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आपराधिक कानून

मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा सौदा अभिवाक के विषय पर सुझाव

 21-Aug-2024

श्री जी. वेंकटेशन बनाम राज्य

“भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन केवल लिंग-केंद्रित अपराधों को ही सौदा अभिवाक से बाहर रखा गया है, न कि महिलाओं के खिलाफ सभी अपराधों को।”

न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

मद्रास उच्च न्यायालय के हालिया निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि "महिलाओं के विरुद्ध अपराध", जिन्हें सौदा अभिवाक से बाहर रखा गया है, में केवल लिंग-केंद्रित या लिंग-तटस्थ अपराध शामिल हैं, न कि महिलाओं से संबंधित सभी अपराध।

  • न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन ने श्री जी. वेंकटेशन बनाम राज्य के मामले में यह निर्णय दिया।
  • न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन ने यह भी अनुशंसा की कि ट्रायल कोर्ट को आरोप तय होने के तुरंत बाद आरोपी व्यक्तियों को उनके सौदा अभिवाक के अधिकारों के विषय में सूचित करना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे विधि द्वारा निर्धारित 30-दिन की अवधि के अंदर इस विकल्प का प्रयोग कर सकें।

श्री जी. वेंकटेशन बनाम राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • श्री जी. वेंकटेशन पर जूनियर बेलीफ भाग्यलक्ष्मी के विरुद्ध कारित अपराध का आरोप लगाया गया था।
  • यह घटना 2 अप्रैल, 2021 को हुई, जब भाग्यलक्ष्मी वेंकटेशन के आवास पर गार्निशी समन देने गई थीं।
  • श्री जी. वेंकटेशन ने कथित तौर पर भाग्यलक्ष्मी को मौखिक रूप से गाली दी, उन पर शारीरिक हमला किया तथा उन्हें अपने घर में दोषपूर्ण तरीके से रोक लिया।
  • वेंकटेशन के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 173, 294 (B), 323, 342, 353, 427 और तमिलनाडु महिला उत्पीड़न निषेध अधिनियम की धारा 4 के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
  • जाँच के बाद, एक आरोप-पत्र दायर किया गया तथा मामले को सुनवाई के लिये ले जाया गया।
  • श्री जी. वेंकटेशन ने प्रारंभ में कार्यवाही को रद्द करने के लिये एक याचिका दायर की, जिसे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
  • इसके बाद, श्री जी. वेंकटेशन ने अपने आचरण के लिये क्षमा मांगने की इच्छा व्यक्त की तथा सौदा अभिवाक को अग्रसर करने की मांग की।
  • उन्होंने ट्रायल कोर्ट के समक्ष सौदा अभिवाक के लिये आवेदन दायर करने का प्रयास किया, लेकिन इसे स्वीकार करवाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
  • श्री जी. वेंकटेशन ने फिर से उच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें शिकायतकर्त्ता के न्यायालय कर्मचारी होने के कारण संभावित पक्षपात के विषय में चिंता व्यक्त की गई।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सौदा अभिवाक से बाहर रखे गए "महिलाओं के विरुद्ध अपराध" शब्द की व्याख्या प्रतिबंधात्मक रूप से की जानी चाहिये, जिसमें केवल लिंग-केंद्रित या लिंग-तटस्थ अपराध शामिल हों, न कि महिलाओं के विरुद्ध किये गए सभी सामान्य अपराध।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सौदा अभिवाक के मामलों में कारावास का प्रावधान अनिवार्य नहीं है, तथा जहाँ कोई न्यूनतम सज़ा निर्धारित नहीं है, वहाँ न्यायालय "न्यायालय उठने तक" से लेकर निर्धारित अवधि के अधिकतम 1/4 तक कारावास का प्रावधान कर सकता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सौदा अभिवाक की प्रक्रिया केवल अभियुक्त के आवेदन पर ही प्रारंभ होनी चाहिये तथा न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि ऐसा आवेदन स्वेच्छा से और सूचित सहमति से किया गया हो।
  • न्यायालय ने अनुशंसा की कि ट्रायल कोर्ट को आरोप तय करने के तुरंत बाद योग्य अभियुक्तों को सौदा अभिवाक का सहारा लेने के उनके अधिकार के विषय में सूचित करना चाहिये, ताकि इस अधिकार का समय पर प्रयोग सुनिश्चित हो सके।
  • न्यायालय ने सुझाव दिया कि ट्रायल कोर्ट सौदा अभिवाक के मामलों में पारस्परिक रूप से संतोषजनक निपटान (MSD) प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिये विधिक सेवा प्राधिकरणों से सहायता ले सकते हैं।
  • न्यायालय ने त्वरित विचारण, मुकदमेबाज़ी की लागत में कमी लाने तथा अपराधियों को पुनर्वास का अवसर प्रदान करने के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये सौदा अभिवाक के प्रावधानों के उचित कार्यान्वयन के महत्त्व को बताया।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 290 क्या है?

परिचय:

  • BNSS की धारा 290 सौदा अभिवाक के लिये आवेदन से संबंधित है। पहले यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 265B के अधीन दिया गया था।
  • आरोपी व्यक्ति आरोप तय होने की तिथि से 30 दिनों के अंदर उस न्यायालय में सौदा अभिवाक के लिये आवेदन दायर कर सकता है, जहाँ विचारण लंबित है।
  • आवेदन में मामले और संबंधित अपराध का संक्षिप्त विवरण शामिल होना चाहिये।
  • आरोपी को एक शपथ-पत्र संलग्न करना होगा जिसमें यह उल्लेख किया गया हो कि:
    a) उन्होंने अपराध के लिये दण्ड की प्रकृति एवं सीमा को समझने के बाद स्वेच्छा से सौदा अभिवाक का विकल्प चुना है।
    b) उन्हें पहले उसी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया गया है।
  • आवेदन प्राप्त होने पर, न्यायालय को लोक अभियोजक या शिकायतकर्त्ता तथा अभियुक्त को एक निश्चित तिथि पर उपस्थित होने के लिये नोटिस जारी करना चाहिये।
  • निर्धारित तिथि पर, न्यायालय अभियुक्त की कैमरे के सामने, दूसरे पक्ष की उपस्थिति के बिना, जाँच करेगा, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि आवेदन स्वैच्छिक है।
  • यदि न्यायालय संतुष्ट है कि आवेदन स्वैच्छिक है:
    a) इसमें लोक अभियोजक/शिकायतकर्त्ता एवं अभियुक्त को आपसी सहमति से समाधान निकालने के लिये 60 दिन तक का समय दिया जाएगा।
    b) इस समाधान में अभियुक्त द्वारा पीड़ित को दिया जाने वाला क्षतिपूर्ति एवं अन्य व्यय शामिल हो सकते हैं।
    c) इसके बाद न्यायालय आगे की विचारण के लिये तिथि तय करेगी।
  • यदि न्यायालय पाता है कि आवेदन अनैच्छिक है या अभियुक्त को पहले भी उसी अपराध के लिये दोषी ठहराया जा चुका है:
    a) यह संहिता के नियमित प्रावधानों के अनुसार मामले को अग्रसर करेगा।
    b) मामला उस चरण से जारी रहेगा, जहाँ सौदा अभिवाक का आवेदन दायर किया गया था।
  • इस प्रक्रिया का उद्देश्य सौदा अभिवाक के लिये एक संरचित दृष्टिकोण प्रदान करना, स्वैच्छिक भागीदारी सुनिश्चित करना, पीड़ितों के हितों की सुरक्षा करना, तथा न्यायिक निगरानी बनाए रखते हुए मामले का त्वरित समाधान करना है।

विधिक प्रावधान:

  • सौदा अभिवाक के लिये आवेदन (BNSS की धारा 290):
    • अभियुक्त को आरोप तय होने के 30 दिनों के अंदर आवेदन दाखिल करना होगा।
    • आवेदन में केस का विवरण एवं स्वैच्छिक भागीदारी का शपथ-पत्र शामिल होना चाहिये।
    • न्यायालय सभी पक्षों को नोटिस जारी करता है तथा स्वैच्छिकता सुनिश्चित करने के लिये बंद कमरे में अभियुक्त की जाँच करता है।
    • यदि स्वैच्छिकता है, तो न्यायालय पारस्परिक रूप से संतोषजनक निपटान के लिये 60 दिनों तक की अनुमति देता है।
  • पारस्परिक रूप से संतोषजनक निपटान के लिये दिशा-निर्देश (BNSS की धारा 291):
    • पुलिस रिपोर्ट मामलों में, न्यायालय अभियोजक, विवेचना अधिकारी, अभियुक्त एवं पीड़ित को शामिल करता है।
    • गैर-पुलिस रिपोर्ट मामलों में, न्यायालय अभियुक्त एवं पीड़ित को शामिल करता है।
    • न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि पूरी प्रक्रिया स्वैच्छिक रहे।
    • यदि चाहें तो पक्ष अपने अधिवक्ताओं के साथ भाग ले सकते हैं।
  • निपटान की रिपोर्ट (BNSS की धारा 292):
    • न्यायालय संतोषजनक निपटान की रिपोर्ट तैयार करता है, जिस पर सभी प्रतिभागियों के हस्ताक्षर होते हैं।
    • यदि कोई निपटान नहीं होता है, तो न्यायालय इसे रिकॉर्ड करता है तथा नियमित विचारण के साथ आगे बढ़ता है।
  • मामले का निपटान (BNSS की धारा 293):
    • न्यायालय पीड़ित को उसके निर्णय के अनुसार क्षतिपूर्ति प्रदान करता है।
    • वह अभियुक्त को परिवीक्षा पर या प्रासंगिक विधियों के अधीन रिहा कर सकता है।
    • न्यूनतम सज़ा वाले अपराधों के लिये:
      a) न्यायालय अभियुक्त को न्यूनतम सज़ा की आधी सज़ा सुना सकता है।
      b) पहली बार अपराध करने वालों के लिये, इसे न्यूनतम सज़ा के एक-चौथाई तक घटाया जा सकता है।
    • अन्य अपराधों के लिये:
      क) न्यायालय निर्धारित दण्ड का एक-चौथाई भाग दे सकता है।
      ख) पहली बार अपराध करने वालों के लिये, यह निर्धारित दण्ड का छठा भाग तक कम किया जा सकता है।
  • निर्णय एवं अंतिमता (BNSS की धारा 294-295):
    • न्यायालय अपना निर्णय पीठासीन अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित ओपन न्यायालय में देता है।
    • निर्णय अंतिम होता है तथा अपील के विकल्प सीमित होते हैं (अनुच्छेद 136 के अंतर्गत SLP, अनुच्छेद 226 एवं 227 के अंतर्गत रिट)।
  • न्यायालय की शक्तियाँ एवं प्रक्रियात्मक मामले (BNSS की धारा 296-297):
    • न्यायालय के पास ज़मानत, विचारण और मामले के निपटान से संबंधित सभी शक्तियाँ सुरक्षित रहती हैं।
    • अभिरक्षा में बिताई गई अवधि को दी गई सज़ा में से घटा दिया जाता है।
  • बचत एवं गैर-अनुप्रयोग (BNSS की धारा 298-300):
    • ये प्रावधान BNSS के असंगत प्रावधानों को रद्द कर देते हैं।
    • सौदा अभिवाक के दौरान दिये गए कथनों का किसी अन्य उद्देश्य के लिये उपयोग नहीं किया जा सकता है।
    • ये प्रावधान किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के अंतर्गत किशोरों या बच्चों पर लागू नहीं होते हैं।

आपराधिक कानून

कोलकाता बलात्संग मामले में उच्चतम न्यायालय का निर्देश

 21-Aug-2024

आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल, कोलकाता में प्रशिक्षु डॉक्टर के कथित बलात्संग एवं हत्या तथा इससे संबंधित मुद्दे

“देश ज़मीनी स्तर पर वास्तविक परिवर्तन के लिये बलात्संग या हत्या की प्रतीक्षा नहीं कर सकता।”

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक डॉक्टर के कथित बलात्संग एवं हत्या का स्वत: संज्ञान लिया तथा चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये एक नेशनल टास्क फोर्स (NTF) का गठन किया।

  • उच्चतम न्यायालय ने आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल, कोलकाता में प्रशिक्षु डॉक्टर के कथित बलात्संग एवं हत्या तथा संबंधित मुद्दों के संबंध में इस मामले में कई निर्देश दिये।

मामले के तथ्य क्या हैं?

  • 9 अगस्त 2024 को कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज अस्पताल में 31 वर्षीय स्नातकोत्तर डॉक्टर की 36 घंटे की ड्यूटी शिफ्ट के दौरान अस्पताल के सेमिनार रूम में हत्या कर दी गई तथा कथित तौर पर उसके साथ बलात्संग कारित किया गया।
  • इस घटना के बाद डॉक्टरों के संघों, छात्र निकायों एवं नागरिक समूहों द्वारा देशव्यापी विरोध एवं आंदोलन प्रारंभ हो गए।
  • 15 अगस्त 2024 को एक बड़ी भीड़ ने मेडिकल कॉलेज अस्पताल के आपातकालीन वार्ड एवं अन्य विभागों में तोड़फोड़ की।
  • भारतीय चिकित्सा संघ ने 17 अगस्त 2024 को 24 घंटे के लिये देश भर में चिकित्सा सेवाएँ (आपातकालीन सेवाओं को छोड़कर) बंद करने का आह्वान किया।
  • इस घटना ने भारत में डॉक्टरों एवं अन्य चिकित्सा पेशेवरों, विशेष रूप से महिलाओं के लिये संस्थागत सुरक्षा की कमी को उजागर किया, जो यौन एवं गैर-यौन हिंसा दोनों मामलों में उच्च जोखिम की श्रेणी में हैं।
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने केंद्रीय अंवेषण ब्यूरो (CBI) को 13 अगस्त 2024 को जाँच अपने हाथ में लेने का निर्देश दिया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • गोपनीयता एवं गरिमा संबंधी चिंताएँ:
    • न्यायालय ने मीडिया में पीड़िता के नाम, फोटोग्राफ एवं मृतक के शरीर को दिखाने वाली वीडियो क्लिप के व्यापक प्रसार पर गहरी चिंता व्यक्त की।
  • महिलाओं के लिये समानता का अधिकार:
    • न्यायालय ने कहा कि काम की सुरक्षित परिस्थितियों को बनाए रखना हर कामकाजी पेशेवर के लिये अवसर की समानता को साकार करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • यह केवल डॉक्टरों की सुरक्षा का मामला नहीं है। स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के रूप में उनकी सुरक्षा एवं कल्याण राष्ट्रीय हित का विषय है।
    • न्यायालय ने आगे कहा कि देश ज़मीनी स्तर पर वास्तविक बदलाव के लिये बलात्संग या हत्या की प्रतीक्षा नहीं कर सकता।
  • मामले का प्रारंभिक निपटान:
    • न्यायालय ने मामले को लेकर राज्य सरकार के रवैये पर प्रश्न किये, विशेषकर घटना को आत्महत्या सिद्ध करने की प्रारंभिक प्रयास और माता-पिता को शव देखने की अनुमति देने में विलंब पर।
    • न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने के समय पर चिंता जताई, जो कि देर रात को दर्ज की गई, जबकि शव परीक्षण दिन में ही कर लिया गया था।
  • अस्पताल सुरक्षा एवं गुंडागर्दी:
    • न्यायालय ने विरोध प्रदर्शन के दौरान अस्पताल में हुई तोड़फोड़ को रोकने एवं उससे निपटने में राज्य की अक्षमता की आलोचना की।
    • न्यायाधीशों ने इस बात पर अविश्वास व्यक्त किया कि पुलिस की जानकारी या संलिप्तता के बिना 7,000 लोगों की भीड़ इकट्ठा हो सकती है।
  • सुरक्षा संबधी उपाय:
    • सुरक्षा संबंधी चिंताओं के कारण, न्यायालय ने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) को अस्पताल एवं छात्रावास को सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया।
  • विवेचना की स्थिति:
    • न्यायालय ने CBI (मुख्य मामले के संबंध में) एवं पश्चिम बंगाल राज्य (गुंडागर्दी की विवेचना के संबंध में) दोनों को 22 अगस्त 2024 तक स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है।

नेशनल टास्क फोर्स के गठन पर न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ हैं?

  • उच्चतम न्यायालय ने चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा, कार्य स्थितियों एवं कल्याण से संबंधित अनुशंसाएँ तैयार करने के लिये चिकित्सा पेशेवरों एवं पदेन सदस्यों से मिलकर एक नेशनल टास्क फोर्स (NTF) का गठन किया।
  • NTF को दो श्रेणियों में वर्गीकृत एक कार्य योजना तैयार करने का काम सौंपा गया है:
    • चिकित्सा पेशेवरों के विरुद्ध लिंग आधारित हिंसा सहित हिंसा को रोकना
    • सभी चिकित्सा पेशेवरों के लिये सम्मानजनक एवं सुरक्षित कार्य स्थितियों के लिये एक लागू करने योग्य राष्ट्रीय प्रोटोकॉल प्रदान करना
  • न्यायालय ने NTF के लिये विचार करने हेतु विशिष्ट क्षेत्रों की प्रारूप तैयार की, जिसमें सुरक्षा उपाय, अवसंरचना विकास, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का रोज़गार, प्रशिक्षण कार्यक्रम एवं यौन हिंसा की रोकथाम शामिल हैं।
  • NTF को तीन सप्ताह के अंदर एक अंतरिम रिपोर्ट और दो महीने के अंदर एक अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
  • सभी राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार को एक महीने के अंदर अस्पताल की सुरक्षा तथा सुविधाओं के विभिन्न पहलुओं पर डेटा एकत्र करने और प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया है।

सांविधानिक विधि

क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर आरक्षण

 21-Aug-2024

रामनरेश उर्फ़ रिंकू कुशवाह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य

"जो अपीलकर्त्ता मेधावी थे और उन्हें अनारक्षित श्रेणी में प्रवेश दिया जा सकता था, उन्हें प्रवेश से वंचित नहीं किया जाना चाहिये"।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि अपीलकर्त्ताओं को प्रवेश देने से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे मेधावी थे और उन्हें अनारक्षित श्रेणी में प्रवेश दिया जा सकता था।

  • उच्चतम न्यायालय ने रामनरेश उर्फ ​​रिंकू कुशवाह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

रामनरेश उर्फ ​​रिंकू कुशवाह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • 19 जून 2019 को मध्य प्रदेश शिक्षा प्रवेश नियम, 2018 में संशोधन किया गया।
  • नए उपनियम स्थापित किये गए, जिसमें "श्रेणी" को परिभाषित किया गया तथा श्रेणीवार आरक्षण द्वारा रिक्तियों को भरने की विधि स्थापित की गई।
  • 10 मई 2023 को प्रवेश नियम, 2018 में एक नया संशोधन किया गया, जिसमें "सरकारी स्कूल" को परिभाषित किया गया तथा एक नई श्रेणी "सरकारी स्कूल छात्र" बनाई गई।
  • 5% सीटें सरकारी स्कूल के छात्रों के लिये आरक्षित थीं।
  • NEET-UG के परिणाम 13 जून 2023 को घोषित किये गए। सरकारी स्कूल के छात्रों के लिये 89 अनारक्षित सीटों में से 77 को ओपन कैटेगरी में भेजा गया।
  • इस निर्णय से व्यथित होकर कि रिक्त सीटें अनारक्षित श्रेणी के लिये जारी की जा रही थीं, उच्च न्यायालय में रिट याचिकाएँ दायर की गईं, जहाँ यह प्रार्थना की गई कि आरक्षित श्रेणी के मेधावी छात्र जिन्होंने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की है, उन्हें अनारक्षित श्रेणी के सरकारी स्कूल कोटे की MBBS सीटें आवंटित की जानी चाहिये।
  • उच्च न्यायालय की ग्वालियर पीठ ने रिट याचिका खारिज कर दी।
  • मामला अंत में उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया।
  • इस प्रकार, रिट याचिका चिकित्सा शिक्षा विभाग के उस निर्णय को चुनौती देते हुए दायर की गई थी, जिसमें मेधावी आरक्षित अभ्यर्थियों को MBBS अनारक्षित श्रेणी कोटा सीटें आवंटित नहीं की गई थीं।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि यह विधि का स्थापित सिद्धांत है कि
    • किसी भी ऊर्ध्वाधर आरक्षण श्रेणी से संबंधित कोई अभ्यर्थी जो अपनी योग्यता के आधार पर ओपन या सामान्य श्रेणी में चयनित होने का अधिकारी है, उसे सामान्य श्रेणी के विरुद्ध चुना जाएगा, तथा
    • उसका चयन ऐसी ऊर्ध्वाधर आरक्षण श्रेणियों के लिये आरक्षित कोटे के विरुद्ध नहीं गिना जाएगा।
  • न्यायालय ने अनेक उदाहरणों का उदाहरण देते हुए कहा कि जो अपीलकर्त्ता मेधावी थे तथा जिन्हें अनारक्षित श्रेणी में प्रवेश दिया जा सकता था, उन्हें क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर आरक्षण लागू करने में दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के कारण प्रवेश देने से मना कर दिया गया।
  • इस प्रकार, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया तथा याचिकाकर्त्ताओं को प्रवेश दे दिया गया।

आरक्षण क्या है?

  • आरक्षण सकारात्मक भेदभाव का एक रूप है, जिसे हाशिए पर पड़े वर्गों के बीच समानता को बढ़ावा देने के लिये बनाया गया है, ताकि उन्हें सामाजिक एवं ऐतिहासिक अन्याय से बचाया जा सके।
  • आम तौर पर, इससे तात्पर्य है कि रोज़गार एवं शिक्षा तक पहुँच में समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों को वरीयता देना।
  • इसे मूल रूप से वर्षों से चले आ रहे भेदभाव को ठीक करने एवं वंचित समूहों को बढ़ावा देने के लिये विकसित किया गया था।
  • भारत में, लोगों के साथ जाति के आधार पर ऐतिहासिक रूप से भेदभाव किया जाता रहा है।

भारतीय संविधान, 1950 (COI) में आरक्षण से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

  • भारतीय संविधान, 1950 (COI) का भाग XVI केंद्र एवं राज्य विधानसभाओं में SC और ST के आरक्षण से संबंधित है।
  • COI के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) ने राज्य एवं केंद्र सरकारों को SC एवं ST समुदाय के लोगों के लिये सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाया।
  • संविधान (77वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन किया गया तथा सरकार को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने में सक्षम बनाने के लिये अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4A) उपबंधित किया गया।
  • बाद में, आरक्षण देकर पदोन्नत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिये संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा खंड (4A) को संशोधित किया गया।
  • संविधान के 81वें संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा अनुच्छेद 16 (4B) को शामिल किया गया, जो राज्य को किसी वर्ष की रिक्तियों को भरने का अधिकार देता है, जो अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित हैं, जिससे उस वर्ष की कुल रिक्तियों पर पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा समाप्त हो जाती है।
  • संविधान की धारा 330 एवं 332 में संसद और राज्य विधानसभाओं में क्रमशः अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व का प्रावधान है।
  • अनुच्छेद 243D में प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया है।
  • अनुच्छेद 233T में प्रत्येक नगर पालिका में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया है।
  • संविधान की धारा 335 में उपबंधित किया गया है कि प्रशासन की प्रभावकारिता को बनाए रखने के साथ अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के दावों पर विचार किया जाएगा।

आरक्षण के कितने प्रकार हैं?

  • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि आरक्षण दो प्रकार के होते हैं:
    • क्षैतिज आरक्षण
    • ऊर्ध्वाधर आरक्षण
  • ऊर्ध्वाधर आरक्षण:
    • ये विशेष प्रावधानों का उच्चतम रूप हैं जो विशेष रूप से पिछड़े वर्गों SC, ST एवं OBC समुदाय के लोगों के लिये हैं।
    • इन वर्गों के सदस्यों द्वारा उनकी योग्यता के आधार पर प्राप्त पदों को ऊर्ध्वाधर आरक्षित पदों में नहीं गिना जाता है।
    • ये 50% से अधिक नहीं हो सकते।
  • क्षैतिज आरक्षण:
    • वे विशेष प्रावधानों का कमतर रूप हैं तथा अन्य वंचित नागरिकों (जैसे- विकलांग, महिलाएँ आदि) के लिये हैं।
    • उनके माध्यम से समायोजन पिछड़े वर्गों के लिये लंबवत आरक्षित सीटों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर आरक्षण की प्रयोज्यता को स्पष्ट करने वाले निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • सौरव यादव एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2021)
    • इस मामले में न्यायालय ने क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर आरक्षण की प्रयोज्यता के मुद्दे पर विचार किया।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा तमन्नाबेन अशोकभाई देसाई बनाम शीतल अमृतलाल निशार (2020) के मामले में जिस प्रक्रिया पर विचार किया गया था।
    • इस मामले में एक उदाहरण लिया गया जहाँ महिलाओं को क्षैतिज आरक्षण दिया गया था।
    • न्यायालय ने माना कि अनुसूचित जनजातियों के लिये ऊर्ध्वाधर कॉलम में आवंटित पहली महिला अभ्यर्थी ने अनारक्षित श्रेणी के अभ्यर्थी की तुलना में उच्च स्थान प्राप्त किया हो सकता है।
    • ऐसी स्थिति में उक्त अभ्यर्थी को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से हटाकर ओपन/सामान्य श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिये, जिससे अनुसूचित जनजाति के ऊर्ध्वाधर श्रेणी में परिणामी रिक्ति उत्पन्न हो जाएगी।
    • ऐसी रिक्ति अनुसूचित जनजाति-महिला के लिये प्रतीक्षा सूची में अभ्यर्थी के लाभ के लिये होनी चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त, इस मामले में न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट ने सहमति जताते हुए कहा कि
      • क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर दोनों ही तरह के आरक्षण सार्वजनिक सेवाओं में प्रतिनिधित्त्व सुनिश्चित करने का एक माध्यम है।
      • इन्हें कठोर साइलो के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये, जहाँ किसी अभ्यर्थी की योग्यता जो अन्यथा उसे सामान्य श्रेणी में दिखाए जाने का अधिकारी बनाती है, उसे बंद कर दिया जाता है।
      • ऐसा करने से सांप्रदायिक आरक्षण हो जाएगा, जहाँ प्रत्येक सामाजिक श्रेणी को उसके आरक्षण की सीमा के अंदर सीमित कर दिया जाएगा, जिससे योग्यता को अस्वीकृति कर दिया जाएगा।
  • साधना सिंह डांगी एवं अन्य बनाम पिंकी असाटी एवं अन्य (2022)
    • उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने क्षैतिज आरक्षण के मुद्दे पर विचार किया।
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि उपरोक्त मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा लिया गया दृष्टिकोण सही है तथा इस पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिये।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय यह समझने में विफल रहा कि वैचारिक रूप से ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज आरक्षण के मध्य कोई अंतर नहीं है।
    • जब मूल विचार की बात आती है तो आरक्षित श्रेणियों से संबंधित अभ्यर्थी अनारक्षित श्रेणियों में सीटों के लिये दावा कर सकते हैं यदि उनकी योग्यता उन्हें ऐसा करने का अधिकारी बनाती है।