Drishti IAS द्वारा संचालित Drishti Judiciary में आपका स्वागत है










होम / करेंट अफेयर्स

सिविल कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25

    «    »
 26-Sep-2024

एस. विजिकुमारी बनाम मोवनेश्वराचारी सी.

“अधिनियम की धारा 25(2) के लागू होने के लिये, अधिनियम के तहत आदेश पारित होने के बाद परिस्थितियों में हुए परिवर्तन के आधार पर ही लागू किया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और एन. कोटिश्वर सिंह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एस. विजिकुमारी बनाम मोहनेश्वराचारी सी. के वाद में माना है कि संशोधन/परिवर्तन/या रद्द करने का आदेश केवल तभी पारित किया जा सकता है जब घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV) की धारा 12 के तहत पारित आदेश के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन हो, अन्यथा नहीं।

एस. विजयकुमारी बनाम मोहनेश्वराचारी सी वाद की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस वाद में अपीलकर्त्ता प्रत्यर्थी की पत्नी थी।
  • अपीलकर्त्ता ने कुटुंब न्यायालय में घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत याचिका दायर की।
  • इसे स्वीकार कर लिया गया और भरण-पोषण के लिये 12000/- रुपए तथा मुआवज़े के रूप में 1 लाख रुपए दिये गए।
  • प्रत्यर्थी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के तहत अपीलीय न्यायालय में निर्णय के विरुद्ध अपील की, जिसे अपील दायर करने में देरी के कारण खारिज कर दिया गया।
  • प्रत्यर्थी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 के तहत ट्रायल कोर्ट में आवेदन दायर किया, जिसे खारिज कर दिया गया।
  • निर्णय से व्यथित होकर प्रत्यर्थी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के तहत कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दायर की, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 के तहत आवेदन पर आगे विचारण हेतु इसे अधीनस्थ न्यायालय को पुनः प्रेषित कर दिया गया।
  • प्रत्यर्थी ने भरण-पोषण के संबंध में कुटुंब न्यायालय के आदेश को रद्द करने की मांग की और भुगतान की गई राशि की वापसी की भी मांग की।
  • प्रत्यर्थी ने तर्क दिया कि पत्नी (अपीलकर्त्ता) प्रत्यर्थी से अधिक आय अर्जित रही थी और इसलिये उसे भरण-पोषण राहत नहीं दी जानी चाहिये। आवेदन की स्वीकृति ने दोनों पक्षों को साक्ष्य प्रस्तुत करने और विधि के अनुसार आवेदन का निपटान करने का अवसर दिया। उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की जिसे खारिज कर दिया गया। इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
    • डी.वी. अधिनियम की धारा 25 (2) के अनुसार यदि परिस्थिति में कोई परिवर्तन होता है, तो वह ऐसे आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरसन की मांग करने का आधार हो सकता है।
    • डी.वी. अधिनियम की धारा 25 (2) का दायरा अधिनियम के तहत पारित सभी प्रकार के आदेशों से निपटने के लिये पर्याप्त व्यापक है, जिसमें भरण-पोषण, निवास, संरक्षण आदि के आदेश शामिल हो सकते हैं।
    • डी.वी. अधिनियम के तहत पारित आदेश तब तक लागू रहता है जब तक कि उस आदेश को डी.वी. अधिनियम की धारा 29 के तहत अपील में या मजिस्ट्रेट द्वारा डी.वी. अधिनियम की धारा 25 (2) के अनुसार परिवर्तित/संशोधित/निरस्त नहीं कर दिया जाता।
    • डी.वी. अधिनियम की धारा 25 के प्रावधानों के अनुसार प्रत्यर्थी द्वारा किये गए आवेदन से पूर्व पारित किये गए आदेश को निरस्त नहीं किया जा सकता।
    • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी के आवेदन को खारिज कर दिया और माना कि डी.वी. अधिनियम की धारा 25 के अनुसार आदेश को तभी निरस्त किया जा सकता है जब आदेश पारित होने के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन हो।

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 क्या है?

  • घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25: आदेशों की अवधि और उनमें परिवर्तन-
  • (1) धारा 18 के अधीन किया गया संरक्षण आदेश व्यथित व्यक्ति द्वारा निर्मोचन के लिये आवेदन किये जाने तक प्रवृत्त रहेगा।
  • (2) यदि मजिस्ट्रेट का, व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी से किसी आवेदन की प्राप्ति पर यह समाधान हो जाता है कि इस अधिनियम के अधीन किये गए किसी आदेश में परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण परिवर्तन, उपांतरण या प्रतिसंहरण अपेक्षित है तो वह लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से ऐसा आदेश, जो वह समुचित समझे, पारित कर सकेगा।

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • अलेक्जेंडर संबाथ अबनेर बनाम मिरॉन लेडे (2009):
    • इस मामले में यह माना गया कि परिवर्तन, संशोधन या निरसन का आदेश भविष्यलक्ष्यी होता है, न कि भूतलक्ष्यी।
  • कुनापारेड्डी उर्फ ​​नुकला शंका बालाजी बनाम कुनापारेड्डी स्वर्ण कुमारी और अन्य (2016)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने डी.वी. अधिनियम के तहत दायर आवेदनों में संशोधन की अनुमति देने की शक्ति को माना, बशर्ते कि दूसरे पक्ष को कोई पूर्वाग्रह न हो। यह माना गया कि संशोधन के लिये उन परिस्थितियों में अनुमति दी जा सकती है जहाँ बाद की मुकदमेबाज़ी की बहुलता से बचने के लिये ऐसा संशोधन आवश्यक हो।