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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

BNSS के अधीन अग्रिम ज़मानत का प्रावधान

 10-Sep-2024

धनराज आसवानी बनाम अमर एस. मूलचंदानी एवं अन्य।

"CrPC  में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है जो न्यायालय को किसी अपराध के संबंध में अग्रिम ज़मानत  पर निर्णय लेने से रोकता हो, जबकि आवेदक किसी अन्य अपराध के संबंध में अभिरक्षा में हो।"

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि जब कोई व्यक्ति एक अपराध के लिये अभिरक्षा में है तो CrPC में कोई भी प्रावधान उसे किसी अन्य अपराध के संबंध में अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन करने से नहीं रोकता है।

  • उच्चतम न्यायालय ने धनराज असवानी बनाम अमर एस. मूलचंदानी एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

धनराज असवानी बनाम एस. मूलचंदानी एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • प्रतिवादी अभिरक्षा में था तथा उसे ECIR संख्या 10/2021 के संबंध में अपराध के लिये गिरफ्तार किया गया था।
  • अभिरक्षा में रहते हुए प्रतिवादी को CR संख्या 806/2019 के संबंध में गिरफ्तारी की आशंका थी।
  • ऐसी परिस्थितियों में प्रतिवादी ने अग्रिम ज़मानत के लिये अपील की।
  • इस मामले में उच्च न्यायालय ने माना कि यद्यपि प्रतिवादी एक मामले के संबंध में अभिरक्षा में था, लेकिन इससे उसे किसी अन्य मामले के संबंध में अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन करने से नहीं रोका जा सकता।
  • उपरोक्त आदेश के विरुद्ध अपील की गई। न्यायालय के विचारार्थ मुद्दा इस प्रकार है:
    • क्या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 438 के अंतर्गत अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन किसी अभियुक्त के कहने पर स्वीकार्य है, जबकि वह पहले से ही किसी अन्य मामले में शामिल होने के कारण न्यायिक अभिरक्षा में है?

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने सबसे पहले अग्रिम ज़मानत की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की।
  • न्यायालय ने सबसे पहले जिस प्रश्न का उत्तर दिया वह यह था कि क्या पहले से अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है।
  • पहले से अभिरक्षा में लिये गए व्यक्ति को गिरफ्तार करने के दो तरीके हैं:
    • पहले मामले के सिलसिले में अभिरक्षा से रिहा होने के तुरंत बाद, पुलिस अधिकारी उसे किसी दूसरे मामले के सिलसिले में गिरफ्तार कर सकता है तथा अभिरक्षा में ले सकता है।
    • पहले मामले में अभिरक्षा से रिहा होने से पहले ही, दूसरे अपराध की जाँच कर रहा पुलिस अधिकारी उसे औपचारिक रूप से गिरफ्तार कर सकता है और उसके बाद दूसरे अपराध के लिये क्षेत्राधिकार वाले मजिस्ट्रेट से CrPC की धारा 267 के अंतर्गत कैदी ट्रांजिट वारंट ("P.T. वारंट") प्राप्त कर सकता है तथा उसके बाद मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करने पर रिमांड के लिये प्रार्थना कर सकता है; या
    • औपचारिक गिरफ्तारी करने के बजाय, विवेचना अधिकारी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन कर सकता है, जिसमें अभियुक्त को जेल से प्रस्तुत करने के लिये पी.टी. वारंट की मांग की जा सकती है। जब अभियुक्त को पी.टी. वारंट के अनुसरण में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो विवेचना अधिकारी अभियुक्त को रिमांड पर लेने का अनुरोध करने के लिये स्वतंत्र होगा।
  • इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति को तब भी गिरफ्तार किया जा सकता है जब वह किसी अन्य अपराध के लिये पहले से ही अभिरक्षा में हो।
  • इसलिये, उपर्युक्त के तार्किक विस्तार के रूप में यदि अभियुक्त को अभिरक्षा में रहते हुए गिरफ्तार किया जा सकता है, तो उसे अभिरक्षा में रहते हुए अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन करने से नहीं रोका जा सकता है।
  • इस प्रकार, न्यायालय निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचा:
    • कोई अभियुक्त किसी अपराध के लिये अग्रिम ज़मानत की मांग तभी कर सकता है जब उसे उस अपराध के संबंध में गिरफ्तार न किया गया हो।
    • CrPC की धारा 438 में किसी अपराध के संबंध में अग्रिम ज़मानत देने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है, जब वह किसी अन्य अपराध के लिये अभिरक्षा में हो। अग्रिम ज़मानत देने की शक्ति पर एकमात्र प्रतिबंध धारा 438 (4) तथा कुछ अन्य विधियों जैसे कि अधिनियम 1989 आदि में देखा जा सकता है।
    • जब अभिरक्षा में लिया गया व्यक्ति किसी अन्य अपराध (बाद के अपराध) में गिरफ़्तारी की आशंका करता है, तो बाद के अपराध के संबंध में अभियुक्त को दिये गए सभी अधिकार स्वतंत्र रूप से सुरक्षित होते हैं।
    • न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 438 की सहायता से संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के अभियुक्त के अधिकार को विधि द्वारा स्थापित विधिकी प्रक्रिया के बिना विफल नहीं किया जा सकता है।
    • CrPC की धारा 438 के अंतर्गत शक्ति के प्रयोग के लिये एकमात्र पूर्व शर्त यह है कि व्यक्ति के पास “यह मानने का कारण होना चाहिये कि उसे गैर-ज़मानतीय अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है”।

अग्रिम ज़मानत की अवधारणा कैसे विकसित हुई?

  अधिनियम एवं संशोधन

क्रमिक विकास

दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1898

अग्रिम ज़मानत का कोई प्रावधान नहीं है।

41वीं विधि आयोग रिपोर्ट

यह देखा गया कि अग्रिम ज़मानत की अवधारणा की आवश्यकता है क्योंकि कभी-कभी प्रभावशाली व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वियों को बदनाम करने के लिये या अन्य उद्देश्यों के लिये उन्हें कुछ दिनों के लिये जेल में बंद करके मिथ्या मामलों में फंसाने की कोशिश करते हैं।

दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1970 के ड्राफ्ट विक्रय की धारा 447

विधि आयोग द्वारा दी गई अनुशंसा को सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया गया।

दण्ड  प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC ) की धारा 438

अग्रिम ज़मानत की अवधारणा अस्तित्व में आई।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS ) की धारा 482

1 जुलाई 2024 से प्रभावी होने वाले CrPC  के स्थान पर BNSS ने BNSS की धारा 482 के अंतर्गत अग्रिम ज़मानत  की अवधारणा को यथावत रखा है।

BNSS  की धारा 482 में क्या परिवर्तन किये गए हैं?

  • अग्रिम ज़मानत देते समय विचार किये जाने वाले कारकों को छोड़ दिया गया है।
  • BNSS में CrPC की धारा 438 के खंड (1A) (1B) को हटा दिया गया है।
  • CrPC की धारा 438 के खंड (2), (3), (4) को उसी रूप में रखा गया है।

अग्रिम ज़मानत पर ऐतिहासिक निर्णय क्यों हैं?

  • गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980)
    • आवेदक को यह “विश्वास करने का कारण” प्रदर्शित करना होगा कि उसे गिरफ्तार किया जा सकता है। न्यायालय को विश्वास की तर्कसंगतता या गिरफ्तारी की संभावना का न्याय करने में सक्षम बनाने के लिये विशिष्ट घटनाओं और तथ्यों का प्रकटन किया जाना चाहिये।
    • उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय को अग्रिम ज़मानत के प्रश्न पर अपना दिमाग लगाना चाहिए तथा इसे CrPC की धारा 437 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के विवेक पर नहीं छोड़ना चाहिये।
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना कोई पूर्व शर्त नहीं है।
    • जब तक व्यक्ति को उस मामले/अपराध के संबंध में गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तब तक अग्रिम ज़मानत दी जा सकती है।
    • जब व्यक्ति को किसी अपराध के संबंध में गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे उस अपराध के लिये अग्रिम ज़मानत नहीं दी जा सकती।
    • सामान्य नियम यह है कि आदेश के संचालन को समय अवधि के संबंध में सीमित नहीं किया जाता है।
  • सुशीला अग्रवाल बनाम राज्य (NCT दिल्ली) (2020)
    अग्रिम ज़मानत के लिये आवेदन ठोस तथ्यों पर आधारित होना चाहिये, न कि अस्पष्ट आरोपों पर। (FIR दर्ज करना कोई पूर्व शर्त नहीं है)।
    • अग्रिम ज़मानत के आवेदन पर लोक अभियोजक को नोटिस जारी करना उचित है।
    • CrPC की धारा 438 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो न्यायालयों को समय के संदर्भ में राहत को सीमित करने वाली शर्तें लगाने के लिये बाध्य करने वाला हो या बाध्य करता हो।
    • न्यायालयों को आम तौर पर अपराधों की प्रकृति एवं गंभीरता, आवेदक को सौंपी गई भूमिका और मामले के तथ्यों जैसे विचारों से निर्देशित होना चाहिये, जबकि इस बात पर विचार किया जाता है कि अग्रिम ज़मानत दी जाए या नहीं।
    • एक बार अग्रिम ज़मानत दिये जाने के बाद, आरोप पत्र दाखिल होने के बाद वाद के अंत तक अग्रिम ज़मानत जारी रह सकती है।
    • यह एक “कंबल ऑर्डर” नहीं होना चाहिये तथा इसे किसी विशिष्ट घटना तक ही सीमित रखा जाना चाहिये।
    • अग्रिम ज़मानत देने वाले आदेश की सत्यता पर अपीलीय या उच्च न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है।

आपराधिक कानून

CrPC पर PMLA की अधिमान्यता

 10-Sep-2024

अभिषेक बनर्जी एवं अन्य बनाम प्रवर्तन निदेशालय

“धारा 50 PMLA और धारा 160/161 CrPC के बीच स्पष्ट विसंगतियों को देखते हुए, धारा 50 PMLA के प्रावधान धारा 71 के साथ धारा 65 के अनुसार लागू होंगे”।

न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अभिषेक बनर्जी एवं अन्य बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2024) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के प्रावधानों के अधीन व्यक्ति को समन भेजने से संबंधित मामले दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) पर अधिमान्य होंगे।

अभिषेक बनर्जी एवं अन्य बनाम प्रवर्तन निदेशालय मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), प्रतिवादी द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 120 B और 409 और PMLA की धारा 13 (2) के साथ धारा 13 (1) (A) के अधीन अपराधों के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
  • यह आरोप लगाया गया था कि ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (ECL) के पट्टाकृत भूमिक्षेत्रों में ECL के कुछ कर्मचारियों की सक्रिय मिलीभगत से कोयले का अवैध उत्खनन एवं चोरी हो रही है।
  • प्रतिवादी (प्रवर्तन निदेशालय) द्वारा अपीलकर्त्ताओं को दस्तावेज़ों के साथ व्यक्तिगत उपस्थिति दर्ज कराने के लिये कई समन जारी किये गए, परंतु दोनों अपीलकर्त्ताओं ने समन का अनुपालन नहीं किया।
  • प्रतिवादी ने इन समन का उत्तर देते हुए मांगे गए दस्तावेज़ों को एकत्र करने और उनका मिलान करने के लिये चार सप्ताह का समय मांगा। प्रतिवादी को उत्तर के उसी दिन फिर से समन भेजा गया, जिसे उसने दिल्ली उच्च न्यायालय में आपराधिक रिट याचिका के तहत चुनौती दी।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी के पास केवल PMLA की धारा 50 के अधीन समन जारी करने का मूल अधिकार है तथा प्रक्रियात्मक शक्तियों का प्रयोग केवल CrPC के प्रावधानों के अनुसार किया जाना चाहिये।
  • अपीलकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि समन जारी करने की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
  • प्रतिवादी ने मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट (CMM) के न्यायालय में अपीलकर्त्ता संख्या 2 के विरुद्ध धारा 190 (1) (A) के साथ CrPC की धारा 200 के साथ तथा PMLA की धारा 63 (4) के अधीन शिकायत दर्ज की, जिसमें समन का पालन न करने पर IPC की धारा 174 के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया।
  • अपीलकर्त्ता संख्या 2 ने सुनवाई की तिथि पर न्यायालय के समक्ष वर्चुअल रूप से उपस्थित होकर व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट का आवेदन मांगा।
  • संबंधित मुख्य मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट ने केवल उसी दिन के लिये छूट आवेदन को स्वीकार करते हुए आदेश पारित किया तथा अपीलकर्त्ता संख्या 2 को आगे की कार्यवाही के लिये व्यक्तिगत रूप से न्यायालय के समक्ष उपस्थित रहने का निर्देश दिया।
  • उक्त आदेश को अपीलकर्त्ता संख्या 2 द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में भी चुनौती दी गई।
  • अपीलकर्त्ता संख्या 2 द्वारा यह तर्क दिया गया कि उसे दिल्ली में भौतिक रूप से उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल कोलकाता में ही उपस्थित होने के लिये बाध्य किया जा सकता है, क्योंकि दिल्ली, वाद के स्थान की प्रादेशिक सीमा से बाहर है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा दायर दोनों अपीलों को अस्वीकार कर दिया।
  • इसके उपरांत दोनों अपीलकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
    • PMLA की धारा 65 के प्रावधानों में कहा गया है कि जब CrPC और PMLA के प्रावधानों में कोई असंगति होगी तो PMLAलागू होगा।
    • धारा 71 के प्रावधानों में कहा गया है कि PMLA का अन्य सभी विधानों पर अधिभावी प्रभाव होगा।
    • CrPC पर PMLA की प्रयोज्यता की जाँच करने के लिये CrPC की धारा 4(2) और धारा 5 पर भी विचार किया गया।
    • CrPC की धारा 160 पर भी विचार किया गया, जिसमें कहा गया है कि CrPC के प्रावधान उन सभी पहलुओं पर लागू नहीं होंगे जहाँ धन शोधन के मामलों से संबंधित जानकारी प्राप्त की जानी है।
  • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि PMLA की धारा 50 और CrPC की धारा 160 के बीच असंगतताएँ हैं:
    • PMLA की धारा 50 लिंग-तटस्थ प्रावधान है, जबकि CrPC की धारा 160 लिंग-तटस्थ प्रावधान नहीं है।
    • PMLA की धारा 50 जाँच से संबंधित है, जबकि CrPC की धारा 160 केवल पूछताछ से संबंधित है।
    • PMLA की धारा 50 संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत नहीं आती, जबकि CrPC की धारा 160 के तहत एकत्रित साक्ष्य को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, बल्कि CrPC की धारा 162 के साथ पढ़ने पर केवल विशेष उद्देश्य के लिये प्रस्तुत किया जा सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने व्यक्ति को समन भेजने के संबंध में PMLA नियम, 2005 पर भी विचार किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि PMLA की धारा 50 के अनुसार:
    • खंड (3) इस प्रकार बुलाए गए सभी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से या अधिकृत अभिकर्त्ताओं के माध्यम से उपस्थित होने के लिये बाध्य होंगे, जैसा कि ऐसा अधिकारी निर्देश दे, और किसी भी विषय पर सच्चाई बताने के लिये बाध्य होंगे जिसके संबंध में उनकी जाँच की जा रही है या बयान देने और ऐसे दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिये बाध्य होंगे जिनकी आवश्यकता हो।
    • खण्ड (4) के अनुसार प्रत्येक कार्यवाही न्यायिक कार्यवाही होगी।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि PMLA की धारा 63 के अनुसार:
    • खंड (4) में कहा गया है कि जो व्यक्ति जानबूझकर धारा 50 के तहत जारी किसी निर्देश की अवहेलना करता है, उसके विरुद्ध IPC की धारा 174 के अधीन भी कार्यवाही की जा सकती है।
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई उपरोक्त टिप्पणियों पर विचार करते हुए, न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा दायर अपीलों को अस्वीकार कर दिया।

PMLA का अवलोकन:

  • धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 भारत की संसद का एक अधिनियम है जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार द्वारा धन शोधन को रोकने और धन शोधन से प्राप्त संपत्ति को ज़ब्त करने का प्रावधान करने के लिये अधिनियमित किया गया है।
  • PMLA और इसके अंतर्गत अधिसूचित नियम 1 जुलाई 2005 से लागू हुए।
  • PMLA का उद्देश्य भारत में धन शोधन से निपटना है और इसके तीन मुख्य उद्देश्य हैं:
    • धन शोधन को रोकने और नियंत्रित करने के लिये।
    • शोधित धन से प्राप्त संपत्ति को ज़ब्त करना।
    • भारत में धन शोधन से जुड़े किसी भी अन्य मुद्दे से निपटने के लिये।

PMLA की धारा 50 क्या है?

  • समन जारी करने, दस्तावेज़ प्रस्तुत करने और साक्ष्य देने आदि के संबंध में प्राधिकारियों की शक्तियाँ।
    • इसमें समन जारी करने, दस्तावेज़ प्रस्तुत करने और साक्ष्य देने में प्राधिकारियों की शक्तियों का विवरण दिया गया है।
    • यह निदेशक की शक्तियों को खोज एवं निरीक्षण, उपस्थिति सुनिश्चित करने, दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने के लिये बाध्य करने तथा कमीशन जारी करने जैसे मामलों के लिये सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की शक्तियों के समान मानता है।
      • धारा 50(2) निदेशक और अन्य अधिकारियों को PMLA के अधीन किसी भी जाँच या कार्यवाही के दौरान किसी भी व्यक्ति को बुलाने का अधिकार देती है। PMLA नियम, 2005 के नियम 2(p) और नियम 11 में इन शक्तियों को और अधिक स्पष्ट किया गया है।
      • धारा 50(3) के अनुसार सभी सम्मनित व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप से या अधिकृत अभिकर्त्ताओं के माध्यम से उपस्थित होना होगा, जाँच के दौरान सच्चाई बतानी होगी और आवश्यक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने होंगे।
      • धारा 50(4) धारा 50(2) और धारा 50(3) के तहत प्रत्येक कार्यवाही को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 193 और 228 के अनुसार न्यायिक कार्यवाही मानती है।
      • धारा 50(5) धारा 50(2) में निर्दिष्ट किसी भी अधिकारी को 2003 के अधिनियम 15 के तहत किसी भी कार्यवाही में उसके समक्ष प्रस्तुत किसी भी रिकॉर्ड को ज़ब्त करने और बनाए रखने की अनुमति देती है। इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिये सुरक्षा उपाय मौजूद हैं।

अभिषेक बनर्जी एवं अन्य बनाम प्रवर्तन निदेशालय मामले में क्या मामला संदर्भित है?

  • विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ (2022):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि गिरफ्तारी, कुर्की, तलाशी और ज़ब्ती का अधिकार प्रवर्तन निदेशालय को दिया गया है।
    • यह माना गया कि CrPC की धारा 160 को भी ध्यान में रखा गया, जिसमें कहा गया है कि CrPC के प्रावधान उन सभी पहलुओं पर लागू नहीं होंगे जहाँ धन शोधन के मामलों से संबंधित जानकारी प्राप्त की जानी है।

सिविल कानून

मध्यस्थता अधिनियम की धारा 9 का डिक्री के रूप में प्रवर्तन

 10-Sep-2024

आनंद गुप्ता एवं अन्य बनाम मेसर्स आलमंड इंफ्राबिल्ड प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य

“माध्यस्थम अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत किसी करार के आधार पर दिया गया आदेश डिक्री के रूप में लागू करने योग्य है।”

न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 9 के अंतर्गत एक करार समझौते के आधार पर एक आदेश, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 36 के अंतर्गत एक डिक्री के रूप में लागू किया जा सकता है। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि ऐसे आदेशों को डिक्री की तरह निष्पादित किया जा सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि वे प्रवर्तन उद्देश्यों के लिये समान विधिक महत्त्व रखते हैं।

  • न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर ने आनंद गुप्ता एवं अन्य बनाम मेसर्स आलमंड इंफ्राबिल्ड प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (2024) के मामले में यह निर्णय सुनाया।

आनंद गुप्ता एवं अन्य बनाम मेसर्स आलमंड इंफ्राबिल्ड प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्ष 2014 में, आलमंड इंफ्राबिल्ड प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (प्रतिवादी) ने "ATS टूरमलाइन" नामक एक ग्रुप हाउसिंग आवासीय परियोजना शुरू की।
  • यह परियोजना गारंटीड बायबैक और सबवेंशन स्कीम के अंतर्गत संचालित होती है, जिसमें निवेशकों को 33 से 36 महीने के बाद बाहर निकलने के विकल्प के साथ आवासीय यूनिट प्रदान की जाती हैं।
  • बायबैक शर्तों में यह निर्धारित किया गया था कि प्रथम प्रतिवादी ₹8,000 प्रति वर्ग फीट की आरंभिक बुकिंग कीमत से ऊपर ₹1,500 प्रति वर्ग फीट पर इकाइयों को पुनर्खरीद करेगा।
  • आनंद गुप्ता एवं अनुराधा विनोद गुप्ता (याचिकाकर्त्ता) ने परियोजना में निवेश किया तथा 26 मार्च 2014 को प्रथम प्रतिवादी के साथ एक करार ज्ञापन (MOU) निष्पादित किया।
  • MOU के खंड 8 में ब्याज भुगतान एवं क्षतिपूर्ति के प्रावधानों सहित बायबैक व सबवेंशन योजना का विवरण दिया गया है।
  • 15 दिसंबर 2016 को, याचिकाकर्त्ता 1 ने बायबैक विकल्प का उपयोग करने का आशय व्यक्त किया, मार्च 2017 तक पुष्टि एवं भुगतान का अनुरोध किया।
  • प्रतिवादी 1 ने शुरू में MOU की बाध्यकारी प्रकृति की पुष्टि की, लेकिन बाद में वैकल्पिक विकल्पों का सुझाव दिया या अनुपालन के लिये अधिक समय का अनुरोध किया।
  • जैसे-जैसे 1 अप्रैल 2018 की भुगतान की समय सीमा नज़दीक आती गई, याचिकाकर्त्ताओं ने भुगतान अनुसूची के विषय में जानकारी मांगी, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली।
  • जनवरी 2019 तक, प्रतिवादियों ने बैंक को EMI भुगतान में चूक की थी।
  • 1 अप्रैल 2019 को, याचिकाकर्त्ताओं ने धोखाधड़ी और बायबैक दायित्वों पर चूक का आरोप लगाते हुए एक विस्तृत लीगल (विधिक) नोटिस भेजा, जिसमें बायबैक राशि, अर्जित ब्याज एवं बकाया बैंक ऋणों के पुनर्भुगतान की मांग की गई।
  • अपनी मांगों का अनुपालन न किये जाने के कारण, याचिकाकर्त्ताओं ने करार ज्ञापन में विवाद समाधान खंड के अनुसार माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 96 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया।
  • बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय मध्यस्थता एवं सुलह केंद्र द्वारा मध्यस्थता के माध्यम से मामले का निपटान किया गया, जिसके परिणामस्वरूप करार हुए।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिकाएँ इन करार को लागू करने की मांग करती हैं, जिनमें पक्षों के बीच विवादों को हल करने के लिये समान शर्तें शामिल हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने एंगल इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड बनाम अशोक मनचंदा मामले में पूर्वनिर्णय पर विश्वास करते हुए कहा कि मध्यस्थता के माध्यम से किये गए करार पर आधारित आदेश, हालाँकि अपने आप में कोई पंचाट या डिक्री नहीं है, लेकिन वह CPC की धारा 36 के अंतर्गत डिक्री के समान ही निष्पादन योग्य है।
  • न्यायालय ने निष्पादन याचिका की स्थिरता पर प्रतिवादियों की आपत्ति को खारिज कर दिया, तथा पुष्टि की कि एंगल इंफ्रास्ट्रक्चर में स्थापित सिद्धांत माध्यस्थम अधिनियम, 2023 के अधिनियमन के बावजूद लागू रहेगा।
  • क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के मुद्दे को संबोधित करते हुए, न्यायालय ने मध्यस्थ पंचाटों एवं न्यायालयी आदेशों के निष्पादन के बीच अंतर किया, तथा कहा कि निष्पादन याचिका उच्च न्यायालय के समक्ष स्थिरता योग्य थी क्योंकि यह वह न्यायालय थी जिसने मूल आदेश पारित किया था।
  • न्यायालय ने निपटान करार की शर्तों को स्पष्ट एवं असंदिग्ध पाया, तथा प्रतिवादियों के इस तर्क को खारिज कर दिया कि उनके दायित्व अपार्टमेंट की बिक्री पर निर्भर थे।
  • निपटान करार के अंतर्गत अपने वित्तीय दायित्वों का पालन करने में प्रतिवादियों की विफलता को देखते हुए, न्यायालय ने उन्हें 18% प्रतिवर्ष की दर से ब्याज सहित कुल निपटान राशि के लिये संयुक्त रूप से और अलग-अलग उत्तरदायी ठहराया।
  • न्यायालय ने प्रतिवादियों को दो सप्ताह के अंदर याचिकाकर्त्ताओं को देय संपूर्ण राशि जमा करने का आदेश दिया तथा बकाया राशि का पूरा भुगतान होने तक संपार्श्विक के रूप में प्रस्तुत की गई कृषि संपत्तियों को कुर्क कर लिया।
  • न्यायालय ने तथ्य एवं विधि के समान मुद्दों वाली कई संबंधित याचिकाओं पर समान तर्क एवं निष्कर्ष लागू किये और उन्हें OMP (Enf) (Comm) 148/2021 में दिये गए निर्णय के संदर्भ में अनुमति दी।

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 9 क्या है?

  • आवेदन का समय:
    • धारा 9 किसी पक्ष को मध्यस्थता कार्यवाही शुरू होने से पहले, कार्यवाही के दौरान, या मध्यस्थता पंचाट दिये जाने के बाद लेकिन धारा 36 के अंतर्गत इसके प्रवर्तन से पहले अंतरिम उपायों के लिये आवेदन करने की अनुमति देती है।
  • अधिकारिता:
    • अंतरिम उपायों के लिये आवेदन न्यायालय में किया जाना चाहिये, जिसके पास ऐसे उपाय प्रदान करने की शक्ति है, जिन्हें वह उचित समझे।
  • अंतरिम उपायों के प्रकार:
    • न्यायालय विभिन्न प्रकार के अंतरिम उपाय प्रदान कर सकता है, जिनमें शामिल हैं:
      • मध्यस्थता के प्रयोजनों के लिये अप्राप्तवय या अस्वस्थ व्यक्ति के लिये अभिभावक की नियुक्ति करना।
      • मध्यस्थता करार की विषय-वस्तु वाले माल को संरक्षित करना, अंतरिम अभिरक्षा प्रदान करना या उसकी बिक्री का आदेश देना।
      • मध्यस्थता में विवादित राशि को सुरक्षित रखना।
      • विवाद का विषय बनने वाली किसी संपत्ति या वस्तु को स्थगित करना, संरक्षित करना या उसका निरीक्षण करना।
      • निरीक्षण या साक्ष्य एकत्र करने के उद्देश्य से भूमि या भवन में प्रवेश को अधिकृत करना।
      • अंतरिम निषेधाज्ञा देना या रिसीवर नियुक्त करना।
      • संरक्षण का कोई अन्य अंतरिम उपाय जिसे न्यायालय उचित एवं सुविधाजनक समझे।
  • न्यायालय की शक्तियाँ:
    • न्यायालय को धारा 9 के अंतर्गत आदेश देने के लिये वही शक्तियाँ प्राप्त हैं जो उसके समक्ष किसी भी कार्यवाही के लिये हैं।
  • मध्यस्थता प्रारंभ करने की समय सीमा:
    • यदि न्यायालय मध्यस्थता कार्यवाही शुरू होने से पहले अंतरिम उपाय प्रदान करता है, तो मध्यस्थता आदेश की तिथि से 90 दिनों के अंदर या न्यायालय द्वारा निर्धारित किसी अतिरिक्त समय के अंदर प्रारंभ होनी चाहिये।
  • न्यायालय के हस्तक्षेप पर प्रतिबंध:
    • एक बार मध्यस्थ अधिकरण गठित हो जाने के बाद, न्यायालय धारा 9 के अंतर्गत किसी आवेदन पर तब तक विचार नहीं करेगा, जब तक कि उसे यह न लगे कि धारा 17 के अंतर्गत प्रदत्त उपाय (मध्यस्थ अधिकरण द्वारा आदेशित अंतरिम उपाय) प्रभावकारी नहीं होंगे।
  • अंतरिम उपायों का दायरा:
    • न्यायालय के पास कोई भी अंतरिम उपाय प्रदान करने का व्यापक विवेकाधिकार है, जिसे वह न्यायसंगत एवं सुविधाजनक समझता है, जिससे प्रत्येक मामले की विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करने में लचीलापन बना रहता है।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 33 क्या है?

  • CPC की धारा 33 निर्णय एवं डिक्री से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि मामले की सुनवाई के बाद न्यायालय निर्णय सुनाएगा तथा ऐसे निर्णय के आधार पर डिक्री जारी की जाएगी।