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आपराधिक कानून
IEA की धारा 106
28-Feb-2024
श्री राजेन नायक बनाम असम राज्य एवं अन्य IEA के प्रावधानों के अनुसार, अपराध के कई गवाह मौजूद होने पर सबूत का भार अभियुक्त पर नहीं डाला जा सकता है। न्यायमूर्ति कल्याण राय सुराणा और मृदुल कुमार कलिता |
स्रोत: गुवाहाटी उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने श्री राजेन नायक बनाम असम राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि अभियुक्त को मौन रहने का अधिकार है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 106 के प्रावधानों के तहत अपराध के कई गवाह मौजूद होने पर सबूत का भार अभियुक्त पर नहीं डाला जा सकता है।
श्री राजेन नायक बनाम असम राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, अपीलकर्त्ता ने श्रीमती सुकुरमोनी नायक के 26 वर्षीय बेटे को गुलेल से मार डाला था और उसने अपीलकर्त्ता के विरुद्ध आवश्यक कार्रवाई करने की मांग की थी।
- अपीलकर्त्ता के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत मामला दर्ज किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया और उसे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई।
- इससे व्यथित होकर, गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति कल्याण राय सुराणा और मृदुल कुमार कलिता की खंडपीठ ने कहा कि जब हत्या का अपराध कथित तौर पर दिन के उजाले में गवाहों की उपस्थिति में किया गया था, तो IEA की धारा 106 के प्रावधानों को लागू करके आरोपों को खारिज़ करने और मृतक की मृत्यु से संबंधित परिस्थितियों को समझाने के लिये सबूत का भार अपीलकर्त्ता पर नहीं डाला जा सकता है। इस प्रकार, संबंधित ट्रायल कोर्ट का निर्णय अनुचित पाया गया है।
IEA की धारा 106 क्या है?
परिचय:
- यह धारा विशेषतः ज्ञात तथ्य को साबित करने के भार से संबंधित है।
- इसमें कहा गया है कि जबकि कोई तथ्य विशेषत: किसी व्यक्ति के ज्ञान में है, तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर है।
- यह धारा हिरासत में मृत्यु, दहेज हत्या और अन्यत्र उपस्थिति के मामलों में लागू होती है।
- यह केवल IEA की धारा 101 का अपवाद है।
उद्देश्य:
- यह धारा निष्पक्ष सुनवाई के विचार को बढ़ावा देती है, जहाँ सभी संभावित तथ्यों को साबित करना सरल हो जाता है और किसी ऐसी चीज़ को साबित करने का कोई भार नहीं होता जो असंभव है तथा जिससे अभियुक्त को लाभ होता है।
- यह अभियुक्त को तथ्यों की शृंखला से प्राप्त तथ्यों की उपधारणा का खंडन करने का अवसर प्रदान करती है।
दृष्टांत:
- जब कोई व्यक्ति उस कार्य के स्वरुप और परिस्थितियों से सुझाए गए आशय के अतिरिक्त किसी अन्य आशय से कोई कार्य करता है, तो उस आशय को साबित करने का भार उस पर होता है।
निर्णयज विधि:
- नगेंद्र शाह बनाम बिहार राज्य (2021) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि, पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित मामलों में, IEA की धारा 106 के अनुसार उचित स्पष्टीकरण प्रदान करने में अभियुक्त की विफलता परिस्थितियों शृंखला में एक अतिरिक्त लिंक के रूप में काम कर सकती है।
आपराधिक कानून
CrPC की धारा 222
28-Feb-2024
जुनैद बी. बनाम कर्नाटक राज्य एक छोटा अपराध पूरी तरह से अलग संघटकों से बना एक अलग अपराध नहीं, बल्कि अनिवार्य रूप से बड़े अपराध का एक सजातीय अपराध होना चाहिये। न्यायमूर्ति शिवशंकर अमरन्नवर |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने जुनैद बी. बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में माना है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 222 के प्रावधानों के तहत छोटा अपराध पूरी तरह से अलग संघटकों से बना एक अलग अपराध नहीं, बल्कि अनिवार्य रूप से बड़े अपराध का एक सजातीय रूप होना चाहिये।
जुनैद बी. बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, अपीलकर्त्ता पर शुरू में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास का आरोप लगाया गया था, लेकिन बाद में उसे IPC की धारा 326 के तहत अपराध के लिये दोषी ठहराया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को तीन वर्ष की अवधि के लिये साधारण कारावास और 10,000/- रुपए का ज़ुर्माना देने की सज़ा सुनाई और ज़ुर्माना राशि का भुगतान न करने पर 3 महीने की अवधि के लिये साधारण कारावास की सज़ा सुनाई।
- उपर्युक्त निर्णय को रद्द करने के उद्देश्य से, अपीलकर्त्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
- उच्च न्यायालय ने माना कि मौजूदा मामले में भी IPC की धारा 307 व 326 के तहत अपराध के लिये दी गई सज़ा समान है और इसलिये, IPC की धारा 326 के तहत अपराध IPC की धारा 307 के तहत अपराध से छोटा अपराध नहीं है, इसलिये CrPC की धारा 222(2) को लागू किया जा सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायमूर्ति शिवशंकर अमरन्नवर की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि CrPC की धारा 222 के अर्थ में छोटा अपराध मुख्य अपराध से स्वतंत्र नहीं होगा या केवल कम सज़ा वाला अपराध नहीं होगा। छोटे अपराध में मुख्य अपराध जैसी गतिविधियाँ होने पर इसे इसका एक हिस्सा माना जाना चाहिये।
- न्यायालय ने आगे कहा कि छोटे अपराध शब्द की व्याख्या तकनीकी अर्थ में नहीं, बल्कि उसके सामान्य अर्थ में की जानी चाहिये। जब किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप लगाया जाता है, जिसमें कई विवरण शामिल होते हैं और यदि सभी विवरण साबित हो जाते हैं तो यह बड़ा अपराध होगा, जबकि यदि उनमें से कुछ विवरण साबित हो जाते हैं और उनके संयोजन से वह एक छोटे अपराध की श्रेणी में आता है, तो आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है।
इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?
IPC की धारा 326:
- यह धारा खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छापूर्वक घोर उपहति कारित करने से संबंधित है।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 के अनुसार, धारा 335 द्वारा प्रदान किये गए मामले को छोड़कर जो कोई भी, घोपने, गोली चलाने या काटने के किसी भी साधन के माध्यम से या किसी अपराध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जाने वाले उपकरण से स्वेच्छापूर्वक ऐसी गंभीर चोट पहुँचाए, जिससे मृत्यु कारित होना संभाव्य है, या फिर आग के माध्यम से या किसी भी गर्म पदार्थ या विष या संक्षारक पदार्थ या विस्फोटक पदार्थ या किसी भी पदार्थ के माध्यम से जिसका श्वास में जाना, या निगलना, या रक्त में पहुँचना मानव शरीर के लिये घातक है या किसी जानवर के माध्यम से चोट पहुँचाता है, तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिये कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, और साथ ही आर्थिक दण्ड से दण्डित किया जाएगा।
CrPC की धारा 222:
जब वह अपराध, जो साबित हुआ है, आरोपित अपराध के अंतर्गत है, तब—
(1) जब किसी व्यक्ति पर ऐसे अपराध का आरोप है जिसमें कई विशिष्टियाँ हैं, जिनमें से केवल कुछ के संयोग से एक पूरा छोटा अपराध बनता है और ऐसा संयोग साबित हो जाता है, किन्तु शेष विशिष्टियाँ साबित नहीं होती हैं, तब वह उस छोटे अपराध के लिये दोषसिद्ध किया जा सकता है यद्यपि उस पर उसका आरोप नहीं था।
(2) जब किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप लगाया गया है और ऐसे तथ्य साबित कर दिये जाते हैं जो उसे घटाकर छोटा अपराध कर देते हैं तब वह छोटे अपराध के लिये दोषसिद्ध किया जा सकता है, यद्यपि उस पर उसका आरोप नहीं था।
(3) जब किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप है तब वह उस अपराध को करने के प्रयत्न के लिये दोषसिद्ध किया जा सकता है यद्यपि प्रयत्न के लिये पृथक आरोप न लगाया गया हो ।
(4) इस धारा की कोई बात किसी छोटे अपराध के लिये उस दशा में दोषसिद्ध प्राधिकृत करने वाली न समझी जाएगी जिसमें ऐसे छोटे अपराध के बारे में कार्यवाही शुरू करने के लिये अपेक्षित शर्तें पूरी नहीं हुई हैं।
सांविधानिक विधि
उपचारात्मक याचिका का उपाय
28-Feb-2024
मैसर्स ब्रह्मपुत्र कंक्रीट पाइप इंडस्ट्रीज़ आदि बनाम असम राज्य विद्युत बोर्ड "रजिस्ट्री को यह तय करने की शक्ति नहीं दी जा सकती है कि खुले न्यायालय की सुनवाई में खारिज़ होने के बाद एक समीक्षा याचिका, उपचारात्मक क्षेत्राधिकार के माध्यम से पुनर्विचार के योग्य है या नहीं।" न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और सुधांशु धूलिया |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि रजिस्ट्री को यह तय करने की शक्ति नहीं दी जा सकती है कि खुले न्यायालय की सुनवाई में खारिज़ होने के बाद एक समीक्षा याचिका, उपचारात्मक क्षेत्राधिकार के माध्यम से पुनर्विचार के योग्य है या नहीं।
- उपर्युक्त टिप्पणी मैसर्स ब्रह्मपुत्र कंक्रीट पाइप इंडस्ट्रीज़ आदि बनाम असम राज्य विद्युत बोर्ड के मामले में की गई थी।
मेसर्स ब्रह्मपुत्र कंक्रीट पाइप इंडस्ट्रीज़ आदि बनाम असम राज्य विद्युत बोर्ड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला रजिस्ट्रार (J-IV) द्वारा 31 अक्तूबर, 2022 के आदेश से व्यथित कई अपीलकर्त्ताओं से संबंधित है, जिसने "उपचारात्मक याचिका" के रूप में लेबल की गई याचिकाओं के एक सेट को रजिस्टर करने से इनकार कर दिया था।
- यह आदेश, ब्रह्मपुत्र कंक्रीट पाइप इंडस्ट्रीज़ की याचिका सहित छह समान याचिकाओं के समान है, जिसमें उच्चतम न्यायालय नियम, 2013 के आदेश XV के नियम 5 का हवाला दिया गया है, जो इस तरह के इनकारों के विरुद्ध अपील की अनुमति देता है।
- यह विवाद छोटे पैमाने और सहायक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित भुगतान पर ब्याज अधिनियम, 1993 के तहत दायर एक मुकदमे से उत्पन्न हुआ है।
- ट्रायल कोर्ट द्वारा तय किये गए मुकदमे को उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज़ कर दिया कि जब अधिनियम लागू हुआ था, यह 23 सितंबर, 1992 के लेनदेन के लिये संधार्य नहीं है।
- बाद की अपीलों और समीक्षाओं के बावजूद, जिसमें 18 दिसंबर, 2019 को खारिज़ की गई एक अपील भी शामिल थी, रजिस्ट्रार ने उपचारात्मक याचिकाओं को अस्वीकार कर दिया।
- इसलिये, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
- अपीलकर्त्ता की ओर से आग्रह किया गया मुख्य बिंदु यह है कि रजिस्ट्रार के पास उपचारात्मक याचिका के रजिस्ट्रीकरण को अस्वीकार करने की कोई शक्ति या अधिकार क्षेत्र नहीं है और इसका निर्णय इस न्यायालय की एक पीठ द्वारा किया जाना चाहिये।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने खुले न्यायालय में समीक्षा याचिका खारिज़ करने के संबंध में विशिष्ट तथ्यों के अभाव वाली उपचारात्मक याचिकाओं को संभालने में रजिस्ट्री की भूमिका पर विचार-विमर्श किया।
- इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि रजिस्ट्री के दौरान खारिज़ होने के बाद ऐसी याचिकाओं की योग्यता निर्धारित करने का अधिकार नहीं है।
- जबकि रजिस्ट्री आमतौर पर याचिकाओं में दोषों को संभालती है, आवश्यक प्रकथन की अनुपस्थिति के लिये न्यायिक विचार की आवश्यकता होती है।
- उपचारात्मक याचिकाओं पर विचार करने से इनकार करना उच्चतम न्यायालय नियम, 2013 के आदेश XV के नियम 5 के अनुरूप नहीं है और न ही यह रजिस्ट्री के दायरे में आता है।
- न्यायालय ने आदेश LV के नियम 2 का हवाला दिया, जिसमें निर्देशों के लिये सदन न्यायधीश के साथ संचार पर ज़ोर दिया गया।
- चर्चा किये गए मामले में, न्यायालय ने आक्षेपित आदेश को परिवर्तित कर दिया, लेकिन उपचारात्मक क्षेत्राधिकार लागू करने का कोई आधार न पाते हुए, रिमांड देने से इनकार कर दिया, तद्नुसार अपील का निपटारा कर दिया गया।
उपचारात्मक याचिका क्या है?
- परिचय:
- एक उपचारात्मक याचिका अन्य सभी कानूनी उपचारों के समाप्त होने के बाद न्याय की कथित न्यायहानि को सुधारने के लिये उपलब्ध एक अद्वितीय न्यायिक उपाय के रूप में कार्य करती है।
- उत्पत्ति:
- भारत में उपचारात्मक याचिका की अवधारणा रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा (2002) मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न हुई, जिसने न्यायिक त्रुटियों के विरुद्ध अतिरिक्त सुरक्षा की आवश्यकता को स्थापित किया।
- न्यायालय ने माना कि उसके निर्णयों में भी अनदेखी या त्रुटि की आशंका हो सकती है और इसलिये अंतिम उपाय के रूप में उपचारात्मक याचिका दायर की गई।
- संवैधानिक मान्यता:
- उपचारात्मक याचिका का आधार भारत के संविधान के अनुच्छेद 137 और 142 में पाया जाता है, जो उच्चतम न्यायालय को अपने स्वयं के निर्णयों की समीक्षा करने या उसके समक्ष लंबित किसी भी मामले में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक कोई डिक्री या आदेश पारित करने का अधिकार देता है।
उपचारात्मक याचिका से संबंधित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा और अन्य मामला (2002):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने उपचारात्मक याचिका पर विचार करने के लिये शर्तें दी हैं:
- आवश्यकताओं की विशिष्टता: छद्म रूप से दूसरी समीक्षा याचिका दायर करने में आने वाली बाधाओं को रोकने की न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति के तहत उपचारात्मक याचिका के लिये मानदण्ड की पहचान करना।
- विवेकाधीन समीक्षा: आमतौर पर, न्यायालय को किसी अंतिम आदेश पर तब तक पुनर्विचार नहीं करना चाहिये जब तक कि ऐसा करने के लिये मज़बूत कारण मौजूद न हों, याचिका पर विचार के लिये सभी आधारों की गणना करने से बचना चाहिये।
- अनुतोष का अधिकार: यदि नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन हो या किसी न्यायाधीश द्वारा पूर्वाग्रह की आशंका हो जो उनके हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा हो तो याचिकाकर्त्ता अनुतोष की मांग कर सकते हैं।
- उपचारात्मक याचिका में प्रकथन: एक वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा प्रमाणित समीक्षा याचिका से आधार दोहराया जाना चाहिये।
- प्रसार और समीक्षा प्रक्रिया: उपचारात्मक याचिकाएँ पहले वरिष्ठ न्यायाधीशों और संबंधित न्यायाधीशों को भेजी जाती हैं, फिर ये न्याय मित्र के विकल्प के साथ बहुमत समझौते के आधार पर सुनवाई के लिये सूचीबद्ध की जाती हैं। कष्टप्रद याचिकाओं पर व्यय अधिक हो सकता है।
- रजिस्ट्री प्रक्रमण: रजिस्ट्री को रिट याचिकाओं को संसाधित करना चाहिये, भले ही समीक्षा याचिकाओं से विशिष्ट कथनों की कमी हो।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने उपचारात्मक याचिका पर विचार करने के लिये शर्तें दी हैं:
- भारत संघ एवं अन्य बनाम मैसर्स यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन एवं अन्य (2010):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने खुले न्यायालय की सुनवाई में समीक्षा याचिका खारिज़ होने के बावजूद सुधारात्मक याचिका की जाँच करने का निर्णय किया, हालाँकि अंततः सुधारात्मक याचिका खारिज़ कर दी गई।