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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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सांविधानिक विधि

अनुच्छेद 12 के तहत अपार्टमेंट मालिकों का निजी संघ ‘स्टेट/राज्य’ नहीं

 23-Aug-2023

एम. जे. मैथ्यू और अन्य बनाम प्रेस्टीज सेंट जॉन्स वुड अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन और अन्य।

"अपार्टमेंट मालिकों का निजी संघ अनुच्छेद 12 के तहत 'राज्य' नहीं है"।

जस्टिस आर नटराज

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एम. जे. मैथ्यू और अन्य बनाम प्रेस्टीज सेंट जॉन्स वुड अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन और अन्य के मामले में माना कि अपार्टमेंट मालिकों का निजी संघ भारत के संविधान (COI) के अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य होने के लिये योग्य नहीं है।

पृष्ठभूमि

  • याचिकाकर्ताओं ने कुछ अपार्टमेंट के मालिक होने का दावा किया, जिनके संबंध में प्रतिवादी के रूप में एक अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन का गठन किया गया है।
  • याचिकाकर्ताओं ने रिट याचिका कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की, जिसमें उन्होंने अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन के उन उपनियमों में संशोधन पर सवाल उठाया गया, जिसने उन मालिकों से सुविधा शुल्क लगाने का मार्ग प्रशस्त किया, जिन्होंने अपने अपार्टमेंट को पट्टे, लाइसेंस, किरायेदारी या किराए पर दिया था।
  • न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • न्यायमूर्ति आर. नटराज की एकल न्यायाधीश पीठ ने कहा कि यह प्रतिवादी अपार्टमेंट के मालिकों की निजी संस्था हैं और इसलिये भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत यह राज्य बनने के योग्य नहीं हैं।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि यह कोई सार्वजनिक कर्तव्य भी नहीं निभा रहा है और इसलिये विशेषाधिकार रिट जारी करने की कार्यवाही में इसकी गतिविधियों की इस न्यायालय द्वारा जाँच नहीं की जा सकती है।

कानूनी प्रावधान

भारत का संविधान, अनुच्छेद 12

  • मौलिक अधिकार भारत के संविधान के भाग III में निहित हैं, जो अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक वर्णित हैं।
  • संविधान का अनुच्छेद 12 संविधान के भाग III में निहित प्रावधानों को लागू करने के उद्देश्य से राज्य की परिभाषा से संबंधित है।
  • यह एक अनिवार्य अनुच्छेद है और संविधान के भाग III में कहा गया है,
    • जब तक संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, राज्य के तहत भारत की सरकार और संसद एवं प्रत्येक राज्य की सरकार तथा विधानमंडल एवं भारत के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के तहत सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण शामिल हैं।
  • राज्य की परिभाषा समावेशी है और इसमें प्रावधान है कि राज्य में निम्नलिखित शामिल हैं:
    • सरकार और संसद, यानी संघ की कार्यपालिका और विधायिका।
    • सरकार और विधानमंडल, यानी कार्यपालिका और राज्यों के विधानमंडल।
    • भारत के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के तहत सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण।
    • अन्य प्राधिकारी:
      • उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित न्यायिक उदाहरणों द्वारा अनुच्छेद 12 के तहत "अन्य प्राधिकारियों" की व्यापक व्याख्या दी है।
      • उज्जैन बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि अन्य प्राधिकरणों को स्थानीय अधिकारियों और राज्य तथा केंद्र सरकारों तक सीमित नहीं किया जा सकता है।
      • सुखदेव सिंह बनाम भगतराम सरदार सिंह रघुवंशी (1975) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि तेल और प्राकृतिक गैस आयोग (ONGC), जो एक सरकारी स्वामित्व वाला निगम है, अनुच्छेद 12 के तहत अन्य प्राधिकरण है।
      • राजस्थान विद्युत बोर्ड बनाम मोहन लाल (1967) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राजस्थान विद्युत बोर्ड अनुच्छेद 12 के तहत अन्य प्राधिकरण है।
      • प्रदीप कुमार विश्वास बनाम इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी (2002) में उच्चतम न्यायालय ने माना कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी अनुच्छेद 12 के तहत अन्य प्राधिकरण है।
  • आर. डी. शेट्टी बनाम एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (1979) के मामले में न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती ने यह निर्धारित करने के लिये 5 प्वाइंट का निर्धारण किया था कि क्या कोई निकाय राज्य की एक एजेंसी या निकाय है, जो इस प्रकार हैं -
    • राज्य के वित्तीय संसाधन से पोषित निकाय, जहाँ राज्य मुख्य वित्तपोषण स्रोत है यानी संपूर्ण शेयर पूंजी सरकार के पास होती है।
    • जिस पर राज्य का व्यापक नियंत्रण हो।
    • कार्यात्मक प्रकृति सरकारी हो, जिसका अर्थ है कि इसके कार्यों का सार्वजनिक महत्त्व है या वे सरकारी प्रकृति के हैं।
    • सरकार का ऐसा विभाग जो किसी निगम को हस्तांतरित हो गया है।
    • एकाधिकार स्थिति वाला निकाय, जो राज्य द्वारा निर्मित और संरक्षित है।
    • संविधान का अनुच्छेद 12 न्यायपालिका को विशेष रूप से परिभाषित नहीं करता है और इसमें एक ही मामले पर कई असहमतिपूर्ण राय मौजूद हैं।

सिविल कानून

सशर्त बिक्री द्वारा बंधक

 23-Aug-2023

कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से प्रकाश (मृत) बनाम जी. आराध्या एवं अन्य।

"किसी लेन-देन को तब तक बंधक नहीं माना जाएगा जब तक कि उस दस्तावेज़ में प्रतिहस्तांतरण की शर्त शामिल न हो जिसका उद्देश्य बिक्री को प्रभावित करना हो।"

न्यायमूर्ति हिमा कोहली, न्यायमूर्ति राजेश बिंदल

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि किसी लेन-देन को तब तक बंधक नहीं माना जाएगा जब तक कि दस्तावेज़ में प्रतिहस्तांतरण की वह शर्त शामिल न हो जिसका उद्देश्य बिक्री को प्रभावित करना हो।

उच्चतम न्यायालय ने कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से प्रकाश (मृत) बनाम जी. आराध्या एवं अन्य मामले में यह टिप्पणी दी।

पृष्ठभूमि

  • बिक्री विलेख के माध्यम से संपत्ति के हस्तांतरण और बाय बैक डीड के माध्यम से उसी संपत्ति के प्रतिहस्तांतरण से संबंधित दो दस्तावेज़ एक ही दिन में निष्पादित किये गये थे।
    • दोनों ही डीड एक ही दिन निष्पादित की गई थी लेकिन अलग-अलग दस्तावेजों के रूप में।
  • जिस विक्रेता को संपत्ति दी गई थी, वह बिक्री विलेख के पाँच साल के भीतर संपत्ति को इस शर्त पर फिर से हस्तांतरित करने के लिये सहमत हुआ कि उसे बिक्री पर 5000 रूपये/- (पाँच हजार रुपये) का भुगतान किया जाए।
  • संपत्ति के विक्रेता (अपीलकर्ता के पिता) ने संपत्ति के प्रतिहस्तांतरण के लिये क्रेता को नोटिस भेजा।
    • क्रेता ने जवाब दिया कि इसे सशर्त बिक्री द्वारा बंधक नहीं रखा गया था। यह संपत्ति की एकमुश्त बिक्री थी।
  • इसके बाद अपीलकर्ता ने बंधक को छुड़ाने के लिये मुकदमा दायर किया जिसे ट्रायल कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया।
    • ट्रायल कोर्ट के आदेश को उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा।
  • इसके बाद यह अपील उच्चतम न्यायालय में दायर की गई।

न्यायालय की टिप्पणी

  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (Transfer of Property Act, 1882 (TPA) की धारा 58 (c) के प्रावधान में कहा गया है कि यदि प्रतिहंस्तांतरण की शर्तों का उस दस्तावेज़ में उल्लेख नहीं किया गया है जो बिक्री को प्रभावित करती है या करने का इरादा रखती है, तो लेन-देन को बंधक के रूप में नहीं माना जाता है।

गिरवी रखना या बंधक

  • बंधक को संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (Transfer of Property Act, 1882 (TPA) की धारा 58 के तहत परिभाषित किया गया है।
    • इस धारा के अनुसार, यह विशिष्ट अचल संपत्ति में हित का हस्तांतरण है।
  • ऐसे अंतरण को अग्रिम या ऋण के माध्यम से दिये जाने वाले धन के भुगतान, मौजूदा या भविष्य के ऋण के माध्यम से किये जाने वाले भुगतान, या किसी ऐसे कार्य को करना सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया जाता है जो आर्थिक दायित्व को जन्म दे सकता है।
  • अंतरणकर्ता को बंधककर्ता कहा जाता है, और अन्तरिती को बंधकदार कहा जाता है।
  • मूल धन और ब्याज जिसका भुगतान तत्समय किया जाता है, बंधक-धन कहलाता है।
  • और वह लिखत (यदि कोई हो) जिसके द्वारा अंतरण किया जाता है, बंधक-विलेख कहलाता है।

बंधक के प्रकार

  • साधारण बंधक:
    • साधारण बंधक में, गिरवी रखी गई संपत्ति पर कब्ज़ा दिये बिना, बंधककर्ता व्यक्तिगत रूप से बंधक राशि का भुगतान करने के लिये बाध्य होता है, और यदि बंधकदार राशि का भुगतान करने में विफल रहता है तो उसे संपत्ति बेचने का अधिकार होता है।
  • सशर्त बिक्री द्वारा बंधक:
    • इस प्रकार के बंधक में, बंधककर्ता कुछ शर्तों के आधार पर गिरवी रखी गई संपत्ति को प्रत्यक्ष रूप से बेचता है।
  • भोग बंधक:
    • बंधककर्ता बंधकदार को कब्ज़ा सौंपता है और उसे बंधक-धन का भुगतान होने तक ऐसा कब्ज़ा बनाए रखने और संपत्ति से होने वाले किराए और लाभ प्राप्त करने के लिये अधिकृत करता है।
  • अंग्रेजी बंधक:
    • अंग्रेजी बंधक में, बंधककर्ता एक निश्चित तिथि पर बंधक-धन चुकाने के लिये खुद को बाध्य करता है, और गिरवी रखी गई संपत्ति को पूरी तरह से बंधकदार को हस्तांतरित कर देता है, लेकिन एक प्रावधान के अधीन कि वह बंधक सहमति के अनुसार धन के भुगतान पर इसे फिर से बंधककर्ता को हस्तांतरित कर देगा-
  • स्वामित्व-विलेखों की जमा राशि द्वारा बंधक:
    • अचल संपत्ति के मालिकाना हक के दस्तावेज उस पर प्रतिभू के इरादे से सौंपता है, ऐसे लेनदेन को स्वामित्व-विलेखों की जमा राशि द्वारा बंधक कहा जाता है।
  • विलक्षण बंधक
    • संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 58 के अनुसार विलक्षण बंधक जो बंधक तो है लेकिन सादा बंधक, सशर्त विक्रय द्वारा बंधक, भोग बंधक, अंग्रेजी बंधक या हक विलेख बंधक नहीं है वह बंधक, विलक्षण बंधक कहलाता है।
  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 (Transfer of Property Act, 1882 (TPA) की धारा 58 की उप-धारा (C) के अनुसार, बंधककर्ता कथित तौर पर गिरवी रखी गई संपत्ति को बेचता है -
    • इस शर्त पर कि एक निश्चित तिथि पर बंधक-धन का भुगतान न करने पर बिक्री पूर्ण हो जाएगी, या
    • इस शर्त पर कि ऐसा भुगतान किये जाने पर बिक्री शून्य हो जाएगी,
    • या, इस शर्त पर कि यदि ऐसा भुगतान किया जाता है तो खरीदार संपत्ति विक्रेता को हस्तांतरित कर देगा।
  • धारा के परंतुक में कहा गया है कि ऐसे किसी भी लेनदेन को बंधक नहीं माना जाएगा, जब तक कि वह शर्त दस्तावेज़ में शामिल न हो जो बिक्री को प्रभावित करती है या प्रभावित करने का इरादा रखती है।

नियामक संस्था

जन केंद्रित न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय

 23-Aug-2023

उच्चतम न्यायालय अपनी विविधता के कारण वास्तव में एक जन केंद्रित न्यायालय है, पॉली-वोकल नहीं।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन (Supreme Court Bar Association's (SCBA) के अभिनंदन समारोह में बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने कहा कि उच्चतम न्यायालय अपनी विविधता के आधार पर एक जन-केंद्रित न्यायालय है, न कि पॉली-वोकल। उच्चतम न्यायालय के नवनियुक्त न्यायाधीश - न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ और न्यायमूर्ति एस. वी.एन भट्टी।

पृष्ठभूमि

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस समारोह में कहा कि उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम में न्यायाधीश होते हैं, जिसमें एक न्यायाधीश महाराष्ट्र से है जो पश्चिम बंगाल के एक न्यायाधीश के साथ मिलकर हरियाणा राज्य से संबंधित किसी मामले का निर्णय करता है इसलिये यह महाराष्ट्र या दिल्ली का उच्चतम न्यायालय नहीं है, बल्कि यह भारत का उच्चतम न्यायालय है और यहाँ हमारा उद्देश्य यह प्रतिबिंबित करना है कि यह न्यायालय भारत की विविधता को दर्शाता है।
  • उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम का एक प्रमुख कर्त्तव्य विविधता सुनिश्चित करना और "जन-केंद्रित न्यायालय" बनाना है।
  • जन-केंद्रित कानूनी और न्यायिक सेवाएँ उन लोगों की कानूनी जरूरतों और कानूनी क्षमताओं की अनुभवजन्य समझ को संदर्भित करती हैं जिन्हें सहायता की आवश्यकता होती है या वे सहायता चाहते हैं।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश ने आगे कहा कि “लोग न्यायपालिका पर तभी भरोसा करना शुरू करेंगे जब वे न्याय देने वाले लोगों में अपना प्रतिबिंब देखेंगे।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल के शुरुआती महीनों के दौरान उच्चतम न्यायालय में नियुक्त न्यायाधीशों के समक्ष आने वाली मुख्य चिंताओं में से एक, यानी दिल्ली में आवास, को भी उठाया, क्योंकि नव नियुक्त न्यायाधीशों को अक्सर महीनों तक राज्य सरकार सदन (गेस्ट हाउस) में रहना पड़ता है।

कॉलेजियम प्रणाली

  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217 के तहत कॉलेजियम प्रणाली क्रमशः उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है।
  • कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है जो उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है, न कि संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा।
  • कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिपादित करने वाले मामले इस प्रकार हैं:
    • प्रथम न्यायाधीश मामला – एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981)
      • उच्चतम न्यायालय के फैसले में कहा गया कि अनुच्छेद 124 में 'परामर्श' शब्द का अर्थ सहमति नहीं है। इसलिये, राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के परामर्श के आधार पर निर्णय लेने के लिये बाध्य नहीं थे।
    • द्वितीय न्यायाधीश मामला - उच्चतम न्यायालय एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ (1993)
      • उच्चतम न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत करते हुए कहा कि 'परामर्श' का वास्तव में अर्थ 'सहमति' है।
      • इसमें कहा गया है कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं थी, बल्कि उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से बनाई गई एक संस्थागत राय थी।
    • तृतीय न्यायाधीश मामला - 1998 के 1 विशेष संदर्भ में
      • राष्ट्रपति के संदर्भ पर उच्चतम न्यायालय ने (अनुच्छेद 143) कॉलेजियम को पाँच सदस्यीय निकाय तक विस्तारित किया, जिसमें CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल थे।
      • उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये भी सख्त दिशानिर्देश दिये।
    • चतुर्थ न्यायाधीश मामला - एससी एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड-एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ (2015)
      • संविधान (99वें संशोधन द्वारा) के तहत राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 (National Judicial Appointments Commission (NJAC)) बनाया जिसमें अनुच्छेद 124A को भारत के संविधान में सम्मिलित किया गया था। इस अधिनियम के कार्यों और कानून बनाने की संसद की शक्ति को अनुच्छेद 124b और 124c में रेखांकित किया गया था।
      • वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 124A राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के न्यायिक घटक को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं करता है इसलिये इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना गया जो संविधान का मूलभूत ढाँचा है। न्यायालय ने NJAC को अमान्य कर दिया और पूर्व की व्यवस्था बहाल कर दी।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission (NJAC)

  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग 99वें संविधान संशोधन अधिनियम 2014 द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 124A के तहत गठित एक निकाय था।
  • इसमें शामिल थे:
    • भारत के मुख्य न्यायाधीश, अध्यक्ष, पदेन।
    • उच्चतम न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश --सदस्य, पदेन।
    • विधि एवं न्याय मंत्रालय के प्रभारी केंद्रीय मंत्री, पदेन सदस्य के रूप में।
    • प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता या जहाँ विपक्ष का कोई नेता नहीं है, वहाँ लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की समिति द्वारा दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों को नामित किया जाएगा।
      • प्रतिष्ठित व्यक्ति को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक या महिला वर्ग के व्यक्तियों में से नामित किया जाएगा।
      • ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति को तीन साल की अवधि के लिये नामांकित किया जाएगा और वह पुनर्नामांकन के लिये पात्र नहीं होगा।
  • यदि इस व्यवस्था को जारी रखा जाता है, तो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिये कॉलेजियम प्रणाली की जगह ले लेता, जैसा कि न्यायिक घोषणाओं के माध्यम से उच्चतम न्यायालय द्वारा लागू किया गया था।

न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 124(2) - उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन – (2) उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात्‌, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिये परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र (*अनुच्छेद 124A में निर्दिष्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर) द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा जब तक वह पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है:

परन्तु मुख्‍य न्यायमूर्ति से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में भारत के मुख्‍य न्यायमूर्ति से सदैव परामर्श किया जाएगा:

परन्तु यह और कि --

(क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा;

(ख) किसी न्यायाधीश को खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से हटाया जा सकेगा।

अनुच्छेद 217 - उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और पद की शर्तें (1) भारत के मुख्य न्यायाधीश से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायाधीश से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात्, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र ((*अनुच्छेद 124A में निर्दिष्ट राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर) द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा और वह न्यायाधीश अपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनुच्छेद 224 में उपबंधित रूप में पद धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा, जब तक वह बासठ वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है परंतु-

(क) कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।

(ख) किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिये अनुच्छेद 124 के खंड (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा।

(ग) किसी न्यायाधीश का पद, राष्ट्रपति द्वारा उसे उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किये जाने पर या राष्ट्रपति द्वारा उसे भारत के राज्यक्षेत्र में किसी अन्य उच्च न्यायालय को, अंतरित किये जाने पर रिक्त हो जाएगा।

(2) कोई व्यक्ति, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये तभी अर्हित होगा, जब वह भारत का नागिरक है और-

(क) भारत के राज्यक्षेत्र में कम से कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है; या

(ख) किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा है;

****

स्पष्टीकरण-

इस खंड के प्रयोजनों के लिये-

(क) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान कोई व्यक्ति न्यायिक पद धारण करने के पश्चात किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है या उसने किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है, जिसके लिये विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है;

(1) किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने अधिवक्ता होने के पश्चात न्यायिक पद धारण किया है या किसी अधिकरण के सदस्य का पद धारण किया है अथवा संघ या राज्य के अधीन कोई ऐसा पद धारण किया है, जिसके लिये विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है;

(ख) भारत के राज्यक्षेत्र में न्यायिक पद धारण करने या किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहने की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने यथास्थिति, ऐसे क्षेत्र में जो 15 अगस्त, 1947 से पहले भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में समाविष्ट था, न्यायिक पद धारण किया है या वह ऐसे किसी क्षेत्र में किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा है।

(3) यदि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की आयु के बारे में कोई प्रश्न उठता है तो उस प्रश्न का विनिश्चय भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होगा।

* संविधान (99वाँ संशोधन) अधिनियम, 2014, धारा 2 द्वारा प्रतिस्थापित, "उच्चतम न्यायालय और राज्यों में उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के बाद जिन्हें राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिये आवश्यक समझे" (13-4-2015 से)। इस संशोधन को उच्चतम न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन और अन्य बनाम भारत संघ के मामले में अपने निर्णय दिनांक 16-10-2015 में इसे रद्द कर दिया है।

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश

  • वर्तमान में भारत के मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 34 है।
  • ऐसा व्यक्ति जो भारत का नागरिक है, वह 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बन सकता है और उसके पास अनुच्छेद 124 के अनुसार निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिये:
    • वह लगातार कम से कम पाँच वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का न्यायाधीश रहा हो; या
    • वह कम से कम दस वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों में लगातार अधिवक्ता रहा हो; या
    • राष्ट्रपति की राय में वह एक प्रतिष्ठित न्यायविद् हो।
  • उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाना भारत के संविधान के अनुच्छेद 124(4) के प्रावधानों के अनुसार निम्नलिखित तरीके से हो सकता है:
    • अनुच्छेद 124(4) - उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ऐसे हटाए जाने के लिये संसद‌ के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्‍या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन, राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दे दिया है।