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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

अभिवहन अग्रिम ज़मानत

 21-Nov-2023

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रिया इंदौरिया बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय के पास अभिवहन अग्रिम ज़मानत देने की शक्ति होगी, भले ही प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) उसके क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में नहीं बल्कि एक अलग राज्य में दर्ज की गई हो।

प्रिया इंदौरिया बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • शिकायतकर्त्ता (पत्नी) ने 11 दिसंबर, 2020 को अभियुक्त (पति) से शादी कर ली और बंगलुरु में रहने लगी।
  • शिकायतकर्त्ता दहेज की मांग को लेकर उत्पीड़न, प्रताड़ना व मारपीट की शिकार थी और यह उत्पीड़न व प्रताड़ना 11 दिसंबर, 2020 से 06 जुलाई, 2021 तक जारी रही।
  • इसके बाद 11 जून, 2021 को शिकायतकर्त्ता के पिता को उसे वापस चिड़ावा, राजस्थान लाने के लिये मजबूर होना पड़ा।
  • शिकायतकर्त्ता ने भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के प्रावधानों के तहत दंडनीय अपराधों के लिये FIR दर्ज की।
  • इसके बाद अभियुक्त और उसके परिवार के सदस्यों ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure- CrPC) की धारा 438 के तहत अग्रिम ज़मानत में राहत मांगी।
  • बंगलुरु सिटी के अतिरिक्त सिटी सिविल और सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त तथा उसके परिवार के सदस्यों द्वारा की गई अग्रिम ज़मानत की अर्ज़ी को स्वीकार कर लिया।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने अभियुक्त और उसके परिवार के सदस्यों को अग्रिम ज़मानत दे दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है तथा सीमित अग्रिम ज़मानत के लिये याचिका पर विचार कर सकता है, भले ही FIR उसके क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में दर्ज न की गई हो और यह मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर हो।
  • न्यायालय आगे कहता है कि यदि गिरफ्तारी की आशंका वाला अभियुक्त अग्रिम ज़मानत प्राप्त करने का प्रयास करता है, लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि FIR उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में दर्ज नहीं की गई है, जैसा भी मामला हो, कम से कम अभिवहन अग्रिम ज़मानत देने के लिये अभियुक्त के मामले पर विचार करन चाहिये, जो कि सीमित अवधि की अंतरिम सुरक्षा है, जब तक कि ऐसा अभियुक्त पूर्ण अग्रिम ज़मानत के अनुरोध के लिये सक्षम सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, से संपर्क नहीं करता है।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि यदि क्षेत्रीय अधिकारिता के एकमात्र आधार पर अभिवहन ज़मानत आवेदन को खारिज़ कर दिया जाता है, तो यह CrPC की धारा 438 के तहत शक्तियों पर प्रतिबंध लगा देगा। इसका परिणाम न्याय में निष्फलता होगा तथा यह एक उपहास का विषय बन जाएगा, जिससे गिरफ्तारी की आशंका वाले अभियुक्त की प्रतिकूलता बढ़ जाएगी। यह न्याय तक पहुँच के सिद्धांतों के भी विरुद्ध होगा।

अभिवहन अग्रिम ज़मानत क्या है?

  • परिचय:
    • इस प्रकार की ज़मानत में आरोपी को गिरफ्तारी से तब तक बचाया जा सकता है जब तक कि वह कथित अपराध के लिये क्षेत्रीय अधिकारिता वाले न्यायालय में नहीं पहुँच जाता।
    • अभिवहन अग्रिम ज़मानत वाक्यांश CrPC या किसी अन्य कानून के तहत परिभाषित नहीं है।
    • उच्चतम न्यायालय ने असम राज्य बनाम ब्रोजेन गोगोल (1998) के मामले में अभिवहन अग्रिम ज़मानत का दृष्टिकोण अपनाया था।
    • यह एक अलग राज्य में रहने वाले अभियुक्त को अग्रिम ज़मानत लेने में सक्षम बनाने के लिये न्यायसंगत और अंतरिम राहत प्रदान करता है।
    • यह एक विशिष्ट समय अवधि के लिये दिया जाता है, जब तक कि आवेदक अपराध का संज्ञान लेने वाले न्यायालय के समक्ष अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन नहीं कर सकता।
  • अभिवहन अग्रिम ज़मानत के लिये शर्तें:
    • सीमित अग्रिम ज़मानत के आदेश पारित करने से पूर्व जाँच अधिकारी और लोक अभियोजक को न्यायालय द्वारा नोटिस जारी किया जाएगा तथा न्यायालय के पास अंतरिम अग्रिम ज़मानत देने का विवेक होगा।
    • अनुदान के आदेश में उन कारणों को दर्ज किया जाना चाहिये जिनमें आवेदक को अंतर-राज्य गिरफ्तारी की आशंका है तथा अंतरिम अग्रिम ज़मानत का प्रभाव जाँच की स्थिति पर पड़ सकता है।
    • जिस अधिकारिता में अपराध का संज्ञान लिया गया है, वह धारा 438 CrPC में राज्य संशोधन के माध्यम से उक्त अपराध को अग्रिम ज़मानत के दायरे से बाहर नहीं करती है।
    • आवेदक को क्षेत्रीय अधिकारिता वाले न्यायालय से ऐसी ज़मानत मांगने में असमर्थता के बारे में न्यायालय को संतुष्ट करना होगा।
  • निर्णयज़ विधि:
    • अमिता गर्ग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो अभिवहन अग्रिम ज़मानत को निश्चित या विशिष्ट शब्दों में परिभाषित करता हो। उक्त न्यायालय ने बताया कि अभिवहन अग्रिम ज़मानत अभियुक्त की हिरासत से पहले होती है तथा गिरफ्तारी के समय तुरंत प्रभावी होती है।
    • अजय अग्रवाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि अभिवहन ज़मानत एक निश्चित अवधि के लिये गिरफ्तारी से सुरक्षा है, जो कि अभिवहन ज़मानत देने वाले न्यायालय द्वारा दी गई है।


सांविधानिक विधि

धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002

 21-Nov-2023

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और बेला एम. त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि “जब न्यायालय द्वारा अभियुक्तों की हिरासत जारी रखी जाती है, तो न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत त्वरित सुनवाई के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए उचित समय के भीतर मुकदमे को समाप्त कर दें।"

  • उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला तरुण कुमार बनाम सहायक निदेशक प्रवर्तन निदेशालय के मामले में दिया।

तरुण कुमार बनाम सहायक निदेशक प्रवर्तन निदेशालय की पृष्ठभूमि क्या है?

  • मेसर्स शक्ति भोग फूड्स लिमिटेड (SBFL) "शक्ति भोग" ब्रांड नाम के तहत खाद्य पदार्थों के निर्माण और बिक्री में लगी हुई थी।
  • भारतीय स्टेट बैंक के नेतृत्व में बैंकों के संघ ने 18 मई, 2018 के अनुबंध पत्र के माध्यम से SBFL के फोरेंसिक ऑडिट के संचालन के लिये एक फोरेंसिक ऑडिटर - BDO इंडिया LLP की सेवाएँ लीं।
  • फोरेंसिक ऑडिटर ने 1 अप्रैल, 2013 से 31 मार्च, 2017 की अवधि के लिये ऑडिट समीक्षा की और 25 जून, 2019 को रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें SBFL की कार्यप्रणाली में कई वित्तीय अनियमितताओं एवं विसंगतियों का खुलासा किया गया तथा आरोप लगाया कि SBFL अपनी ऋण देनदारी का निर्वहन करने में विफल रही व इसके कारण संघ के सदस्य बैंकों को लगभग 3269.42 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) के साथ पठित 13(1)(d) और भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 420, 465, 467, 468 तथा 471 के साथ पठित धारा 120B के तहत अपराध के लिये केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, बैंक सिक्योरिटीज़ एंड फ्रॉड सेल (Bank Securities and Fraud Cell), नई दिल्ली द्वारा 31 दिसंबर, 2020 को एक FIR दर्ज की गई।
  • PML अधिनियम की धारा 4 के तहत दंडनीय धारा 3 के तहत अपराध की जाँच के लिये अभियुक्त के खिलाफ CBI द्वारा दर्ज की गई उक्त FIR के संबंध में SBFL और अन्य के खिलाफ 31 जनवरी, 2021 को एक प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई।
  • अपीलकर्ता ने 18 अक्तूबर, 2022 को विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम) राउज़ एवेन्यू कोर्ट कॉम्प्लेक्स, नई दिल्ली के समक्ष एक शिकायत मामले में ज़मानत याचिका दायर की, जिसे विशेष न्यायाधीश ने 23 दिसंबर, 2022 के अपने आदेश के तहत खारिज़ कर दिया।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तुत ज़मानत आवेदन संख्या 152/2023 को भी 18 जुलाई, 2023 के आक्षेपित आदेश द्वारा खारिज़ कर दिया गया।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • यह नहीं कहा जा सकता है कि धारा 45 में निर्धारित शर्त के लिये साक्ष्यों का भार अभियुक्त पर है कि वह इस तरह के अपराध के लिये दोषी नहीं है। हालाँकि बोझ का ऐसा निर्वहन संभावनाओं पर हो सकता है, फिर भी मौजूदा मामले में प्रतिवादी द्वारा पर्याप्त सामग्री पेश की गई हैं, जो उक्त अधिनियम की धारा 3 के तहत धन शोधन के कथित अपराध में अपीलकर्ता की बड़ी भागीदारी को दर्शाती है, न्यायालय अपीलकर्ता को ज़मानत देने की इच्छुक नहीं है।

धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 क्या है?

  • परिचय:
    • धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 भारत की संसद का एक अधिनियम है जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (National Democratic Alliance- NDA) सरकार द्वारा धन शोधन को रोकने तथा धन शोधन से प्राप्त संपत्ति की ज़ब्ती का प्रावधान करने के लिये अधिनियमित किया गया है। PMLA और उसके तहत अधिसूचित नियम 1 जुलाई, 2005 से लागू हुए हैं।
  • PMLA का उद्देश्य:
    • PMLA भारत में धन शोधन से निपटने के लिये है और इसके तीन मुख्य उद्देश्य हैं:
      • धन शोधन को रोकना और नियंत्रित करना।
      • लूटे गए धन से प्राप्त संपत्ति का अधिहरण करना और उसे ज़ब्त करना।
      • भारत में धन शोधन से संबंधित किसी अन्य मुद्दे से निपटने के लिये।
  • अधिनियम के महत्त्वपूर्ण प्रावधान:
    • धारा 45: अपराधों का संज्ञेय और गैर-मानती होना
      • यह धन शोधन के अपराध में आरोपित किसी अभियुक्त को ज़मानत देने के उद्देश्य से संतुष्ट होने वाली शर्तें बताती है।
    • धारा 50: समन, दस्तावेज़ पेश करने और साक्ष्य देने आदि से संबंधित अधिकारियों की शक्तियाँ।
      • इसमें समन जारी करने, दस्तावेज़ प्रस्तुत करने और साक्ष्य प्रदान करने में अधिकारियों की शक्तियों का विवरण दिया गया है। यह प्रकटीकरण और निरीक्षण, उपस्थिति को लागू करने, दस्तावेज़ों को एकत्रित करने और कमीशन जारी करने जैसे मामलों के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निदेशक की शक्तियों को सिविल कोर्ट के समान करता है।
      • धारा 50(2) निदेशक और अन्य अधिकारियों को PMLA के तहत किसी भी जाँच या कार्यवाही के दौरान, किसी भी व्यक्ति को बुलाने का अधिकार प्रदान करती है। PML नियम, 2005 के नियम 2(p) एवं नियम 11 इन शक्तियों को और निर्दिष्ट करते हैं।
      • धारा 50(3) में कहा गया है कि समन भेजे गए सभी व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप से या अधिकृत एजेंटों के माध्यम से उपस्थित होना होगा, जाँच करने पर सच्चाई बतानी होगी और आवश्यक दस्तावेज़ पेश करने होंगे।
      • धारा 50(4) धारा 50(2) और धारा 50(3) के तहत प्रत्येक कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 193 एवं 228 के अनुसार न्यायिक कार्यवाही मानती है।
      • धारा 50(5) धारा 50(2) में निर्दिष्ट किसी भी अधिकारी को अधिनियम 15, 2003 के तहत किसी भी कार्यवाही में उसके समक्ष प्रस्तुत किये गए किसी भी रिकॉर्ड को ज़ब्त करने और बनाए रखने की अनुमति देती है। इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपाय मौजूद हैं।

धारा 50 के लिये प्रासंगिक मामला:

रोहित टंडन बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2018): इस मामले में न्यायालय ने पुष्टि की कि गवाहों और अभियुक्तों के बयान PMLA अधिनियम की धारा 50 के तहत साक्ष्य में स्वीकार्य हैं।


पारिवारिक कानून

वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 52A

 21-Nov-2023

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि वक्फ अधिनियम, 1955 की धारा 52A के प्रावधानों के तहत ट्रायल कोर्ट केवल बोर्ड या इस संबंध में राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी अधिकारी द्वारा की गई शिकायत पर संज्ञान ले सकता है, न कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर।

  • उपरोक्त टिप्पणी सैय्यद मुर्तुज़ा सैय्यद कासिम हाजी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य के मामले में की गई थी।

सैय्यद मुर्तुज़ा सैय्यद कासिम हाजी बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में प्रतिवादी जो वक्फ अधिकारी है, ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) दर्ज की।
  • इसके आधार पर पुलिस ने याचिकाकर्त्ता के खिलाफ वक्फ अधिनियम की धारा 52A के तहत अपराध दर्ज कर लिया है।
  • विद्वान अपर सिविल जज ने आरोप पत्र के आधार पर याचिकाकर्त्ता के खिलाफ वक्फ अधिनियम की धारा 52A के तहत अपराध मानकर संज्ञान लिया।
  • इसके बाद उनके खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही को रद्द करने के लिये कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी।
  • उच्च न्यायालय ने याचिका मंज़ूर करते हुए पूरी कार्यवाही रद्द कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि वक्फ अधिनियम की धारा 52A के प्रावधानों के तहत ट्रायल कोर्ट केवल बोर्ड या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी अधिकारी द्वारा की गई शिकायतों का संज्ञान ले सकता है, पुलिस रिपोर्ट के आधार पर नहीं।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि शिकायत शब्द को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 2(d) के तहत परिभाषित किया गया है। इसमें पुलिस रिपोर्ट शामिल नहीं है।
    • CrPC की धारा 2(d) के तहत शिकायत की परिभाषा में पुलिस रिपोर्ट को स्पष्ट रूप से बाहर रखा गया है।

इसमें क्या कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

  • वक्फ अधिनियम:
    • वक्फ अधिनियम, 1995, जिसने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 1984 को निरस्त और प्रतिस्थापित किया, 1 जनवरी, 1996 को लागू हुआ।
    • यह अधिनियम औकाफ (संपत्तियाँ, विरासतें विशेष रूप से धर्मार्थ प्रयोजनों के लिये) के बेहतर प्रशासन और उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक मामलों का प्रावधान करता है।
    • हालाँकि अधिनियम के काम करने के वर्षों में यह व्यापक भावना रही है कि यह अधिनियम औकाफ के प्रशासन में सुधार करने में पर्याप्त प्रभावी साबित नहीं हुआ है।
  • वक्फ अधिनियम की धारा 52A:
    • यह धारा बोर्ड की मंज़ूरी के बिना वक्फ संपत्ति के अन्यसंक्रामण (पैतृक या सहदायिकी संपत्ति होने का दावा करना) के लिये दंड से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
      (1) जो कोई भी किसी भी जंगम या स्थावर संपत्ति, जो कि वक्फ संपत्ति है, को बोर्ड की पूर्व मंज़ूरी के बिना, किसी भी तरीके से स्थायी या अस्थायी रूप से अन्यसंक्रामण करेगा या खरीदेगा या कब्ज़ा करेगा, वह दो वर्ष तक की अवधि के लिये कठोर कारावास से दंडनीय होगा।
      बशर्ते कि इस प्रकार अन्यसंक्रामण की गई वक्फ संपत्ति, उस समय लागू किसी भी कानून के प्रावधानों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, बिना किसी मुआवज़े के बोर्ड में निहित कर दी जाएगी।
      (2) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में निहित किसी भी तथ्य के बावजूद, इस धारा के तहत दंडनीय कोई भी अपराध संज्ञेय और गैर-ज़मानती होगा।
      (3) बोर्ड या इस ओर से राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी अधिकारी द्वारा की गई शिकायत के अतिरिक्त कोई भी न्यायालय इस धारा के तहत किसी भी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा।
      (4) मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट से कमतर कोई भी न्यायालय इस धारा के तहत दंडनीय किसी भी अपराध की सुनवाई नहीं करेगा।