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आपराधिक कानून

प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में समन

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 09-Feb-2024

सुंदर लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

"एक साक्षी को प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में बुलाया जा सकता है जिसे अभियोजन सूची में दिखाया गया था लेकिन अभियोजन पक्ष द्वारा जाँच नहीं की गई थी।"

न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और एस. वी. एन. भट्टी

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, सुंदर लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि एक साक्षी को प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में बुलाया जा सकता है जिसे अभियोजन सूची में दिखाया गया था लेकिन अभियोजन पक्ष द्वारा जाँच नहीं की गई थी।

सुंदर लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, अपीलकर्त्ता शादीशुदा था और उसकी पत्नी (मृतक) ने अपनी मर्ज़ी से ज़हरीले पदार्थ का सेवन करके आत्महत्या कर ली।
  • इसके बाद, मृतिका के रिश्तेदारों द्वारा एक शिकायत दर्ज की गई, जिसमें आरोप लगाया गया कि अपीलकर्त्ता और उसके रिश्तेदार दहेज की मांग पूरी न होने पर मृतिका को परेशान करते थे तथा शिकायतकर्त्ता-रिश्तेदारों को सूचित किये बिना उसके शरीर का अंतिम संस्कार कर देते थे।
  • आरोपपत्र भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 304B498A और दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 व 4 के तहत दायर किया गया था।
  • अभियोजन पक्ष के साक्षी के रूप में मृतक के भाई प्रदीप का उल्लेख किया गया था।
  • हालाँकि, मुकदमे के दौरान, प्रदीप को अभियोजन पक्ष द्वारा बिना पूछताछ के आरोपमुक्त कर दिया गया।
  • अभियोजन पक्ष के साक्ष्य समाप्त होने के बाद दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 313 के तहत अभियुक्त का बयान दर्ज किया गया।
  • अपीलकर्त्ता ने प्रदीप को समन करने की मांग करते हुए CrPC की धारा 233 के तहत एक आवेदन दायर किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता के आवेदन को खारिज़ कर दिया और यहाँ तक कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी अपीलकर्त्ता की मांग को खारिज़ कर दिया।
  • इसके बाद, अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की जिसे बाद में न्यायालय ने अनुमति दे दी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और एस. वी. एन. भट्टी की खंडपीठ ने कहा कि दोनों न्यायालयों द्वारा अपीलकर्त्ता के अनुरोध को अस्वीकार करना गलत है, क्योंकि तथ्यात्मक रूप से, प्रतिरक्षा पक्ष की ओर से जिस साक्षी से पूछताछ की मांग की गई थी, उससे अभियोजन पक्ष द्वारा पूछताछ नहीं की गई है।
  • यह भी कहा गया कि अभियोजन पक्ष ने परिणामस्वरूप उक्त साक्षी को आरोप मुक्त करने का निर्णय किया है और इसलिये, उसे अभियोजन पक्ष की ओर से गवाही देने के लिये गवाह बॉक्स में नहीं रखा गया है। मामले को देखते हुए, उक्त साक्षी से प्रतिरक्षा पक्ष के साक्षी के रूप में पूछताछ करने पर कानून में कोई रोक नहीं है। अपीलकर्त्ता को अभियोजन पक्ष के साक्षी से प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में परीक्षण करने की अनुमति है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक कानूनी प्रावधान शामिल हैं?

CrPC की धारा 313:

परिचय:

CrPC की धारा 313 अभियुक्त से पूछताछ करने की शक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि-

(1)  प्रत्येक जाँच या विचारण में, इस प्रयोजन से कि अभियुक्त अपने विरुद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली किन्हीं परिस्थितियों का स्वयं स्पष्टीकरण कर सके, न्यायालय-

(a) किसी प्रक्रम में, अभियुक्त को पहले से चेतावनी दिये बिना, उससे ऐसे प्रश्न कर सकता है जो वह आवश्यक समझे;

(b) अभियोजन के साक्षियों की परीक्षा किये जाने के पश्चात् और अभियुक्त से अपनी प्रतिरक्षा करने की अपेक्षा किये जाने के पूर्व उस मामले के बारे में उससे साधारणतया प्रश्न करेगा।

परंतु किसी समन-मामले में, जहाँ न्यायालय ने अभियुक्त को वैयक्तिक हाज़िरी से अभिमुक्ति दे दी है, वहाँ वह खंड (b) के अधीन उसकी परीक्षा से भी अभिमुक्ति दे सकता है।

(2) जब अभियुक्त की उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है तब उसे कोई शपथ न दिलाई जाएगी।

(3) अभियुक्त ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने से इनकार करने से या उसके मिथ्या उत्तर देने से दंडनीय न हो जाएगा।

(4) अभियुक्त द्वारा दिये गए उत्तरों पर उस जाँच या विचारण में विचार किया जा सकता है और किसी अन्य ऐसे अपराध की, जिसका उसके द्वारा किया जाना दर्शाने की उन उत्तरों की प्रवृत्ति हो, किसी अन्य जाँच या विचारण में ऐसे उत्तरों को उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर रखा जा सकता है।

(5) न्यायालय ऐसे सुसंगत प्रश्न तैयार करने में, जो अभियुक्त से पूछे जाने हैं, अभियोजक और प्रतिरक्षा काउंसिल की सहायता ले सकेगा और न्यायालय इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित कथन फाइल किये जाने की अनुज्ञा दे सकेगा।

निर्णयज विधि:

रफीक अहमद @ रफी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2011) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि CrPC की धारा 313 के तहत बयान अभियुक्त की सज़ा का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से यह न्यायालय के लिये जाँच करने के लिये एक सुसंगत विचार हो सकता है, खासकर तब, जब अभियोजन अन्यथा घटनाओं की शृंखला स्थापित करने में सक्षम हो।

CrPC की धारा 233:

परिचय:

CrPC की धारा 233 को अध्याय XVIII के तहत जगह मिलती है जिसका शीर्षक 'सत्र न्यायालय के समक्ष मुकदमा' है।

यह धारा प्रतिरक्षा में प्रवेश से संबंधित है और इसी उपबंध को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 256 के तहत शामिल किया गया है।

इसमें कहा गया है कि-

(1) जहाँ अभियुक्त धारा 232 के अधीन दोषमुक्त नहीं किया जाता है वहाँ उससे अपेक्षा की जाएगी कि अपनी प्रतिरक्षा आरंभ करे और कोई भी साक्ष्य जो उसके समर्थन में उसके पास हो पेश करे।

(2) यदि अभियुक्त कोई लिखित कथन देता है तो न्यायाधीश उसे अभिलेख में फाइल करेगा।

(3) यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाज़िर होने या कोई दस्तावेज़ या चीज़ पेश करने को विवश करने के लिये कोई आदेशिका जारी करने के लिये आवेदन करता है तो न्यायाधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब तक उसका ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किये जाएँगे, यह विचार न हो कि आवेदन इस आधार पर नामंज़ूर कर दिया जाना चाहिये कि वह तंग करने या विलंब करने या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से किया गया है।

यह उपबंध सेशन ट्रायल का एक अनिवार्य हिस्सा है और यह तब लागू होता है जब अभियोजन पक्ष के साक्ष्य पूरे हो जाते हैं, और अभियुक्त को अपनी प्रतिरक्षा में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है।

निर्णयज विधि:

एच. काला सिंह बनाम मेघालय राज्य (2008) मामले में, यह माना गया कि CrPC की धारा 233 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त को प्रभावी ढंग से अपनी प्रतिरक्षा करने और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने का पर्याप्त अवसर दिया जाए। यह अभियुक्तों को अपनी प्रतिरक्षा में कोई भी साक्ष्य या साक्षी पेश करने की अनुमति देता है।