य के मामले में निर्णय दिया।

नीलम गुप्ता एवं अन्य बनाम राजेंद्र कुमार गुप्ता एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • राजेंद्र कुमार गुप्ता (वादी) ने 24 दिसंबर 1986 को अशोक कुमार गुप्ता एवं राकेश कुमार गुप्ता (मूल प्रतिवादी) के विरुद्ध संपत्ति के कब्जे एवं क्षति की प्रतिपूर्ति के लिये सिविल सूट नंबर 195 A/95 दायर किया।
  • वाद की संपत्ति 7.60 एकड़ जमीन है जो तहसील एवं जिला रायपुर के मोवा गांव के खसरा नंबर 867/1 में शामिल है।
  • राजेंद्र कुमार गुप्ता ने दावा किया कि उन्होंने 04 जून 1968 को स्वर्गीय श्री सीताराम गुप्ता से पंजीकृत बिक्री विलेख के माध्यम से संपत्ति खरीदी थी, जो वादी एवं प्रतिवादियों के एक ही चचेरे भाई थे।
  • वादी ने आरोप लगाया कि जुलाई 1983 में प्रतिवादियों द्वारा बेदखल किये जाने तक उन्हें भूमिस्वामी अधिकारों के अंतर्गत संपत्ति पर शांतिपूर्ण कब्ज़ा था।
  • प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि उनके पिता श्री रमेश चंद्र गुप्ता एवं वादी के पिता श्री कैलाश चंद्र गुप्ता ने 15 मार्च 1963 को अपने भतीजे स्वर्गीय श्री सीताराम गुप्ता के नाम पर वाद की संपत्ति खरीदी थी।
  • प्रतिवादियों ने दावा किया कि उनके पिता ने एक इलेक्ट्रिक पंप स्थापित किया था, एक कुआं खोदा था तथा डेयरी उद्देश्यों के लिये संपत्ति पर तीन कमरे बनाए थे।
  • प्रतिवादियों ने स्वीकार किया कि 25 दिसंबर 1967 को वादी के पिता की मृत्यु के बाद, संपत्ति 1968 में वादी के नाम पर अंतरित कर दी गई तथा राजस्व अभिलेखों में दर्ज कर दी गई, लेकिन दावा किया कि उनके पास कब्जा यथावत है।
  • प्रतिवादियों ने आरोप लगाया कि रमेश चंद्र गुप्ता एवं कैलाश चंद्र गुप्ता एक संयुक्त परिवार के सदस्य थे, जिनका फिरोजाबाद एवं रायपुर में संयुक्त रूप से चूड़ी का व्यवसाय था।
  • प्रतिवादियों ने दावा किया कि 31 मार्च 1976 को उनके पिता एवं वादी के परिवार के बीच मौखिक बंटवारा हुआ था, जिसमें संपत्ति एवं कारोबार का बंटवारा हुआ था।
  • प्रतिवादियों ने प्रतिकूल कब्जे एवं परिसीमा की दलीलें वापस ली, दावा किया कि वे 12 वर्ष से अधिक समय से वाद की संपत्ति पर कब्जा कर रहे थे।
  • यह मामला कई स्तरों की न्यायालयों में आगे बढ़ा, जिसमें ट्रायल कोर्ट, प्रथम अपीलीय न्यायालय एवं उच्च न्यायालय शामिल थे, जिनमें प्रत्येक स्तर पर विभिन्न निष्कर्ष एवं उलटफेर हुए।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि बिक्री विलेख के माध्यम से किसी अप्राप्तवय के पक्ष में अचल संपत्ति अंतरित करने पर कोई रोक नहीं है।
  • न्यायालय ने कहा कि एक अप्राप्तवय बिक्री विलेख के माध्यम से अंतरिती/स्वामी बन सकता है, क्योंकि संविदा करने में सक्षम व्यक्तियों के संबंध में भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11 के अंतर्गत प्रावधानित शर्तें लागू नहीं होती हैं, क्योंकि बिक्री को संविदा नहीं कहा जा सकता है।
  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 के अनुसार बिक्री, प्रतिफल के बदले में स्वामित्व का अंतरण है तथा यह संविदा से अलग है।
  • न्यायालय ने माना कि प्रासंगिक प्रावधानों के संयुक्त पठन से पता चलता है कि एक अप्राप्तवय अचल संपत्ति का अंतरणकर्त्ता नहीं, बल्कि अंतरिती व्यक्ति हो सकता है।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि एक बार जब संपत्ति अप्राप्तवय को अंतरित कर दी जाती है, तो वयस्क होने पर, वे उक्त संपत्ति को किसी अन्य व्यक्ति को अंतरित करने के लिये सक्षम होंगे।
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि वयस्क होने पर किसी व्यक्ति द्वारा किये गए अंतरण को केवल इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि जब संपत्ति प्रारंभ में उन्हें अंतरित की गई थी, तब वे अप्राप्तवय थे।
  • न्यायालय ने कहा कि परिसीमा अधिनियम 1963 के अनुच्छेद 65 के अंतर्गत प्रतिकूल कब्जे के दावों के लिये परिसीमा का प्रारंभिक बिंदु उस तिथि से प्रारंभ होता है, जब प्रतिवादी का कब्जा प्रतिकूल हो जाता है, न कि उस समय से जब वादी का स्वामित्व का अधिकार उत्पन्न होता है।

संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं?

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 11:

  • यह धारा परिभाषित करती है कि भारत में कौन संविदा करने के लिये सक्षम है।
  • इस विधि के अनुसार, कोई व्यक्ति संविदा करने के लिये सक्षम है यदि वह तीन मानदंडों को पूरा करता है:
    • वयस्कता की आयु: व्यक्ति को उस पर लागू विधि के अनुसार वयस्कता की आयु प्राप्त कर लेनी चाहिये। भारत में, भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के अंतर्गत यह सामान्यतः 18 वर्ष है।
    • स्वस्थ मन: व्यक्ति को स्वस्थ मन का होना चाहिये, अर्थात उसे संविदा को समझने एवं अपने हितों पर इसके प्रभाव के विषय में तर्कसंगत निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिये।
    • विधि द्वारा अयोग्य नहीं: व्यक्ति को किसी भी कानून द्वारा संविदा करने से अयोग्य नहीं ठहराया जाना चाहिये जिसके अधीन वे हैं।

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54:

  • यह खंड "बिक्री" को परिभाषित करता है तथा यह प्रावधानित करती है कि संपत्ति की बिक्री कैसे की जा सकती है।
  • बिक्री की परिभाषा: बिक्री को उस कीमत के बदले में स्वामित्व के अंतरण के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसका भुगतान किया जाता है, वादा किया जाता है, या आंशिक रूप से भुगतान किया जाता है तथा आंशिक रूप से वचन दिया जाता है।
  • अचल संपत्ति की बिक्री के लिये आवश्यकताएँ:
    • 100 रुपये या उससे अधिक मूल्य की मूर्त अचल संपत्ति के लिये, बिक्री पंजीकृत उपकरण द्वारा की जानी चाहिये।
    • 100 रुपये से कम मूल्य की मूर्त अचल संपत्ति के लिये, बिक्री पंजीकृत उपकरण द्वारा या संपत्ति का परिदान द्वारा की जा सकती है।
    • अमूर्त संपत्ति या प्रत्यावर्तन के लिये, मूल्य की चिंता किये बिना पंजीकृत उपकरण की आवश्यकता होती है।
  • अचल संपत्ति का परिदान: यह तब होता है जब विक्रेता खरीदार (या खरीदार द्वारा नामित व्यक्ति) को संपत्ति का कब्ज़ा सौंपता है।
  • बिक्री के लिये संविदा: इसे एक करार के रूप में परिभाषित किया जाता है कि बिक्री पक्षकारों द्वारा सहमत शर्तों पर होगी। हालाँकि, बिक्री के लिये संविदा, अपने आप में, संपत्ति पर कोई ब्याज या शुल्क नहीं बनाता है।

 परिसीमा अधिनियम, 1963 का अनुच्छेद 65:

  • यह अनुच्छेद अचल संपत्ति या उसमें शीर्षक के आधार पर किसी भी हित के कब्जे के लिये वाद संस्थित करने की परिसीमा अवधि बताता है।
  • परिसीमा अवधि: इस तरह का वाद संस्थित करने की समय सीमा 12 वर्ष है।
  • परिसीमा अवधि की शुरुआत: 12 वर्ष की अवधि तब प्रारंभ होती है जब प्रतिवादी का कब्जा वादी के प्रतिकूल हो जाता है।
    • प्रतिकूल कब्जा तब होता है जब कोई व्यक्ति किसी संपत्ति पर सार्वजनिक रूप से, लगातार एवं स्वामी की अनुमति के बिना एक निश्चित अवधि तक कब्जा करता है।
  • ये विधिक प्रावधान भारतीय संपत्ति एवं संविदा विधि में महत्त्वपूर्ण हैं, जो संविदा करने की योग्यता, संपत्ति की बिक्री की प्रक्रिया एवं संपत्ति के कब्जे से संबंधित विधिक कार्यवाही करने की समय सीमा को नियंत्रित करते हैं।