करेंट अफेयर्स और संग्रह
होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह
आपराधिक कानून
आत्महत्या के दुष्प्रेरण हेतु आवश्यक तत्त्व
22-Aug-2024
खैरू उर्फ़ सतेंद्र सिंह रावत बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य "ऐसा कोई सकारात्मक या प्रत्यक्ष आरोप नहीं है कि याचिकाकर्त्ता का आशय वंदना की हत्या करना था या उसने उसे आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित करना या प्रोत्साहित करना था।" न्यायमूर्ति संजीव एस. कलगांवकर |
स्रोत: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने खैरू उर्फ़ सतेंद्र सिंह रावत बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का आरोप स्थापित करने के लिये वास्तविक आशय होना चाहिये तथा यदा कदा उत्पीड़न या दुर्व्यवहार को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जाएगा।
खैरू उर्फ़ सतेंद्र सिंह रावत बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में, वंदना (मृतक) विक्रम की पत्नी थी, जो साड़ी के सहारे छत के पंखे से लटकी हुई पाई गई थी।
- मृतक के रिश्तेदारों द्वारा आत्महत्या के दुष्प्रेरण के आरोप में एक व्यक्ति (इस मामले में याचिकाकर्त्ता) एवं उसके पति के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी तथा उन पर भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 एवं धारा 306 के अधीन आरोप लगाए गए थे।
- आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्त्ता एवं उसका पति मृतका के साथ दुर्व्यवहार करते थे तथा पति नशे में मृतका के साथ मारपीट करता था।
- मामला ट्रायल कोर्ट में प्रस्तुत किया गया, जहाँ यह माना गया कि याचिकाकर्त्ता एवं सह-आरोपी (विक्रम) मृतका को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण एवं परेशान करने के आरोपों के अधीन उत्तरदायी हैं।
- इस निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने इस आधार पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण के लिये कोई दुष्प्रेरण या कृत्य कारित नहीं किया गया था।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मामले के निर्णय को पूरा करने के लिये विभिन्न ऐतिहासिक मामलों का उदाहरण दिया।
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि आरोपी व्यक्ति का प्रत्यक्ष कृत्य ऐसी प्रकृति का होना चाहिये, जहाँ पीड़ित के पास आत्महत्या करने के अतिरिक्त कोई विकल्प न हो।
- उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह मानते हुए भी कि याचिकाकर्त्ता ने मृतक के साथ दुर्व्यवहार किया, यह आचरण "दुष्प्रेरण" या "दुष्प्रेरण" के अंतर्गत नहीं आता।
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उपरोक्त टिप्पणियों के बाद ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलट दिया तथा माना कि याचिकाकर्त्ता एवं सह-आरोपी के विरुद्ध लगाए गए आरोपों में कोई प्रथम दृष्टया साक्ष्य नहीं है और इसलिये आपराधिक पुनरीक्षण को स्वीकार कर लिया।
आत्महत्या का दुष्प्रेरण क्या है?
- परिचय:
- IPC की धारा 306, आत्महत्या का दुष्प्रेरण से संबंधित है, जबकि यही प्रावधान भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 108 के अधीन शामिल किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो जो कोई भी ऐसी आत्महत्या का दुष्प्रेरण कारित करता है, उसे किसी भी प्रकार के कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है एवं अर्थदण्ड भी देना होगा।
- उपरोक्त प्रावधान को पढ़ने से पता चलता है कि IPC की धारा 306 के अधीन अपराध के लिये, आत्महत्या एवं आत्महत्या का दुष्प्रेरण, दो आवश्यकताएँ हैं।
- आत्महत्या करना दण्डनीय नहीं है, इसलिये नहीं कि यह दोषी नहीं है, बल्कि इसलिये कि उत्तरदायी व्यक्ति किसी अभियोग का सामना करने से पहले ही इस दुनिया से चला जाता है।
- जबकि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण को विधि द्वारा बहुत गंभीरता से लिया जाता है।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- प्राचीन काल में भारत में सती प्रथा प्रचलित थी, जिसमें हिंदू महिलाएँ अपने पति की मृत्यु पर स्वयं को जला देती थीं।
- इस परंपरा को महिला के जीवन को समाप्त करने का सबसे शुद्ध रूप माना जाता था।
- परंपरा के नाम पर ऐसी प्रथाओं को खत्म करने के लिये आत्महत्या के प्रावधान जोड़े गए।
- इसके अतिरिक्त दहेज़ न लाने पर ससुराल वालों द्वारा दुर्व्यवहार एवं पति या ससुराल वालों द्वारा महिला पर अत्याचार व क्रूरता के कारण आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण की प्रथा शुरू हो जाती है।
- IPC में प्रावधान:
- आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण की सज़ा IPC की धारा 306 के अधीन दी जाती है।
- यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या कारित करता है, तो जो कोई ऐसी आत्महत्या का दुष्प्रेरण कारित करता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है तथा वह अर्थदण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
- BNS में प्रावधान:
- आत्महत्या के दुष्प्रेरण की सज़ा BNS की धारा 108 के अधीन दी जाती है।
- यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या कारित करता है, तो जो कोई ऐसी आत्महत्या का दुष्प्रेरण कारित करता है, उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, तथा वह अर्थदण्ड के लिये भी उत्तरदायी होगा।
दुष्प्रेरण क्या है?
- परिचय:
- यदि कोई व्यक्ति किसी को आत्महत्या करने के लिये विवश करता है, दुष्प्रेरित करता है, प्रोत्साहित करता है।
- आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का कृत्य किसी को आत्महत्या करने में सहायता करने एवं प्रोत्साहित करने का एक मानसिक कृत्य है।
- विधिक प्रावधान:
- BNS की धारा 45 एवं IPC की धारा 107 में दुष्प्रेरण को इस प्रकार परिभाषित किया गया है
- कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिये दुष्प्रेरित करता है, जो—
- किसी व्यक्ति को उस कार्य को करने के लिये दुष्प्रेरित करता है; या
- उस कृत्य को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या एक से अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों के साथ शामिल होता है, यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस कार्य को करने के लिये कोई कार्य या अवैध लोप घटित होता है; या
- उस कार्य को करने में किसी कार्य या अवैध लोप द्वारा जानबूझ कर सहायता करता है।
- स्पष्टीकरण 1: कोई व्यक्ति, जो जानबूझकर मिथ्याव्यपदेशन करके या किसी ऐसे महत्त्वपूर्ण तथ्य को जानबूझकर छिपाकर, जिसे प्रकट करने के लिये वह आबद्ध है, स्वेच्छा से कोई कार्य करवाता है या करता है या करवाने का प्रयत्न करता है, उस कार्य को करवाने के लिये उकसाता है।
- स्पष्टीकरण 2: जो कोई, किसी कार्य के किये जाने से पूर्व या किये जाने के समय, उस कार्य के किये जाने को सुगम बनाने के लिये कुछ करता है तथा तद्द्वारा उसके किये जाने को सुगम बनाता है, उस कार्य को किये जाने में सहायता करता है, यह कहा जाता है।
- महत्त्वपूर्ण निर्णय
- गंगुला मोहन रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2010): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि
- दुष्प्रेरण में किसी व्यक्ति को किसी काम को करने के लिये दुष्प्रेरण या जानबूझकर सहायता करने की मानसिक प्रक्रिया शामिल होती है।
- आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरण या सहायता करने के लिये अभियुक्त की ओर से परिणामी कृत्य किये बिना, दोषसिद्धि कायम नहीं रह सकती।
- अपराध करने के लिये स्पष्ट मंशा होनी चाहिये।
- इसके लिये एक सक्रिय कार्य या प्रत्यक्ष कार्य की भी आवश्यकता होती है जिसके कारण मृतक ने कोई विकल्प न देखकर आत्महत्या कर ली तथा इस कार्य का उद्देश्य मृतक को ऐसी स्थिति में धकेलना रहा होगा कि उसने आत्महत्या कर ली।
- संजू उर्फ़ संजय सिंह सेंगर बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2002): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि अभियुक्त ने मृतक को आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया, प्रोत्साहित किया या उकसाया, इसलिये यह नहीं माना जा सकता कि मृतक इतना भयभीत था कि उसके पास आत्महत्या करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था तथा वह ऐसा करने के लिये विवश हो गया।
आत्महत्या का दुष्प्रेरण का विधिक स्थिति क्या है?
-
- अपराध का विनिश्चय
- आत्महत्या के प्रयास का अपराधीकरण दो पहलुओं पर आधारित है:
- क्या यह स्वैच्छिक था?
- क्या इसे बढ़ावा दिया गया था?
- भारतीय विधिक व्यवस्था किसी भी ऐसे व्यक्ति को अपराधी मानती है जो आत्महत्या का प्रयास करता है तथा जिससे सार्वजनिक व्यवस्था में व्यवधान पड़ता है।
- इसे राज्य के विरुद्ध अपराध माना जाता है तथा IPC की धारा 309 के अधीन अधिकतम 10 वर्ष का कारावास की सज़ा दी जाती है।
- अपराधमुक्ति की मांग
- प्रताड़ित व्यक्ति को दण्डित करने की अवधारणा पर अक्सर विभिन्न कार्यकर्त्ताओं एवं न्यायविदों द्वारा प्रश्न किये जाते हैं।
- यह अवधारणा आत्महत्या को बढ़ावा नहीं देती है, बल्कि यह आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति के परिवर्तन को बढ़ावा देती है।
- यह भी कहा जा सकता है कि गैर-अपराधीकरण से उन लोगों द्वारा अधिक खुली चर्चा की जाएगी जो आत्महत्या करने की सोच रहे हैं या जिन्हें ऐसा मानसिक संकट है कि वे आत्महत्या का प्रयास करने के लिये प्रेरित होते हैं।
- आत्महत्या के प्रयासों को अपराधमुक्त करने से समय पर चिकित्सा सहायता मिलने से व्यक्ति के ठीक होने की संभावना बढ़ जाएगी।
- इच्छामृत्यु एवं आत्महत्या का दुष्प्रेरण
- इच्छामृत्यु शब्द ग्रीक शब्दों "यू" एवं "थानोटोस" से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है अच्छी मौत एवं इसे अन्यथा दया मृत्यु के रूप में वर्णित किया जाता है।
- इसे आगे सक्रिय एवं निष्क्रिय के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
- आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण अच्छी मृत्यु नहीं माना जा सकता है, बल्कि यह एक ऐसा कार्य है जिसमें कोई व्यक्ति किसी को मानसिक या शारीरिक या भावनात्मक कष्ट देकर आत्महत्या करने के लिये विवश करता है।
आपराधिक कानून
किशोरों का निजता का अधिकार
22-Aug-2024
किशोरों का निजता का अधिकार “उच्चतम न्यायालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को बाल पीड़ितों के समुचित पुनर्वास को सुनिश्चित करने के लिये POCSO अधिनियम की धारा 19(6) तथा किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने का निर्देश दिया है”। न्यायमूर्ति अभय ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को यौन अपराधों के पीड़ितों की बेहतर सुरक्षा के लिये लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012 तथा किशोर न्याय (देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 (JJ अधिनियम) को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिया है।
- यह आदेश पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा इन विधियों के अधीन पीड़ित की पर्याप्त देखरेख करने में विफल रहने के कारण दिया गया।
- न्यायालय ने विशेष रूप से बाल कल्याण समिति और विशेष न्यायालय को अपराधों की तत्काल रिपोर्ट करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया, जैसा कि POCSO अधिनियम की धारा 19(6) में अनिवार्य है।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने बड़े किशोरों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिये POCSO अधिनियम में संशोधन करने के कलकत्ता उच्च न्यायालय के सुझाव की आलोचना की तथा "गैर-शोषणकारी" कृत्यों के लिये अपवाद के विचार को अस्वीकार कर दिया।
किशोरों की निजता के अधिकार मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 18 अक्तूबर 2023 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के विरुद्ध पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा दायर एक आपराधिक अपील (सं. 1451/2024) से संबंधित है।
- मूल मामला एक आरोपी से संबंधित था, जिसे लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) के अधीन एक विशेष न्यायाधीश द्वारा POCSO अधिनियम की धारा 6 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 363 तथा 366 के अधीन अपराधों के लिये दोषी ठहराया गया था।
- घटना के समय पीड़िता 14 वर्ष की बालिका थी।
- पीड़िता की माँ ने 29 मई 2018 को प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई, जिसमें कहा गया कि उनकी बेटी 20 मई 2018 को बिना किसी को बताए अपने घर से चली गई थी।
- आरोप है कि आरोपी, जो उस समय लगभग 25 वर्ष का था, ने अपनी दो बहनों की मदद से पीड़िता को अपना घर छोड़ने के लिये बहलाया-फुसलाया।
- पीड़िता ने एक पुत्री को जन्म दिया और आरोपी ही उस बच्ची का जैविक पिता है।
- जाँच में काफी विलंब हुआ और आरोपी को 19 दिसंबर 2021 को गिरफ्तार किया गया।
- 27 जनवरी 2022 को आरोप-पत्र दाखिल किया गया, जिसमें आरोपियों पर POCSO अधिनियम, IPC और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया।
- अभियोजन पक्ष ने वाद के विचारण के दौरान सात साक्षियों से पूछताछ की।
- पीड़िता ने दावा किया कि उसने आरोपी से विवाह किया है और स्वेच्छा से अपना घर छोड़ा है एवं उसने आरोपी के साथ ही रहने की इच्छा जताई है।
- पीड़िता की माँ ने पीडिता की आयु के साक्ष्य के तौर पर उसका जन्म प्रमाण-पत्र प्रस्तुत किया।
- पीड़िता को कुछ समय तक नरेंद्रपुर संलाप गृह में रखा गया था, उसके बाद वह अपनी माँ के घर लौट आई, परंतु बाद में वह आरोपी के साथ रहने लगी।
- चिकित्सा साक्ष्य से पुष्टि हुई कि आरोपी ने पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे, जिसके परिणामस्वरूप एक बच्ची का जन्म हुआ।
- आरोपी को अंततः दिसंबर 2021 में गिरफ्तारी के बाद ज़मानत पर रिहा कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने पाया कि कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय में अप्रासंगिक टिप्पणियाँ थीं, जो POCSO अधिनियम के अपराधों के संबंध में "गैर-शोषणकारी यौन कृत्य" और "बड़ी आयु के किशोरों" जैसी विधिक रूप से निराधार अवधारणाओं को प्रस्तुत करती थीं।
- उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 CrPC की धारा 226 और धारा 482 के अंतर्गत शक्तियों का उपयोग करके अपराध सिद्ध होने के बावजूद अभियुक्त को दोषमुक्त कर गलती से अपने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण किया।
- उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376(2)(n) और 376(3) तथा POCSO अधिनियम की धारा 6 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि को यथावत् रखा तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि 14 वर्षीय बालिका के विरुद्ध किये गए यौन कृत्य को वर्तमान परिस्थितियों की परवाह किये बिना "गैर-शोषणकारी" नहीं कहा जा सकता।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 तथा धारा 376(2)(n) के अधीन, सहमति से बनाए गए किसी भी संबंध के बावजूद अपराध सिद्ध हो जाता है।
- इसने पुनः पुष्टि की कि बलात्संग जैसे गंभीर अपराध को अपराधी और पीड़ित के बीच हुए समझौते के कारण रद्द नहीं किया जा सकता, (ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य, 2012)।
- उच्चतम न्यायालय ने राज्य द्वारा POCSO अधिनियम की धारा 19(6) और किशोर न्याय अधिनियम की प्रासंगिक धाराओं को लागू करने में विफलता पर ध्यान दिया, जिससे पीड़ित को आवश्यक देखरेख एवं सुरक्षा प्रदान की जा सकती थी।
- इस विफलता को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत पीड़ित के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया।
- न्यायालय ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे बाल पीड़ितों की उचित देखरेख एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये POCSO अधिनियम और किशोर न्याय अधिनियम की धारा 19(6) के प्रावधानों को सख्ती से लागू करें।
- इसमें पीड़ित की सहायता करने तथा सहायता उपायों की समीक्षा करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति के गठन का भी आदेश दिया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने POCSO अधिनियम के मामलों से निपटने में न्यायपालिका सहित सभी हितधारकों से आत्मनिरीक्षण एवं सुधार की अनुशंसा की है।
- इसने राज्यों को किशोर न्याय अधिनियम की धारा 46 के लिये नियम बनाने पर विचार करने का निर्देश दिया, जो संस्थागत देखरेख त्यागने वाले बच्चों की देखरेख से संबंधित है।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि POCSO अधिनियम के पीड़ितों को तत्काल सहायता और समर्थन प्रदान करने में विफलता संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, तथा ऐसे मामलों में पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
POSCO की धारा 19(6) क्या है?
- धारा 19(6) के अधीन विशेष किशोर पुलिस इकाई या स्थानीय पुलिस का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह POCSO अधिनियम के अधीन आने वाले मामलों की सूचना विशिष्ट प्राधिकारियों को दे।
- सूचित किये जाने वाले प्राधिकारी निम्नवत हैं:
a) बाल कल्याण समिति
b)विशेष न्यायालय, या
c)सत्र न्यायालय (जहाँ कोई विशेष न्यायालय नामित नहीं किया गया है) - यह रिपोर्टिंग अनावश्यक विलंब के बिना तथा मामला उनके ध्यान में आने के समय से अधिकतम चौबीस घंटे के भीतर की जानी चाहिये।
- रिपोर्ट में निम्नलिखित बातें शामिल होनी चाहिये:
a) मामले का विवरण (अर्थात् कथित अपराध)
b) बच्चे की देखरेख एवं सुरक्षा की आवश्यकता का आकलन
c)बच्चे की देखरेख एवं सुरक्षा के संबंध में पहले से उठाए गए कदमों की जानकारी - यह प्रावधान बच्चे की देखरेख और सुरक्षा की आवश्यकता पर तुरंत विचार करता है, जिससे यह प्रारंभिक रिपोर्टिंग प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन जाता है।
- यह रिपोर्टिंग एक प्रक्रियात्मक अधिदेश है, जो यह सुनिश्चित करता है कि बच्चों के विरुद्ध लैंगिक अपराधों से संबंधित मामलों में उचित प्राधिकारी तुरंत शामिल हों।
- यह प्रावधान विधिक कार्यवाही आरंभ करने तथा बाल संरक्षण उपायों के त्वरित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये है।
JJ अधिनियम, 2015 के तहत बाल कल्याण समिति क्या है?
परिचय:
- किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015 के अध्याय V की धारा 27 बाल कल्याण समिति से संबंधित है।
- प्रत्येक ज़िले में देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों से संबंधित मामलों को संभालने के लिये राज्य सरकार द्वारा गठित कम से कम एक बाल कल्याण समिति होनी चाहिये।
- प्रत्येक समिति में एक अध्यक्ष और चार सदस्य होने चाहिये, जिनमें कम-से-कम एक महिला और बच्चों के मुद्दों पर एक विशेषज्ञ होना चाहिये। सभी सदस्यों को नियुक्ति के दो महीने के भीतर प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा।
- समिति के सदस्यों के पास बाल कल्याण से संबंधित क्षेत्रों में विशिष्ट शैक्षिक योग्यताएँ होनी चाहिये तथा बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा या कल्याण गतिविधियों में कम-से-कम सात वर्ष का अनुभव होना चाहिये।
- मानवाधिकार उल्लंघन, नैतिक पतन के दोषसिद्धि या बाल दुर्व्यवहार में संलिप्तता का इतिहास रखने वाले व्यक्ति समिति की सदस्यता के लिये अपात्र हैं।
- समिति के सदस्यों की नियुक्ति अधिकतम तीन वर्ष की अवधि के लिये की जाती है तथा उनकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा कदाचार, दोषसिद्धि या बैठकों में नियमित रूप से उपस्थित न होने के कारण समाप्त की जा सकती है।
- समिति दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समकक्ष शक्तियों के साथ एक पीठ के रूप में कार्य करती है।
- ज़िला मजिस्ट्रेट समिति के कामकाज के विषय में शिकायतों के लिये शिकायत निवारण प्राधिकारी के रूप में कार्य करता है और समिति के प्रदर्शन की त्रैमासिक समीक्षा करता है।
समिति की शक्तियाँ
- धारा 29 समिति की शक्तियों से संबंधित है।
- समिति को देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों की देखरेख, संरक्षण, उपचार, विकास एवं पुनर्वास के मामलों का निपटान करने के साथ-साथ उनकी मूलभूत आवश्यकताओं एवं संरक्षण की व्यवस्था करने का अधिकार होगा।
- जहाँ किसी क्षेत्र के लिये समिति गठित की गई है, वहाँ ऐसी समिति को, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु इस अधिनियम में अन्यथा स्पष्ट रूप से उपबंधित के सिवाय, देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों से संबंधित इस अधिनियम के अधीन सभी कार्यवाहियों पर अनन्य रूप से विचार करने की शक्ति होगी।
समिति का कार्य
- धारा 30 समिति के कार्यों और उत्तरदायित्वों से संबंधित है।
- समिति अपने समक्ष प्रस्तुत बालकों की देखरेख करने, उनकी सुरक्षा और कल्याण के विषय में जाँच करने तथा अधिनियम के अधीन उचित देखरेख व्यवस्था को अधिकृत करने के लिये उत्तरदायी है।
- समिति बाल कल्याण अधिकारी, परिवीक्षा अधिकारी, ज़िला बाल संरक्षण इकाई या गैर सरकारी संगठनों को सामाजिक जाँच करने और रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकती है।
- समिति को बच्चों को पालन-पोषण देखरेख में रखने, व्यक्तिगत योजनाओं के माध्यम से उनकी देखरेख और पुनर्वास सुनिश्चित करने तथा बच्चे की आवश्यकताओं के आधार पर उपयुक्त पंजीकृत संस्थाओं का चयन करने का अधिकार है।
- समिति को महीने में कम से कम दो बार बच्चों के लिये आवासीय सुविधाओं का निरीक्षण करना होगा, समर्पण विलेखों को प्रमाणित करना होगा, तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि माता-पिता को पुनर्विचार करने के लिये पर्याप्त समय मिले।
- उसे परित्यक्त या खोए हुए बच्चों को उनके परिवारों से पुनः मिलाने के लिये प्रयास करना चाहिये तथा उचित जाँच के बाद अनाथ, परित्यक्त और आत्मसमर्पित बच्चों को गोद लेने के लिये विधिक रूप से स्वतंत्र घोषित करना चाहिये।
- समिति कम-से-कम तीन सदस्यों के निर्णय से स्वप्रेरणा से मामलों का आरंभ कर सकती है तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के अंतर्गत यौन रूप से प्रताड़ित बालकों के पुनर्वास के लिये ज़िम्मेदार है।
- समिति को बोर्ड द्वारा संदर्भित मामलों को संभालना होगा, पुलिस, श्रम विभागों और अन्य बाल देखरेख एजेंसियों के साथ समन्वय करना होगा, देखरेख संस्थानों में बाल दुर्व्यवहार की शिकायतों की जाँच करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को उचित कानूनी सेवाएँ प्राप्त हों।
समिति द्वारा जाँच
- धारा 36 जाँच से संबंधित है।
- समिति धारा 31 के अंतर्गत बालक के प्रस्तुत होने अथवा रिपोर्ट प्राप्त होने पर जाँच करेगी।
- समिति किसी बच्चे को बाल गृह, उपयुक्त सुविधा या उपयुक्त व्यक्ति के पास भेजने का आदेश दे सकती है, तथा सामाजिक जाँच आरंभ कर सकती है।
- छह वर्ष से कम आयु के अनाथ, त्यागे गए या परित्यक्त बच्चों को विशेष दत्तक ग्रहण एजेंसी में रखा जाएगा, जहाँ सामाजिक जाँच भी पंद्रह दिनों के भीतर पूरी कर ली जाएगी।
- समिति को बच्चे की पहली प्रस्तुति के चार महीने के भीतर अंतिम आदेश पारित करना होगा।
- अनाथ, परित्यक्त या आत्मसमर्पण किये गए बच्चों के लिये जाँच पूर्ण होने का समय धारा 38 में निर्दिष्ट किया गया है।
- यदि किसी बच्चे के पास कोई परिवार या सहारा नहीं है, तो समिति उसे उसकी आयु और आवश्यकताओं के आधार पर उचित देखरेख सुविधाओं में भेज सकती है।
- देखरेख सुविधाओं में या योग्य व्यक्तियों/परिवारों के साथ रखे गए बच्चों की स्थिति की समिति द्वारा समय-समय पर समीक्षा की जाएगी।
- ज़िला मजिस्ट्रेट लंबित मामलों की समीक्षा करेंगे तथा समिति को सुधारात्मक उपाय करने के निर्देश दे सकते हैं, साथ ही राज्य सरकार को भी इसकी समीक्षा करने के लिये कह सकते हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त समितियों का गठन कर सकती है तथा समिति को मामलों के निपटान तथा लंबित मामलों के बारे में त्रैमासिक रिपोर्ट ज़िला मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत करनी होगी।
- यदि निर्देश के बाद भी तीन माह तक मामले पर कोई कार्यवाही नहीं होती है तो राज्य सरकार समिति को समाप्त कर नई समिति गठित करेगी।
- राज्य सरकार नई समिति में तत्काल नियुक्ति के लिये पात्र व्यक्तियों का एक स्थायी पैनल बनाए रखेगी।
- नई समिति के गठन में विलंब होने पर निकटवर्ती ज़िले की बाल कल्याण समिति यह उत्तरदायित्व ग्रहण करेगी।
आपराधिक कानून
बलात्संग पीड़िता का निजता का अधिकार
22-Aug-2024
किन्नोरी घोष एवं अन्य बनाम भारत संघ “फोटोग्राफ एवं वीडियो क्लिप को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तत्काल हटा दिया जाएगा”। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने बलात्संग पीड़िता की तस्वीरों तथा वीडियो क्लिप के प्रसार पर रोक लगाने के लिये निषेधाज्ञा जारी की।
- उच्चतम न्यायालय ने किन्नोरी घोष बनाम भारत संघ मामले में यह निर्णय दिया।
किन्नोरी घोष बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- वर्तमान मामले में पश्चिम बंगाल के एक अस्पताल में महिला डॉक्टर के साथ बलात्संग और उसकी मृत्यु के उपरांत बार के सदस्यों द्वारा भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत एक रिट दायर की गई थी।
- उल्लेखनीय है कि उपरोक्त वीभत्स घटना के उपरांत मृतका का नाम और संबंधित हैशटैग मेटा (इंस्टाग्राम और फेसबुक), गूगल (यूट्यूब) और एक्स (पूर्व में ट्विटर) सहित इलेक्ट्रॉनिक तथा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर व्यापक रूप से प्रकाशित किये गए हैं।
- दरअसल मृतका के शव की तस्वीरें एवं वीडियो क्लिप सोशल मीडिया में प्रसारित हो रही थीं।
- इस प्रकार, उपरोक्त पर रोक लगाने के लिये एक रिट याचिका दायर की गई।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने माना कि उपरोक्त कृत्य निपुण सक्सेना एवं अन्य बनाम भारत संघ (2019) का उल्लंघन थे।
- इसके अतिरिक्त, यह भी उल्लिखित किया गया कि बलात्संग पीड़िता की निजता की सुरक्षा के संबंध में 16 जनवरी 2019 को केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा एक निर्देश भी जारी किया गया था।
- तद्नुसार, न्यायालय ने मृतका का नाम, तस्वीरें और वीडियो को सोशल मीडिया में प्रसारित होने से रोकने के लिये निषेधाज्ञा जारी की।
बलात्संग पीड़िता का निजता का अधिकार क्या है?
- COI के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत निजता का अधिकार
- संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
- निजता के अधिकार को कहीं भी मौलिक अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि न्यायालयों ने समय-समय पर माना है कि निजता का अधिकार मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 से आता है।
- न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2017) के ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से माना था कि निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है।
- हालाँकि इस मामले में यह भी माना गया कि निजता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है और इस पर कुछ प्रतिबंध भी लागू हैं।
- न्यायालय ने माना कि इस अधिकार को राज्य की कार्यवाही द्वारा प्रतिबंधित किया जा सकता है जो निम्नलिखित तीन परीक्षणों को पारित करता है:
- सबसे पहले, राज्य की कार्यवाही के लिये विधायी जनादेश होना चाहिये।
- दूसरे, इसे एक वैध उद्देश्य का अनुसरण करना चाहिये।
- तीसरा, यह आनुपातिक होना चाहिये अर्थात् राज्य की कार्यवाही लक्ष्य प्राप्ति के लिये उपलब्ध विकल्पों में से सबसे कम हस्तक्षेपकारी होनी चाहिये।
- बलात्संग पीड़िता के निजता के अधिकार की रक्षा की आवश्यकता
- समाज में पीड़ित को शर्मिंदा करने की धारणा
- दुर्भाग्यवश, हमारे समाज में निर्दोष होने के बावजूद पीड़िता को 'अछूत' समझा जाता है तथा समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
- बलात्संग का अपराध परिवार के ‘सम्मान’ से जुड़ा हुआ है और समाज में मौजूद ऐसी धारणाओं के कारण ऐसे कई मामले दर्ज नहीं कराए जाते।
- शिकायत दर्ज होने के बाद भी इस बात की पूरी संभावना रहती है कि पुलिस पीड़िता को परेशान करेगी तथा उससे धमकाने वाले प्रश्नों से पूछताछ करेगी।
- यहाँ तक कि न्यायालय में सुनवाई के दौरान भी पीड़ित से कठोर प्रश्न किये जाते हैं, जिससे कभी-कभी पीड़िता का चरित्र हनन भी हो जाता है।
- पीड़िता के लिये समाज में पुनः एकीकृत होना कठिन
- बलात्संग की शिकार महिला को अक्सर विवाह करने, नौकरी पाने या सामान्य मनुष्य की भाँति समाज में घुलने-मिलने में कठिनाई होती है।
- हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में पर्याप्त साक्षी संरक्षण कार्यक्रम का अभाव है, इसलिये पीड़ित को संरक्षण प्रदान करने तथा उसकी पहचान की रक्षा करने की अधिक आवश्यकता है।
- समाज में पीड़ित को शर्मिंदा करने की धारणा
- निपुण सक्सेना बनाम भारत संघ (2019) में दिशा-निर्देश
- इस मामले में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर की उच्चतम न्यायालय की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने बलात्संग पीड़िता की निजता की रक्षा के लिये कुछ दिशा-निर्देश निर्धारित किये।
- उल्लेखनीय है कि ये दिशा-निर्देश केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा 16 जनवरी 2019 को जारी निर्देशों पर आधारित हैं।
क्रम संख्या |
निपुण सक्सेना मामले में दिशा-निर्देश |
1. |
कोई भी व्यक्ति प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोशल मीडिया आदि पर कोई भी सामग्री मुद्रित या प्रकाशित नहीं करेगा।
|
2. |
यदि पीड़िता की पहचान उसके निकटतम संबंधी की अनुमति से भी प्रकट नहीं की जाएगी, तो पीड़िता की पहचान प्रकट नहीं की जाएगी:
इन मामलों में पहचान का प्रकटन केवल तभी किया जा सकता है जब परिस्थितियाँ ऐसे प्रकटन को उचित ठहराती हों और इसका निर्णय सक्षम प्राधिकारी द्वारा किया जाएगा जो वर्तमान में सत्र न्यायाधीश हैं। |
3. |
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C, 376D, 376DA, 376DB एवं 376E तथा POCSO के अन्य अपराधों से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाएगी। |
4. |
यदि पीड़िता द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 372 के अधीन अपील दायर की जाती है, तो पीड़िता को अपनी पहचान बताना आवश्यक नहीं है। |
5. |
पुलिस अधिकारी को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि जिन दस्तावेज़ों में पीड़िता का नाम बताया गया है, उन्हें सीलबंद लिफाफे में रखा जाए। |
6. |
सभी प्राधिकारी जिनके समक्ष जाँच एजेंसी या न्यायालय द्वारा पीड़िता का नाम बताया जाता है, उनका यह कर्त्तव्य है कि वे इसे गुप्त रखें और इसका प्रकटन न करें। |
7. |
मृत या मानसिक रूप से अस्वस्थ पीड़िता की पहचान के प्रकटीकरण को अधिकृत करने के लिये निकटतम संबंधी द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 228 A (2) (c) के अधीन सत्र न्यायाधीश को आवेदन किया जाना चाहिये, जब तक कि सामाजिक कल्याण संस्थानों या संगठनों की पहचान नहीं हो जाती। |
8. |
POCSO के अंतर्गत आने वाले मामले में, पहचान का प्रकटन केवल विशेष न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है, यदि यह बच्चे के हित में हो। |
9. |
सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को एक वर्ष के भीतर प्रत्येक ज़िले में कम-से-कम ‘वन स्टॉप सेंटर’ स्थापित करना होगा। |
बलात्संग पीड़िता के निजता के अधिकार के संबंध में प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?
- IPC और BNS के तहत प्रावधान
- IPC की धारा 228A: कुछ अपराधों में पीड़ित की पहचान का प्रकटन
- इसे 25 दिसंबर 1983 से भारतीय दण्ड संहिता संशोधन अधिनियम संख्या 43, 1983 के अंतर्गत जोड़ा गया।
- धारा 1 में यह प्रावधान है कि
- यह धारा किसी भी ऐसे व्यक्ति पर लागू होती है जो मुद्रण या प्रकाशन करता है
- नाम
- या कोई अन्य मामला जिससे किसी ऐसे व्यक्ति की पहचान ज्ञात हो सके जिसके विरुद्ध नीचे निर्दिष्ट अपराध किये गए हैं।
- वे अपराध जिनके संबंध में यह धारा लागू होती है, वे हैं:
- धारा 376
- धारा 376A
- धारा 376AB
- धारा 376 B
- धारा 376 C
- धारा 376 D
- धारा 376DA
- धारा 376DB
- ऐसा व्यक्ति जो उपर्युक्त अपराध करेगा, उसे दो वर्ष के कारावास के दण्ड के साथ-साथ अर्थदण्ड भी देना होगा।
- यह धारा किसी भी ऐसे व्यक्ति पर लागू होती है जो मुद्रण या प्रकाशन करता है
- उपर्युक्त खंड 1 वहाँ लागू नहीं होगा जहाँ प्रकटीकरण निम्नलिखित परिस्थितियों में होता है:
- मुद्रण या प्रकाशन पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी या सद्भावपूर्वक अपराध की जाँच करने वाले पुलिस अधिकारी के लिखित आदेश से या उसके अधीन होता है।
- मुद्रण या प्रकाशन पीड़िता की लिखित अनुमति से या उसके द्वारा किया जाएगा।
- जहाँ पीड़िता की मृत्यु हो गई हो या वह अवयस्क हो या मानसिक रूप से अस्वस्थ हो, वहाँ पीड़िता के निकटतम संबंधी द्वारा या उसकी लिखित अनुमति से:
- इस प्रावधान में यह दिया गया है कि यहाँ दिये गए प्राधिकार किसी मान्यता प्राप्त कल्याणकारी संस्था या संगठन के अध्यक्ष या सचिव के अतिरिक्त किसी अन्य को भी दिये जाने चाहिये।
- खंड 3 में दण्ड का प्रावधान है, जहाँ उपरोक्त अपराधों से संबंधित कार्यवाही न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना मुद्रित या प्रकाशित की जाती है।
- यहाँ दो वर्ष के कारावास और अर्थदण्ड का प्रावधान है।
- यहाँ जोड़ा गया स्पष्टीकरण यह बताता है कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को मुद्रित करना इस धारा के अंतर्गत अपराध नहीं है।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 72 (BNS)
- BNS की यह धारा, IPC की धारा 228A का शब्दशः पुनरुत्पादन है।
- IPC की धारा 228A: कुछ अपराधों में पीड़ित की पहचान का प्रकटन
- प्रक्रियात्मक विधि के अंतर्गत प्रावधान
- CrPC की धारा 327: खुला न्यायालय
- धारा 327 के खंड 2 में प्रावधान है कि IPC की धारा 376, 376A, 376AB, 376B, 376C,376D,376DA,376DB के अधीन अपराधों की सुनवाई बंद कमरे में की जाएगी।
- इस प्रावधान के साथ दो प्रावधान जुड़े हुए हैं:
- प्रावधान 1: पीठासीन न्यायाधीश आवेदन किये जाने पर किसी विशेष व्यक्ति को न्यायालय द्वारा प्रयुक्त कक्ष या भवन में प्रवेश करने, रहने या रहने की अनुमति दे सकता है।
- प्रावधान 2: जहाँ तक संभव हो, बंद कमरे में सुनवाई महिला न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा की जाएगी।
- इसके अतिरिक्त, धारा 327 के खंड 3 में यह प्रावधान है कि न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना ऐसी किसी कार्यवाही से संबंधित किसी भी मामले को छापना या प्रकाशित करना वैध नहीं होगा।
- इस धारा की शर्त यह है कि उपरोक्त प्रतिबंध पक्षों के नाम और पते की गोपनीयता बनाए रखने के अधीन लगाया जा सकता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 366
- धारा 366 (2) CrPC की धारा 327 (2) का पुनरुत्पादन है।
- अंतर केवल इतना है कि BNSS की धारा 366 (2) में निम्नलिखित अपराधों की सुनवाई बंद कमरे में होगी:
- BNS की धारा 64 से धारा 68 (बलात्संग से संबंधित)
- BNS की धारा 70, 71 (सामूहिक बलात्संग और बार-बार अपराध करने वालों से संबंधित)
- यौन अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 4,6,8,10।
- CrPC की धारा 327: खुला न्यायालय
सांविधानिक विधि
भविष्यलक्षी विनिर्णय का सिद्धांत
22-Aug-2024
खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण बनाम भारतीय इस्पात प्राधिकरण "भविष्यलक्षी विनिर्णय का सिद्धांत तब लागू होता है जब कोई संवैधानिक न्यायालय एक नया नियम घोषित करके एक सुस्थापित पूर्वनिर्णय को पलट देता है, लेकिन इसके आवेदन को भविष्य की स्थितियों तक सीमित कर देता है। अंतर्निहित उद्देश्य अन्याय या कठिनाइयों को रोकना है।" उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अपने एक निर्णय में, खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकरण (MADA) बनाम भारतीय इस्पात प्राधिकरण मामले में अपने निर्णय को रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें खनिज अधिकारों पर कर लगाने के लिये राज्यों की विधायी शक्तियों को स्पष्ट किया गया था।
मामले के तथ्य क्या हैं?
- संविधानिक एवं विधायी पृष्ठभूमि:
- यह मामला संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 50 के अंतर्गत है, जो खनिज अधिकारों पर करों से संबंधित है।
- खानों एवं खनिज विकास का विनियमन संघ सूची (सूची I की प्रविष्टि 54) तथा राज्य सूची (सूची II की प्रविष्टि 23) दोनों के अंतर्गत आता है।
- संसद ने संविधान के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत खान एवं खनिज (विकास व विनियमन) अधिनियम, 1957 (MMDR अधिनियम) पारित किया।
- पूर्वनिर्णय:
- इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य (1990): सात न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि रॉयल्टी एक कर है। इसने निर्णय दिया कि राज्य विधानसभाओं के पास खनिज अधिकारों पर कर लगाने की क्षमता नहीं है क्योंकि यह विषय वस्तु MMDR अधिनियम के अंतर्गत आती है। न्यायालय ने यह भी माना कि सूची II की प्रविष्टि 49 के अंतर्गत खनिज युक्त भूमि पर कर के उपाय के रूप में राज्य विधानसभाओं द्वारा रॉयल्टी का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
- पश्चिम बंगाल राज्य बनाम केसोराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड (2004): संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि रॉयल्टी कोई कर नहीं है। इसने कहा कि इंडिया सीमेंट मामले में लिया गया निर्णय एक चूक माना जा सकता है।
- इंडिया सीमेंट एवं केसोराम मामले के बाद राज्य की प्रतिक्रिया:
- कई राज्य विधानसभाओं ने सूची II की प्रविष्टि 49 के अंतर्गत खनिज युक्त भूमि पर कर लगाने की शक्तियों का प्रयोग किया।
- उन्होंने कर के माप के रूप में खनिज मूल्य या रॉयल्टी का प्रयोग किया।
- राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने खदानों से कोयला एवं कोयला-चूर्ण के परिवहन के लिये पर्यावरण एवं स्वास्थ्य उपकर के रूप में अतिरिक्त शुल्क लगाया।
- विधिक चुनौतियाँ:
- इन करों की संवैधानिक वैधता को विभिन्न उच्च न्यायालयों में चुनौती दी गई।
- चुनौती के आधार:
- राज्य विधानसभाओं की विधायी क्षमता से परे।
- भारत सीमेंट में निर्धारित कानून का उल्लंघन।
- वृहद् पीठ को प्रेषित किया जाना:
- 30 मार्च 2011 को तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इंडिया सीमेंट मामले एवं केसोराम मामले के मध्य मतभेदों को रेखांकित किया।
- विधायी क्षमता एवं संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या से संबंधित कई प्रश्नों पर निर्णायक निर्णय देने के लिये मामले को नौ न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया था।
- MADA निर्णय (जुलाई 2024):
- मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (MADA निर्णय) मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, अभय एस. ओका, जे.बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्ज्वल भुइयाँ, एस.सी. शर्मा, ए.जी. मसीह और बी.वी. नागरत्ना की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने 25 जुलाई 2024 को मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम मेसर्स स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य के मामले में संदर्भित प्रश्नों के उत्तर दिये।
- न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने असहमतिपूर्ण राय दी।
- बहुमत वाली पीठ ने इंडिया सीमेंट मामले एवं उसके आधार पर दिये गए बाद के निर्णयों को खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने माना कि राज्यों के पास खनिज अधिकारों एवं खनिज युक्त भूमि पर कर लगाने की विधायी क्षमता है।
- मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (MADA निर्णय) मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, अभय एस. ओका, जे.बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्ज्वल भुइयाँ, एस.सी. शर्मा, ए.जी. मसीह और बी.वी. नागरत्ना की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने 25 जुलाई 2024 को मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम मेसर्स स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य के मामले में संदर्भित प्रश्नों के उत्तर दिये।
- वर्तमान प्रक्रिया:
- MADA निर्णय के बाद, करदाताओं के अधिवक्ता ने निवेदन किया कि इसे भविष्यलक्षी विनिर्णय का प्रभाव प्रदान किया जाए।
- न्यायालय ने मामले के विचारण के लिये सूचीबद्ध किया कि क्या निर्णय को भविष्यलक्षी विनिर्णय के साथ लागू किया जाना चाहिये।
- करदाताओं (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों सहित) द्वारा सरकारों को देय कुल राशि काफी अधिक थी, जिससे निर्णय के वित्तीय निहितार्थों के विषय में चिंताएँ उत्पन्न हुईं।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने MADA को भविष्यलक्षी विनिर्णय के साथ निर्णय देने के लिये प्रस्तुतीकरण को अस्वीकार कर दिया।
- हालाँकि इसने राज्यों एवं करदाताओं के हितों को संतुलित करने के लिये कुछ शर्तें रखीं:
- राज्य 1 अप्रैल 2005 से पहले के लेन-देन के लिये प्रासंगिक प्रविष्टियों के अंतर्गत कर नहीं लगा सकते।
- 1 अप्रैल 2026 से शुरू होने वाले 12 वर्षों में कर मांगों का भुगतान किया जाएगा।
- 25 जुलाई 2024 से पहले की अवधि के लिये मांगों पर ब्याज एवं ज़ुर्माना सभी करदाताओं के लिये करमुक्त कर दिया जाएगा।
- पीठ ने भविष्यलक्षी विनिर्णय के सिद्धांत के अनुप्रयोग को भी स्पष्ट किया।
भविष्यलक्षी विनिर्णय का सिद्धांत क्या है?
- परिभाषा एवं उद्देश्य:
- भविष्यलक्षी विनिर्णय का सिद्धांत तब लागू होता है जब न्यायालय एक नया नियम घोषित करके एक सुस्थापित पूर्वनिर्णय को खारिज कर देता है, लेकिन इसके आवेदन को भविष्य की स्थितियों तक सीमित कर देता है।
- इसका प्राथमिक उद्देश्य विधान में अचानक परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले अन्याय या कठिनाइयों को रोकना है।
- यह पूर्व विधिक समझ के आधार पर बनाए गए पूर्व लेन-देन एवं रिश्तों को अनावश्यक रूप से दूषित किये बिना विधिक त्रुटियों को ठीक करके एक सहज संक्रमण की अनुमति देता है।
- उत्पत्ति एवं विकास:
- इस सिद्धांत की उत्पत्ति संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यायशास्त्र में हुई थी तथा बाद में इसे भारतीय उच्चतम न्यायालय ने अपनाया।
- भारत में, इस सिद्धांत को पहली बार गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के ऐतिहासिक मामले में लागू किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय को इस सिद्धांत को लागू करने की शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 से प्राप्त होती है, जो न्यायालय को उसके समक्ष किसी भी मामले में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक कोई भी आदेश देने की अनुमति देता है।
- आवेदन के लिये मुख्य सिद्धांत:
- इसका प्रयोग केवल संवैधानिक मामलों में ही किया जा सकता है।
- इसे केवल उच्चतम न्यायालय द्वारा ही लागू किया जा सकता है, क्योंकि इसके पास भारत में सभी न्यायालयों पर विधि को बाध्यकारी घोषित करने का संवैधानिक अधिकार है।
- भविष्यलक्षी विनिर्णय की परिधि न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जिसे उसके समक्ष मामले या मामले के न्याय के अनुसार ढाला जा सकता है।
- इसका उपयोग खारिज किये गए विधि के अंतर्गत की गई पूर्व कार्यवाहियों को मान्य करने के लिये किया जाता है।
- यह सिद्धांत सुलझे हुए मुद्दों को फिर से खोलने से बचने में सहायता करता है तथा कार्यवाही की बहुलता को रोकता है।
- यह प्रभावित संस्थाओं एवं संस्थानों को नई विधिक स्थिति में उचित समायोजन करने के लिये समय प्रदान करता है।
भविष्यलक्षी विनिर्णय के सिद्धांत से संबंधित महत्त्वपूर्ण मामले क्या हैं?
- गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य (1967):
- इस मामले में भारत में इस सिद्धांत को पहली बार लागू किया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्वनिर्णय को खारिज कर दिया तथा कहा कि संसद मौलिक अधिकारों को कम करने के लिये संविधान में संशोधन नहीं कर सकती।
- हालाँकि अराजकता से बचने के लिये, कोर्ट ने नए नियम को भावी रूप से लागू किया, जिससे पिछले संवैधानिक संशोधनों को वैध रहने की अनुमति मिली।
- मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बा राव ने इसे परस्पर विरोधी सिद्धांतों को समेटने एवं विधि में सुचारु बदलाव को सक्षम करने के लिये एक "व्यावहारिक समाधान" के रूप में वर्णित किया।
- शेवरॉन ऑयल कंपनी बनाम ह्यूसन (1971):
- यद्यपि यह एक अमेरिकी मामला है, लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत के उच्चतम न्यायालय ने इसका उल्लेख किया है।
- अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने भविष्यलक्षी विनिर्णय लागू करने के लिये तीन कारक निर्धारित किये हैं:
- निर्णय में विधान का एक नया सिद्धांत स्थापित होना चाहिये।
- न्यायालय को भविष्यलक्षी विनिर्णय के सिद्धांत का प्रयोग किये जाने के गुण-दोषों का मूल्यांकन करना चाहिये।
- न्यायालय को इस तथ्य पर विचार करना चाहिये कि क्या पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू किये जाने से पर्याप्त असमान परिणाम उत्पन्न होंगे।
- इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य (1990):
- यह मामला रॉयल्टी पर उपकर लगाने के लिये राज्यों की विधायी क्षमता से संबंधित था।
- न्यायालय ने राज्य के राजस्व की रक्षा करने एवं अमान्य विधि के अंतर्गत एकत्र किये गए करों की वापसी की आवश्यकता से बचने के लिये भविष्यलक्षी विनिर्णय के सिद्धांत को लागू किया।
- प्रबंध निदेशक, ECIL बनाम बी. करुणाकर (1993):
- संविधान पीठ के इस निर्णय ने भारत संघ बनाम मोहम्मद रमजान खान (1991) के पूर्व निर्णय के भावी आवेदन को यथावत् रखा, जिसमें दोषी कर्मचारियों को जाँच रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता के विषय में बताया गया था।
- न्यायालय ने तर्क दिया कि पूर्वव्यापी आवेदन से प्रशासन को गंभीर क्षति होगी, जो कर्मचारियों को मिलने वाले लाभों से कहीं अधिक होगा।
- नगर परिषद, कोटा बनाम दिल्ली क्लॉथ एंड जनरल मिल्स कंपनी लिमिटेड (2001):
- इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय को भविष्यलक्षी प्रभाव दिये बिना कर लगाने के लिये नगरपालिका परिषद की विधायी क्षमता को यथावत रखा।
- यह विधायी शक्तियों की पुष्टि करते समय भविष्यलक्षी विनिर्णय को लागू करने के लिये न्यायालय की अनिच्छा को दर्शाता है।
- जिंदल स्टेनलेस लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (2017):
- नौ न्यायाधीशों की पीठ ने मुक्त व्यापार एवं वाणिज्य पर गैर-भेदभावपूर्ण करों के प्रभाव के विषय में लंबे समय से चली आ रहे पूर्व उदाहरणों को खारिज कर दिया।
- भविष्यलक्षी आवेदन के लिये तर्कों के बावजूद, न्यायालय ने अपने निर्णय को भविष्यलक्षी प्रभाव दिया।
- यह मामला कर मामलों में भावी निर्णय के प्रति न्यायालय के दृष्टिकोण को और अधिक प्रदर्शित करता है, विशेषकर जब विधायी क्षमता को बनाए रखा जाता है।