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आपराधिक कानून
दहेज़ मृत्यु के लिये अनिवार्यताएँ
11-Sep-2024
छबी करमारकर एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य “मामले में साक्षियों ने यह नहीं कहा कि ऐसी क्रूरता एवं उत्पीड़न दहेज की मांग के संबंध में था”। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि इस मामले में यह सिद्ध नहीं हुआ कि दहेज़ की मांग के चलते मृतका के साथ उसकी मृत्यु से पहले क्रूरता की गई थी, इसलिये यह दहेज़ हत्या का मामला नहीं है।
छबी करमारकर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- मृतका एवं अपीलकर्त्ता संख्या 2 का विवाह मार्च 2003 में हुआ था।
- 2 मई 2006 को मृतका ने अपने ससुराल में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
- पोस्टमार्टम करवाया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार मृतका के शरीर पर लिगचर के निशान थे तथा कोई अन्य मृत्यु-पूर्व चोट नहीं थी।
- प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि मृतका को दहेज़ की मांग को लेकर परेशान किया जा रहा था।
- इसलिये, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 304 B, धारा 498 A एवं धारा 306 के साथ धारा 34 के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
- ट्रायल कोर्ट ने मृतका की ननद (अपीलकर्त्ता संख्या 1), पति (अपीलकर्त्ता संख्या 2) एवं सास को दोषसिद्धि दी।
- उच्च न्यायालय ने अपील में दोषसिद्धि एवं सज़ा को यथावत् रखा।
- परिणामस्वरूप, अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- न्यायालय ने माना कि निम्नलिखित प्रावधान बिना किसी संदेह के सिद्ध हो चुके हैं:
- मृतका की मृत्यु विवाह के सात वर्ष के अंदर हो गई।
- उसकी मृत्यु वैवाहिक घर में आत्महत्या के कारण हुई।
- उसके ससुराल वालों एवं विशेष रूप से पति द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाता था।
- पति-पत्नी के मध्य वैवाहिक कलह थी।
- अभियोजन पक्ष ने कई साक्षियों से पूछताछ की है।
- न्यायालय ने माना कि यह स्पष्ट है कि मृतका को अपने पति के हाथों उत्पीड़न एवं क्रूरता का सामना करना पड़ा, हालाँकि इन साक्षियों ने यह नहीं बताया कि ऐसी क्रूरता एवं उत्पीड़न दहेज़ की मांग के संबंध में था।
- दहेज़ की मांग के संबंध में कुछ सामान्य बयान दिये गए थे जो IPC की धारा 304 B के अधीन आरोपी को दोषी ठहराने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि वर्तमान परिस्थितियों में अभियुक्त को धारा 306 (आत्महत्या के लिये उकसाना) तथा धारा 498 A (क्रूरता) के अधीन दोषी ठहराया जा सकता है।
- हालाँकि धारा 304 B (दहेज़ हत्या) के अधीन दोषसिद्धि को खारिज कर दिया गया।
दहेज़ क्या है?
- परिचय:
- दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 में दहेज़ की परिभाषा दी गई है।
- दहेज़ के घटक:
- कोई भी संपत्ति या
- मूल्यवान सुरक्षा
- प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दी गई या दिये जाने पर सहमति व्यक्त किया जाना
- दहेज़ के पक्षकार:
- विवाह के एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को
- विवाह के किसी भी पक्ष के माता-पिता द्वारा या विवाह के किसी भी पक्ष को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति को
- दहेज़ का समय:
- उक्त पक्षों के विवाह के संबंध में विवाह के समय या उससे पहले या विवाह के बाद किसी भी समय
- दहेज़ में शामिल नहीं है:
- इसमें उन व्यक्तियों के मामले में दहेज़ या मेहर शामिल नहीं है जिन पर मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) लागू होता है।
आपराधिक विधियों में “दहेज़ मृत्यु” से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
पुराने आपराधिक विधियों में प्रावधान |
नए आपराधिक विधियों में प्रावधान |
आवश्यक तथ्य |
IPC की धारा 304बी |
भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 80 (बीएनएस) |
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भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113 B |
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) की धारा 118 |
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दहेज़ मृत्यु के मूल तत्त्वों को स्पष्ट करने वाले निर्णय क्या हैं?
- चरण सिंह @ चरणजीत सिंह बनाम उत्तराखंड राज्य (2023)
- इस मामले में न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 B लागू करने से मना कर दिया।
- न्यायालय ने माना कि मोटरसाइकिल एवं ज़मीन की मांग के संबंध में केवल कुछ मौखिक कथन ही दिये गए थे, जो घटना से काफी पहले के थे।
- उपरोक्त घटना किसी भी तरह से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304B के अधीन दोषसिद्धि या धारा 113B के तहत अनुमान लगाने के लिये आवश्यक पूर्वापेक्षाओं को पूरा नहीं करती है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि विवाह के सात वर्ष के अंदर मृतक की अप्राकृतिक मृत्यु मात्र IPC की धारा 304B एवं और 498A के अधीन अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिये पर्याप्त नहीं होगी।
- राजिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2015):
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 B के अंतर्गत दहेज मृत्यु के अपराध के चार तत्त्व हैं:
- महिला की मृत्यु किसी जलने या शारीरिक चोट के कारण हुई हो या उसकी मृत्यु सामान्य परिस्थितियों के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से हुई हो
- ऐसी मृत्यु उसकी विवाह के सात वर्ष के अंदर हुई हो
- उसकी मृत्यु से ठीक पहले, उसके पति या उसके पति के किसी रिश्तेदार ने उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया हो
- ऐसी क्रूरता या उत्पीड़न दहेज़ की मांग के संबंध में होना चाहिये।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 B के अंतर्गत दहेज मृत्यु के अपराध के चार तत्त्व हैं:
- शेर सिंह उर्फ परतापा बनाम हरियाणा राज्य (2015)
- इस मामले में न्यायालय ने “शीघ्र” शब्द की व्याख्या IPC की धारा 304 B के अनुसार की।
- “शीघ्र” शब्द की व्याख्या दिनों, महीनों या वर्षों के संदर्भ में नहीं की जानी चाहिये।
- दहेज़ की मांग पुरानी या अतीत की बात नहीं होनी चाहिये, बल्कि धारा 304 B के अधीन मृत्यु का एक निरंतर कारण होना चाहिये।
- एक बार जब अभियोजन पक्ष द्वारा इन सहवर्ती कारकों को स्थापित कर दिया जाता है, यहाँ तक कि संभावना की प्रबलता की सीमा तक भी, तो निर्दोषता की प्रारंभिक धारणा को अभियुक्त के अपराध की धारणा द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है।
- दिनेश सेठ बनाम दिल्ली राज्य (2008)
- न्यायालय ने दो धाराओं अर्थात् भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498A एवं धारा 304B की व्यापकता एवं दायरे की जाँच की।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498A का दायरा व्यापक है क्योंकि इसमें वे सभी मामले शामिल हैं जिनमें पत्नी को उसके पति या उसके पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता का सामना करना पड़ता है।
- दोनों धाराओं में "क्रूरता" का तत्त्व समान है, लेकिन दोनों धाराओं की व्यापकता एवं दायरा अलग-अलग है, जहाँ तक धारा 304B का संबंध विवाह के सात वर्षों के अंदर क्रूरता या उत्पीड़न के परिणामस्वरूप मृत्यु के मामलों से है तथा धारा 498A उन सभी मामलों से संबंधित है, जहाँ पत्नी को उसके पति या उसके पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता का सामना करना पड़ता है।
सिविल कानून
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 59 के अंतर्गत परिशोधन
11-Sep-2024
चलसानी उदय शंकर एवं अन्य बनाम मेसर्स लेक्सस टेक्नोलॉजीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य "CA की धारा 59 में 'पर्याप्त कारण' वाक्यांश का परीक्षण उस सांविधिक आदेश के संबंध में किया जाना है, जो अधिनियम एवं बनाए गए नियमों के उल्लंघन में किया गया है या करने से चूक गया है।" न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने चलसानी उदय शंकर एवं अन्य बनाम मेसर्स लेक्सस टेक्नोलॉजीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले में माना है कि कंपनी विधि अधिकरणों को कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 59 के अंतर्गत सुधार का आदेश देने की शक्ति है, जब मामला प्रथम दृष्टया प्रवंचना के शिकार पक्ष को संकेत करता है।
चलसानी उदय शंकर एवं अन्य बनाम मेसर्स लेक्सस टेक्नोलॉजीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, प्रतिवादी कंपनी (मेसर्स लेक्सस टेक्नोलॉजीज़ प्राइवेट लिमिटेड) आंध्र प्रदेश में निगमित की गई थी।
- प्रतिवादी संख्या 2, 3 एवं 4 कंपनी में शेयर प्राप्त करने के बाद इसके निदेशक बन गए।
- यह आरोप लगाया गया कि अपीलकर्त्ता संख्या 1,2 एवं 3 के पास कंपनी में बहुसंख्यक शेयर थे, इसके बावजूद उन्होंने नियंत्रण एवं प्रबंधन का कार्य प्रतिवादियों के स्वामित्व में छोड़ दिया था।
- प्रतिवादी द्वारा यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्त्ताओं द्वारा प्राप्त शेयर प्रमाण-पत्र जाली थे।
- प्रतिवादी द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि कोरे कागज़ों पर लिये गए हस्ताक्षरों का अपीलकर्त्ताओं द्वारा दुरुपयोग किया गया था।
- अपीलकर्त्ता ने आरोप लगाया कि प्रतिवादियों ने वित्तीय वर्ष 2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 के लिये वार्षिक आम बैठकें (AGM) आयोजित नहीं कीं, जिसके कारण कंपनी रजिस्ट्रार ने कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 248 के अनुसार कंपनी का नाम कंपनी रजिस्टर से हटा दिया।
- बाद में कंपनी के पोर्टल पर ब्राउज़ करते समय, अपीलकर्त्ताओं ने पाया कि प्रतिवादियों ने डिफ़ॉल्ट वित्तीय वर्षों के लिये दोषपूर्ण वित्तीय विवरण एवं वार्षिक रिपोर्ट दायर की हैं।
- यह भी आरोप लगाया गया कि प्रतिवादियों ने कंपनी के रिकॉर्ड से अपीलकर्त्ता की शेयरहोल्डिंग का नाम हटा दिया।
- यह भी आरोप लगाया गया कि प्रतिवादियों ने कंपनी की संपत्ति हड़पने के आशय से कई बार उत्पीड़न के विभिन्न कार्य किये हैं।
- राष्ट्रीय कंपनी कानून अधिकरण (NCLAT) के समक्ष अपीलकर्त्ताओं द्वारा यह मांग की गई:
- कंपनी के सदस्यों के रजिस्टर में उनके नाम दर्ज करके सुधार करना।
- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 447 एवं धारा 448 के अंतर्गत प्रतिवादियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही प्रारंभ करना।
- प्रतिवादियों पर उत्पीड़न एवं कुप्रबंधन का आरोप लगाना।
- NCLAT ने अपीलकर्त्ता द्वारा दायर आवेदन को खारिज कर दिया, जिसके बाद राष्ट्रीय कंपनी विधिक अपीलीय अधिकरण (NCLAT) में अपील की गई।
- NCLAT ने अपील को भी खारिज कर दिया, जिससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान सिविल अपील दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने NCLAT के निर्णय पर टिप्पणी की कि:
- NCLAT द्वारा 'ज्ञात व्यक्तियों' द्वारा भुगतान के अंतरण एवं शेयरों के आवंटन को स्पष्ट रूप से नहीं समझा गया।
- गहन जाँच के बाद यह पाया गया कि जिन 'ज्ञात व्यक्तियों' ने पैसे का भुगतान किया वे केवल अपीलकर्त्ता थे।
- इसलिये, NCLAT द्वारा निकाला गया निष्कर्ष कि अपीलकर्त्ताओं ने प्रतिवादी को कोई पैसा अंतरित नहीं किया, तथ्यात्मक रूप से दोषपूर्ण माना गया।
- उच्चतम न्यायालय ने कंपनी अधिनियम की धारा 59 के प्रावधानों का व्यापक रूप से अवलोकन किया:
- न्यायालय ने कहा कि धारा 59 का उद्देश्य दोष को ठीक करना है, उन दोषों के नाम जोड़ना है जो की जानी चाहिये थीं लेकिन नहीं की गईं।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रावधानों के अंतर्गत 'पर्याप्त कारण' वाक्यांश की न्यायालयों द्वारा मामले-दर-मामला आधार पर बारीकी से जाँच की जानी चाहिये।
- वाक्यांश की जाँच इस तरह से की जानी चाहिये कि यह CA के नियमों का अनुपालन करता हो और रजिस्टर में नाम के मिटाए जाने के कारण की जाँच तद्नुसार की जानी चाहिये।
- उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि NCLAT का यह अवलोकन कि वर्तमान मामला प्रथम दृष्टया प्रवंचना का मामला है तथा अपीलकर्त्ता पीड़ित हैं, तो NCLAT द्वारा सुधार का आदेश दिया जा सकता था।
- उच्चतम न्यायालय ने NCAT एवं NCLAT द्वारा की गई टिप्पणियों की भी आलोचना की:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि NCAT सुधार के लिये अपनी शक्ति का प्रयोग न करके अनिवार्य विधि को लागू करने में विफल रहा है।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले अधिकरणों द्वारा उपलब्ध दस्तावेज़ों का गहन अध्ययन किया जाना चाहिये तथा NCLAT ऐसा करने में विफल रहा।
- उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि NCAT भी पक्षों द्वारा प्रस्तुत तर्कों की जाँच करने में विफल रहा तथा प्रस्तुत साक्ष्यों का पर्याप्त सत्यापन नहीं किया।
- उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान अपीलों को स्वीकार कर लिया तथा मामले के गुण-दोषों की नए सिरे से जाँच करने तथा याचिका का शीघ्रता से निपटान करने का दायित्व NCAT को सौंप दिया।
चलसानी उदय शंकर एवं अन्य बनाम मेसर्स लेक्सस टेक्नोलॉजीज़ प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य के मामले में कौन से मामले संदर्भित हैं?
- आदेश कौर बनाम आयशर मोटर्स लिमिटेड एवं अन्य (2018):
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि तथ्यों के आधार पर, प्रवंचना का एक स्पष्ट मामला बनता है तथा सुधार की मांग करने वाला व्यक्ति पीड़ित था, राष्ट्रीय कंपनी विधिक अधिकरण CA की धारा 59 के अंतर्गत ऐसी शक्ति का प्रयोग करने का अधिकारी होगा।
- यह भी माना गया कि धारा 59 के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग केवल इसलिये वर्जित नहीं होगा क्योंकि चूककर्त्ताओं के विरुद्ध गंभीर कार्यवाही चल रही है (इस मामले में कंपनी के सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही चल रही थी)।
- अमोनिया सप्लाइज कॉर्पोरेशन (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम मेसर्स मॉडर्न प्लास्टिक कंटेनर (1998):
- इस मामले में यह माना गया कि CA, 1956 की धारा 155 (अब CA की धारा 59) के अंतर्गत शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है, जब उठाया गया मुद्दा सुधार की परिधि में नहीं आता है।
CA की धारा 59 क्या है?
- CA की धारा 59 को पहले CA, 1956 की धारा 155 के अंतर्गत शामिल किया गया था।
- सदस्यों के रजिस्टर से संबंधित प्रावधान CA की धारा 88 के अंतर्गत दिये गए हैं।
इस धारा में सदस्यों के रजिस्टर के परिशोधन के विषय में बताया गया है:
1. सदस्यों के रजिस्टर का परिशोधन:
- यदि किसी व्यक्ति का नाम, बिना पर्याप्त कारण के, निम्नलिखित रूप में प्रकाशित किया जाता है:
- किसी कंपनी के सदस्यों के रजिस्टर में दर्ज किया गया हो, या
- रजिस्टर में दर्ज किये जाने के बाद, बिना किसी पर्याप्त कारण के, उसमें से हटा दिया गया हो, या
- यदि कोई चूक हुई हो, या रजिस्टर में दर्ज करने में अनावश्यक विलंब हुआ हो, तो किसी व्यक्ति के सदस्य बनने या न रहने का तथ्य,
- पीड़ित व्यक्ति, कंपनी का कोई सदस्य, या कंपनी निम्नलिखित के पास अपील कर सकती है:
- अधिकरण(जैसा कि निर्धारित है), या
- रजिस्टर के परिशोधन के लिये भारत के बाहर रहने वाले विदेशी सदस्यों या डिबेंचर धारकों के संबंध में भारत के बाहर एक सक्षम न्यायालय (केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट)।
2. अपील के संबंध में अधिकरण की शक्तियाँ:
- अधिकरण उपधारा (1) के अधीन अपील के पक्षकारों को सुनने के पश्चात् आदेश द्वारा:
- या तो अपील खारिज करें या
- निर्देश दें कि आदेश की प्राप्ति के दस दिनों के अंदर कंपनी द्वारा अंतरण या संचरण पंजीकृत किया जाएगा, या डिपॉजिटरी या रजिस्टर के रिकॉर्ड में परिशोधन का निर्देश दें,
- और ऐसे मामले में, कंपनी को पीड़ित पक्ष द्वारा उठाए गए क्षति, यदि कोई हो, का भुगतान करने का निर्देश दें।
3. प्रतिभूतियों के अंतरण का अधिकार:
- इस धारा के प्रावधान प्रतिभूतियों के धारक के ऐसे प्रतिभूतियों को अंतरित करने के अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करेंगे तथा ऐसी प्रतिभूतियों को प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति मतदान के अधिकार का अधिकारी होगा, जब तक कि अधिकरण के आदेश द्वारा मतदान के अधिकार को निलंबित नहीं कर दिया गया हो।
4. उल्लंघनों के लिये सुधार:
- जहाँ प्रतिभूतियों का अंतरण निम्नलिखित में से किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करता है:
- प्रतिभूति संविदा (विनियमन) अधिनियम, 1956,
- भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड अधिनियम, 1992,
- यह अधिनियम, या
- कोई अन्य लागू विधि,
- अधिकरण, डिपॉजिटरी, कंपनी, डिपॉजिटरी भागीदार, प्रतिभूतियों के धारक या प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड द्वारा किये गए आवेदन पर, किसी भी कंपनी या डिपॉजिटरी को अपने रजिस्टर या संबंधित रिकॉर्ड को परिशोधन करने और उल्लंघन को ठीक करने का निर्देश दे सकता है।
कंपनी द्वारा सदस्यों का रजिस्टर का रखरखाव:
- कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 88, खंड (1) के अनुसार, प्रत्येक कंपनी निम्नलिखित रजिस्टरों को ऐसे प्रारूप और तरीके से रखेगी जैसा कि निर्धारित किया जा सकता है, अर्थात्:
- भारत में या भारत से बाहर रहने वाले प्रत्येक सदस्य द्वारा धारित इक्विटी एवं वरीयता शेयरों के प्रत्येक वर्ग को अलग-अलग दर्शाने वाले सदस्यों का रजिस्टर।
- डिबेंचर धारकों का रजिस्टर।
- किसी अन्य सुरक्षा धारकों का रजिस्टर
- यदि कंपनी इन रजिस्टरों को बनाए रखने में विफल रहती है तो कंपनी तीन लाख रुपए के अर्थदण्ड के लिये उत्तरदायी होगी तथा कंपनी का प्रत्येक अधिकारी जो चूककर्त्ता होगा, पचास हज़ार रुपए के अर्थदण्ड के लिये उत्तरदायी होगा।
सिविल कानून
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11
11-Sep-2024
कॉक्स एंड किंग्स बनाम SAP इंडिया प्राइवेट लिमिटेड "रेफरल चरण में, न्यायालयों को विवादित एवं जटिल तथ्यात्मक मुद्दों में उलझने से बचना चाहिये”। CJI डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला एवं मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) के अंतर्गत रेफरल चरण में न्यायालयों को केवल वैध मध्यस्थता करार के अस्तित्व का निर्धारण करना चाहिये तथा जटिल तथ्यात्मक विवादों से बचना चाहिये। यह निर्णय तुलनात्मक योग्यता के सिद्धांत को पुष्ट करता है, जिसमें कहा गया है कि इस चरण में विस्तृत तथ्यात्मक जाँच अनुचित है। इस मामले में इस बात पर विवाद था कि क्या गैर-हस्ताक्षरकर्त्ता पक्ष को मध्यस्थता कार्यवाही में शामिल किया जा सकता है, जो प्रारंभिक न्यायिक जाँच को सीमित करने के न्यायालय के दखल पर ज़ोर देता है।
- CJI डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला एवं मनोज मिश्रा ने कॉक्स एंड किंग्स बनाम SAP इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के मामले में निर्णय दिया।
कॉक्स एंड किंग्स बनाम SAP इंडिया प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता कंपनी अधिनियम, 1956 के अंतर्गत पंजीकृत एक कंपनी है, जो पर्यटन (टूर) पैकेज एवं आतिथ्य सेवाएँ देती है।
- प्रतिवादी संख्या 1 भी एक पंजीकृत कंपनी है, जो व्यावसायिक सॉफ्टवेयर समाधान सेवाएँ प्रदान करती है। यह प्रतिवादी संख्या 2 की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी है, जो जर्मन विधि के अंतर्गत निगमित एक कंपनी है।
- याचिकाकर्त्ता एवं प्रतिवादी संख्या 1 ने 14 दिसंबर 2010 को SAP सॉफ्टवेयर एंड यूज़र लाइसेंस एग्रीमेंट एवं SAP एंटरप्राइज़ सपोर्ट शेड्यूल पर हस्ताक्षर किये।
- वर्ष 2015 में, प्रतिवादी संख्या 1 ने याचिकाकर्त्ता को अपने 'हाइब्रिस सॉल्यूशन' (SAP हाइब्रिस सॉफ्टवेयर) की अनुशंसा की, जिसमें दावा किया गया कि यह याचिकाकर्त्ता की आवश्यकताओं के साथ 90% संगत होगा।
- पक्षकारों ने SAP हाइब्रिस सॉफ्टवेयर की खरीद, अनुकूलन एवं उपयोग के लिये तीन अलग-अलग समझौते किये।
- SAP हाइब्रिस सॉफ्टवेयर परियोजना के समय पर पूरा होने और कार्यान्वयन के विषय में मुद्दे उठे। याचिकाकर्त्ता ने परियोजना निष्पादन में आने वाली समस्याओं के विषय में प्रतिवादी संख्या 2 (जर्मन मूल कंपनी) से संपर्क किया।
- मुद्दों को हल करने के प्रयासों के बावजूद, 15 नवंबर 2016 को SAP हाइब्रिस सॉफ्टवेयर परियोजना के लिये संविदा रद्द कर दिया गया।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने संविदा की कथित दोषपूर्ण समाप्ति एवं भुगतान न करने के लिये 29 अक्टूबर 2017 को मध्यस्थता का आह्वान करते हुए एक नोटिस जारी किया।
- प्रतिवादी संख्या 1 ने संविदा को कथित रूप से दोषपूर्ण तरीके से समाप्त करने और भुगतान न करने के लिये 29 अक्टूबर 2017 को मध्यस्थता का आह्वान करते हुए एक नोटिस जारी किया।
- पक्षों के बीच विवादों का निपटान करने के लिये एक मध्यस्थ अधिकरण का गठन किया गया था।
- याचिकाकर्त्ता ने 45,99,71,098/- रुपए की राशि के लिये बचाव एवं प्रतिदावे का विवरण दायर किया।
- कार्यवाही के दौरान, राष्ट्रीय कंपनी विधिक अधिकरण (NCLT) ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध दिवालियापन के लिये आवेदन स्वीकार कर लिया।
- याचिकाकर्त्ता ने 7 नवंबर 2019 को दोनों प्रतिवादियों को एक नया नोटिस भेजा, जिसमें मध्यस्थता का आह्वान किया गया तथा नोटिस में प्रतिवादी संख्या 2 को शामिल किया गया।
- मध्यस्थ नियुक्त करने में प्रतिवादियों की विफलता पर, याचिकाकर्त्ता ने वर्तमान याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादियों ने याचिका के विरुद्ध कई आपत्तियाँ आई, लेकिन इनमें से किसी भी आपत्ति ने याचिकाकर्त्ता द्वारा लागू किये गए मध्यस्थता करार के अस्तित्व पर प्रश्न नहीं किया या उसे नकारा नहीं।
- न्यायालय ने माना कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अंतर्गत निर्धारित मध्यस्थता करार के प्रथम दृष्टया अस्तित्व की आवश्यकता इस मामले में पूर्ण हुई।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि एक बार मध्यस्थ अधिकरण का गठन हो जाने के बाद, प्रतिवादियों को उसके समक्ष सभी उपलब्ध विधिक आपत्तियाँ करने का अवसर मिलेगा।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मध्यस्थ अधिकरण को पहले प्रतिवादियों द्वारा उठाई गई किसी भी प्रारंभिक आपत्ति पर विचार करना चाहिये तथा उस पर निर्णय देना चाहिये ।
- न्यायालय ने कहा कि यदि प्रारंभिक आपत्तियाँ अधिकरण द्वारा खारिज कर दी जाती हैं, तभी उसे याचिकाकर्त्ता के दावों पर निर्णय लेना चाहिये।
- न्यायालय ने रेफरल चरण में न्यूनतम न्यायिक हस्तक्षेप के सिद्धांत को दोहराया तथा जटिल तथ्यात्मक एवं विधिक मुद्दों को मध्यस्थ अधिकरण के निर्णय के लिये छोड़ दिया।
- न्यायालय ने सक्षमता-सक्षमता के सिद्धांत पर ज़ोर दिया, जिससे मध्यस्थ अधिकरण को अपने अधिकार क्षेत्र एवं दावों की स्वीकार्यता पर निर्णय लेने की अनुमति मिली।
- न्यायालय ने मामले के गुण-दोषों पर विचार करने या रेफरल चरण में गैर-हस्ताक्षरकर्त्ताओं पर मध्यस्थता करार की बाध्यकारी प्रकृति पर निर्णय लेने से परहेज किया।
- न्यायालय ने इस दृष्टिकोण को यथावत् रखा कि मध्यस्थता और अधिकार क्षेत्र के प्रश्नों की जाँच करने के लिये मध्यस्थ अधिकरण ही प्रथम वरीयता प्राप्त प्राधिकरण है।
- इन टिप्पणियों के आधार पर, न्यायालय ने याचिका को अनुमति दे दी तथा विवाद का निपटान करने के लिये एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 क्या है?
- मध्यस्थों की राष्ट्रीयता:
- किसी भी राष्ट्रीयता का कोई भी व्यक्ति मध्यस्थ हो सकता है, जब तक कि पक्षकार अन्यथा सहमत न हों।
- नियुक्ति प्रक्रिया: पक्षकार उपधारा (6) के अधीन मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये प्रक्रिया पर सहमत होने के लिये स्वतंत्र हैं।
- किसी करार के अभाव में, तीन मध्यस्थ अधिकरण के लिये, प्रत्येक पक्ष एक मध्यस्थ की नियुक्ति करता है तथा दो नियुक्त मध्यस्थ तीसरे (अध्यक्ष) मध्यस्थ का चयन करते हैं।
- मध्यस्थ संस्थाओं की भूमिका:
- उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय मध्यस्थों की नियुक्ति के लिये श्रेणीबद्ध मध्यस्थ संस्थाओं को नामित कर सकते हैं।
- श्रेणीबद्ध संस्थाओं के बिना अधिकार क्षेत्र में, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मध्यस्थों का एक पैनल बनाए रख सकते हैं।
- इन मध्यस्थों को मध्यस्थ संस्थाएँ माना जाता है तथा वे चौथी अनुसूची में निर्दिष्ट शुल्क के अधिकारी हैं।
- असफलता की स्थिति में नियुक्ति:
- यदि कोई पक्ष निवेदन पत्र प्राप्त करने के 30 दिनों के अंदर मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहता है, या यदि दो नियुक्त मध्यस्थ 30 दिनों के अंदर तीसरे पर सहमत होने में विफल रहते हैं, तो नियुक्ति नामित मध्यस्थ संस्था द्वारा की जाती है।
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के लिये, उच्चतम न्यायालय संस्था को नामित करता है; अन्य मध्यस्थताओं के लिये, उच्च न्यायालय ऐसा करता है।
- एकमात्र मध्यस्थ की नियुक्ति:
- यदि पक्षकार 30 दिनों के अंदर एकमात्र मध्यस्थ पर सहमत होने में विफल रहते हैं, तो नियुक्ति उपधारा (4) के अनुसार की जाती है।
- सहमत प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करने में विफलता:
- यदि कोई पक्ष, नियुक्त मध्यस्थ, या नामित व्यक्ति/संस्था सहमत प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करने में विफल रहता है, तो न्यायालय द्वारा नामित मध्यस्थ संस्था नियुक्ति करती है।
- प्रकटीकरण की आवश्यकताएँ:
- मध्यस्थ नियुक्त करने से पहले, मध्यस्थ संस्था को धारा 12(1) के अनुसार संभावित मध्यस्थ से लिखित प्रकटीकरण प्राप्त करना होगा।
- संस्था को पक्षों के करार एवं प्रकटीकरण की सामग्री द्वारा आवश्यक किसी भी योग्यता पर विचार करना होगा।
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता:
- अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता में एकमात्र या तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये, नामित संस्था पक्षों से भिन्न राष्ट्रीयता के मध्यस्थ की नियुक्ति कर सकती है।
- एकाधिक नियुक्ति अनुरोध:
- यदि विभिन्न संस्थाओं से कई अनुरोध किये जाते हैं, तो पहला अनुरोध प्राप्त करने वाली संस्था ही नियुक्ति करने के लिये सक्षम होगी।
- नियुक्ति हेतु समय-सीमा:
- मध्यस्थ संस्था को नियुक्ति के लिये आवेदन का निपटान विपरीत पक्ष को नोटिस देने के 30 दिनों के अंदर करना होगा।
- शुल्क निर्धारण:
- मध्यस्थ संस्था मध्यस्थ अधिकरण कास का शुल्क एवं भुगतान के तरीके को निर्धारित करती है, जो चौथी अनुसूची में दरों के अधीन है।
- यह अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता पर लागू नहीं होता है या जहाँ पक्ष मध्यस्थ संस्था के नियमों के अनुसार शुल्क निर्धारण पर सहमत हुए हैं।
- न्यायिक शक्ति का गैर-प्रत्यायोजन:
- उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को नामित करना न्यायिक शक्ति का प्रत्यायोजन नहीं माना जाता है।
ए एंड सी अधिनियम की धारा 11 की परिधि क्या है?
- धारा 11 के अंतर्गत विवादों को मध्यस्थता के लिये भेजते समय न्यायालयों से यंत्रवत तरीके से काम करने की अपेक्षा नहीं की जाती है।
- न्यायालयों को अधिनियम की धारा 11(6-ए) के ढाँचे के अंदर मूल प्रारंभिक मुद्दों पर अपना दिमाग लगाना चाहिये।
- इस स्तर पर न्यायिक समीक्षा का उद्देश्य मध्यस्थ अधिकरण के अधिकार क्षेत्र को हड़पना नहीं है, बल्कि मध्यस्थता प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना है।
- यहाँ तक कि जब मध्यस्थता करार होता है, तब भी न्यायालय किसी विवाद को मध्यस्थता के लिये भेजने से मना कर सकती हैं, अगर वह करार से संबंधित न हो।
- अधिनियम में 2015 के संशोधन ने धारा 11 की परिधि को प्रथम दृष्टया यह निर्धारित करने तक सीमित कर दिया कि मध्यस्थता करार है या नहीं।
- न्यायालयों को यह जाँच करनी चाहिये कि क्या करार में पक्षों के बीच उत्पन्न विवादों से संबंधित मध्यस्थता के लिये कोई खंड शामिल है।
- बीमा संविदाों जैसे कुछ मामलों में, न्यायालय संदर्भ चरण में ही गैर-मध्यस्थता के मुद्दे की जाँच कर सकते हैं।
- न्यायालयों को पूर्ण रूप से "हाथ से हाथ मिलाने" का दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये ; मध्यस्थता प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिये सीमित लेकिन प्रभावी हस्तक्षेप की अनुमति है।
- प्रथम दृष्टया जाँच से तात्पर्य में यह निर्धारित करना शामिल है कि विवाद का विषय मध्यस्थता योग्य है या नहीं, लेकिन इसे दुर्लभ अवसरों तक ही सीमित रखा जाना चाहिये ।
- न्यायालयों को यह देखना आवश्यक है कि क्या विचाराधीन विवाद पक्षों के बीच मध्यस्थता करार से संबंधित है।
- जहाँ विवाद और मध्यस्थता करार के बीच कोई संबंध नहीं है, वहाँ पक्षों के बीच करार के अस्तित्व के बावजूद मध्यस्थता के संदर्भ को अस्वीकार किया जा सकता है।
- धारा 11 के अंतर्गत न्यायिक समीक्षा न्यायालयों एवं मध्यस्थ अधिकरणों के बीच शक्ति के पृथक्करण एवं तुलनात्मक योग्यता के सिद्धांत में हस्तक्षेप नहीं करती है।
A & C अधिनियम की धारा 11 पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- DLF होम डेवलपर्स लिमिटेड बनाम राजापुरा होम्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य (2021):
- इस हालिया निर्णय ने धारा 11 के अंतर्गत न्यायिक जाँच के दायरे का विस्तार किया।
- ड्यूरो फेलगुएरा, एस.ए. बनाम गंगावरम पोर्ट लिमिटेड (2017):
- यह माना जाता है कि न्यायालयों को केवल मध्यस्थता करार के अस्तित्व पर ही विचार करना चाहिये।
- ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम नरभेरम पावर एंड स्टील (प्राइवेट) लिमिटेड (2018):
- बीमा संविदों में संदर्भ स्तर पर गैर-मध्यस्थता की जाँच की अनुमति दी गई।
- यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड एवं अन्य बनाम हुंडई इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड एवं अन्य (2018):
- ओरिएंटल इंश्योरेंस के समान, संदर्भ स्तर पर गैर-मध्यस्थता की जाँच की अनुमति दी गई।
- गरवारे वॉल रोप्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन्स एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड (2019):
- बिना स्टाम्प वाले दस्तावेज़ों एवं मध्यस्थता के लिये उनकी वैधता से संबंधित मामलों पर विचार किया गया।
- PSA मुंबई इन्वेस्टमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट के न्यासी बोर्ड एवं अन्य (2018):
- यह निष्कर्ष निकाला गया कि योग्यता दस्तावेज़ों के निवेदन में मध्यस्थता खंड लागू नहीं होगा।
- ब्राइटस्टार टेलीकम्युनिकेशंस इंडिया लिमिटेड बनाम आईवर्ल्ड डिजिटल सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड (2018):
- दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय, जिसमें ड्यूरो फेलगुएरा पर विस्तार किया गया तथा मध्यस्थता करार के अस्तित्व से आगे की बात कही गई।
- विद्या द्रोलिया एवं अन्य बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (2021):
- एक महत्त्वपूर्ण निर्णय जिसमें धारा 8 एवं 11 के अंतर्गत न्यायिक समीक्षा के सीमित दायरे को स्पष्ट किया गया, साथ ही कुछ मामलों में प्रथम दृष्टया जाँच की अनुमति भी दी गई।