बलात्संग पीड़िता का निजता का अधिकार
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बलात्संग पीड़िता का निजता का अधिकार

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 22-Aug-2024

किन्नोरी घोष एवं अन्य बनाम भारत संघ

“फोटोग्राफ एवं वीडियो क्लिप को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तत्काल हटा दिया जाएगा”।

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने बलात्संग पीड़िता की तस्वीरों तथा वीडियो क्लिप के प्रसार पर रोक लगाने के लिये निषेधाज्ञा जारी की।    

किन्नोरी घोष बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में पश्चिम बंगाल के एक अस्पताल में महिला डॉक्टर के साथ बलात्संग और उसकी मृत्यु के उपरांत बार के सदस्यों द्वारा भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत एक रिट दायर की गई थी।
  • उल्लेखनीय है कि उपरोक्त वीभत्स घटना के उपरांत मृतका का नाम और संबंधित हैशटैग मेटा (इंस्टाग्राम और फेसबुक), गूगल (यूट्यूब) और एक्स (पूर्व में ट्विटर) सहित इलेक्ट्रॉनिक तथा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर व्यापक रूप से प्रकाशित किये गए हैं।
  • दरअसल मृतका के शव की तस्वीरें एवं वीडियो क्लिप सोशल मीडिया में प्रसारित हो रही थीं।
  • इस प्रकार, उपरोक्त पर रोक लगाने के लिये एक रिट याचिका दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि उपरोक्त कृत्य निपुण सक्सेना एवं अन्य बनाम भारत संघ (2019) का उल्लंघन थे।
  • इसके अतिरिक्त, यह भी उल्लिखित किया गया कि बलात्संग पीड़िता की निजता की सुरक्षा के संबंध में 16 जनवरी 2019 को केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा एक निर्देश भी जारी किया गया था।
  • तद्नुसार, न्यायालय ने मृतका का नाम, तस्वीरें और वीडियो को सोशल मीडिया में प्रसारित होने से रोकने के लिये निषेधाज्ञा जारी की। 

बलात्संग पीड़िता का निजता का अधिकार क्या है?

  • COI के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता का अधिकार
    • संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
    • निजता के अधिकार को कहीं भी मौलिक अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि न्यायालयों ने समय-समय पर माना है कि निजता का अधिकार मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 से आता है।
    • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2017) के ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से माना था कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है।
    • हालाँकि इस मामले में यह भी माना गया कि निजता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है और इस पर कुछ प्रतिबंध भी लागू हैं।
    • न्यायालय ने माना कि इस अधिकार को राज्य की कार्यवाही द्वारा प्रतिबंधित किया जा सकता है जो निम्नलिखित तीन परीक्षणों को पारित करता है:
      • सबसे पहले, राज्य की कार्यवाही के लिये विधायी जनादेश होना चाहिये। 
      • दूसरे, इसे एक वैध उद्देश्य का अनुसरण करना चाहिये।
      • तीसरा, यह आनुपातिक होना चाहिये अर्थात् राज्य की कार्यवाही लक्ष्य प्राप्ति के लिये उपलब्ध विकल्पों में से सबसे कम हस्तक्षेपकारी होनी चाहिये। 
  • बलात्संग पीड़िता के निजता के अधिकार की रक्षा की आवश्यकता
    • समाज में पीड़ित को शर्मिंदा करने की धारणा
      • दुर्भाग्यवश, हमारे समाज में निर्दोष होने के बावजूद पीड़िता को 'अछूत' समझा जाता है तथा समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
      • बलात्संग का अपराध परिवार के ‘सम्मान’ से जुड़ा हुआ है और समाज में मौजूद ऐसी धारणाओं के कारण ऐसे कई मामले दर्ज नहीं कराए जाते।
      • शिकायत दर्ज होने के बाद भी इस बात की पूरी संभावना रहती है कि पुलिस पीड़िता को परेशान करेगी तथा उससे धमकाने वाले प्रश्नों से पूछताछ करेगी।
      • यहाँ तक ​​कि न्यायालय में सुनवाई के दौरान भी पीड़ित से कठोर प्रश्न किये जाते हैं, जिससे कभी-कभी पीड़िता का चरित्र हनन भी हो जाता है। 
    • पीड़िता के लिये समाज में पुनः एकीकृत होना कठिन
      • बलात्संग की शिकार महिला को अक्सर विवाह करने, नौकरी पाने या सामान्य मनुष्य की भाँति समाज में घुलने-मिलने में कठिनाई होती है।
      • हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में पर्याप्त साक्षी संरक्षण कार्यक्रम का अभाव है, इसलिये पीड़ित को संरक्षण प्रदान करने तथा उसकी पहचान की रक्षा करने की अधिक आवश्यकता है।
  • निपुण सक्सेना बनाम भारत संघ (2019) में दिशा-निर्देश
    • इस मामले में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर की उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने बलात्संग पीड़िता की निजता की रक्षा के लिये कुछ दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
    • उल्लेखनीय है कि ये दिशा-निर्देश केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा 16 जनवरी 2019 को जारी निर्देशों पर आधारित हैं। 

क्रम  संख्या

निपुण सक्सेना मामले में दिशा-निर्देश

1.

कोई भी व्यक्ति प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोशल मीडिया आदि पर कोई भी सामग्री मुद्रित या प्रकाशित नहीं करेगा।

  • पीड़िता का नाम या
  • किसी भी ऐसे तथ्य का प्रकटन न करें, चाहे वह दूर से भी क्यों न हो, जिससे पीड़िता की पहचान हो सके तथा पीड़िता की पहचान सामान्य जनता को ज्ञात हो जाए।

2.

यदि पीड़िता की पहचान उसके निकटतम संबंधी की अनुमति से भी प्रकट नहीं की जाएगी, तो पीड़िता की पहचान प्रकट नहीं की जाएगी:

  • मृत
  • या चित्त विकृत

इन मामलों में पहचान का प्रकटन केवल तभी किया जा सकता है जब परिस्थितियाँ ऐसे प्रकटन को उचित ठहराती हों और इसका निर्णय सक्षम प्राधिकारी द्वारा किया जाएगा जो वर्तमान में सत्र न्यायाधीश हैं।

3.

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376DB एवं 376E  तथा POCSO के अन्य अपराधों से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाएगी।

4.

यदि पीड़िता द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 372 के अधीन अपील दायर की जाती है, तो पीड़िता को अपनी पहचान बताना आवश्यक नहीं है।

5.

पुलिस अधिकारी को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि जिन दस्तावेज़ों  में पीड़िता का नाम बताया गया है, उन्हें सीलबंद लिफाफे में रखा जाए।

6.

सभी प्राधिकारी जिनके समक्ष जाँच एजेंसी या न्यायालय द्वारा पीड़िता का नाम बताया जाता है, उनका यह कर्त्तव्य है कि वे इसे गुप्त रखें और इसका प्रकटन न करें।

7.

मृत या मानसिक रूप से अस्वस्थ पीड़िता की पहचान के प्रकटीकरण को अधिकृत करने के लिये निकटतम संबंधी द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 228 A (2) (c) के अधीन सत्र न्यायाधीश को आवेदन किया जाना चाहिये, जब तक कि सामाजिक कल्याण संस्थानों या संगठनों की पहचान नहीं हो जाती।

8.

POCSO के अंतर्गत आने वाले मामले में, पहचान का प्रकटन केवल विशेष न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है, यदि यह बच्चे के हित में हो।

9.

सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को एक वर्ष के भीतर प्रत्येक ज़िले में कम-से-कम ‘वन स्टॉप सेंटर’ स्थापित करना होगा।

बलात्संग पीड़िता के निजता के अधिकार के संबंध में प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • IPC और BNS के तहत प्रावधान
    • IPC की धारा 228A: कुछ अपराधों में पीड़ित की पहचान का प्रकटन 
      • इसे 25 दिसंबर 1983 से भारतीय दण्ड संहिता संशोधन अधिनियम संख्या 43, 1983 के अंतर्गत जोड़ा गया।
      • धारा 1 में यह प्रावधान है कि
        • यह धारा किसी भी ऐसे व्यक्ति पर लागू होती है जो मुद्रण या प्रकाशन करता है
          • नाम 
          • या कोई अन्य मामला जिससे किसी ऐसे व्यक्ति की पहचान ज्ञात हो सके जिसके विरुद्ध नीचे निर्दिष्ट अपराध किये गए हैं।
        • वे अपराध जिनके संबंध में यह धारा लागू होती है, वे हैं:
          • धारा 376
          • धारा 376A
          • धारा 376AB
          • धारा 376 B
          • धारा 376 C
          • धारा 376 D
          • धारा 376DA
          • धारा 376DB
        • ऐसा व्यक्ति जो उपर्युक्त अपराध करेगा, उसे दो वर्ष के कारावास के दण्ड के साथ-साथ अर्थदण्ड भी देना होगा।
      • उपर्युक्त खंड 1 वहाँ लागू नहीं होगा जहाँ प्रकटीकरण निम्नलिखित परिस्थितियों में होता है:
        • मुद्रण या प्रकाशन पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी या सद्भावपूर्वक अपराध की जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी के लिखित आदेश से या उसके अधीन होता है।
        • मुद्रण या प्रकाशन पीड़िता की लिखित अनुमति से या उसके द्वारा किया जाएगा।
        • जहाँ पीड़िता की मृत्यु हो गई हो या वह अवयस्क हो या मानसिक रूप से अस्वस्थ हो, वहाँ पीड़िता के निकटतम संबंधी द्वारा या उसकी लिखित अनुमति से:
      • इस प्रावधान में यह दिया गया है कि यहाँ दिये गए प्राधिकार किसी मान्यता प्राप्त कल्याणकारी संस्था या संगठन के अध्यक्ष या सचिव के अतिरिक्त किसी अन्य को भी दिये जाने चाहिये।
      • खंड 3 में दण्ड का प्रावधान है, जहाँ उपरोक्त अपराधों से संबंधित कार्यवाही न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना मुद्रित या प्रकाशित की जाती है। 
        • यहाँ दो वर्ष के कारावास और अर्थदण्ड का प्रावधान है।
      • यहाँ जोड़ा गया स्पष्टीकरण यह बताता है कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को मुद्रित करना इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं है।
    • भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 72 (BNS)
      • BNS की यह धारा, IPC की धारा 228A का शब्दशः पुनरुत्पादन है।
  • प्रक्रियात्मक विधि के अंतर्गत प्रावधान
    • CrPC की धारा 327: खुला न्यायालय 
      • धारा 327 के खंड 2 में प्रावधान है कि IPC की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C,376D,376DA,376DB के अधीन अपराधों की सुनवाई बंद कमरे में की जाएगी।
      • इस प्रावधान के साथ दो प्रावधान जुड़े हुए हैं:
        • प्रावधान 1: पीठासीन न्यायाधीश आवेदन किये जाने पर किसी विशेष व्यक्ति को न्यायालय द्वारा प्रयुक्त कक्ष या भवन में प्रवेश करने, रहने या रहने की अनुमति दे सकता है।
        • प्रावधान 2: जहाँ तक ​​संभव हो, बंद कमरे में सुनवाई महिला न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा की जाएगी।
      • इसके अतिरिक्त, धारा 327 के खंड 3 में यह प्रावधान है कि न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना ऐसी किसी कार्यवाही से संबंधित किसी भी मामले को छापना या प्रकाशित करना वैध नहीं होगा।
      • इस धारा की शर्त यह है कि उपरोक्त प्रतिबंध पक्षों के नाम और पते की गोपनीयता बनाए रखने के अधीन लगाया जा सकता है।
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 366     
      • धारा 366 (2) CrPC की धारा 327 (2) का पुनरुत्पादन है।
      • अंतर केवल इतना है कि BNSS की धारा 366 (2) में निम्नलिखित अपराधों की सुनवाई बंद कमरे में होगी:
      • BNS की धारा 64 से धारा 68 (बलात्संग से संबंधित)
      • BNS की धारा 70, 71 (सामूहिक बलात्संग और बार-बार अपराध करने वालों से संबंधित)
      • यौन अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 4,6,8,10।