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आपराधिक कानून

सिविल लेन-देन से उत्पन्न आपराधिक मामले

 04-Oct-2024

के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य

"आपराधिक मामले जो मुख्यतः सिविल प्रकृति के मामले हों, उन्हें तब रद्द कर दिया जाना चाहिये,  जब पक्षकार आपस में अपने सभी विवादों को सुलझा लें"।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि सिविल प्रकृति के आपराधिक मामलों को तब रद्द कर दिया जाना चाहिये  जब पक्षों के बीच विवाद का निपटान हो जाए।

के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध बैंक (प्रतिवादी संख्या 2) द्वारा मामला दायर किया गया था।
  • बैंक ने तर्क दिया कि अपीलकर्त्ताओं ने एक समूह ऋण लिया तथा उस पर देय ब्याज का भुगतान करने में विफल रहे, जिसके कारण अपीलकर्त्ताओं का समूह खाता गैर-निष्पादित परिसंपत्ति बन गया।
  • बैंक द्वारा ऋण राशि की वसूली के लिये ऋण वसूली अधिकरण (DRT) के समक्ष मामला दायर किया गया था।
  • बाद में बैंक को पता चला कि DRT के समक्ष मामले के लंबित रहने के दौरान अपीलकर्त्ताओं द्वारा प्रस्तुत किये गए शीर्षक दस्तावेज सत्य नहीं थे।
  • बैंक द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 420, 467, 468, 471, 120-B एवं भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 13 (1) (d) एवं 13 (2) के अधीन अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध शिकायत दर्ज की गई थी।
  • शिकायत के आधार पर CBI द्वारा आरोप पत्र दायर किया गया था।
  • DRT के समक्ष मामले के लंबित रहने के दौरान अपीलकर्त्ताओं ने विवाद के निपटान के लिये बैंक से 3.8 करोड़ रुपये का प्रस्ताव रखा तथा बैंक ने इसे स्वीकार कर लिया।
  • बैंक ने अपीलकर्त्ताओं द्वारा भुगतान की गई राशि के विरुद्ध नो ड्यूज सर्टिफिकेट भी जारी किया।
  • इसके आधार पर अपीलकर्त्ताओं ने तेलंगाना उच्च न्यायालय के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन आवेदन दायर किया तथा CBI द्वारा ट्रायल कोर्ट के समक्ष दायर आरोप-पत्र को रद्द करने की मांग की।
  • DRT के समक्ष लंबित मामले का निपटान किया गया क्योंकि पक्षों के बीच समझौता हो गया था।
  • हालाँकि, उच्च न्यायालय ने आरोपपत्र को रद्द करने के लिये अपीलकर्त्ताओं के आवेदन को खारिज कर दिया तथा कहा कि धोखाधड़ी, नकली एवं जाली दस्तावेजों का उपयोग समाज के विरुद्ध अपराध है।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की कि:
    • कुछ अपराध ऐसे होते हैं जो सिविल प्रकृति के होते हैं और सिविल विवाद से उत्पन्न होते हैं। ऐसे अपराधों को समझौता योग्य न होने पर भी समझौता किया जा सकता है।
    • आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का निर्णय मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करते हुए केस-टू-केस आधार पर किया जाता है।
    • ऐसे मामले जो आपराधिक प्रकृति के नहीं होते हैं तथा सिविल विवाद से उत्पन्न होते हैं और जहाँ अभियुक्त की दोषसिद्धि दूर की बात है, ऐसे मामलों को जारी रखना अभियुक्त के विरुद्ध दमनकारी होगा तथा न्याय की विफलता का कारण बन सकता है।
      • जैसा कि वर्तमान मामले में पक्षों के बीच विवाद पहले ही सुलझ चुका है।
    • यह उचित मामला था, जिसमें उच्च न्यायालय को CrPC की धारा 482 के अधीन अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना चाहिये था तथा आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना चाहिये  था।
  • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान अपील को स्वीकार कर लिया तथा अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया।

के. भारती देवी एवं अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य मामले में संदर्भित ऐतिहासिक निर्णय क्या है?

  • ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (2012):
    • इस मामले में यह देखा गया कि कुछ अपराध जो मुख्य रूप से सिविल प्रकृति के होते हैं, जैसे कि सिविल, व्यापारिक, वाणिज्यिक, वित्तीय, भागीदारी या ऐसे ही अन्य लेन-देन से उत्पन्न हुए हों या विवाह से उत्पन्न हुए अपराध, विशेष रूप से दहेज आदि से संबंधित हों या कोई पारिवारिक विवाद हो, जिसमें मूल रूप से पीड़ित को क्षति पहुँची हो तथा अपराधी एवं पीड़ित ने आपस में सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया हो, उच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना न्यायोचित होगा, भले ही अपराधों को समझौता योग्य न बनाया गया हो।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 क्या है?

परिचय:

  • यह धारा पहले CrPC की धारा 482 के अंतर्गत आती थी।
  • BNSS की धारा 528 उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों के संरक्षण से संबंधित है।
  • इसमें कहा गया है कि इस संहिता का कोई भी प्रावधान उच्च न्यायालय की इस संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने के लिये या किसी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आवश्यक आदेश देने की अंतर्निहित शक्तियों को सीमित या प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी।
  • यह धारा उच्च न्यायालयों को कोई अंतर्निहित शक्ति प्रदान नहीं करती है, तथा यह केवल इस तथ्य को मान्यता देती है कि उच्च न्यायालयों के पास अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।

ऐसे मामले जहाँ उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग नहीं किया जा सकता:

  • निम्नलिखित मामलों में उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता:
    • किसी संज्ञेय मामले में पुलिस को दी गई FIR के परिणामस्वरूप पुलिस जाँच की कार्यवाही को रद्द करना; किसी संज्ञेय मामले की जाँच करने के पुलिस के सांविधिक अधिकारों में हस्तक्षेप करना।
    • किसी जाँच को सिर्फ इसलिये रद्द करना क्योंकि FIR में किसी अपराध का प्रकटन नहीं हुआ है, जबकि जाँच अन्य सामग्रियों के आधार पर की जा सकती है।
    • FIR/शिकायत में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता के विषय में पूछताछ करना।
    • अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र का प्रयोग केवल अंतिम आदेशों के विरुद्ध किया जा सकता है, अंतरिम आदेशों के विरुद्ध नहीं।
    • जाँच के दौरान अभियुक्त की गिरफ्तारी पर रोक लगाने का आदेश देना।

कार्यवाही को रद्द करने की उच्च न्यायालय की शक्तियों पर आधारित ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • आनंद कुमार मोहत्ता बनाम राज्य [NCT दिल्ली] (2018):
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय को कार्यवाही में हस्तक्षेप करने एवं आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी अभियुक्त के विरुद्ध प्राथमिकी रद्द करने का अधिकार है।
  • जिता संजय एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2023):
    • केरल उच्च न्यायालय ने वर्तमान मामले में इस बात पर प्रकाश डाला कि यदि कोई आपराधिक कार्यवाही परेशान करने वाली, तुच्छ या किसी गुप्त उद्देश्य से प्रेरित पाई जाती है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकते हैं, भले ही FIR में अपराध के मिथ्या आरोप शामिल हों। न्यायालय ने कहा कि बाहरी उद्देश्यों वाले शिकायतकर्त्ता आवश्यक तत्त्वों को शामिल करने के लिये FIR तैयार कर सकते हैं।
  • श्री अनुपम गहोई बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) एवं अन्य (2024):
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक दांपत्य मामले को खारिज कर दिया, जिसमें एक पति ने 2018 में CrPC एवं BNSS के अधीन अपनी पत्नी द्वारा दर्ज की गई FIR को अमान्य करने की मांग की थी।
  • मामा शैलेश चंद्र बनाम उत्तराखंड राज्य (2024):
    • इस मामले में यह माना गया कि यदि आरोप पत्र दायर कर दिया गया है, तो भी न्यायालय यह जाँच कर सकता है कि क्या कथित अपराध प्रथम दृष्टया FIR, आरोप पत्र एवं अन्य दस्तावेजों के आधार पर सिद्ध होते हैं या नहीं।

सांविधानिक विधि

जेलों में जाति आधारित भेदभाव

 04-Oct-2024

सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य।

"जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले अन्य उपायों का सहारा लिये बिना जेल के अंदर अनुशासन बनाए रखना जेल प्रशासन का उत्तरदायित्व है।"

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाने के लिये कई निर्देश दिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।

सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता एक पत्रकार सुकन्या शांता हैं, जिन्होंने “पृथक्करण से लेकर श्रम तक, मनु की वर्ण व्यवस्था भारतीय जेल प्रणाली पर नियंत्रण” नामक लेख लिखा था।
  • लेख में देश की जेलों में जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रकाश डाला गया था।
  • याचिकाकर्त्तावर्तमान रिट के माध्यम से राज्य जेल मैनुअल में आपत्तिजनक प्रावधानों को निरस्त करने के लिये निर्देश मांगने के लिये न्यायालय में आए थे।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इस रिट याचिका में आरोपित प्रावधान इस प्रकार थे:
    • जेल अधिनियम, 1984: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस विधान को चुनौती नहीं दी गई है, लेकिन इस अधिनियम से जेल मैनुअल/नियमों की पृष्ठभूमि को समझने में सहायता मिली है।
    • जेल मैनुअल/नियम: इस मामले में कई जेल मैनुअल एवं नियम चुनौती के अधीन थे, जिनमें उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल, 2022, मध्य प्रदेश जेल मैनुअल, 1987 सहित कई अन्य शामिल हैं।
  • इस मामले में न्यायालय ने रिट याचिका को स्वीकार कर लिया तथा निम्नलिखित निर्देश जारी किये :
    • न्यायालय ने माना कि आरोपित प्रावधान असंवैधानिक हैं क्योंकि ये भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, 15, 17, 21 एवं अनुच्छेद 23 का उल्लंघन करते हैं।
      • न्यायालय ने सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे तीन महीने के अंदर इस निर्णय के अनुरूप अपने जेल मैनुअल/नियमों को संशोधित करें।
    • इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार को तीन महीने की अवधि के अंदर मॉडल जेल मैनुअल, 2016 एवं मॉडल जेल तथा सुधार सेवा अधिनियम 2023 में जाति-आधारित भेदभाव को संबोधित करने का भी निर्देश दिया गया।
    • जेल मैनुअल/मॉडल जेल मैनुअल में “आदतन अपराधियों” का संदर्भ भविष्य में ऐसे विधि के विरुद्ध किसी भी संवैधानिक चुनौती के अधीन संबंधित राज्य विधानसभाओं द्वारा अधिनियमित आदतन अपराधी विधान में दी गई परिभाषा के अनुसार होगा।
    • जेलों के अंदर विचाराधीन/दोषी कैदियों के रजिस्टर में “जाति” कॉलम हटा दिया जाएगा।
    • पुलिस को अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) तथा अमानतुल्लाह खान बनाम पुलिस आयुक्त, दिल्ली (2024) में जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार न किया जाए।
    • न्यायालय ने जेलों में इस भेदभाव का स्वतः संज्ञान लिया तथा मामले को भारत में जेलों के अंदर भेदभाव के संबंध में सूचीबद्ध किया। रजिस्ट्री को भी निर्देश दिया गया कि मामले को 3 महीने के अंदर सूचीबद्ध किया जाए।
    • जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) एवं मॉडल जेल मैनुअल 2016 के अंतर्गत गठित विजिटर्स बोर्ड संयुक्त रूप से नियमित निरीक्षण करेंगे ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या जाति आधारित भेदभाव या इसी तरह की भेदभावपूर्ण प्रथाएँ, जैसा कि इस निर्णय में बताया गया है, अभी भी जेलों के अंदर हो रही हैं। इसके अतिरिक्त, इस विषय में रिपोर्ट दाखिल की जाएगी।

जेल मैनुअल में जाति आधारित भेदभाव क्या है?

  • इस मामले में न्यायालय ने पाया कि औपनिवेशिक प्रशासकों ने जेल के अंदर भेदभावपूर्ण सामाजिक प्रथाओं को अपनाया ताकि उत्पीड़क जातियों को नाराज़ न किया जा सके।
  • जाति का प्रयोग कैदियों के बीच भेदभाव के आधार के रूप में किया जाता था।
  • न्यायालय ने सी. अरुल बनाम सरकार के सचिव (2014) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया, जहाँ उच्च न्यायालय ने इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया था कि "विभिन्न जातियों के निवासियों को अलग-अलग ब्लॉकों में रखा गया है, ताकि किसी भी सामुदायिक टकराव से बचा जा सके, जो कि तिरुनेलवेली एवं तूतीकोरिन जिलों में आम बात है।"
  • न्यायालय ने माना कि जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले उपायों का सहारा लिये बिना जेलों के अंदर अनुशासन बनाए रखना जेल प्रशासन का उत्तरदायित्व है।
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार किये गए तर्क को अपनाना संयुक्त राज्य अमेरिका में जाति-आधारित अलगाव को वैध बनाने के लिये दिये गए तर्क के समान होगा: अलग लेकिन समान।
  • न्यायालय ने माना कि उपरोक्त दर्शन का भारतीय संविधान में कोई स्थान नहीं है।
  • न्यायालय ने माना कि “आदत”, “रीति-रिवाज”, “जीवन जीने के बेहतर तरीके” तथा “भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति” आदि के आधार पर कैदियों के साथ भेदभाव करना असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट एवं अनिश्चित है।
  • केवल ऐसा वर्गीकरण जो कैदी की कार्य योग्यता, आवास आवश्यकताओं, विशेष चिकित्सा एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं जैसे कारकों की वस्तुनिष्ठ जाँच से आगे बढ़ता है, संवैधानिक मानक पर खरा उतरेगा।
  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि यहाँ विचाराधीन जेल मैनुअल में “ऐसे कर्त्तव्यों को करने के आदी” जातियों द्वारा किये जाने वाले “नीच” कृत्य जैसे वाक्यांशों का प्रयोग किया गया था।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि जाति की अप्रचलित समझ के आधार पर वर्गीकरण में जेलों में वर्गीकरण के सुधारात्मक उद्देश्यों के साथ तर्कसंगत संबंध का अभाव है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि जाति के आधार पर भेदभाव करने वाले नियम अवैध वर्गीकरण एवं मौलिक समानता के उल्लंघन के कारण अनुच्छेद 14 का उल्लंघन हैं।

मैनुअल में अस्पृश्यता की प्रथा की क्या परिकल्पना की गई है?

  • यह ध्यान देने योग्य है कि COI का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को प्रतिबंधित करता है।
  • न्यायालय ने कहा कि यह धारणा कि किसी व्यवसाय को “अपमानजनक या नीच” माना जाता है, जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता का एक पहलू है।
  • यह देखा गया कि “मेहतर वर्ग” का संदर्भ जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता की एक प्रथा है।
  • मैनुअल में यह प्रावधान कि भोजन “उपयुक्त जाति” द्वारा पकाया जाना चाहिये, अस्पृश्यता की धारणा को दर्शाता है, जहाँ कुछ जातियों को खाना पकाने या रसोई के काम को संभालने के लिये उपयुक्त माना जाता है तथा अन्य को नहीं।
  • साथ ही, जाति के आधार पर कार्य का विभाजन अस्पृश्यता की एक प्रथा है जो संविधान के अंतर्गत निषिद्ध है।

जेल मैनुअल द्वारा विमुक्त जनजातियों के सदस्यों के साथ किस प्रकार भेदभाव किया जाता है?

  • विमुक्त जनजातियों को अपराध की आदत या बुरे चरित्र वाला मानने की प्रवृत्ति उनके विरुद्ध रूढ़िवादिता को सशक्त करती है तथा उन्हें सामाजिक जीवन में भागीदारी से वंचित करती है।
  • जेल मैनुअल द्वारा विमुक्त जनजातियों के विरुद्ध भेदभाव की पुष्टि की गई।
  • 'आदतन अपराधी' शब्द को राज्यों द्वारा अपनाए गए आदतन अपराधी विधियों के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। अधिकांश राज्यों ने 'आदतन अपराधी' को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है जिसे किसी एक या अधिक निर्दिष्ट अपराधों के लिये तीन मौकों पर कारावास की सजा सुनाई गई हो।
  • हालाँकि, कुछ जेल मैनुअल में 'आदतन अपराधी' का अर्थ विमुक्त या घुमंतू जनजातियों के सदस्यों से लगाया गया है।
  • उदाहरण के लिये, पश्चिम बंगाल मैनुअल के नियम 404 में प्रावधान है कि एक दोषी ओवरसियर को रात्रि प्रहरी के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, बशर्ते कि “वह किसी ऐसे वर्ग से संबंधित न हो, जिसमें भागने की प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति हो, जैसे कि घुमंतू जनजातियों के लोग”।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने संघ एवं राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वे निर्णय के अनुरूप जेल मैनुअल/नियमों में आवश्यक परिवर्तन करें।

जाति आधारित भेदभाव COI के अनुच्छेद 21 से कैसे संबद्ध है?

  • COI के अनुच्छेद 21 में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
  • अनुच्छेद 21 में व्यक्तिगत व्यक्तित्व के विकास की परिकल्पना की गई है। जातिगत पूर्वाग्रह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा डालते हैं।
  • जब जातिगत पूर्वाग्रह जेल जैसी संस्थागत व्यवस्थाओं में प्रकट होते हैं, तो वे व्यक्तिगत विकास एवं हाशिए पर पड़े समुदायों के सुधार पर और प्रतिबंध लगाते हैं।
  • जब हाशिए पर पड़े समुदायों के कैदियों के साथ जाति के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है, तो उनकी अंतर्निहित गरिमा का उल्लंघन होता है।
    इसलिये, न्यायालय ने माना कि जाति आधारित भेदभाव के प्रावधान COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करते हैं।

सिविल कानून

खालसा विश्वविद्यालय (निरसन) अधिनियम, 2017

 04-Oct-2024

खालसा विश्वविद्यालय एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य

“खालसा विश्वविद्यालय (निरसन) अधिनियम, 2017 को रद्द करने के लिये किसी एक इकाई को लक्षित करने वाले विधान को उचित सिद्ध करने के लिये कोई विशेष परिस्थितियाँ नहीं थीं।”

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने खालसा विश्वविद्यालय (निरसन) अधिनियम, 2017 को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि इसमें बिना किसी उचित वर्गीकरण के पंजाब के 16 निजी विश्वविद्यालयों में खालसा विश्वविद्यालय को अनुचित रूप से शामिल करके संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया गया है।

  • न्यायमूर्ति बीआर गवई एवं केवी विश्वनाथन ने खालसा विश्वविद्यालय एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामले में यह फैसला सुनाया।
  • न्यायालय ने विधि के द्वारा समान व्यवहार की आवश्यकता पर गौर किया तथा विश्वविद्यालय के चरित्र पर राज्य की चिंताओं को भेदभाव कारित करने का अपर्याप्त आधार बताते हुए खारिज कर दिया।

खालसा विश्वविद्यालय एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • खालसा कॉलेज चैरिटेबल सोसाइटी 1892 से अस्तित्व में है।
  • 2010 में, पंजाब ने पंजाब निजी विश्वविद्यालय नीति प्रस्तुत की।
  • 2010 में, खालसा कॉलेज चैरिटेबल सोसाइटी ने एक निजी विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
  • 5 मार्च 2011 को पंजाब सरकार ने विश्वविद्यालय के लिये आशय पत्र जारी किया।
  • खालसा विश्वविद्यालय अधिनियम 7 नवंबर 2016 को पारित किया गया तथा 17 नवंबर 2016 को प्रस्तुत किया किया गया।
  • खालसा विश्वविद्यालय ने 26 कार्यक्रमों में प्रवेश प्रस्तावित करते हुए प्रक्रिया प्रारंभ किया।
  • 2016-17 शैक्षणिक सत्र के लिये 215 छात्रों को प्रवेश दिया गया।
  • 18 जनवरी 2017 को विश्वविद्यालय ने सरकार को नीतिगत आवश्यकताओं के अनुरूप विधि निर्माण के विषय में सूचित किया।
  • अप्रैल एवं मई 2017 में, राज्य सरकार ने राज्य सरकार से विधान निर्माण की स्वीकृति मिलने तक विश्वविद्यालय को प्रवेश प्रारंभ करने से प्रतिबंधित कर दिया।
  • 30 मई 2017 को सरकार ने खालसा विश्वविद्यालय अधिनियम 2016 को निरस्त करने वाला अध्यादेश जारी किया।
  • खालसा विश्वविद्यालय (निरसन) अधिनियम 2017 को बाद में पारित किया गया तथा 17 जुलाई 2017 को प्रस्तुत किया गया।

विधिक चुनौतियाँ:

  • विश्वविद्यालय एवं सोसायटी ने एक रिट याचिका दायर कर चुनौती दी:
    • प्रवेश को प्रतिबंधित करने वाले सूचना अंतरण।
    • अध्यादेश ने मूल अधिनियम को निरस्त कर दिया।
    • अधिनियम ही निरसित।
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 1 नवंबर 2017 को उनकी याचिका खारिज कर दी:
    • इसके बाद मामले की अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई।
    • खालसा कॉलेज के चरित्र पर विश्वविद्यालय के प्रभाव के विषय में राज्य की चिंता।
    • UGC विनियमों एवं विश्वविद्यालय के संचालन के बीच संबंध।
    • पंजाब में निजी विश्वविद्यालय विनियमन का व्यापक संदर्भ।
  • विधिक मुद्दे:
    • मामला इस तथ्य पर केंद्रित था कि क्या खालसा विश्वविद्यालय को 16 निजी विश्वविद्यालयों में से अलग करना विधिक रूप से वैध था।
    • संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत निरसन अधिनियम की संवैधानिकता पर प्रश्न किया गया था।
    • चुनौती इस तथ्य पर केंद्रित थी कि क्या खालसा विश्वविद्यालय को विशेष प्रकार से व्यवहार करने के लिये कोई उचित वर्गीकरण था।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने माना कि एक इकाई को लक्षित करने वाला विधान अनुमेय है, लेकिन उसे उचित वर्गीकरण एवं प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य के साथ स्पष्ट संबंध के दोहरे परीक्षण को पूरा करना होगा।
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे लक्षित विधान की आवश्यकता वाले विशेष परिस्थितियों को विधायी सामग्रियों, संसदीय विमर्श एवं पूर्व जाँच के माध्यम से प्रमाणित किया जाना चाहिये; बिना प्रमाण के केवल दावा करना अपर्याप्त है।
  • जाँच के बाद, न्यायालय को राज्य के 16 निजी विश्वविद्यालयों में खालसा विश्वविद्यालय के साथ भेदभाव करने को उचित ठहराने के लिये कोई बाध्यकारी आकस्मिक स्थिति या उचित वर्गीकरण नहीं मिला, जिससे निरसन अधिनियम अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
  • न्यायालय ने निर्धारित किया कि खालसा कॉलेज के चरित्र एवं प्राचीन गौरव को संभावित क्षति के विषय में राज्य का तर्क निराधार था, विशेष रूप से भौतिक साक्ष्य एवंम अपीलकर्त्ता के गैर-संबद्धता के आश्वासन को देखते हुए।
  • निरसन अधिनियम में स्पष्ट मनमानी पाई गई क्योंकि इसमें बिना युक्तियुक्त आधार पर अत्यधिक एवं असंगत प्रतिबंध लगाए गए थे।
  • परिणामस्वरूप, न्यायालय ने विवादित निरसन अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए उसे रद्द कर दिया, जिससे 2016 अधिनियम को पुनर्संकलन कर दिया गया।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 क्या है?

परिचय:

  • भारत के संविधान, 1950 का अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों के लिये “विधि के समक्ष समता” एवं “विधियों का समान संरक्षण” के मौलिक अधिकार की पुष्टि करता है।
  • पहली अभिव्यक्ति “विधि के समक्ष समता” ब्रिटिश मूल से है तथा दूसरी अभिव्यक्ति “विधियों का समान संरक्षण” अमेरिकी संविधान से ली गई है।
  • समानता एक प्रमुख सिद्धांत है जिसे भारत के संविधान की प्रस्तावना में इसके प्राथमिक उद्देश्य के रूप में शामिल किया गया है।
  • यह सभी मनुष्यों के साथ निष्पक्षता से व्यवहार करने की प्रणाली है।
  • यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 में उल्लिखित आधारों पर गैर-भेदभाव की प्रणाली भी उपबंधित करता है।

उचित वर्गीकरण के लिये परीक्षण:

  • अनुच्छेद 14 वर्ग विधान का निषेध करता है, हालाँकि, यह विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से विधायिका द्वारा व्यक्तियों, वस्तुओं एवं लेन-देन के उचित वर्गीकरण को प्रतिबंधित नहीं करता है।
  • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के मामले में दो शर्तें निर्धारित की गई थीं:
    • वहाँ स्पष्ट भिन्नता की उपस्थिति होनी चाहिये, जहाँ विधि का अनुप्रयोग प्रत्येक मनुष्य पर सार्वभौमिक नहीं होना चाहिये।
    • लागू किये गए अंतर को राज्य के मुख्य उद्देश्य के साथ संरेखित होना चाहिये ।

खालसा विश्वविद्यालय (निरसन) अधिनियम 2017

  • उच्चतम न्यायालय ने खालसा विश्वविद्यालय (निरसन) अधिनियम 2017 को अमान्य करार देते हुए बिना किसी उचित वर्गीकरण या औचित्य के 16 निजी विश्वविद्यालयों में खालसा विश्वविद्यालय को अलग करने को असंवैधानिक पाया।
  • खालसा कॉलेज की विरासत को संरक्षित करने के अधिनियम के कथित उद्देश्य को निराधार माना गया, क्योंकि साक्ष्यों से विश्वविद्यालय एवं कॉलेज के बीच कोई वास्तुशिल्प समानता या संस्थागत संबद्धता नहीं दिखाई गई।
  • न्यायालय ने पाया कि यह अधिनियम स्पष्ट रूप से मनमाना है तथा संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, क्योंकि इसमें बिना किसी आकस्मिक परिस्थिति या विधायी विचार-विमर्श के असंगत प्रतिबंध लगाए गए, जिसके परिणामस्वरूप खालसा विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले मूल 2016 अधिनियम को पुनर्स्थापित किया गया।

भारत में अधिनियमों को कैसे निरसित किया जाता है?

परिभाषा एवं अवधारणा:

  • विधि निरसीकरण एक औपचारिक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत मौजूदा विधान को निरस्त किया जाता है, जब संसद यह निर्धारित करती है कि विधि अब आवश्यक या प्रासंगिक नहीं है।
  • निरसन हो सकता है:
    • पूर्ण (संपूर्ण विधान निरस्त)
    • आंशिक (विशिष्ट प्रावधान निरस्त)
    • सीमित (केवल अन्य विधियों के उल्लंघन की सीमा तक निरस्त)
  • कुछ विधियों में "सनसेट क्लॉज" शामिल हो सकते हैं - पूर्वनिर्धारित तिथियाँ जिसके बाद वे स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।

संवैधानिक आधार:

  • निरसन का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 245 से प्राप्त होता है, जो:
    • संसद को विधि निर्माण की शक्ति प्रदान करने का उपबंध करता है।
    • निरसन एवं संशोधन अधिनियम के माध्यम से उन्हें निरस्त करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • 1950 में ऐतिहासिक उदाहरण स्थापित हुई जब प्रथम निरसन अधिनियम ने 72 मौजूदा विधानों को निरस्त कर दिया।

निरसन की प्रक्रिया:

  • विधायी मार्ग:
    • संसद में विधेयक प्रस्तुत किया गया
    • दोनों सदनों द्वारा पारित
    • राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त
    • एकल विधान एक साथ कई विधानों को निरस्त कर सकता है

अध्यादेश के द्वारा निरसन:

  • तत्काल प्रभाव से लागू किया गया।
  • इसे छह महीने के अंदर संसदीय विधि द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये।
  • यदि अध्यादेश संसदीय अनुमोदन के बिना समाप्त हो जाता है, तो निरसत विधान को पुनर्स्थापित किया जा सकता है।

प्रक्रियागत विचार:

  • विधायी क्षमता:
    • निरस्तीकरण की शक्ति, विधि बनाने की शक्ति को प्रतिबिम्बित करती है।
    • विषय उपयुक्त विधायी सूची में आना चाहिये।
  • दस्तावेज़ीकरण आवश्यकताएँ:
    • निरस्त किये जाने वाले विधान(विधानों) की स्पष्ट पहचान।
    • निरसन की सीमा का विवरण।
    • परिणामी संशोधनों को संबोधित करना।
  • कार्यान्वयन प्रक्रिया:
    • आधिकारिक राजपत्र अधिसूचना
    • कानूनी डेटाबेस का अद्यतन
    • संबंधित अधिकारियों को सूचना का प्रसार

विधिक निहितार्थ:

  • सफल निरसन होने पर:
    • विधान का भावी प्रभाव समाप्त हो जाता है।
    • निरसित विधान के अंतर्गत पिछली कार्यवाहियाँ आम तौर पर वैध रहती हैं।
    • यदि बचत खंड मौजूद हैं तो लंबित कार्यवाही जारी रह सकती है।
  • संक्रमणकालीन परिस्थितियाँ:
    • अंतरिम प्रावधानों की आवश्यकता हो सकती है
    • हितधारक परामर्श की आवश्यकता हो सकती है
    • क्षतिपूर्ति तंत्र की आवश्यकता हो सकती है