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आपराधिक कानून
अभिरक्षा आदेश
« »08-Aug-2024
तुषारभाई रजनीकांतभाई शाह बनाम गुजरात राज्य “न्यायालयों से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे जाँच एजेंसियों के संदेश-दूत के रूप में कार्य करें तथा रिमांड आवेदनों को नियमित रूप से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये”। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि पुलिस अभिरक्षा रिमांड देने की शक्ति का प्रयोग करने से पहले न्यायालयों को न्यायिक विवेक का प्रयोग करना चाहिये।
तुषारभाई रजनीकांतभाई शाह बनाम गुजरात राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- याचिकाकर्त्ता को प्रथम सूचना रिपोर्ट में आरोपी बनाया गया था, जहाँ याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध आरोप लगाया गया था कि उसने 15 दुकानों की विक्रय के हेतु 65 करोड़ रुपए नकद प्राप्त किये थे, परंतु इसका कब्ज़ा शिकायतकर्त्ता को नहीं सौंपा गया था।
- याचिकाकर्त्ता ने अपनी गिरफ्तारी की आशंका से अग्रिम ज़मानत की मांग की और उच्च न्यायालय के समक्ष आवेदन दायर किया।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को अंतरिम अग्रिम ज़मानत प्रदान की।
- इसके उपरांत याचिकाकर्त्ता को न्यायालय में उपस्थिति हेतु नोटिस जारी किया गया और उसके अनुपालन में वह 6वें अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट सूरत के समक्ष उपस्थित हुआ, जिस दिन पुलिस अधिकारी ने एक आवेदन दायर कर सात दिनों के लिये उसकी पुलिस अभिरक्षा की मांग की।
- याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा दी गई इस प्रभावशाली दलील के बावजूद कि उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को अंतरिम संरक्षण प्रदान करते हुए जाँच अधिकारी को पुलिस अभिरक्षा रिमांड मांगने की कोई स्वतंत्रता नहीं दी, 6वें अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रतिवादी अवमाननाकर्त्ता संख्या 7) ने याचिकाकर्त्ता को पुलिस अभिरक्षा में भेज दिया।
- इस प्रकार, भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 129 के साथ न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 12 के अधीन एक याचिका दायर की गई थी:
- जाँच अधिकारी जिसने रिमांड के लिये आवेदन दायर किया।
- 6वें अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट जिसने पुलिस अभिरक्षा स्वीकार की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि न्यायालय द्वारा पारित आदेश के आलोक में यदि जाँच अधिकारी को लगता है कि पुलिस अभिरक्षा मांगने के लिये वास्तविक आधार थे, तो उचित रास्ता इस न्यायालय से संपर्क करना होता, न कि मजिस्ट्रेट से संपर्क करना होता।
- न्यायालय ने कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र के अनुसार पुलिस अभिरक्षा रिमांड देने के अधिकार का प्रयोग करने से पहले न्यायालयों को न्यायिक विवेक का प्रयोग करना चाहिये, ताकि वे इस निष्कर्ष पर पहुँच सकें कि क्या पुलिस अभिरक्षा रिमांड की वास्तव में आवश्यकता है।
- इस प्रकार, इस मामले में न्यायालय ने माना कि निम्नलिखित लोग न्यायालय की अवमानना के लिये उत्तरदायी हैं:
- जाँच अधिकारी जिसने पुलिस अभिरक्षा के लिये आवेदन किया।
- मजिस्ट्रेट जिसने उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करते हुए पुलिस अभिरक्षा स्वीकार की।
अभिरक्षा के प्रकार क्या हैं?
- पुलिस अभिरक्षा:
- जब पुलिस अधिकारी आरोपी को पुलिस थाने लाता है तो उसे पुलिस अभिरक्षा कहा जाता है।
- पुलिस अभिरक्षा के मामले में, पुलिस के पास अभियुक्त की भौतिक अभिरक्षा होती है।
- इसमें आरोपी को पुलिस थाने की हवालात में बंद कर दिया जाता है।
- पुलिस अभिरक्षा का उद्देश्य पुलिस को अभिरक्षा में पूछताछ के माध्यम से साक्ष्य एकत्र करने का साधन प्रदान करना है।
- न्यायिक अभिरक्षा:
- इसका अर्थ है कि आरोपी संबंधित मजिस्ट्रेट की अभिरक्षा में है।
- इसमें आरोपी जेल में बंद कर दिया जाता है।
- न्यायिक अभिरक्षा की अनुमति देने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त साक्ष्यों से छेड़छाड़ न करे, साक्षियों को धमका न सके या भाग न सके।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) के अधीन अभिरक्षा का प्रावधान क्या है?
- धारा 187 (1) में प्रावधान है कि:
- जब भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है या अभिरक्षा में लिया जाता है,
- जब ऐसा प्रतीत होता है कि जाँच धारा 58 द्वारा निर्धारित 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं की जा सकती,
- और यह मानने के लिये आधार हैं कि जानकारी या आरोप प्रबल हैं,
- पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी (उपनिरीक्षक के पद से नीचे का नहीं) तत्काल निकटतम मजिस्ट्रेट को सूचित करेगा।
- डायरी में की गई प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि प्राप्त करेगा और साथ ही अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।
- धारा 187 (2) में प्रावधान है कि:
- वह मजिस्ट्रेट जिसके पास इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त को भेजा जाता है
- चाहे उसके पास क्षेत्राधिकार हो या न हो
- इस बात पर विचार करने के बाद कि क्या ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा नहीं किया गया है या उसकी ज़मानत रद्द कर दी गई है
- समय-समय पर ऐसी अभिरक्षा में रखने को अधिकृत करें जैसा कि मजिस्ट्रेट उचित समझे
- पूरे या आंशिक रूप से पंद्रह दिनों से अधिक अवधि के लिये
- उपधारा (3) में दिये गए अनुसार, 60 दिनों या 90 दिनों की प्रारंभिक 40 दिनों या 60 दिनों की अभिरक्षा अवधि के दौरान किसी भी समय।
- और यदि उसे मामले का विचारण करने या उसे विचारण के लिये सौंपने की अधिकारिता नहीं है तथा वह आगे निरुद्ध रखना अनावश्यक समझता है, तो वह अभियुक्त को ऐसी क्षेत्राधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट के पास भेजने का आदेश दे सकता है।
- धारा 187 (3) में प्रावधान है:
- मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति को पंद्रह दिन की अवधि से अधिक समय तक अभिरक्षा में रखने का अधिकार दे सकता है, यदि वह संतुष्ट हो कि ऐसा करने के लिये पर्याप्त आधार मौजूद हैं।
- परंतु कोई भी मजिस्ट्रेट इस उपधारा के अधीन अभियुक्त व्यक्ति को कुल अवधि से अधिक के लिये अभिरक्षा में रखने का अधिकार नहीं देगा:
- नब्बे दिन, जहाँ जाँच मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय अपराध से संबंधित हो;
- साठ दिन, जहाँ जाँच किसी अन्य अपराध से संबंधित हो
- और, यथास्थिति, 90 दिन या 60 दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर, अभियुक्त व्यक्ति को ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा यदि वह ज़मानत देने के लिये तैयार है और देता है, और इस उपधारा के अधीन ज़मानत पर रिहा किया गया प्रत्येक व्यक्ति उस अध्याय के प्रयोजनों के लिये अध्याय 35 के उपबंधों के अधीन रिहा किया गया समझा जाएगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 167 और BNSS की धारा 187 के बीच क्या समानताएँ और अंतर हैं?
स्थिति |
CrPC की धारा 167 |
BNSS की धारा 187 |
निरुद्धि अवधि |
धारा 57 द्वारा 24 घंटे निर्धारित |
धारा 58 द्वारा 24 घंटे निर्धारित |
मजिस्ट्रेट की भूमिका |
अभियुक्त को निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजें |
अभियुक्त को निकटतम मजिस्ट्रेट के पास भेजें |
मजिस्ट्रेट द्वारा प्रारंभिक अभिरक्षा |
अधिकतम 15 दिनों की अवधि के लिये अभिरक्षा को अधिकृत करना |
अधिकतम 15 दिनों की अवधि के लिये अभिरक्षा को अधिकृत करना |
विस्तारित अभिरक्षा के लिये शर्तें |
यदि पर्याप्त आधार मौजूद हों तो 15 दिनों से अधिक समय के लिये प्राधिकृत किया जा सकता है, जो 90 या 60 दिनों से अधिक नहीं होना चाहिये |
यदि पर्याप्त आधार मौजूद हों तो 15 दिनों से अधिक की अवधि के लिये प्राधिकृत किया जा सकता है, जिसमें कुल 60/90 दिनों में से आरंभिक 40/60 दिनों के लिये विस्तृत शर्तें शामिल हैं |
विस्तारित अभिरक्षा सीमा |
- मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिये 90 दिन - अन्य अपराधों के लिये 60 दिन |
- मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिये 90 दिन - अन्य अपराधों के लिये 60 दिन |
ज़मानत पर विचार |
यदि 90 या 60 दिन बाद ज़मानत देने के लिये तैयार हों तो ज़मानत पर रिहा किया जाएगा |
यदि 90 या 60 दिन बाद ज़मानत देने के लिये तैयार हों तो ज़मानत पर रिहा किया जाएगा |
अनुप्रयोज्य ज़मानत अध्याय |
CrPC का अध्याय XXXIII |
BNSS का अध्याय XXXV |
पुलिस अभिरक्षा के संबंध में क्या विधान हैं?
- केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, विशेष जाँच प्रकोष्ठ- I, नई दिल्ली बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1992)
- CrPC की धारा 167 की योजना का उद्देश्य अभियुक्तों को उन तरीकों से बचाना है जो “कुछ अति उत्साही और बेईमान पुलिस अधिकारियों” द्वारा अपनाए जा सकते हैं।
- इस मामले में यह माना गया कि पुलिस अभिरक्षा केवल पहले 15 दिनों तक ही सीमित रहेगी।
- यह ध्यान देने योग्य है कि बाद में वी. सेंथिल बालाजी बनाम राज्य (2023) के मामले में न्यायालय द्वारा इस स्थिति पर संदेह जताया गया था। वास्तव में BNSS ने इस स्थिति को समाप्त कर दिया है। BNSS के लागू होने के बाद भी इस बिंदु के विषय में कुछ अस्पष्टता बनी हुई है। (और पढ़ें: BNSS की धारा 187 के साथ समस्याएँ)
- प्रवर्तन निदेशालय बनाम दीपक महाजन (1994)
- न्यायालय ने माना कि धारा 167 (2) में प्रयुक्त शब्द ‘रिमांड’ गलत है, क्योंकि रिमांड केवल उसी अभिरक्षा में हो सकता है, जहाँ से गिरफ्तार व्यक्ति को रिहा किया गया था।
- हालाँकि धारा 167 (2) के अधीन अभिरक्षा का पहला आदेश मामले की आवश्यकता के आधार पर या तो “पुलिस अभिरक्षा” या “न्यायिक अभिरक्षा” हो सकता है।