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आपराधिक कानून

अपमानजनक ई-मेल द्वारा स्त्री की गरिमा को आहत करने पर दण्ड का प्रावधान

 23-Aug-2024

जोसेफ पॉल डिसूज़ा बनाम महाराष्ट्र राज्य

“व्याख्या सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप होनी चाहिये तथा निष्पक्षता, न्याय एवं समानता सुनिश्चित करने के लिये विधिक सिद्धांतों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिये”।

न्यायमूर्ति अजय गडकरी और न्यायमूर्ति डॉ. नीला गोखले

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना है कि किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने का अपराध (लज्जा भंग)गठित करने के लिये विधि में उल्लिखित शब्द “उच्चारण” में केवल बोले गए शब्द ही शामिल नहीं हैं, बल्कि वे लिखित शब्द भी शामिल हैं जो किसी महिला को अपमानित करने के आशय से लिखे गए हों।

जोसेफ पॉल डिसूज़ा बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, प्रतिवादी और याचिकाकर्त्ता एक ही सोसायटी में रहते थे तथा याचिकाकर्त्ता द्वारा प्रतिवादी के मामलों में हस्तक्षेप करने के कारण उनमें बहस हो गई।
  • इस घटना के उपरांत याचिकाकर्त्ता ने प्रतिवादी को अपमानजनक एवं मानहानि करने वाले ई-मेल भेजे।
  • प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध लगातार तीन बार भेजे गए ई-मेल के माध्यम से उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई।
  • प्रतिवादी ने साइबर अपराध जाँच प्रकोष्ठ के समक्ष शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्त्ता द्वारा ई-मेल में दिये गए बयान अश्लील, असभ्य और अत्यधिक यौन प्रकृति के हैं, जो उसकी शील भंग करते हैं तथा सोसायटी के अन्य सदस्यों को भी इसकी कॉपी भेजी गई है।
  • भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 354, 509 और 506 (2) तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT एक्ट) की धारा 67 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) भी दर्ज की गई थी।
  • ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही पर रोक लगा दी गई।
  • याचिकाकर्त्ता ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की और तर्क दिया कि
    • उनके बयान का उद्देश्य प्रतिवादी की गरिमा को ठेस पहुँचाना नहीं था।
    • समान आधार पर दूसरी FIR नहीं हो सकती।
    • याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादी के बीच संबंध कभी भी अच्छे नहीं रहे तथा व्यक्तिगत द्वेष के कारण प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई।
    • भेजे गए ई-मेल की विषय-वस्तु में कोई अश्लीलता नहीं थी, इसलिये उन पर IT अधिनियम की धारा 67 के तहत आरोप नहीं लगाया जा सकता।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?  

  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने पाया कि दर्ज की गई FIR, साइबर सेल के समक्ष दर्ज की गई शिकायत और संबंधित मामले में सेल द्वारा की गई प्रारंभिक जाँच के परिणामस्वरूप दर्ज की गई थी। इसयेलिये, दर्ज की गई FIR अवैध नहीं है।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने ई-मेल की विषय-वस्तु का अवलोकन किया और पाया कि एक ई-मेल में याचिकाकर्त्ताकर्त्ता ने प्रतिवादी को “सुश्री बोनी” कहा है, जो दो अपराधियों पर आधारित फिल्म “बोनी एंड क्लाइड” का एक पात्र है।
  • न्यायालय ने आगे कहा कि याचिकाकर्त्ता का आशय प्रतिवादी का अपमान करना और उसकी छवि को धूमिल करना था।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 509 की व्यापक व्याख्या की, जहाँ उन्होंने कहा कि IPC की धारा 509 में अपराध स्थापित करने के लिये तीन घटक आवश्यक हैं-
    • किसी महिला की गरिमा का अपमान करने के आशय की उपस्थिति।
    • जिस तरीके से यह अपमान किया जाता है।
    • यह उसकी निजता पर अतिक्रमण है।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह के अतिक्रमण का तरीका किसी ‘कथन’ या ‘इशारों’ तक सीमित नहीं है। न्यायालय ने कहा कि निजता का अतिक्रमण केवल बोले गए शब्दों से ही नहीं होता, बल्कि अन्य तरीकों से भी होता है।
  • न्यायालय ने मामले पर निर्णय देने के लिये प्रावधानों के आशय पर भरोसा किया और याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध आरोपों तथा FIR को रद्द करने की याचिका को अस्वीकार कर दिया।

महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाना क्या होता है? 

परिचय:

  • जब कोई कार्य महिलाओं का अपमान करने के लिये किया जाता है, तो उसे उनकी गरिमा को ठेस पहुँचाना कहा जाता है।
  • कृत्य किसी भी प्रकृति का हो सकता है, चाहे मौखिक हो या अशाब्दिक, इरादा यह होना चाहिये कि
  • भारत में यह एक गंभीर अपराध है और इसके लिये दण्ड का प्रावधान है।

गरिमा क्या है?

  • भारतीय दण्ड संहिता में 'गरिमा' को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, परंतु इसका तात्पर्य स्त्रियों के व्यवहार, वाणी एवं आचरण में शालीनता और संयम से है।
  • एक महिला की गरिमा, चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो, आंतरिक रूप से उसके लिंग और स्त्रीत्व से संबद्ध होती है।

गरिमा को ठेस पहुँचाना क्या है?

  • गरिमा को ठेस पहुँचाने में ऐसे कृत्य शामिल होते हैं जो आपत्तिजनक, अशिष्ट या महिला की शालीनता एवं नैतिकता की भावना को अपमानित करने वाले होते हैं।
  • इसमें अनुचित स्पर्श, बलपूर्वक कपड़े उतरवाना, अभद्र इशारे या शील का अपमान करने के आशय से की गई टिप्पणियाँ शामिल हैं।

इसके आवश्यक तत्त्व क्या हैं?

  • किसी महिला के विरुद्ध हमला या आपराधिक बल का प्रयोग।
  • आशय या ज्ञान कि ऐसे कृत्यों से उसकी शील भंग होने की संभावना है।
  • किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने का आशय होना।
  • जिस तरह से यह अपमान किया गया है।
  • उसकी निजता में अनाधिकृत हस्तक्षेप है।

बलात्संग एवं लज्जा भंग में क्या अंतर है?

स्थिति

स्त्री की गरिमा को ठेस पहुँचाना(लज्जा भंग)

बलात्संग

BNS की धारा

धारा 74

धारा 63

परिभाषा

किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से किये गए कृत्य।

बिना सहमति के यौन संबंध बनाना।

विस्तार

व्यापक अर्थ में, किसी महिला को खींचना, बलपूर्वक उसके वस्त्र उतारना, शारीरिक हिंसा करना आदि कृत्य शामिल हैं।

इसमें विशेष रूप से यौन संबंध बनाना शामिल हैं।

मुख्य तत्त्व

"व्यवहार की स्त्री मर्यादा" या "लज्जा की भावना" का उल्लंघन करना।

इसमें प्रवेशन अनिवार्य तत्त्व है।

महिलाओं की लज्जा भंग करने से संबंधित मामले क्या हैं?

  • पंजाब राज्य बनाम मेजर सिंह (1967): अंतिम परीक्षण यह है कि क्या यह कृत्य महिला की शालीनता को प्रभावित करने में सक्षम है। एक महिला जन्म से ही अपने लिंग के आधार पर शालीन होती है। शालीनता के उल्लंघन का निर्धारण करने में पीड़िता की आयु अप्रासंगिक है।
  • केरल राज्य बनाम हम्सा (1988): लज्जा भंग करना समाज के रीति-रिवाज़ों और आदतों पर निर्भर करता है। यहाँ तक ​​कि ऐसे आशय वाले संकेत भी IPC की धारा 354 के अधीन आ सकते हैं।
  • राम मेहर बनाम हरियाणा राज्य (1998): किसी महिला को पकड़ना, उसे एकांत स्थान पर ले जाना और उसके वस्त्र उतारने का प्रयास करना लज्जा भंग करने के समान है।
  • तारकेश्वर साहू बनाम बिहार राज्य (2006): शालीनता एक ऐसा गुण है जो महिलाओं के वर्ग से जुड़ा हुआ है। आरोपी का दोषी आशय महत्त्वपूर्ण है, पीड़ित की प्रतिक्रिया नहीं। भले ही पीड़ित को आक्रोश का अनुभव न हो (नींद में, अवयस्क, आदि), अपराध दण्डनीय है।

भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अधीन महिलाओं की गरिमा की सुरक्षा के लिये क्या प्रावधान हैं?

  • धारा 74: किसी महिला की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला करना या आपराधिक बल का प्रयोग करना।
    • जो कोई किसी स्त्री पर हमला करेगा या आपराधिक बल का प्रयोग करेगा, जिसका आशय यह है कि वह उसकी लज्जा भंग करने का प्रयास करेगा या यह संभाव्य जानता है कि ऐसा करने से वह उसकी लज्जा भंग करेगा, उसे किसी भाँति के कारावास से दण्डित किया जाएगा, जिसकी अवधि एक वर्ष से कम नहीं होगी किंतु जो पाँच वर्ष तक की हो सकेगी और अर्थदण्ड से भी दण्डित किया जाएगा।
  • धारा 79: किसी महिला की गरिमा का अपमान करने के उद्देश्य से कहे गए शब्द, इशारा या कार्य।
    • जो कोई किसी स्त्री की गरिमा का अपमान करने के आशय से कोई शब्द बोलेगा, कोई ध्वनि या इशारा करेगा, या किसी भी रूप में कोई वस्तु प्रदर्शित करेगा, जिसका आशय यह हो कि ऐसा शब्द या ध्वनि उस स्त्री को सुनाई दे, या ऐसा इशारा या वस्तु उस स्त्री को दिखाई दे, या ऐसी स्त्री की निजता में हस्तक्षेप करेगा, उसे साधारण कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी और अर्थदण्ड से भी दण्डित किया जाएगा।

IT अधिनियम की धारा 67 क्या है?

  • इलेक्ट्रॉनिक रूप में अश्लील सामग्री प्रकाशित या प्रसारित करने पर दण्ड–
    • जो कोई भी ऐसी सामग्री को इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रकाशित या प्रसारित करता है या प्रकाशित या प्रसारित करवाता है, जो कामुक है या कामुक प्रवृत्ति को प्रदर्शित करती है या यदि इसका प्रभाव ऐसा है जो ऐसे व्यक्तियों को भ्रष्ट करने की प्रवृत्ति रखता है, जो सभी प्रासंगिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, इसमें निहित या सन्निहित सामग्री को पढ़, देख या सुन सकते हैं, तो प्रथम बार दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी और अर्थदण्ड से, जो पाँच लाख रुपए तक का हो सकेगा, दण्डित किया जाएगा और दूसरी या बाद के दण्ड की स्थिति में दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि पाँच वर्ष तक की हो सकेगी और अर्थदण्ड से, जो दस लाख रुपए तक का हो सकेगा, दण्डित किया जाएगा।

इंटरनेट एवं महिलाओं के विरुद्ध अपराध

  • आधुनिक प्रौद्योगिकी के आगमन ने महिलाओं के विरुद्ध अपराध करने के व्यापक साधन खोल दिये हैं।
  • इंटरनेट पर प्रतिदिन कई अपराध होते हैं, जैसे महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने के लिये इंटरनेट पर अश्लील सामग्री बनाना, या इंटरनेट पर महिलाओं के विरुद्ध अपराध के पीड़ितों की पहचान का प्रकटन करना, पोस्ट पर टिप्पणी के माध्यम से या उन्हें सीधे संदेश भेजकर महिलाओं का अपमान करना आदि।
  • आधुनिक प्रौद्योगिकी अपराध करने के तरीके को वास्तविक बना देती है।
  • सभी मामलों में शारीरिक क्रिया आवश्यक नहीं होती, आशय की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
  • न्यायालयों ने इंटरनेट के माध्यम से बढ़ते अपराधों के अनुसार मौजूदा दण्ड प्रावधानों की व्याख्या करने का प्रयास किया है।
    • उदाहरण के लिये:
      • भारतीय दण्ड संहिता की धारा 509-B को विधि में शामिल किया गया है, जिसमें ‘दूरसंचार उपकरण या इंटरनेट सहित अन्य इलेक्ट्रॉनिक मोड’ द्वारा किसी महिला को परेशान करना भी दण्डनीय बनाया गया है।
      • किसी वस्तु को "प्रदर्शित" करने का अर्थ केवल उसे भौतिक रूप से प्रदर्शित करना नहीं है, यह प्रदर्शन किसी एजेंसी या किसी उपकरण जैसे व्यक्तिगत कंप्यूटर, मोबाइल फोन या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के माध्यम से हो सकता है।

सांविधानिक विधि

मैनुअल स्कैवेंजिंग

 23-Aug-2024

श्रमिक जनता संघ बनाम महाराष्ट्र राज्य

“न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को मैनुअल स्कैवेंजिंग की घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिये एक सोशल मीडिया हैंडल बनाने का निर्देश दिया है।”

न्यायमूर्ति नितिन जामदार एवं मिलिंद सथाये

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में महाराष्ट्र सरकार को मैनुअल स्कैवेंजिंग की घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिये एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म स्थापित करने का निर्देश दिया है। इस पहल का उद्देश्य मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोज़गार के निषेध एवं उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 को लागू करने में ज़िला स्तरीय एवं सतर्कता समितियों की सहायता करना है, ताकि मैनुअल स्कैवेंजिंग प्रथाओं के विरुद्ध प्रभावी कार्यवाही सुनिश्चित की जा सके।

  • न्यायमूर्ति नितिन जामदार एवं न्यायमूर्ति मिलिंद सथाये ने श्रमिक जनता संघ बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

श्रमिक जनता संघ बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • श्रमिक जनता संघ ने महाराष्ट्र में मैनुअल स्कैवेंजिंग के मुद्दे पर बॉम्बे उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
  • याचिका में इस प्रथा के कारण मरने वाले मैनुअल स्कैवेंजरों के परिवारों के लिये उचित क्षतिपूर्ति की भी मांग की गई।
  • महाराष्ट्र सरकार ने अपने नोडल अधिकारी (आयुक्त, समाज कल्याण विभाग, पुणे) के माध्यम से पहले दावा किया था कि राज्य के सभी 36 ज़िले मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्त हैं।
  • यह दावा 2 अगस्त, 2023 को सभी 36 ज़िलों के कलेक्टरों द्वारा भारत सरकार को सौंपे गए प्रमाण-पत्रों पर आधारित था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने इस दावे का खंडन करते हुए राज्य भर के कुछ ज़िलों में अप्रैल एवं अगस्त 2024 में होने वाली मैनुअल स्कैवेंजिंग की घटनाओं का उदाहरण दिया।
  • मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध एवं उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013, इस मुद्दे को नियंत्रित करने वाली प्राथमिक विधि है।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने यह भी प्रश्न किया कि यदि राज्य के रिकॉर्ड के अनुसार मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त कर दिया गया था, तो 81 मामलों में क्षतिपूर्ति क्यों दिया गया।
  • अधिनियम मैनुअल स्कैवेंजिंग पर प्रतिबंध सुनिश्चित करने के लिये ज़िला स्तरीय समितियों एवं सतर्कता समितियों के गठन को अनिवार्य बनाता है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अप्रैल 2024 में कुछ मैनुअल स्कैवेंजरों की मृत्यु के विषय में प्रश्न किये थे, जो इस मामले के लिये प्रासंगिक है।
  • यह मामला डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के आलोक में 2013 अधिनियम की धारा 2(g) के अनुसार "मैनुअल स्कैवेंजर" की परिभाषा की व्याख्या से जुड़ा है।
  • याचिका में मैनुअल स्कैवेंजिंग को खत्म करने के राज्य के दावों एवं इसके जारी रहने की कथित घटनाओं के बीच विसंगति को दूर करने की मांग की गई है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने के राज्य के दावे एवं याचिकाकर्त्ताओं द्वारा इसके जारी रहने के साक्ष्य के बीच विसंगति को नोट किया, जिससे महाराष्ट्र में मैनुअल स्कैवेंजिंग की वर्तमान स्थिति की आगे की जाँच की आवश्यकता हुई।
  • न्यायालय ने मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोज़गार के निषेध एवं उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 की धारा 2(g) के अनुसार "मैनुअल स्कैवेंजर" की परिभाषा का पालन करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया, जैसा कि डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ एवं अन्य, (2023) में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्वचन किया गया था।
  • न्यायालय ने पाया कि ज़िला कलेक्टरों द्वारा ज़िलों को मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्त घोषित करने वाले प्रमाण-पत्र 2023 की स्थिति से संबंधित थे, न कि वर्तमान स्थिति से, इसलिये मैनुअल स्कैवेंजिंग के हालिया मामलों की नए सिरे से जाँच की आवश्यकता है।
  • न्यायालय ने राज्य, ज़िला एवं सतर्कता समितियों सहित 2013 अधिनियम के अंतर्गत अनिवार्य समितियों की संरचना एवं कार्यप्रणाली के संबंध में अधिक पारदर्शिता व पहुँच की आवश्यकता को मान्यता दी।
  • न्यायालय ने कहा कि ईमेल पते एवं सोशल मीडिया हैंडल जैसे समर्पित संचार चैनलों के निर्माण से मैनुअल स्कैवेंजिंग की घटनाओं की रिपोर्टिंग व समाधान में अधिक प्रभावी ढंग से सहायता मिल सकती है।
  • न्यायालय ने मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने के लिये चल रहे प्रयासों को सुनिश्चित करने के लिये 2013 अधिनियम के अंतर्गत समितियों द्वारा की गई कार्यवाही के नियमित अपडेट एवं उचित दस्तावेज़ीकरण के महत्त्व पर ध्यान दिया।

मैनुअल स्कैवेंजिंग क्या है?

  • परिचय:
    • मैनुअल स्कैवेंजिंग को शुष्क शौचालयों, सीवरों एवं अन्य स्वच्छता सुविधाओं से मानव मल को हाथ से साफ करने, ले जाने, निपटाने या अन्यथा संभालने की प्रथा के रूप में परिभाषित किया जाता है।
    • इस प्रथा में उचित सुरक्षात्मक उपकरण या स्वच्छता उपकरणों के बिना मानव अपशिष्ट को मैन्युअल रूप से हटाना शामिल है, अक्सर बाल्टी, झाड़ू एवं टोकरियों जैसे अल्पविकसित उपकरणों का उपयोग करके।
    • हाथ से मैला ढोने के काम में संलग्न होने के कारण अक्सर खतरनाक कार्य स्थितियों के कारण मौतें होती हैं, विशेष रूप से पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों के बिना मैनहोल एवं सीवर की सफाई के कारण।
  • जाति व्यवस्था से संबंध
    • यह भारत में जाति व्यवस्था से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है, जिसके अंतर्गत कुछ सामाजिक रूप से हाशिये पर पड़े समुदायों के लोगों को पारंपरिक रूप से इस व्यवसाय में रखा जाता है।
  • विधिक स्थिति
    • हाथ से मैला ढोने की प्रथा भारतीय संविधान में प्रदत्त मानवीय गरिमा एवं मौलिक अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है।
    • मैनुअल स्कैवेंजरों का रोज़गार एवं शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 ने भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित कर दिया।
    • इस अधिनियम ने मैनुअल स्कैवेंजिंग पर प्रतिबंध को और सुदृढ़ किया तथा इस प्रथा में लगे व्यक्तियों के पुनर्वास का प्रावधान किया।
    • विधायी प्रतिबंधों के बावजूद, मैनुअल स्कैवेंजिंग प्रथाएँ मौजूदा विधियों का उल्लंघन हैं तथा संवैधानिक सुरक्षा उपायों को लागू करने में विफलता है।
    • मैनुअल स्कैवेंजिंग के उन्मूलन के लिये न केवल सख्त विधि प्रवर्तन की आवश्यकता है, बल्कि प्रभावित व्यक्तियों एवं समुदायों के लिये व्यापक सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास उपायों की भी आवश्यकता है।

मैनुअल स्कैवेंजर्स के लिये संवैधानिक सुरक्षा उपाय क्या हैं?

संवैधानिक उपबंध:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत मैनुअल स्कैवेंजरों सहित सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समानता एवं विधियों के समान संरक्षण की गारंटी दी गई है।
  • संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है तथा किसी भी रूप में इसके आचरण पर रोक लगाता है, जो विशेष रूप से मैनुअल स्कैवेंजरों के लिये प्रासंगिक है, जिन्हें अक्सर सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदान किया गया जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार मैनुअल स्कैवेंजरों तक विस्तारित होता है, जो उनकी गरिमा एवं आजीविका की रक्षा करता है।
  • संविधान का अनुच्छेद 23 मानव तस्करी एवं बलात् श्रम पर प्रतिबंध लगाता है, जिसका उपयोग मैनुअल स्कैवेंजरों के शोषण को रोकने के लिये किया जा सकता है।

मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध एवं उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 क्या है?

परिचय:

  • यह अधिनियम किसी भी व्यक्ति को मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोज़गार या नियुक्ति पर रोक लगाता है।
  • 2013 का अधिनियम पहचाने गए मैनुअल स्कैवेंजरों के पुनर्वास को अनिवार्य बनाता है, जिसमें वैकल्पिक रोज़गार, वित्तीय सहायता एवं अन्य सहायता उपायों का प्रावधान शामिल है।
  • स्थानीय अधिकारियों को अपने अधिकार क्षेत्र में मैनुअल स्कैवेंजरों एवं अस्वास्थ्यकर शौचालयों की पहचान करने के लिये सर्वेक्षण करने के लिये अधिनियम के अंतर्गत विधिक रूप से बाध्य किया गया है।
  • अधिनियम अपने प्रावधानों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न स्तरों पर सतर्कता समितियों एवं निगरानी समितियों सहित एक व्यापक संस्थागत तंत्र स्थापित करता है।
  • अधिनियम में प्रावधान है कि अपराध संज्ञेय एवं गैर-ज़मानती हैं, जो मैनुअल स्कैवेंजिंग से संबंधित उल्लंघनों की गंभीरता पर ज़ोर देता है।

प्रमुख विधिक प्रावधान:

  • धारा 5 अस्वास्थ्यकर शौचालयों के निर्माण एवं मैनुअल स्कैवेंजरों के नियोजन पर रोक लगाती है तथा मौजूदा अस्वास्थ्यकर शौचालयों को बदलने या ध्वस्त करने का आदेश देती है।
  • धारा 7 सीवरों एवं सेप्टिक टैंकों की खतरनाक सफाई के लिये व्यक्तियों की नियुक्ति या नियोजन पर रोक लगाती है।
  • धारा 11 एवं धारा 14 के अंतर्गत नगर पालिकाओं व पंचायतों को क्रमशः शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में मैनुअल स्कैवेंजरों की पहचान करने के लिये सर्वेक्षण करने की आवश्यकता होती है।
  • धारा 13 और धारा 16 में पहचाने गए मैनुअल स्कैवेंजरों के लिये पुनर्वास उपाय प्रदान किये गए हैं, जिनमें फोटो पहचान-पत्र, एकमुश्त नकद सहायता, बच्चों के लिये छात्रवृत्ति, आवास, कौशल विकास प्रशिक्षण एवं वैकल्पिक व्यवसाय के लिये सब्सिडी का प्रावधान शामिल है।
  • धारा 18 अधिनियम के कार्यान्वयन के लिये स्थानीय अधिकारियों एवं ज़िला मजिस्ट्रेटों को शक्तियाँ प्रदान करने एवं कर्त्तव्यों को लागू करने के लिये उपयुक्त सरकार को सशक्त बनाती है।
  • धारा 20 में निरीक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान है, जिन्हें परिसर की जाँच करने, निरीक्षण करने एवं मैनुअल स्कैवेंजरों के रोज़गार से संबंधित साक्ष्य एकत्र करने की शक्तियाँ दी गई हैं।
  • धारा 22 इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों को संज्ञेय एवं गैर-ज़मानती बनाती है।
  • धारा 24 एवं धारा 26 में अधिनियम के कार्यान्वयन की देखरेख के लिये क्रमशः ज़िला एवं उप-मंडल स्तर पर सतर्कता समितियों व एक राज्य निगरानी समिति के गठन का प्रावधान है।
  • धारा 33 स्थानीय प्राधिकारियों पर यह दायित्व आरोपित करती है कि वे मलमूत्र को हाथ से साफ करने की आवश्यकता को समाप्त करने के लिये सीवरों एवं सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिये आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करें।
  • धारा 36 उपयुक्त सरकार को अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिये नियम बनाने का अधिकार देती है।

सांविधानिक विधि

समग्र एवं खंडित क्षैतिज आरक्षण

 23-Aug-2024

रेखा शर्मा बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर एवं अन्य

“समग्र क्षैतिज आरक्षण के मामले में, आरक्षण प्रत्येक ऊर्ध्वाधर श्रेणी के लिये विशिष्ट नहीं है।”

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों को प्रदान किया गया आरक्षण समग्र क्षैतिज आरक्षण के रूप में है, इसलिये अलग से कट ऑफ की कोई आवश्यकता नहीं है।

  • उच्चतम न्यायालय ने रेखा शर्मा बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

रेखा शर्मा बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • राजस्थान उच्च न्यायालय ने सिविल जज कैडर के अंतर्गत सिविल जज एवं न्यायिक मजिस्ट्रेट के 120 पदों पर सीधी भर्ती के लिये विज्ञापन निर्गत किया था।
  • स्थायी विकलांगता वाले दो अपीलकर्त्ता रेखा शर्मा एवं रतन लाल ने भी इस पद के लिये आवेदन किया था।
  • दोनों को प्रारंभिक परीक्षा में असफल घोषित किया गया।
  • परिणाम में बेंचमार्क दिव्यांग व्यक्तियों की श्रेणी के लिये कट ऑफ अंकों को छोड़कर हर श्रेणी के लिये कट ऑफ अंक दिये गए।
  • अपीलकर्त्ताओं का मामला यह था कि भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14, 16 एवं 21 के अंतर्गत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया था तथा यह राजस्थान न्यायिक सेवा नियम, 2010 (RJS नियम) के साथ राजस्थान दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार नियम, 2018 का भी उल्लंघन था।
  • उच्च न्यायालय ने रिट याचिका खारिज कर दी।
  • इस प्रकार, उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने सबसे पहले निर्गत की गई रिक्तियों का विश्लेषण किया तथा पाया कि बेंचमार्क विकलांग व्यक्तियों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या कुल 89 रिक्तियों (वर्ष 2020 के लिये) में से 4 एवं कुल 31 रिक्तियों (वर्ष 2021 के लिये) में से 1 थी।
  • न्यायालय ने पाया कि विकलांग व्यक्तियों के पक्ष में आरक्षण एक समग्र क्षैतिज आरक्षण था तथा यह विभाजित आरक्षण नहीं था।
  • न्यायालय ने कहा कि RJS नियम, 2010 प्रतिवादियों के लिये बेंचमार्क विकलांग व्यक्तियों के लिये अलग से कट ऑफ अंक घोषित करना अनिवार्य नहीं बनाता है।
  • यह देखा गया कि महिलाओं (विधवा या परित्यक्ता) के लिये आरक्षण विभाजित आरक्षण था, जबकि बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्तियों के लिये आरक्षण समग्र आरक्षण था।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्तियों के लिये अलग से कट ऑफ निर्धारित न करना मनमाना या अपीलकर्त्ताओं के किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता।

आरक्षण क्या है?

  • आरक्षण सकारात्मक भेदभाव का एक रूप है, जिसे हाशिये पर पड़े वर्गों के मध्य समानता को बढ़ावा देने के लिये बनाया गया है, ताकि उन्हें सामाजिक एवं ऐतिहासिक अन्याय से बचाया जा सके।
  • सामान्यतः इससे तात्पर्य है कि रोज़गार एवं शिक्षा तक पहुँच में समाज के हाशिये पर पड़े वर्गों को वरीयता देना।
  • इसे मूल रूप से वर्षों से चले आ रहे भेदभाव को व्यवस्थित करने एवं वंचित समूहों को बढ़ावा देने के लिये विकसित किया गया था।
  • भारत में, लोगों के साथ जाति के आधार पर ऐतिहासिक रूप से भेदभाव किया जाता रहा है।

भारतीय संविधान, 1950 (COI) में आरक्षण से संबंधित प्रावधान क्या हैं?

  • भारतीय संविधान, 1950 (COI) का भाग XVI केंद्र एवं राज्य विधानसभाओं में SC और ST के आरक्षण से संबंधित है।
  • COI के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) ने राज्य एवं केंद्र सरकारों को SC तथा ST के सदस्यों के लिये सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाया।
  • संविधान (77वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन किया गया तथा सरकार को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने में सक्षम बनाने के लिये अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4A) डाला गया।
  • बाद में, आरक्षण देकर पदोन्नत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिये संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा खंड (4A) को संशोधित किया गया।
  • संविधान के 81वें संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा अनुच्छेद 16 (4B) को शामिल किया गया, जो राज्य को किसी वर्ष की रिक्तियों को भरने का अधिकार देता है, जो अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित हैं, जिससे उस वर्ष की कुल रिक्तियों पर पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा समाप्त हो जाती है।
  • संविधान की धारा 330 और 332 में संसद एवं राज्य विधानसभाओं में क्रमशः अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व का प्रावधान है।
  • अनुच्छेद 243D में प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया है।
  • अनुच्छेद 233T में प्रत्येक नगर पालिका में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटों का आरक्षण प्रदान किया गया है।
  • संविधान की धारा 335 में कहा गया है कि प्रशासन की प्रभावकारिता को बनाए रखने के साथ अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के दावों पर विचार किया जाएगा।

आरक्षण के प्रकार क्या हैं?

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के मामले में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि आरक्षण दो प्रकार के होते हैं:

  • ऊर्ध्वाधर आरक्षण
    • ये विशेष प्रावधानों का उच्चतम रूप है जो विशेष रूप से पिछड़े वर्गों SC, ST और OBC के सदस्यों के लिये है।
    • यह COI के अनुच्छेद 16 (4) के अंतर्गत आता है।
    • ये 50% से अधिक नहीं हो सकते।
  • क्षैतिज आरक्षण
    • ये विशेष प्रावधानों का कमतर रूप हैं तथा अन्य वंचित नागरिकों (जैसे- विकलांग, महिलाएँ आदि) के लिये हैं।
    • इनका प्रावधान COI के अनुच्छेद 16 (1) के अंतर्गत किया गया है।
    • क्षैतिज आरक्षण, ऊर्ध्वाधर आरक्षणों के प्रभाव को क्षीण करता है।
      क्षैतिज आरक्षण के प्रकार:
    • खंडित क्षैतिज आरक्षण
      • इस प्रकार के आरक्षण में प्रत्येक ऊर्ध्वाधर आरक्षित श्रेणी में आनुपातिक सीटें आरक्षित की जाती हैं।
      • उदाहरण के लिये, यदि रिक्तियों की कुल संख्या 89 है। विभाजित आरक्षण के मामले में उन्हें निम्नानुसार विभाजित किया जा सकता है:

कुल रिक्तियाँ

सामान्य

SC

ST

OBC

EWS

89

35 जिनमें से 10 महिलाओं के लिये 10 में से 2 पद विधवा के लिये आरक्षित

 

14 जिनमें से 4 पद महिलाओं के लिये तथा 1 पद विधवा के लिये

 

10 में से 3 पद महिलाओं के लिये

 

18 में से 5 पद महिलाओं के लिये

 

8 में से 2 पद महिलाओं के लिये

 

  •  समग्र क्षैतिज आरक्षण
    • यहाँ आरक्षण प्रत्येक ऊर्ध्वाधर श्रेणी के लिये विशिष्ट नहीं है।
    • यहाँ प्रदान किया गया आरक्षण विज्ञापित कुल पदों पर प्रदान किया गया है, अर्थात् ऐसा आरक्षण प्रत्येक ऊर्ध्वाधर श्रेणी के लिये विशिष्ट नहीं है।
    • उदाहरण के लिये, यदि रिक्तियों की कुल संख्या 89 है तथा कुल सीटों में से 4 सीटें विकलांग व्यक्तियों के लिये आरक्षित हैं, तो यह समग्र क्षैतिज आरक्षण होगा।

समग्र एवं खंडित क्षैतिज आरक्षण की प्रयोज्यता पर एक महत्त्वपूर्ण मामला कौन-सा है?

  • अनिल कुमार गुप्ता एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (1995)
    • समग्र और विभाजित आरक्षण के बीच अंतर इस प्रकार है:

समग्र क्षैतिज आरक्षण

कम्पार्टमेंटलाइज़्ड क्षैतिज आरक्षण

विशेष आरक्षण अभ्यर्थियों की श्रेणी आवंटित करते समय विशेष आरक्षण श्रेणियों के पक्ष में समग्र आरक्षण का सम्मान किया जाना चाहिये।

जहाँ क्षैतिज आरक्षण के लिये आरक्षित सीटें ऊर्ध्वाधर आरक्षणों के बीच आनुपातिक रूप से विभाजित की जाती हैं तथा वे अंतर-हस्तांतरणीय नहीं होती हैं।