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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

सामान्य आशय

 08-Feb-2024

वेल्थेपु श्रीनिवास बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (अब तेलंगाना राज्य) एवं अन्य

"IPC की धारा 34 के तहत सामान्य आशय का अनुमान केवल अपराध स्थल के निकट अभियुक्तों की उपस्थिति के आधार पर नहीं लगाया जा सकता है।"

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और पी. एस. नरसिम्हा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने वेल्थेपु श्रीनिवास बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (अब तेलंगाना राज्य) एवं अन्य के मामले में  माना है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के तहत सामान्य आशय का अनुमान केवल अपराध स्थल के पास अभियुक्तों की उपस्थिति के आधार पर नहीं लगाया जा सकता है

वेल्थेपु श्रीनिवास बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (अब तेलंगाना राज्य) एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में सभी अभियुक्त (1 से 4) एक ही परिवार के थे और मृतक भी उसी गाँव के रहने वाले थे।
  • मृतक की बहन और अभियुक्त 4 की पत्नी राजनीतिक उम्मीदवार थीं।
  • उक्त चुनावों में, मृतक की बहन सफल रही, तथा अभियुक्त-4 की पत्नी हार गई और दुर्भाग्य से, दोनों समूहों के बीच दुश्मनी हो गई, जो अंततः मृतक की हत्या का कारण बनी।
  • ट्रायल कोर्ट ने चारों अभियुक्तों को मृतक की हत्या के लिये दोषी पाया और IPC की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया
  • सभी अभियुक्तों ने तेलंगाना उच्च न्यायालय में अपील की।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय की पुष्टि की और आपराधिक अपीलें खारिज़ कर दीं।
  • इसके बाद, उच्चतम न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक अपील दायर की गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि अभियुक्त 3 का हत्या करने का कोई सामान्य आशय नहीं था।
  • उच्चतम न्यायालय ने IPC की धारा 302 के तहत अभियुक्त 1, अभियुक्त 2 और अभियुक्त 4 की दोषसिद्धि और सज़ा को बरकरार रखा तथा अभियुक्त 3 को IPC की धारा 304 भाग II के तहत दोषी ठहराया और 10 वर्ष के कारावास की सज़ा सुनाई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और पी. एस. नरसिम्हा की खंडपीठ ने कहा कि अभियुक्त 3 को हत्या के आशय से दोषी ठहराने के लिये न तो मौखिक और न ही दस्तावेज़ी साक्ष्य उपलब्ध हैं। केवल अपराध स्थल के पास उसकी उपस्थिति और अन्य अभियुक्तों के साथ उसके पारिवारिक संबंधों के आधार पर धारा 34 के तहत यांत्रिक रूप से निष्कर्ष निकाला गया था।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने की स्थिति में नहीं है कि अभियुक्त 3 ने अन्य अभियुक्तों के साथ मृतक की हत्या करने का सामान्य आशय साझा किया था।

प्रासंगिक कानूनी प्रावधान क्या हैं?

IPC की धारा 34:

  • IPC की धारा 34 में कहा गया है कि जब कोई आपराधिक कृत्य, सभी के सामान्य आशय को अग्रसर करने हेतु, कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तो ऐसा प्रत्येक व्यक्ति उस कार्य के लिये उसी तरह से उत्तरदायी होता है जैसे कि यह अकेले उसके द्वारा किया गया हो।
  • इस धारा के दायरे में, अपराध में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को आपराधिक कृत्य में उसकी भागीदारी के आधार पर ज़िम्मेदार ठहराया जाता है।
  • इस धारा के प्रमुख संघटक निम्नलिखित हैं:
    • एक आपराधिक कृत्य कई व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिये।
    • उस आपराधिक कृत्य को करने के लिये सभी का एक समान आशय होना चाहिये।
    • सामान्य आशय के आयोग में सभी व्यक्तियों की भागीदारी आवश्यक है।
  • हरिओम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1993) के मामले में, यह माना गया कि यह आवश्यक नहीं है कि कोई पूर्व साज़िश या पूर्व-चिंतन हो, घटना के दौरान भी सामान्य आशय बन सकता है।

IPC की धारा 304:

  • IPC की धारा 304 आपराधिक मानव वध के लिये सज़ा से संबंधित है जबकि यही प्रावधान भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 105 के तहत शामिल किया गया है।
  • IPC की धारा 304 को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है: धारा 304 (भाग I) और धारा 304 (भाग II)।
    • धारा 304 (भाग I) में कहा गया है कि, जो कोई ऐसा आपराधिक मानव वध करेगा, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आता है, यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु कारित की गई है, मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति, जिससे मृत्यु होना संभाव्य है, कारित करने के आशय से किया जाए, तो वह आजीवन कारावास से, या दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और ज़ुर्माने से भी दंडनीय होगा।
    • धारा 304 (भाग II) में कहा गया है कि, जो कोई ऐसा आपराधिक मानव वध करेगा, यदि वह कार्य इस ज्ञान के साथ कि इससे उसकी मृत्यु कारित करना संभाव्य है, किंतु मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति, जिससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है, कारित करने के किसी आशय के बिना किया जाए, तो वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, या ज़ुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।

आपराधिक मानव वध:

  • IPC की धारा 299 आपराधिक मानव वध से संबंधित है जबकि इसी प्रावधान को भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 100 के तहत शामिल किया गया है।
  • इसमें कहा गया है कि जो कोई मृत्यु कारित करने के आशय से, या ऐसी शारीरिक क्षति कारित करने के आशय से जिससे मृत्यु कारित हो जाना संभाव्य हो, या यह ज्ञान रखते हुए कि यह संभाव्य है कि वह उस कार्य से मृत्यु कारित कर दे, कोई कार्य करके मृत्यु कारित कर देता है, वह आपराधिक मानव वध का अपराध करता है।

पारिवारिक कानून

अंतरिम भरण-पोषण

 08-Feb-2024

ABC बनाम XYZ

"पति केवल इसलिये भरण-पोषण से नहीं बच सकता क्योंकि उसने न्यायालय के समक्ष दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के आदेश को चुनौती दी है।"

न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में,  कर्नाटक उच्च न्यायालय ने ABC बनाम XYZ के मामले में माना है कि यदि पति दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के डिक्री पर रोक के अभाव में पत्नी को वैवाहिक घर में वापस ले जाने में विफल रहता है, तो पत्नी अपने लिये अंतरिम भरण-पोषण की मांग करने के लिये स्वतंत्र होगी।

ABC बनाम XYZ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता पति है और प्रतिवादी उसकी पत्नी है।
  • दोनों ने 13 नवंबर, 2011 को विवाह किया और इस विवाह से एक बच्चे का जन्म हुआ, जिसकी आयु अब 9 वर्ष बताई जा रही है।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्त्ता एवं प्रतिवादी के बीच संबंध खराब हो गए जिससे प्रतिवादी ने वैवाहिक घर छोड़ दिया है।
  • दोनों के बीच मतभेद के कारण उन्हें दो याचिकाएँ दायर करनी पड़ीं, एक जो पति द्वारा विवाह-विच्छेद की डिक्री की मांग करते हुए दायर की गई थी और दूसरी पत्नी द्वारा दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की मांग करते हुए दायर की गई थी।
  • संबंधित न्यायालय दोनों वैवाहिक मामलों को एक साथ लेता है और अपने सामान्य निर्णय से पति द्वारा दायर विवाह-विच्छेद की याचिका को खारिज़ कर देता है, जबकि पत्नी द्वारा दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की मांग को लेकर दायर याचिका को अनुमति देता है।
  • संबंधित न्यायालय ने, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 24 को लागू करते हुए प्रतिवादी द्वारा निष्पादन याचिका में दायर अंतरिम आवेदन पर, पत्नी और अवयस्क बालक को अंतरिम भरण-पोषण प्रदान करते हुए, आंशिक रूप से आवेदन की अनुमति दी।
  • इससे व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता द्वारा कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी जिसे बाद में न्यायालय ने खारिज़ कर दिया था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि यदि इस न्यायालय ने दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के निर्णय पर रोक लगाने का अंतरिम आदेश दिया है, तो याचिकाकर्त्ता के संबंधित वकील के पास उस विवाद पर ज़ोर देने का अधिकार है।
    • चूँकि ऐसा नहीं हुआ और पति पत्नी को वैवाहिक घर में नहीं ले गया, इसलिये पत्नी के पास यह स्वतंत्रता थी कि वह डिक्री के निष्पादन के चरण में भी अपने और बच्चे के लिये अंतरिम भरण-पोषण की मांग कर सकती थी।
  • न्यायालय ने कहा कि अंतरिम भरण-पोषण के भुगतान के निर्देश में संबंधित न्यायालय द्वारा पारित आदेश में कोई दोष नहीं पाया जा सकता है।
    • आगे यह माना गया कि पति केवल इसलिये भरण-पोषण से नहीं बच सकता क्योंकि उसने न्यायालय के समक्ष दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के आदेश को चुनौती दी है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन:

  • परिचय:
    • दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की अभिव्यक्ति का अर्थ उन दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन से है जो पहले पक्षकारों द्वारा प्राप्त किये गए थे।
    • इसका उद्देश्य विवाह संस्था की पवित्रता और वैधता की रक्षा करना है।
  • HMA की धारा 9 दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-
    • 'जबकि पति या पत्नी में से किसी ने युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना दूसरे से अपना साहचर्य प्रत्याहृत कर लिया है तब परिवेदित पक्षकार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये याचिका द्वारा आवेदन ज़िला न्यायालय में कर सकेगा और न्यायालय ऐसी याचिका में किये गए कथनों की सत्यता के बारे में और बात के बारे में आवेदन मंजूर करने का कोई वैध आधार नहीं है अपना समाधान हो जाने पर तद्नुसार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये आज्ञप्ति देगा।"
    • स्पष्टीकरण: जहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या साहचर्य के प्रत्याहरण के लिये युक्तियुक्त प्रतिहेतु है, वहाँ युक्तियुक्त प्रतिहेतु साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने साहचर्य से प्रत्याहरण किया है।

निर्णयज विधि:

  • सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा (1984) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने HMA की धारा 9 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा क्योंकि यह धारा किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है।

HMA की धारा 24:

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1995 (HMA) की धारा 24 वाद लंबित रहने के दौरान भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय के प्रावधान से संबंधित है।
    • शब्द "पेंडेंट लाइट" का अर्थ है "मुकदमे का लंबित रहना" या "मामले के लंबित रहने के दौरान"
  • उक्त धारा अपर्याप्त या कोई स्वतंत्र आय नहीं होने की स्थिति में हिंदू विवाह अधिनियम, 1995 (HMA) के तहत आजीविका और किसी भी कार्यवाही के आवश्यक खर्चों का समर्थन करने के लिये अंतरिम भरण-पोषण को नियंत्रित करती है।
    • यह प्रावधान, जैसा भी मामला हो, इस उपाय को पति और पत्नी दोनों पर लागू करने का लैंगिक रूप से तटस्थ अधिकार प्रदान करता है।
  • इस धारा में कहा गया है कि जहाँ इस अधिनियम के अधीन के होने वाली किसी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत हो कि, यथास्थिति, पति या पत्नी की ऐसी कोई स्वतंत्र आय नहीं है जो उसके संभाल और कार्यवाही के आवश्यक व्ययों के लिये पर्याप्त हो वहाँ वह पति या पत्नी के आवेदन पर प्रत्यर्थी को यह आदेश दे सकेगा कि वह अर्ज़ीदार को कार्यवाही में होने वाले व्यय तथा कार्यवाही के दौरान में प्रतिमास ऐसी दशा संदत्त करे जो अर्ज़ीदार की अपनी आय तथा प्रत्यर्थी की आय को देखते हुए न्यायालय को युक्तियुक्त प्रतीत हो।

पारिवारिक कानून

प्रोबेट

 08-Feb-2024

एम. आर. मोहन कुमार एवं अन्य बनाम NIL

"जब वसीयत लाभार्थी के पक्ष में निष्पादित की गई थी तो ऐसा माना जाता है कि किसी निष्पादक की नियुक्ति नहीं की गई है और केवल निष्पादक की नियुक्ति न होना प्रोबेट को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता है।"

न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एम. आर. मोहन कुमार और अन्य बनाम NIL के उस मामले में प्रोबेट जारी करने के बारे में सुनवाई की, जहाँ निष्पादक का नाम नहीं दिया गया है।

एम. आर. मोहन कुमार एवं अन्य बनाम NIL मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ताओं ने सन्नारंगप्पा के नाम से याचिका में उल्लिखित संपत्ति के स्वामित्व का दावा करते हुए प्रोबेट के लिये आवेदन किया था, जो उन्हें 22 नवंबर, 1978 को प्रदान किया गया था।
    • उन्होंने दावा किया कि वे मालिकों के रूप में संपत्ति का उपयोग कर रहे थे।
  • सन्नारंगप्पा (जो अविवाहित थे) की देखभाल अपीलकर्त्ताओं के पिता और स्वयं अपीलकर्त्ताओं ने उनके जीवनकाल के दौरान की थी। सन्नारंगप्पा के दादा ने 14 फरवरी, 2001 को एक वसीयत तैयार की थी, जिसे 15 फरवरी, 2001 को पंजीकृत किया गया था। सन्नारंगप्पा का 29 जून, 2001 को निधन हो गया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने तहसीलदार को कत्था (khatha) अंतरण करने के लिये आवेदन किया था, लेकिन अंतरण के लिये आवश्यक दस्तावेज़ों की कमी का हवाला देते हुए तहसीलदार ने इनकार कर दिया।
  • अपीलकर्त्ताओं ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के अनुसार प्रोबेट/उत्तराधिकार प्रमाणपत्र जारी करने की मांग की।
    • दो समाचार पत्रों में उद्धृत होने के बावजूद, कोई भी प्रतिवादी इस मामले का विरोध करने के लिये उपस्थित नहीं हुआ।
  • ट्रायल कोर्ट ने मौखिक एवं दस्तावेज़ी सहित सभी साक्ष्यों पर विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि जब तक वसीयतकर्त्ता द्वारा वसीयत में निष्पादक को नियुक्त नहीं किया जाता, तब तक प्रोबेट देना लागू नहीं होता।
    • इसलिये, अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणी क्या थी?

  • न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश ने आदेश दिया कि “जब वसीयत लाभार्थी के पक्ष में निष्पादित की गई थी तो ऐसा माना जाता है कि किसी निष्पादक की नियुक्ति नहीं की गई है और केवल निष्पादक की नियुक्ति न होना प्रोबेट को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता है।
  • इसलिये, एकल न्यायाधीश पीठ ने अपीलकर्त्ताओं के पक्ष में प्रोबेट/उत्तराधिकार प्रमाणपत्र प्रदान किया।

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत प्रोबेट क्या है?

  • प्रोबेट:
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 30 सितंबर, 1925 को लागू किया गया था।
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के तहत प्रोबेट एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके तहत किसी मृत व्यक्ति की अंतिम वसीयत और वसीयतनामा को प्रमाणित किया जाता है।
  • परिभाषा:
    • भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 2(f) के तहत "प्रोबेट" का अर्थ वसीयतकर्त्ता की संपत्ति के अंतरण के असंदर्भ में सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय की मुहर के तहत प्रमाणित वसीयत की प्रति है।
  • प्रोबेट प्रक्रिया आरंभ करना:
    • प्रोबेट प्रक्रिया निष्पादक या किसी इच्छुक पक्ष द्वारा उचित न्यायालय में याचिका दायर करने के साथ शुरू होती है। इस याचिका में मृतक का नाम, मृत्यु की तारीख और वसीयत की एक प्रति जैसे विवरण शामिल होते हैं।
  • वसीयत की जाँच:
    • प्रोबेट कार्यवाही के दौरान, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 61 के तहत न्यायालय वसीयत की वैधता की जाँच (यह सुनिश्चित करते हुए कि यह सभी कानूनी आवश्यकताओं को पूरा करती है और अनुचित प्रभाव या प्रपीड़न के बिना निष्पादित की जाती है) करता है।
  • अंतरण के संदर्भ में सूचना एवं अवसर:
    • न्यायालय उत्तराधिकारियों और इच्छुक पक्षों को एक नोटिस जारी करता है, जिससे उन्हें आपत्ति होने पर वसीयत पर आपत्ति करने का अवसर मिलता है।
  • प्रोबेट प्रदान करना:
    • यदि न्यायालय वसीयत की वैधता से संतुष्ट है, तो वह वसीयत की शर्तों के अनुसार संपत्ति का प्रबंधन करने के निष्पादक के अधिकार को आधिकारिक तौर पर मान्यता देते हुए प्रोबेट प्रदान करता है।