होम / करेंट अफेयर्स
सांविधानिक विधि
राज्यसभा मामला
« »05-Mar-2024
सीता सोरेन बनाम भारत संघ "राज्यसभा या राज्यों की परिषद हमारे लोकतंत्र में एक अभिन्न कार्य करती है, और राज्यसभा द्वारा निभाई गई भूमिका संविधान की बुनियादी संरचना का भाग है।" मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला, पंकज मिथल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना, एम. एम. सुंदरेश, पी. एस. नरसिम्हा, जे. बी. पारदीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा की एक संविधान पीठ ने राज्यसभा को संविधान के बुनियादी संरचना के सिद्धांत का भाग माना है।
- उच्चतम न्यायालय ने सीता सोरेन बनाम भारत संघ मामले में यह टिप्पणी दी।
सीता सोरेन बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान निर्णय भारतीय संविधान, विशेषकर अनुच्छेद 105 और 194 के ढाँचे के भीतर संसदीय विशेषाधिकार की निर्वचन से संबंधित है।
- इस मामले में एक विधायक के विरुद्ध रिश्वतखोरी का आरोप शामिल था, जिसने कथित तौर पर रिश्वत ली थी, लेकिन आपसी सहमति के मुताबिक वोट नहीं दिया था।
- अपीलकर्त्ता ने अनुच्छेद 194(2) के तहत सुरक्षा की मांग की, लेकिन उच्च न्यायालय ने पी. वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य (1998) में इस न्यायालय की संविधान पीठ के निर्णय पर भरोसा करते हुए, ई-संविधान की मिसाल का हवाला देते हुए सुरक्षा देने से इनकार कर दिया।
- यह मामला सार्वजनिक महत्त्व के कारण उच्च पीठों को भेजा गया था।
- मामले में सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ द्वारा दिये गए अंतिम निर्णय में, अपीलकर्त्ता के अपराध पर निर्णय नहीं लेते हुए, रिश्वतखोरी से जुड़े मामलों में संसदीय विशेषाधिकार की व्याख्या पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया।
पी. वी. नरसिम्हा राव मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- आरंभ:
- पी. वी. नरसिम्हा राव मामला वर्ष 1991 में दसवीं लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान रिश्वतखोरी के आरोपों से उपजा था।
- तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव को प्रस्ताव के विरुद्ध वोट सुरक्षित करने के लिये आपराधिक साज़िश रचने के आरोपों का सामना करना पड़ा।
- प्रस्ताव के विरुद्ध वोट करने के लिये JMM और जनता दल (अजीत सिंह समूह) के सदस्यों को कथित तौर पर रिश्वत दी गई थी।
- इसके बाद रिश्वतखोरी के आरोपों के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत संसद सदस्यों (सांसदों) की प्रतिरक्षा पर प्रश्न उठाते हुए मुकदमा चलाया गया।
- न्यायाधीशों की व्याख्याएँ:
- इस मामले में न्यायाधीशों के बीच भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ शामिल थीं।
- न्यायमूर्ति एस. पी. भरूचा ने कहा कि सांसदों को संसद में अपने भाषण या वोट के संबंध में अभियोजन से उन्मुक्ति प्राप्त है।
- हालाँकि, न्यायमूर्ति एस. सी. अग्रवाल ने तर्क दिया कि ऐसी उन्मुक्ति रिश्वतखोरी के आरोपों पर लागू नहीं होती है।
- अनुच्छेद 105(2) में "के संबंध में" की व्याख्या बहस के केंद्र में थी।
- अंततः, न्यायमूर्ति भरूचा की राय प्रबल हुई, जिसमें मतदान और भाषण सहित संसदीय कर्त्तव्यों से सीधे संबंधित कार्यों के संबंध में सांसदों के लिये उन्मुक्ति की पुष्टि की गई, लेकिन रिश्वतखोरी जैसे आपराधिक कृत्यों के लिये नहीं।
- मामले का सार:
- इस ऐतिहासिक मामले ने संसदीय उन्मुक्ति के दायरे और रिश्वतखोरी के लिये आपराधिक मुकदमों से संबंधित इसकी सीमाओं को स्पष्ट कर दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- राज्य सभा, एक अभिन्न घटक:
- राज्य सभा या राज्यों की परिषद हमारे लोकतंत्र में एक अभिन्न कार्य करती है, और राज्य सभा द्वारा निभाई गई भूमिका संविधान की बुनियादी संरचना का भाग है।
- इसलिये, अनुच्छेद 80 के तहत राज्य सभा के सदस्यों को चुनने में राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा निभाई गई भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है तथा यह सुनिश्चित करने के लिये अत्यधिक सुरक्षा की आवश्यकता है कि वोट का प्रयोग स्वतंत्र रूप से और कानूनी उत्पीड़न के डर के बिना किया जाए।
- संसदीय विशेषाधिकार:
- अनुच्छेद 105 व 194 के तहत दी गई सुरक्षा, जिसे "संसदीय विशेषाधिकार" कहा जाता है, निर्वाचित सदस्यों द्वारा प्रयोग की जाने वाली विभिन्न ज़िम्मेदारियों और शक्तियों तक फैली हुई है, न कि केवल सदन में कानून बनाने की गतिविधियों तक।
- पूर्व निर्णयों पर दोबारा विचार करना:
- न्यायाधीशों ने निर्णीतानुरण के सिद्धांत (doctrine of stare decisis) के लचीलेपन पर ज़ोर दिया, जिससे एक बड़ी पीठ को पूर्व निर्णयों पर पुनर्विचार करने की अनुमति मिल गई, खासकर जब उनका लोक हित, लोक जीवन में ईमानदारी और संसदीय लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ा हो।
- पी. वी. नरसिम्हा राव मामले में दी गई व्याख्या अनुच्छेद 105 और 194 के सिद्धांतों के विपरीत थी।
- संवैधानिक मापदण्डों को स्पष्ट करना:
- न्यायाधीशों ने पुष्टि की कि अनुच्छेद 105 और 194 के तहत अभियोजन से उन्मुक्ति का दावा उनके विधायी कर्त्तव्यों से संबंधित रिश्वतखोरी में शामिल व्यक्तिगत विधायकों द्वारा नहीं किया जा सकता है।
- ऐसी उन्मुक्ति, सामूहिक कार्यप्रणाली और विधायी कर्त्तव्यों के निर्वहन की आवश्यकता के आवश्यक परीक्षणों में विफल रहती है।
- रिश्वतखोरी पर विचार:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रिश्वतखोरी को अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194 के संबंधित प्रावधान के तहत उन्मुक्ति नहीं दी गई है क्योंकि रिश्वतखोरी में लिप्त एक सदस्य ऐसा अपराध करता है जो वोट देने के लिये आवश्यक नहीं है या वोट कैसे डाला जाना चाहिये, उसके पास यह तय करने की क्षमता नहीं है।
- यही सिद्धांत सदन या किसी समिति में भाषण के संबंध में रिश्वतखोरी पर भी लागू होता है।
- रिश्वतखोरी का अपराध सहमत कार्रवाई के निष्पादन के प्रति अज्ञेयवादी है और अवैध परितोषण के आदान-प्रदान पर केंद्रित है।
- इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वोट सहमत पक्ष के लिये डाला गया है या वोट डाला ही गया है।
- उच्चतम न्यायालय ने आखिरकार कहा कि रिश्वतखोरी का अपराध उस समय पूरा हो जाता है जब विधायक रिश्वत लेता है।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रिश्वतखोरी को अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194 के संबंधित प्रावधान के तहत उन्मुक्ति नहीं दी गई है क्योंकि रिश्वतखोरी में लिप्त एक सदस्य ऐसा अपराध करता है जो वोट देने के लिये आवश्यक नहीं है या वोट कैसे डाला जाना चाहिये, उसके पास यह तय करने की क्षमता नहीं है।
संविधान के तहत संसदीय विशेषाधिकार क्या हैं?
अनुच्छेद 105 व 194 भारत के संविधान, 1950 के प्रावधान हैं जो क्रमशः संसद सदस्यों (सांसदों) और राज्य विधानमंडल के सदस्यों की शक्तियों, विशेषाधिकारों एवं उन्मुक्ति से संबंधित हैं।
- अनुच्छेद 105:
- यह अनुच्छेद सांसदों की शक्तियों और विशेषाधिकारों से संबंधित है।
- संसदीय सत्रों या समिति की बैठकों के दौरान कही गई किसी भी बात या दिये गए वोट के लिये सांसदों को कानूनी कार्यवाही से उन्मुक्ति प्राप्त है।
- इसी तरह, संसदीय रिपोर्टों और लिखित कार्यवाही भी सुरक्षित है।
- संसद के प्रत्येक सदन, उसके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार एवं उन्क्तियाँ संसद द्वारा विधि के माध्यम से परिभाषित की जाती हैं।
- परिभाषित होने तक, वे वैसे ही रहते हैं जैसे वे संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 के लागू होने से पहले थे।
- इसका विस्तार उन व्यक्तियों पर भी है जिन्हें संविधान के अनुसार बोलने और संसदीय कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार दिया गया है।
- अनुच्छेद 194:
- यह अनुच्छेद, अनुच्छेद 105 के समान ही है लेकिन सांसदों के बजाय राज्य विधानमंडल के सदस्यों से संबंधित है।
- किसी राज्य विधानमंडल के सदस्यों को विधानमंडल या उसकी समितियों के भीतर उनके भाषण या वोटों के लिये न्यायालय में जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।
- राज्य विधानमंडल सदनों, सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियाँ विधानमंडल द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं, या विधायिका द्वारा आगे परिभाषित होने तक मौजूदा कानूनों द्वारा निर्धारित की जाती हैं।