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सांविधानिक विधि
जेलों में जाति आधारित भेदभाव
« »04-Oct-2024
सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य। "जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले अन्य उपायों का सहारा लिये बिना जेल के अंदर अनुशासन बनाए रखना जेल प्रशासन का उत्तरदायित्व है।" मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाने के लिये कई निर्देश दिये।
- उच्चतम न्यायालय ने सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।
सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में याचिकाकर्त्ता एक पत्रकार सुकन्या शांता हैं, जिन्होंने “पृथक्करण से लेकर श्रम तक, मनु की वर्ण व्यवस्था भारतीय जेल प्रणाली पर नियंत्रण” नामक लेख लिखा था।
- लेख में देश की जेलों में जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रकाश डाला गया था।
- याचिकाकर्त्तावर्तमान रिट के माध्यम से राज्य जेल मैनुअल में आपत्तिजनक प्रावधानों को निरस्त करने के लिये निर्देश मांगने के लिये न्यायालय में आए थे।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस रिट याचिका में आरोपित प्रावधान इस प्रकार थे:
- जेल अधिनियम, 1984: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस विधान को चुनौती नहीं दी गई है, लेकिन इस अधिनियम से जेल मैनुअल/नियमों की पृष्ठभूमि को समझने में सहायता मिली है।
- जेल मैनुअल/नियम: इस मामले में कई जेल मैनुअल एवं नियम चुनौती के अधीन थे, जिनमें उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल, 2022, मध्य प्रदेश जेल मैनुअल, 1987 सहित कई अन्य शामिल हैं।
- इस मामले में न्यायालय ने रिट याचिका को स्वीकार कर लिया तथा निम्नलिखित निर्देश जारी किये :
- न्यायालय ने माना कि आरोपित प्रावधान असंवैधानिक हैं क्योंकि ये भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, 15, 17, 21 एवं अनुच्छेद 23 का उल्लंघन करते हैं।
- न्यायालय ने सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे तीन महीने के अंदर इस निर्णय के अनुरूप अपने जेल मैनुअल/नियमों को संशोधित करें।
- इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार को तीन महीने की अवधि के अंदर मॉडल जेल मैनुअल, 2016 एवं मॉडल जेल तथा सुधार सेवा अधिनियम 2023 में जाति-आधारित भेदभाव को संबोधित करने का भी निर्देश दिया गया।
- जेल मैनुअल/मॉडल जेल मैनुअल में “आदतन अपराधियों” का संदर्भ भविष्य में ऐसे विधि के विरुद्ध किसी भी संवैधानिक चुनौती के अधीन संबंधित राज्य विधानसभाओं द्वारा अधिनियमित आदतन अपराधी विधान में दी गई परिभाषा के अनुसार होगा।
- जेलों के अंदर विचाराधीन/दोषी कैदियों के रजिस्टर में “जाति” कॉलम हटा दिया जाएगा।
- पुलिस को अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) तथा अमानतुल्लाह खान बनाम पुलिस आयुक्त, दिल्ली (2024) में जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार न किया जाए।
- न्यायालय ने जेलों में इस भेदभाव का स्वतः संज्ञान लिया तथा मामले को भारत में जेलों के अंदर भेदभाव के संबंध में सूचीबद्ध किया। रजिस्ट्री को भी निर्देश दिया गया कि मामले को 3 महीने के अंदर सूचीबद्ध किया जाए।
- जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) एवं मॉडल जेल मैनुअल 2016 के अंतर्गत गठित विजिटर्स बोर्ड संयुक्त रूप से नियमित निरीक्षण करेंगे ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या जाति आधारित भेदभाव या इसी तरह की भेदभावपूर्ण प्रथाएँ, जैसा कि इस निर्णय में बताया गया है, अभी भी जेलों के अंदर हो रही हैं। इसके अतिरिक्त, इस विषय में रिपोर्ट दाखिल की जाएगी।
- न्यायालय ने माना कि आरोपित प्रावधान असंवैधानिक हैं क्योंकि ये भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, 15, 17, 21 एवं अनुच्छेद 23 का उल्लंघन करते हैं।
जेल मैनुअल में जाति आधारित भेदभाव क्या है?
- इस मामले में न्यायालय ने पाया कि औपनिवेशिक प्रशासकों ने जेल के अंदर भेदभावपूर्ण सामाजिक प्रथाओं को अपनाया ताकि उत्पीड़क जातियों को नाराज़ न किया जा सके।
- जाति का प्रयोग कैदियों के बीच भेदभाव के आधार के रूप में किया जाता था।
- न्यायालय ने सी. अरुल बनाम सरकार के सचिव (2014) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया, जहाँ उच्च न्यायालय ने इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया था कि "विभिन्न जातियों के निवासियों को अलग-अलग ब्लॉकों में रखा गया है, ताकि किसी भी सामुदायिक टकराव से बचा जा सके, जो कि तिरुनेलवेली एवं तूतीकोरिन जिलों में आम बात है।"
- न्यायालय ने माना कि जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले उपायों का सहारा लिये बिना जेलों के अंदर अनुशासन बनाए रखना जेल प्रशासन का उत्तरदायित्व है।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार किये गए तर्क को अपनाना संयुक्त राज्य अमेरिका में जाति-आधारित अलगाव को वैध बनाने के लिये दिये गए तर्क के समान होगा: अलग लेकिन समान।
- न्यायालय ने माना कि उपरोक्त दर्शन का भारतीय संविधान में कोई स्थान नहीं है।
- न्यायालय ने माना कि “आदत”, “रीति-रिवाज”, “जीवन जीने के बेहतर तरीके” तथा “भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति” आदि के आधार पर कैदियों के साथ भेदभाव करना असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट एवं अनिश्चित है।
- केवल ऐसा वर्गीकरण जो कैदी की कार्य योग्यता, आवास आवश्यकताओं, विशेष चिकित्सा एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं जैसे कारकों की वस्तुनिष्ठ जाँच से आगे बढ़ता है, संवैधानिक मानक पर खरा उतरेगा।
- यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि यहाँ विचाराधीन जेल मैनुअल में “ऐसे कर्त्तव्यों को करने के आदी” जातियों द्वारा किये जाने वाले “नीच” कृत्य जैसे वाक्यांशों का प्रयोग किया गया था।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि जाति की अप्रचलित समझ के आधार पर वर्गीकरण में जेलों में वर्गीकरण के सुधारात्मक उद्देश्यों के साथ तर्कसंगत संबंध का अभाव है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि जाति के आधार पर भेदभाव करने वाले नियम अवैध वर्गीकरण एवं मौलिक समानता के उल्लंघन के कारण अनुच्छेद 14 का उल्लंघन हैं।
मैनुअल में अस्पृश्यता की प्रथा की क्या परिकल्पना की गई है?
- यह ध्यान देने योग्य है कि COI का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को प्रतिबंधित करता है।
- न्यायालय ने कहा कि यह धारणा कि किसी व्यवसाय को “अपमानजनक या नीच” माना जाता है, जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता का एक पहलू है।
- यह देखा गया कि “मेहतर वर्ग” का संदर्भ जाति व्यवस्था एवं अस्पृश्यता की एक प्रथा है।
- मैनुअल में यह प्रावधान कि भोजन “उपयुक्त जाति” द्वारा पकाया जाना चाहिये, अस्पृश्यता की धारणा को दर्शाता है, जहाँ कुछ जातियों को खाना पकाने या रसोई के काम को संभालने के लिये उपयुक्त माना जाता है तथा अन्य को नहीं।
- साथ ही, जाति के आधार पर कार्य का विभाजन अस्पृश्यता की एक प्रथा है जो संविधान के अंतर्गत निषिद्ध है।
जेल मैनुअल द्वारा विमुक्त जनजातियों के सदस्यों के साथ किस प्रकार भेदभाव किया जाता है?
- विमुक्त जनजातियों को अपराध की आदत या बुरे चरित्र वाला मानने की प्रवृत्ति उनके विरुद्ध रूढ़िवादिता को सशक्त करती है तथा उन्हें सामाजिक जीवन में भागीदारी से वंचित करती है।
- जेल मैनुअल द्वारा विमुक्त जनजातियों के विरुद्ध भेदभाव की पुष्टि की गई।
- 'आदतन अपराधी' शब्द को राज्यों द्वारा अपनाए गए आदतन अपराधी विधियों के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। अधिकांश राज्यों ने 'आदतन अपराधी' को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है जिसे किसी एक या अधिक निर्दिष्ट अपराधों के लिये तीन मौकों पर कारावास की सजा सुनाई गई हो।
- हालाँकि, कुछ जेल मैनुअल में 'आदतन अपराधी' का अर्थ विमुक्त या घुमंतू जनजातियों के सदस्यों से लगाया गया है।
- उदाहरण के लिये, पश्चिम बंगाल मैनुअल के नियम 404 में प्रावधान है कि एक दोषी ओवरसियर को रात्रि प्रहरी के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, बशर्ते कि “वह किसी ऐसे वर्ग से संबंधित न हो, जिसमें भागने की प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति हो, जैसे कि घुमंतू जनजातियों के लोग”।
- इस प्रकार, न्यायालय ने संघ एवं राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वे निर्णय के अनुरूप जेल मैनुअल/नियमों में आवश्यक परिवर्तन करें।
जाति आधारित भेदभाव COI के अनुच्छेद 21 से कैसे संबद्ध है?
- COI के अनुच्छेद 21 में प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
- अनुच्छेद 21 में व्यक्तिगत व्यक्तित्व के विकास की परिकल्पना की गई है। जातिगत पूर्वाग्रह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा डालते हैं।
- जब जातिगत पूर्वाग्रह जेल जैसी संस्थागत व्यवस्थाओं में प्रकट होते हैं, तो वे व्यक्तिगत विकास एवं हाशिए पर पड़े समुदायों के सुधार पर और प्रतिबंध लगाते हैं।
- जब हाशिए पर पड़े समुदायों के कैदियों के साथ जाति के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है, तो उनकी अंतर्निहित गरिमा का उल्लंघन होता है।
इसलिये, न्यायालय ने माना कि जाति आधारित भेदभाव के प्रावधान COI के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करते हैं।