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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

पूर्व-सुनवाई का अधिकार

 07-Aug-2024

अजीत पटेल एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य

“न केवल अभियुक्त को किसी विशेष तरीके से जाँच कराने का अधिकार नहीं है, बल्कि न्यायालय को भी जाँच की निगरानी करने का कोई अधिकार नहीं है”।

न्यायमूर्ति जी.एस. अहलूवालिया

स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अजीत पटेल एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि अभियुक्त को उसकी जाँच की प्रक्रिया या प्राधिकार निर्धारित करने के लिये पूर्व-सुनवाई का अधिकार नहीं दिया जा सकता।

अजीत पटेल एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत एक रिट याचिका दायर की।
  • याचिकाकर्त्ता ने कोई उपयुक्त रिट जारी करने की मांग की, जिसके द्वारा पुलिस अधिकारियों (प्रतिवादियों) को न्याय के हित में विधि के वैधानिक प्रावधानों के अनुसार याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध निष्पक्ष जाँच करने का निर्देश दिया जा सके।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने रोमिला थापर बनाम भारत संघ (2018) मामले का उदाहरण देते हुए कहा कि:
    • अभियुक्त को यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं है कि कौन-सा प्राधिकारी उसकी जाँच करे, क्योंकि जाँच की विश्वसनीयता बहुत महत्त्वपूर्ण है और अभियुक्त को निर्णय लेने की अनुमति देकर इससे समझौता नहीं किया जा सकता।
    • वर्तमान याचिका पर विचार करने की कोई संभावना नहीं है।
    • ऐसी मांग का कोई विधिक आधार नहीं है और यदि इसकी अनुमति दी गई तो यह जाँच प्रक्रिया के लिये हानिकारक होगा।
  • इसलिये मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने जाँच के निर्देश देने वाली याचिका अस्वीकार कर दी।

पूर्व-सुनवाई क्या है?

परिचय:

  • अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 23 के अंतर्गत पूर्व-सुनवाई का अधिकार दिया गया है।
  • इसका अर्थ है अन्य व्यक्तियों से पूर्व सुने जाने का अधिकार।
  • यह अधिकार सामान्यतः भारतीय विधिज्ञ परिषद् और राज्य विधिज्ञ परिषद् में पंजीकृत अधिवक्ताओं के पास निहित होता है।
  • अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 23 के तहत प्राथमिकता का क्रम इस प्रकार दिया गया है:
    • महान्यायवादी : उसे अन्य सभी अधिवक्ताओं पर पूर्व-श्रोता का अधिकार है।
    • भारत के द्वितीय अपर महाधिवक्ता
    • भारत के अतिरिक्त अपर महाधिवक्ता
    • भारत के अन्य अतिरिक्त अपर महाधिवक्ता
    • किसी भी राज्य के महाधिवक्ता
    • वरिष्ठ अधिवक्ता
    • अन्य अधिवक्ता
  • पूर्व-सुनवाई के अधिकार को एक नैतिक अधिकार के रूप में भी माना जा सकता है, जिसे बड़ों का सम्मान करने की वर्षों पुरानी भारतीय प्रथा से जोड़ा जा सकता है, जिसे अब पूर्व-सुनवाई के अधिकार के माध्यम से विधिक व्यवहार में शामिल कर लिया गया है।

निर्णयज विधियाँ:

  • प्रबल डोगरा बनाम पुलिस अधीक्षक, ग्वालियर और मध्य प्रदेश राज्य (2017): न्यायालय ने माना कि जाँच के मामले में अभियुक्त का कोई अधिकार नहीं है।
  • रोमिला थापर बनाम भारत संघ (2018): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि अभियुक्त को जाँच अधिकारी द्वारा जाँच का निर्देश देने और जाँच अधिकारी की नियुक्ति करने का कोई अधिकार नहीं है।

सांविधानिक विधि

विशेष अनुमति याचिकाएँ (SLP)

 07-Aug-2024

हर्ष भुवालका एवं अन्य बनाम संजय कुमार बाजोरिया

“SLP के साथ किसी विवादित आदेश की प्रामाणित प्रति दाखिल करने से छूट का अनुरोध करते समय प्रामाणित प्रति के लिये आवेदन करने का प्रमाण प्रदान करें"।

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और प्रशांत कुमार मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और प्रशांत कुमार मिश्रा ने विशेष अनुमति याचिकाओं (SLP) के संबंध में एक नया अभ्यास निर्देश जारी किया है, जो 20 अगस्त 2024 से प्रभावी होगा। इस निर्देश के अनुसार, किसी भी SLP में किसी विवादित आदेश की प्रामाणित प्रति दाखिल करने से छूट की मांग करने पर उच्च न्यायालय से प्राप्त एक रसीद शामिल करनी होगी, जिसमें प्रामाणित प्रति के अनुरोध की पुष्टि की गई हो, यह बताया गया हो कि प्रति के लिये आवेदन अभी भी वैध है और प्रामाणित प्रति शीघ्रता से प्रस्तुत करने का वचन देना होगा। इसका उद्देश्य प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना और आवश्यक दस्तावेज़ों को समय पर प्रस्तुत करना सुनिश्चित करना है।

  • उच्चतम न्यायालय ने हर्ष भुवालका एवं अन्य बनाम संजय कुमार बाजोरिया मामले में यह निर्णय दिया।

हर्ष भुवालका एवं अन्य बनाम संजय कुमार बाजोरिया मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • यह मामला SLP दायर करने के संबंध में 5 अगस्त 2024 को जारी उच्चतम न्यायालय के आदेश से संबंधित है।
  • यह आदेश उस मामले से उत्पन्न हुआ जिसमें याचिकाकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के आदेश की प्रामाणित प्रति के लिये आवेदन करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय में मिथ्या अभिवचन दिया था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने दावा किया कि उन्होंने प्रामाणित प्रति के लिये आवेदन किया था, परंतु उच्च न्यायालय से उन्हें यह प्रति प्राप्त नहीं हुई।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने SLP दायर करने से पहले कभी भी प्रामाणित प्रति के लिये आवेदन नहीं किया था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने SLP दायर करने के उपरांत तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा उनके आवेदन का प्रमाण मांगे जाने के उपरांत ही प्रामाणित प्रति के लिये आवेदन किया था।
  • इस मामले ने एक व्यापक मुद्दे का प्रकटन किया है, जिसमें वादीगण प्रायः विवादित निर्णयों/आदेशों की समुचित प्रामाणित प्रतियों के बिना ही विशेष अनुमति याचिकाएँ दायर कर देते हैं।
  • कई वादी प्रामाणित प्रतियाँ दाखिल करने से छूट के लिये आवेदन प्रस्तुत कर रहे थे, जिनमें प्रायः झूठे या भ्रामक विवरण शामिल होते थे।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसी छूटों के प्रति उसके उदार दृष्टिकोण के कारण वादियों को यह भ्रम उत्पन्न हो गया है कि वे बिना किसी परिणाम के मिथ्या बयान दे सकते हैं।
  • इस स्थिति ने उच्चतम न्यायालय को SLP दाखिल करने तथा प्रामाणित प्रतियाँ प्रस्तुत करने से छूट के लिये आवेदन के संबंध में नए व्यवहारिक निर्देश जारी करने के लिये प्रेरित किया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने निराशा के साथ कहा कि उच्चतम न्यायालय नियम, 2013 के प्रावधान, जिनके अनुसार विशेष अनुमति याचिकाओं के साथ विवादित निर्णयों और आदेशों की प्रामाणित प्रतियाँ संलग्न करना आवश्यक है, का अनुपालन करने की अपेक्षा उल्लंघन अधिक किया जा रहा है।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रामाणित प्रतियाँ दाखिल करने से छूट के आवेदनों के प्रति उसके अब तक के उदार दृष्टिकोण से वादियों में यह भावना उत्पन्न हो गई है कि वे बिना किसी दण्ड के मिथ्या बयान दे सकते हैं, इसके कारण प्रामाणिक प्रतियाँ दाखिल करने की प्रक्रिया में अधिक अनुशासन की आवश्यकता है।
  • इन परिस्थितियों के कारण उच्चतम न्यायालय को विशेष अनुमति याचिकाएँ दाखिल करने तथा प्रामाणित प्रतियाँ प्रस्तुत करने से छूट के लिये आवेदनों को नियंत्रित करने के लिये नए व्यवहार निर्देश जारी करने पड़े, ताकि मौजूदा नियमों का पर्याप्त अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके।
  • न्यायालय ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि वादीगण, न्यायालय की उदारता को देखते हुए, अक्सर प्रामाणित प्रतियों के लिये आवेदन करने और उन्हें प्राप्त करने में असफल रहते हैं तथा इसके बजाय वे विवादित निर्णयों एवं आदेशों की इंटरनेट से डाउनलोड की हुई प्रतियाँ अपनी विशेष अनुमति याचिकाओं के साथ संलग्न कर देते हैं।
  • न्यायालय ने टिप्पणी की कि उचित सत्यापन के बिना छूट आवेदन स्वीकार करने की प्रचलित प्रथा के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जहाँ वादियों को उच्च न्यायालय से प्राप्त होने पर प्रामाणित प्रतियाँ दाखिल करने के लिये वचनबद्धता प्रस्तुत करने की आवश्यकता शायद ही कभी पड़ती है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि ऐसी स्थिति का बने रहना अस्वीकार्य है तथा जब तक नियम लागू रहेंगे, तब तक उनका पर्याप्त अनुपालन अनिवार्य है।
  • न्यायालय ने पाया कि SLP के साथ प्रामाणित प्रतियाँ अनिवार्य करने के मौजूदा नियमों के बावजूद, इन नियमों का प्रायः पालन या प्रवर्तन नहीं किया जाता।

विशेष अनुमति याचिका क्या है?

परिचय:

  • विशेष अनुमति याचिका भारत के उच्चतम न्यायालय में एक विवेकाधीन अपील तंत्र है।
  • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत इसका प्रावधान किया गया है।
  • सशस्त्र बलों से संबंधित मामलों को छोड़कर भारत में किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के विरुद्ध SLP दायर की जा सकती है।
  • यह उच्चतम न्यायालय को उन निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनने की अनुमति देता है जहाँ अपील का कोई प्रत्यक्ष अधिकार मौजूद नहीं है।
  • विशेष अनुमति देने की शक्ति पूर्णतः उच्चतम न्यायालय के विवेकाधिकार पर निर्भर है।
  • SLP, सिविल और आपराधिक दोनों मामलों में दायर की जा सकती है।
  • ये सामान्यतः तब दायर किये जाते हैं जब कोई विधिक प्रश्न हो या न्याय में त्रुटि की आशंका हो।
  • उच्चतम न्यायालय बिना कारण बताए छूट देने से प्रतिषेध कर सकता है।
  • यदि अनुमति प्रदान कर दी जाती है तो याचिका को अपील में परिवर्तित कर दिया जाता है।
  • अन्य विधिक उपायों के समाप्त हो जाने के उपरांत न्याय पाने के लिये SLP अंतिम विकल्प के रूप में कार्य करती है।
  • किसी भी विशेष अनुमति याचिका के मामले में, उच्चतम न्यायालय को पहले अपने विवेकाधिकार से यह निर्णय लेना होता है कि उसे अनुरोधित विशेष अनुमति प्रदान करनी चाहिये या अस्वीकार करनी चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी तर्क दिया था कि अनुच्छेद 136 (विशेष अनुमति याचिका) के अंतर्गत उपाय एक संवैधानिक अधिकार है। इस प्रकार, संविधान के अनुच्छेद 32, 131 और 136 के अंतर्गत संभावित मार्गों के माध्यम से इस बाधा को दूर किया जा सकता है।
    • अनुच्छेद 32 में बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा जैसे रिटों के माध्यम से अधिकारों की रक्षा के लिये संवैधानिक उपचारों का प्रावधान है।
    • अनुच्छेद 131 (उच्चतम न्यायालय का मूल अधिकार क्षेत्र) सामान्यतः केंद्र-राज्य या अंतर्राज्यीय विवादों के विषय में है।

SLP की उत्पत्ति:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136(1) में "अपील की विशेष अनुमति" वाक्यांश भारत सरकार अधिनियम, 1935 से उत्पन्न हुआ है।
  • 1935 के अधिनियम में "विशेष अनुमति" शब्द का प्रयोग पाँच उदाहरणों में किया गया था, मुख्यतः धारा 110, 205, 206 और 208 में।
  • धारा 110(b)(iii) विधायी निकायों को ऐसे विधान बनाने से प्रतिबंधित करती है जो अपील के लिये विशेष अनुमति देने के महामहिम के विशेषाधिकार का उल्लंघन करते हों, सिवाय उन स्थितियों में जहाँ स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया हो।
  • धारा 205(2) के अंतर्गत पक्षकारों को विधि के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के गलत तरीके से निर्णय किये जाने के आधार पर संघीय न्यायालय में अपील करने की अनुमति दी गई, जिसके लिये उन्हें महामहिम से विशेष अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी।
  • इसी धारा में विशेष अनुमति के साथ या उसके बिना, महामहिम-सभा (प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति) के समक्ष सीधे अपील करने पर रोक लगा दी गई थी।
  • धारा 206(1)(b) संघीय विधानमंडल को कुछ सिविल मामलों में संघीय न्यायालय में अपील की अनुमति देने का अधिकार देती है, बशर्ते कि संघीय न्यायालय विशेष अनुमति प्रदान करे।
  • धारा 206(2) के अंतर्गत महामहिम-सभा को सीधे अपील को समाप्त करने की अनुमति दी गई, यदि 206(1) के अंतर्गत प्रावधान लागू किये गए।
  • धारा 208 में महामहिम-सभा के समक्ष अपील की बात कही गई थी, जिसके अंतर्गत कुछ मूल अधिकार क्षेत्र के मामलों में बिना अनुमति के अपील करने की अनुमति दी गई थी तथा अन्य मामलों में संघीय न्यायालय या महामहिम-सभा की अनुमति से अपील की अनुमति दी गई थी।
  • प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति द्वारा दी गई अनुमति को "विशेष अनुमति" कहा जाता था।
  • 1935 के अधिनियम के इस ऐतिहासिक संदर्भ ने भारतीय संविधान में विशेष अनुमति की अवधारणा का आधार बनाया।

SLP दाखिल करना:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत भारतीय क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा जारी किसी निर्णय, डिक्री या आदेश के विरुद्ध विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की जा सकती है।

समयावधि:

  • SLP, उच्च न्यायालय के निर्णय की तिथि से 90 दिनों के भीतर या उच्चतम न्यायालय में अपील के लिये उपयुक्तता प्रमाण-पत्र देने से प्रतिषेध करने वाले उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध 60 दिनों के भीतर दायर की जा सकती है।

SLP कौन दाखिल कर सकता है?

  • कोई भी पीड़ित पक्ष उच्चतम न्यायालय में अपील के लिये प्रमाण-पत्र देने से प्रतिषेध करने वाले निर्णय या आदेश के विरुद्ध SLP दायर कर सकता है।
  • SLP किसी भी सिविल, आपराधिक या अन्य मामले के लिये दायर की जा सकती है जहाँ कोई महत्त्वपूर्ण विधिक मुद्दा उपस्थित हो या कोई गंभीर अन्याय हुआ हो।
  • याचिकाकर्त्ता को मामले के तथ्यों, मुद्दों और समय-सीमा का संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत करना होगा, साथ ही निर्णय को चुनौती देने वाली विधिक दलीलें भी प्रस्तुत करनी होंगी।
  • याचिका दायर करने पर याचिकाकर्त्ता को उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपना मामला प्रस्तुत करने का अवसर प्राप्त होगा।
  • गुण-दोष के आधार पर, न्यायालय विरोधी पक्ष को अधिसूचना जारी कर सकता है, जिसे एक प्रति शपथ-पत्र प्रस्तुत करना होगा।
  • इसके उपरांत उच्चतम न्यायालय यह निर्णय लेगा कि उन्हें अनुमति दी जाए या नहीं।
  • यदि अनुमति प्रदान कर दी जाती है, तो मामला सिविल अपील में परिवर्तित हो जाएगा और उच्चतम न्यायालय में पुनः सुनवाई की जाएगी।
  • SLP तंत्र, पीड़ित पक्षों को भारतीय क्षेत्र के भीतर किसी भी न्यायालय या अधिकरण के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान करता है।

SLP हेतु आधार:

  • दाखिल करने के आधार: हालाँकि संविधान में कोई विशिष्ट आधार उल्लिखित नहीं है, परंतु सामान्यतः SLP निम्नलिखित आधारों पर दायर की जाती है:
    • विधि का महत्त्वपूर्ण प्रश्न
    • न्याय का घोर हनन
    • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन
    • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

SLP हेतु प्रक्रिया:

  • विशेष अनुमति याचिका (SLP) में SLP दायर करने के आधार से संबंधित सभी प्रासंगिक तथ्य शामिल होने चाहिये, जिनके आधार पर उच्चतम न्यायालय अपना निर्णय देगा।
  • उच्चतम न्यायालय के नियमों के अनुसार, याचिका पर एक एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड का हस्ताक्षर होना चाहिये।
  • याचिकाकर्त्ता को SLP में यह कथन शामिल करना होगा कि उसी मामले के संबंध में किसी अन्य उच्च न्यायालय में कोई याचिका दायर नहीं की गई है।
  • याचिका दायर होने पर, उच्चतम न्यायालय पीड़ित पक्ष को सुनवाई का अवसर देगा।
  • मामले के गुण-दोष के आधार पर, न्यायालय अपने विवेक से, विपक्षी पक्ष को प्रति शपथ-पत्र के माध्यम से अपना मामला प्रस्तुत करने की अनुमति दे सकता है।
  • सुनवाई के उपरांत न्यायालय यह निर्धारित करेगा कि क्या मामले पर आगे विचार किया जाना आवश्यक है।
  • यदि न्यायालय मामले को आगे सुनवाई के लिये उपयुक्त समझता है तो वह अपील की अनुमति दे देगा।
  • यदि न्यायालय को आगे विचार करने के लिये अपर्याप्त आधार मिले तो वह अपील को अस्वीकार कर देगा।
  • SLP को स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय पूर्णतः उच्चतम न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है, जो कि प्रारंभिक सुनवाई के दौरान प्रस्तुत तथ्यों और दी गई दलीलों पर आधारित होता है।
  • SLP दाखिल करने और विचार करने की प्रक्रिया उच्चतम न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपने असाधारण क्षेत्राधिकार का विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग करने की अनुमति देने के लिये तैयार की गई है।

विधिक प्रावधान:

  • संविधान का अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय द्वारा अपील की विशेष अनुमति से संबंधित है।
  • यह कहता है कि-
    (1) इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, उच्चतम न्यायालय स्वविवेकानुसार भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी वाद या मामले में पारित या बनाए गए किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दण्डादेश या आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिये विशेष अनुमति दे सकेगा।
    (2) खंड (1) की कोई बात सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा पारित या दिये गए किसी निर्णय, निर्धारण, दण्डादेश या आदेश पर लागू नहीं होगी।

निर्णयज विधियाँ:

  • लक्ष्मी एंड कंपनी बनाम आनंद आर. देशपांडे (1972) में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपील की सुनवाई करते समय, कार्यवाही में तेज़ी लाने, पक्षों के अधिकारों की रक्षा करने और न्याय के हितों को आगे बढ़ाने के लिये बाद के घटनाक्रमों पर विचार कर सकता है।
  • केरल राज्य बनाम कुन्हयाम्मद (2000) के निर्णय में यह स्थापित किया गया कि विशेष अनुमति याचिका (SLP) देने का न्यायालय का विवेकाधिकार उसके अपीलीय क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं करता है यदि न्यायालय अपने निष्कर्षों के आधार पर अनुमति देने से प्रतिषेध कर देता है।
  • प्रीतम सिंह बनाम राज्य (1950) ने स्थापित किया कि उच्चतम न्यायालय को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर उच्च न्यायालय के निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। अपील स्वीकार किये जाने पर, अपीलकर्त्ता उच्च न्यायालय द्वारा किसी भी गलत विधिक निर्धारण को चुनौती दे सकता है। अपील के लिये विशेष अनुमति देते समय न्यायालय को एक समान मानदंड लागू करना चाहिये।
  • एन. सुरियाकला बनाम ए. मोहनदास एवं अन्य (2007) निर्णय ने पुष्टि की कि संविधान का अनुच्छेद 136 अपील हेतु सामान्य न्यायालय की स्थापना नहीं करता है। यह वाद करने वाले पक्षों को अपील का अधिकार देने के बजाय, न्याय के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये हस्तक्षेप करने हेतु उच्चतम न्यायालय को व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है।

संविधान के अनुच्छेद 136 का विस्तार एवं सीमा क्या है?

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित या बनाए गए किसी भी वाद या मामले में किसी निर्णय, डिक्री, निर्धारण, दण्डादेश या आदेश के विरुद्ध अपील करने के लिये विशेष अनुमति प्रदान करने की व्यापक विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 136 में नॉन ऑब्स्टेंटे खंड इस बात पर ज़ोर देता है कि यह शक्ति न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार पर किसी भी सीमा का अतिक्रमण करती है।
  • इस अनुच्छेद का दायरा अंतिम और मध्यवर्ती दोनों आदेशों तक प्रसारित है तथा यह अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकार से संपन्न अधिकरणों पर भी लागू होता है।
  • यह ध्यान देने योग्य है कि अनुच्छेद 136 अपील का अधिकार नहीं देता है, बल्कि विशेष अनुमति के लिये आवेदन करने का अधिकार देता है, जिसे यदि प्रदान कर दिया जाए तो रद्द भी किया जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने स्वप्रेरण से आपराधिक मामलों में विशेष अनुमति याचिकाओं पर विचार करने पर प्रतिबंध लगा दिया है, विशेष रूप से उन मामलों में जिनमें तथ्यों के समवर्ती निष्कर्ष हों, सिवाय अपवादात्मक परिस्थितियों के जैसे विकृति, अनौचित्य, प्राकृतिक न्याय सिद्धांतों का उल्लंघन, या विधिक या रिकॉर्ड की त्रुटियाँ।
  • न्यायालय अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपनी शक्ति का प्रयोग असाधारण परिस्थितियों में करता है, विशेषकर तब जब सामान्य सार्वजनिक महत्त्व का कोई विधिक प्रश्न उठता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अपने अधिकार क्षेत्र के प्रयोग के लिये कठोर सिद्धांत या नियम बनाकर अपनी विवेकाधीन शक्ति को बाधित करने से लगातार प्रतिषेध किया है।
  • ढाकेश्वरी कॉटन मिल्स लिमिटेड बनाम आयकर आयुक्त, पश्चिम बंगाल, 1954 में संवैधानिक पीठ ने माना कि इस विवेकाधीन क्षेत्राधिकार के प्रयोग की सीमाएँ शक्ति की प्रकृति और चरित्र में ही अंतर्निहित हैं।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि इस असाधारण और अत्यंत महत्त्वपूर्ण शक्ति का प्रयोग बहुत ही सावधानी से, केवल विशेष तथा असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की है कि जब न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि भारत के क्षेत्र में किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छाचारी ढंग से व्यवहार किया गया है या किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा उसे उचित व्यवहार से वंचित किया गया है, तो इस शक्ति के प्रयोग में कोई तकनीकी बाधा नहीं आ सकती।
  • मथाई जोबी बनाम जॉर्ज (2016)मामले में, संविधान पीठ ने अनुच्छेद 136 के व्यापक दायरे की पुष्टि करते हुए कहा कि इस अनुच्छेद के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय की शक्तियों को प्रतिबंधित करने का कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिये, इसके बजाय सावधानी के साथ इस शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग करने का समर्थन किया गया है।

सिविल कानून

दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 के तहत उपराज्यपाल की शक्तियाँ

 07-Aug-2024

दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार बनाम दिल्ली के उपराज्यपाल का कार्यालय

“जिस संदर्भ में शक्ति निहित है, वह पुष्टि करता है कि उपराज्यपाल (LG) को विधि के आदेश के अनुसार कार्य करना है, न कि मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से निर्देशित होना है”।

न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल (LG) दिल्ली नगर निगम अधिनियम की धारा 3(3)(b)(i) के अंतर्गत सदस्यों को नामित करते समय मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से निर्देशित नहीं होंगे।

  • उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली सरकार बनाम दिल्ली के उपराज्यपाल कार्यालय के मामले में यह निर्णय दिया।

दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार बनाम दिल्ली उपराज्यपाल कार्यालय मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • हाल ही में हुए DMC चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) को बहुमत मिला तथा भारतीय जनता पार्टी (BJP) दूसरे स्थान पर रही।
  • DMC के नगर सचिव ने आयुक्त द्वारा हस्ताक्षरित एक नोट भेजा कि LG DMC अधिनियम की धारा 3(3)(b)(i) के अंतर्गत निगम में दस व्यक्तियों को नामित करेंगे।
  • अगले ही दिन LG ने दस सदस्यों को नामित किया तथा इसे दिल्ली राजपत्र में अधिसूचित किया गया।
  • LG द्वारा नामांकन की वैधता एवं औचित्य को चुनौती देते हुए तत्काल रिट याचिका दायर की गई थी।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने प्रमाण-पत्र के माध्यम से अधिसूचनाओं को रद्द करने और LG को मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह के अनुसार व्यक्तियों को नामित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने सबसे पहले LG को दिये गए कर्त्तव्यों एवं DMC अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (NCTD) सरकार को सौंपी गई शक्तियों एवं कर्त्तव्यों पर विस्तार से चर्चा की।
  • न्यायालय ने विधि के निम्नलिखित दो बिंदु निर्धारित किये:
    • धारा 3(3)(b)(i) के अंतर्गत नामांकन करने की सांविधिक शक्ति पहली बार 1993 के संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तुत की गई थी। इसलिये नामांकन करने की शक्ति अतीत का अवशेष या प्रशासक की शक्ति नहीं है जो डिफ़ॉल्ट रूप से जारी है।
    • DMC अधिनियम, 1957 की धारा 3(3)(b)(i) का ‘पाठ’ एलजी को विशेष ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को नामित करने का अधिकार देता है। जिस ‘संदर्भ’ में यह शक्ति स्थित है, उससे यह पुष्टि होती है कि LG का उद्देश्य जनादेश के अनुसार कार्य करना है, न कि मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से निर्देशित होना।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उपराज्यपाल द्वारा धारा 3(3)(b)(i) के अंतर्गत जारी अधिसूचनाएँ दिल्ली NCT सरकार के अनुच्छेद 239AA के साथ धारा 41 का उल्लंघन नहीं हैं।

दिल्ली नगर निगम अधिनियम (DMC) का विधायी इतिहास क्या है?

  • उल्लेखनीय है कि वर्तमान में दिल्ली नगर निगम में निम्नलिखित शामिल हैं:
    (i) वार्ड से प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा चुने गए पार्षद;
    (ii) नामांकन के माध्यम से मनोनीत व्यक्ति (पहले अधिनियम में उनके लिये 'एल्डरमेन' शब्द का प्रयोग किया गया था लेकिन 1993 के संशोधन के बाद इसे हटा दिया गया था)।
  • दिल्ली में नगरपालिका प्रशासन 1957 में संसद द्वारा पारित डी.एम.सी. अधिनियम द्वारा शासित होता है।
  • रोचक तथ्य यह है कि जब विधेयक प्रस्तुत किया गया था तब एल्डरमैन के संबंध में कोई प्रावधान नहीं था, लेकिन जब इसे अधिसूचित किया गया तो धारा 13 में पार्षदों द्वारा एल्डरमैन के नामांकन का प्रावधान किया गया।
  • संविधान (69 वाँ) संशोधन अधिनियम:
    • वर्ष 1991 में संविधान (69वाँ) संशोधन अधिनियम लागू हुआ, जिसने संविधान के भाग VII में अनुच्छेद 239 AA एवं अनुच्छेद 239 AB को शामिल किया, जिसके कारण दिल्ली के NCT के लिये विशेष विधानसभा का गठन हुआ, जिसमें LG के रूप में प्रशासक का पुन: पदनाम शामिल था।
    • इसके बाद, संसद ने संवैधानिक संशोधन को पूर्ण प्रभाव देने के लिये दिल्ली NCT अधिनियम, 1991 का शासन अधिनियम बनाया।
  • संविधान (चौहत्तरवाँ) संशोधन अधिनियम:
    • नगर पालिकाओं से संबंधित भाग IXA 1 जून 1993 से प्रभावी हुआ।
    • इस प्रकार, इस संशोधन ने नगरपालिका प्रशासन, इसके चुनाव, संरचना आदि को स्वायत्तता प्रदान की।
  • उपरोक्त दो संशोधनों को शामिल करने के लिये, DMC अधिनियम 1993 में संशोधित किया गया था।
  • DMC अधिनियम में 1993 का संशोधन-
    • इसने पाँच प्राधिकारियों को अलग-अलग शक्तियों एवं कर्त्तव्यों का प्रयोग करने की मान्यता दी:
      • केंद्र सरकार
      • दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार
      • प्रशासक
      • निगम
      • आयुक्त
    • यह वह संशोधन है जिसके अंतर्गत राज्यपाल को एल्डरमेन को मनोनीत करने का अधिकार दिया गया है।

डी.एम.सी. अधिनियम के तहत निगम की संरचना क्या है?

  • DMC अधिनियम की धारा 3(3)(b) में प्रावधान है कि निगम में निम्नलिखित शामिल होंगे:
    • प्रशासक द्वारा नामित किये जाने वाले दस व्यक्ति, जिनकी आयु 25 वर्ष से कम न हो तथा जिन्हें नगरपालिका प्रशासन में विशेष ज्ञान या अनुभव हो:
    • हालाँकि इस उप-खंड के अंतर्गत नामित व्यक्तियों को निगम की बैठकों में मतदान का अधिकार नहीं होगा;
    • निगम के क्षेत्र को पूर्णतः या आंशिक रूप से समाहित करने वाले निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा के सदस्य तथा निगम के क्षेत्र में निर्वाचक के रूप में पंजीकृत राज्य सभा के सदस्य।
    • दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की विधान सभा के सदस्यों का यथासंभव पाँचवाँ हिस्सा, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो निगम के क्षेत्र को पूर्णतः या आंशिक रूप से समाहित करते हैं, जिन्हें उस विधान सभा के अध्यक्ष द्वारा प्रत्येक वर्ष चक्रानुक्रम से नामित किया जाएगा:
      हालाँकि ऐसे सदस्यों को चक्रानुक्रम से मनोनीत करते समय अध्यक्ष यह सुनिश्चित करेगा कि जहाँ तक ​​संभव हो सभी सदस्यों को निगम की अवधि के दौरान कम-से-कम एक बार निगम में प्रतिनिधित्व करने का अवसर दिया जाए;
    • धारा 39, 40 एवं 45 के अंतर्गत गठित समितियों के अध्यक्ष, यदि कोई हों, यदि वे पार्षद न हों।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार एवं केंद्र सरकार के मध्य कार्यकारी एवं विधायी संबंध क्या हैं?

  • विधायी संबंध:
    • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधान सभा को राज्य सूची या समवर्ती सूची (राज्य सूची की प्रविष्टि 1, 2 एवं 18 को छोड़कर) में सूचीबद्ध "किसी भी विषय" के संबंध में विधि निर्माण की शक्ति है।
    • उपरोक्त के बावजूद, संसद के पास तीनों सूचियों में ‘किसी भी मामले’ के संबंध में दिल्ली के लिये विधि (विधायी शक्ति) बनाने की शक्ति होगी। यहीं पर राज्यों के संबंध में संसद की विधायी शक्तियों से विचलन देखा जा सकता है।
      • संसद को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिये सूची II में सूचीबद्ध मामलों के संबंध में भी विधि निर्माण की शक्ति है।
    • संसद द्वारा बनाया गई विधि दिल्ली विधानसभा द्वारा बनाए गए विधि पर लागू होगी, चाहे पहले कोई भी विधि क्यों न आई हो। एकमात्र अपवाद तब है जब दिल्ली विधानसभा द्वारा बनाई गई विधि को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृति मिल जाती है।
    • एक बार जब संसद सूची II एवं सूची III में किसी भी विषय के संबंध में विधि निर्माण की शक्ति का प्रयोग करती है, तो दिल्ली विधानसभा उस विषय के संबंध में विधि निर्माण की विधायी क्षमता से वंचित हो जाती है।
  • कार्यकारी संबंध:
    • दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार की कार्यकारी शक्ति सूची II एवं सूची III (प्रविष्टियों 1,2 एवं 18 को छोड़कर) में सूचीबद्ध सभी मामलों तक विस्तृत है।
    • भारत संघ के पास राज्य सूची की प्रविष्टियों 1, 2 एवं 18 में मामलों के संबंध में विशेष कार्यकारी शक्ति होगी, जिन्हें विशेष रूप से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की विधायी शक्ति से परे रखा गया है।
    • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्ति का प्रयोग उपराज्यपाल के माध्यम से किया जाएगा, जो मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह पर कार्य करेंगे।
      • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 163 के अंतर्गत राज्य के राज्यपाल एवं LG के मध्य अंतर है।
      • अनुच्छेद 163 के अंतर्गत राज्य का राज्यपाल सभी मामलों पर मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह पर कार्य करता है, सिवाय उन मामलों के जब संविधान के अंतर्गत उसे अपने विवेक से अपने कार्यों का प्रयोग करने की आवश्यकता होती है।
      • अनुच्छेद 239AA (4) के तहत उपराज्यपाल को विवेक का प्रयोग करना है, जहाँ तक ​​उन्हें किसी विधि द्वारा या उसके अंतर्गत अपने विवेक से कार्य करने की आवश्यकता है।
        • 'विधि' संसदीय विधि या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा की विधि हो सकती है।
    • जब संसद किसी विषय पर विधि निर्माण कर सकती है, जिस पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को विधायी शक्ति भी प्राप्त होती है तथा फलस्वरूप कार्यकारी शक्ति भी प्राप्त होती है, तो प्राधिकारियों की शक्तियाँ, कर्त्तव्य एवं दायित्त्व, बनाए गए विधि के अधिदेश द्वारा शासित होंगे।
      • इसलिये, यहाँ केवल सांविधिक प्रावधान ही यह निर्धारित करेगा कि उपराज्यपाल अपनी इच्छा से कार्य करेंगे या मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह पर कार्य करेंगे।

केंद्र सरकार एवं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार के मध्य शक्तियों का वितरण कैसे किया जाता है?

क्रम संख्या

शक्ति

संघ सरकार

NCT दिल्ली राज्य

1.

विधायी

दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिये राज्य सूची, समवर्ती सूची एवं संघ सूची के सभी विषयों पर विधि निर्माण कर सकती है (अनुच्छेद 239AA(3)(b))

 

राज्य सूची एवं समवर्ती सूची में सभी विषयों पर विधि निर्माण कर सकता है, राज्य सूची की प्रविष्टियाँ 1 (लोक  व्यवस्था), 2 (पुलिस), 18 (भूमि) एवं प्रविष्टियाँ 64, 65, 66 को छोड़कर जहाँ तक वे प्रविष्टियाँ 1, 2, 18 से संबंधित हैं (अनुच्छेद 239AA(3)(a))

2. 

कार्यकारी

उन मामलों तक विस्तारित है जिन पर संसद विधि निर्माण कर सकती है (अनुच्छेद 73); राज्य सूची की प्रविष्टियों 1, 2, 18 पर विशेष शक्ति।

विधायी शक्ति के साथ सह-व्यापक (2018 संविधान पीठ का निर्णय); उन सभी विषयों पर लागू होता है जिन पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली विधि निर्माण कर सकती है।

3. 

सेवा

सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस एवं भूमि से संबंधित सेवाओं को नियंत्रित करता है (अनुच्छेद  239AA(3)(a)); UPSC परामर्श आवश्यक (व्यापर नियम 46(2))।

विधायी क्षेत्राधिकार से बहिष्करण के अधीन अन्य सेवाओं पर नियंत्रण होना चाहिये (अनुच्छेद 239AA एवं संघीय सिद्धांतों पर आधारित व्याख्या)।

4. 

अधिभावी शक्ति

राष्ट्रपति का सामान्य नियंत्रण होता है तथा वे LG एवं मंत्रिपरिषद को निर्देश जारी कर सकते हैं (NCT दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 की धारा 49)।

राष्ट्रपति के निर्देशों का पालन करना होगा।

 

5. 

विवाद समाधान

यदि मंत्रिपरिषद के साथ मतभेद बना रहता है तो LG मामले को राष्ट्रपति को भेज सकते हैं (अनुच्छेद 239AA(4) उपबंध)

मामला राष्ट्रपति के पास भेजे जाने से पहले LG के साथ समाधान का प्रयास करना चाहिये (कार्य संचालन नियम)

6. 

आपातकालीन शक्तियाँ

 

राष्ट्रपति आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली शासन अधिनियम की सभी शक्तियाँ ग्रहण कर सकते हैं (अनुच्छेद 239AB)

आपातकाल के दौरान शक्तियाँ निलंबित