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आपराधिक कानून
धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के अधीन ज़मानत
« »01-Aug-2024
रामकृपाल मीना बनाम प्रवर्तन निदेशालय “इस मामले के विशिष्ट तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिनियम की धारा 45 के अनुसार याचिकाकर्त्ता को सशर्त ज़मानत प्रदान करने के लिये उचित राहत प्रदान की जा सकती है”। न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सूर्यकांत एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ की पीठ ने धन शोधन के एक मामले में आरोपी को ज़मानत दे दी।
- उच्चतम न्यायालय ने रामकृपाल मीना बनाम पोर्टफोलियो मामले में यह निर्णय दिया।
रामकृपाल मीना बनाम प्रवर्तन निदेशालय मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ता स्कूल में प्रबंधक के पद पर कार्यरत था तथा उसे REET परीक्षा के समन्वयक का सहायक नियुक्त किया गया था।
- स्ट्राँग रूम में रखे प्रश्न-पत्र तक उसकी पहुँच थी। याचिकाकर्त्ता पर आरोप है कि उसने कॉपी ले ली और उसे अन्य सह-आरोपियों को वितरित कर दिया।
- याचिकाकर्त्ता को पाँच करोड़ रुपए की रिश्वत मिलनी थी, जिसमें से जाँच अधिकारियों ने विभिन्न व्यक्तियों से 1,77,80,000/- (एक करोड़ सत्तर लाख अस्सी हज़ार रुपए) की राशि सफलतापूर्वक बरामद कर ली है।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR), राजस्थान सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 1992 की धारा 4/6 तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420, 120B के अधीन दर्ज की गई थी।
- दूसरी FIR, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(2)(v) तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302, धारा 365 एवं धारा 120B के अधीन दर्ज की गई थी।
- इसके बाद, अपराध की प्रक्रिया का पता लगाने और संदिग्ध व्यक्तियों की भूमिका का पता लगाने के लिये धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के अधीन प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा जाँच प्रारंभ की गई थी।
- इस मामले में न्यायालय के समक्ष ज़मानत याचिका धन शोधन मामले के संबंध में थी।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में न्यायालय ने पाया कि शिकायत का मामला आरोप तय करने के चरण में है और 24 गवाहों से पूछताछ प्रस्तावित है।
- इस प्रकार कार्यवाही पूरी होने में कुछ उचित समय लगेगा। साथ ही, याचिकाकर्त्ता एक साल से अधिक समय से हिरासत में है।
- कोर्ट ने निम्नलिखित कारकों पर विचार करते हुए ज़मानत दी:
- अभिरक्षा में बिताई गई अवधि
- अल्प अवधि में विचारण के समापन की कोई संभावना नहीं
- याचिकाकर्त्ता पहले से ही संबंधित अपराध में ज़मानत पर है
- विचित्र तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए
- उच्चतम न्यायालय ने अंततः इस शर्त के साथ ज़मानत प्रदान की कि याचिकाकर्त्ता साक्षियों से संपर्क करने का प्रयास नहीं करेगा तथा अचल संपत्तियों आदि की सूची प्रस्तुत करेगा।
धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के अधीन ज़मानत का प्रावधान क्या है?
- धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) की धारा 45 धन शोधन के अपराध में आरोपित अभियुक्त को ज़मानत देने के लिये पूरी की जाने वाली शर्तें निर्धारित करती है।
- PMLA की धारा 45 में प्रावधान है कि किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को तब तक ज़मानत पर रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि
- लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; तथा
- जहाँ लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय संतुष्ट है कि इस विरोध को मानने के लिये उचित आधार हैं,
- कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है तथा
- कि ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है
- इसके अतिरिक्त, यह धारा यह भी प्रावधान करती है कि ये शर्तें उस स्थिति में लागू नहीं होंगी जब व्यक्ति बीमार या अशक्त हो।
- धारा यह भी प्रावधान करती है कि ज़मानत देने पर यह सीमा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) या ज़मानत देने पर वर्तमान में लागू किसी अन्य विधि के अंतर्गत निर्दिष्ट सीमाओं के अतिरिक्त है।
PMLA की धारा 45 का विकास:
- निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ (2018):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने PMLA की धारा 45 को इस आधार पर अपास्त कर दिया कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मनमाना एवं उल्लंघनकारी है।
- इसका मुख्य कारण यह था कि इसने धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) से संबंधित अपराधों के बजाय PMLA की अनुसूची के भाग A में सूचीबद्ध अपराधों के संबंध में ज़मानत देने के लिये कठोर शर्तें लगाने की मांग की थी।
- वित्त अधिनियम, 2018 द्वारा धारा 45 में किये गए संशोधन:
- वित्त अधिनियम, 2018 द्वारा किये गए संशोधन के माध्यम से “अनुसूची के भाग A” शब्द समूह को “इस अधिनियम के अधीन” अभिव्यक्ति द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
- इसके बाद PMLA की धारा 45 की भाषा को अन्य विशेष विधियों के तुल्य किया गया।
धारा 45 ( संशोधन से पूर्व) |
धारा 45 ( संशोधन के पश्चात्) |
(1) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी तथ्य के होते हुए भी, अनुसूची के भाग-A के अधीन तीन वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध का अभियुक्त कोई व्यक्ति ज़मानत पर या अपने स्वयं के बंधपत्र पर तब तक रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि - (i) लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; तथा (ii) जहाँ लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय को विश्वास है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और यह कि ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है। |
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी तथ्य के होते हुए भी, अनुसूची के भाग-A के अधीन तीन वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध का अभियुक्त कोई व्यक्ति ज़मानत पर या अपने स्वयं के बंधपत्र पर तब तक रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि- (i) लोक अभियोजक को ऐसी रिहाई के लिये आवेदन का विरोध करने का अवसर दिया गया है; तथा (ii) जहाँ लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है, न्यायालय को विश्वास है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और यह कि ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है। |
- विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ (2022):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने 2018 के संशोधन के बाद PMLA की धारा 45 की संवैधानिक वैधता को यथावत् रखा।
- न्यायालय ने माना कि 2018 के संशोधन के बाद PMLA की धारा 45 के रूप में प्रावधान उचित है तथा इसका 2002 अधिनियम द्वारा प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्यों एवं लक्ष्य के साथ सीधा संबंध है और यह किसी भी तरह से मनमाना नहीं है।
- जहाँ तक ज़मानत देने की प्रार्थना का प्रश्न है, कार्यवाही की प्रकृति चाहे जो भी हो, जिसमें 1973 संहिता की धारा 438 के तहत या यहाँ तक कि संवैधानिक न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करने पर भी, धारा 45 के अंतर्निहित सिद्धांत एवं कठोरताएँ लागू हो सकती हैं।
- 1973 संहिता की धारा 436 A के लाभकारी प्रावधान को 2002 अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये गिरफ्तार अभियुक्त द्वारा लागू किया जा सकता है।
- समीक्षा याचिका:
- विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ (2022) के उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध समीक्षा याचिका दायर की गई है।
- समीक्षा के लिये कई आधार हैं। हालाँकि PMLA की धारा 45 से संबंधित आधार इस प्रकार है:
- निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ (2018) के निर्णय में न्यायालय द्वारा दोहरा परीक्षण को असंवैधानिक माना गया था। हालाँकि निर्णय ने इस निर्णय के निष्कर्षों को निरस्त कर दिया है तथा दोहरी शर्तों को बहाल कर दिया है।
- तर्क यह दिया गया है कि ऐसी शर्तों का उल्लेख अन्य विधियों में भी किया गया है।
- हालाँकि यह ध्यान देने वाली बात है कि ऐसे सभी अन्य विधि जिनमें ऐसी दोहरी शर्तें शामिल हैं, वे उन अपराधों से संबंधित हैं जिनमें अंग या जीवन की हानि शामिल है और आमतौर पर आतंक से संबंधित होते हैं।
- इसके अतिरिक्त, अन्य अपराधों में CrPC के प्रावधानों का संरक्षण मौजूद है। हालाँकि इस अधिनियम के अधीन ऐसा नहीं है, जहाँ आरोपी को वास्तविक गिरफ्तारी के बाद अपनी गिरफ्तारी के आधार का पता चलता है।
- इसके अतिरिक्त, निर्णय में यह भी कहा गया है कि अग्रिम ज़मानत आवेदनों के मामले में भी दोहरी जाँच लागू होगी।
- तरसेम लाल बनाम प्रवर्तन निदेशालय जालंधर जोनल कार्यालय (2024):
- न्यायालय ने इस मामले में माना कि यदि अभियुक्त समन के अनुसरण में विशेष न्यायालय के समक्ष उपस्थित होता है, तो यह नहीं माना जा सकता कि वह अभिरक्षा में है।
- इसलिये, यहाँ अभियुक्त के लिये ज़मानत हेतु आवेदन करना आवश्यक नहीं है।
- हालाँकि विशेष न्यायालय अभियुक्त को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 88 के अधीन एक बॉण्ड निष्पादित करने का निर्देश दे सकता है। CrPC की धारा 88 के अधीन बॉण्ड स्वीकार करने का आदेश ज़मानत देने के तुल्य नहीं है तथा इसलिये ज़मानत देने की दोहरी शर्तें यहाँ लागू नहीं होती हैं।