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सांविधानिक विधि
उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 की वैधता
« »06-Nov-2024
अंजुम कादरी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य “यह अधिनियम राज्य के दायित्व के अनुरूप है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्र योग्यता का ऐसा स्तर प्राप्त करें, जिससे वे समाज में प्रभावी रूप से भाग ले सकें तथा जीविकोपार्जन अर्जित कर सकें” मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 की संवैधानिक वैधता को यथावत रखा।
उच्चतम न्यायालय ने अंजुम कादरी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया।
अंजुम कादरी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 (मदरसा अधिनियम) पारित किया गया तथा इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी गई।
- मदरसा अधिनियम ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड की स्थापना की, जिसका उद्देश्य अन्य तथ्यों के अतिरिक्त, उत्तर प्रदेश राज्य में मदरसों में शिक्षा के मानकों, शिक्षकों की योग्यता एवं परीक्षाओं के संचालन को विनियमित करना था।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को इस आधार पर असंवैधानिक माना कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत एवं भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 14 एवं 21A का उल्लंघन करता है।
- वर्तमान अपील उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में दायर की गई है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत:
- न्यायालय ने माना कि यद्यपि संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को शामिल किया गया है, लेकिन इस संशोधन ने केवल वही स्पष्ट किया है जो संविधान की प्रस्तावना के अनुसार पहले से ही निहित था।
- न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता समानता के अधिकार का एक उपबंध है।
- समता के उपबंध में यह प्रावधान है कि सभी व्यक्तियों को, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, समाज में भाग लेने के लिये समान अधिकार होने चाहिये तथा साथ ही राज्य को धर्म को किसी भी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि के साथ मिलाने से प्रतिबंधित किया गया है।
- साथ ही, समता का उपबंध राज्य पर सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करने का दायित्व अध्यारोपित करती है, चाहे उनका धर्म, आस्था या विश्वास कुछ भी हो।
- मूल ढाँचा का सिद्धांत एवं साधारण संविधि:
- न्यायालय ने माना कि दो आधार हैं जिनके आधार पर किसी संविधि को अधिकारातीत माना जा सकता है:
- यह विधानमंडल की विधायी क्षमता के दायरे से बाहर है।
- यह COI के भाग III या किसी अन्य उपबंध का उल्लंघन करता है।
- यह विधानमंडल की विधायी क्षमता के दायरे से बाहर है। यह COI के भाग III या किसी अन्य उपबंध का उल्लंघन करता है।
- लोकतंत्र, संघवाद एवं धर्मनिरपेक्षता जैसी अवधारणाएँ अपरिभाषित अवधारणाएँ हैं।
- ऐसी अवधारणाओं के उल्लंघन के लिये न्यायालयों को विधान को रद्द करने की अनुमति देने से हमारे संवैधानिक न्यायनिर्णयन में अनिश्चितता का तत्त्व उत्पन्न होगा।
- न्यायालय ने माना कि दो आधार हैं जिनके आधार पर किसी संविधि को अधिकारातीत माना जा सकता है:
- अल्पसंख्यक संस्थाओं का विनियमन
- न्यायालय ने माना कि मदरसा अधिनियम अल्पसंख्यक समुदाय के लिये मौलिक समानता को अग्रसर करता है।
- इसके अतिरिक्त यह भी माना गया कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा के मानक को बनाए रखना राज्य के हित में है।
- न्यायालय ने माना कि मदरसा अधिनियम उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय के हितों को सुरक्षित करता है क्योंकि:
- यह मान्यता प्राप्त मदरसों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा के मानक को नियंत्रित करता है।
- यह परीक्षा आयोजित करता है तथा छात्रों को प्रमाण पत्र प्रदान करता है, जिससे उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है।
- अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि मान्यता प्राप्त मदरसों में पढ़ने वाले छात्र न्यूनतम स्तर की योग्यता प्राप्त करें, जिससे वे समाज में प्रभावी रूप से भाग ले सकें तथा जीविकोपार्जन कर सकें।
- COI के अनुच्छेद 21A एवं अनुच्छेद 30 के बीच परस्पर संबंध
- अनुच्छेद 21A एवं शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के स्वेच्छा के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने तथा उनका प्रशासन करने के अधिकार के साथ सुसंगत रूप से निर्वचित किया जाना चाहिये।
- बोर्ड राज्य सरकार की स्वीकृति से ऐसे नियम बना सकता है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थान अपने अल्पसंख्यक चरित्र को नष्ट किये बिना अपेक्षित मानक की धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करें।
- यह माना गया कि हालाँकि अधिकांश प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध थे, लेकिन कुछ प्रावधान ऐसे हैं जो उच्च शिक्षा के विनियमन एवं डिग्री प्रदान करने से संबंधित हैं जिन्हें संवैधानिक नहीं माना जाना चाहिये क्योंकि राज्य विधानमंडल के पास इस संबंध में विधायी क्षमता का अभाव है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उपरोक्त प्रावधान जो राज्य विधानमंडल की क्षमता से परे हैं उन्हें अन्य उपबंधों से अलग किया जाना चाहिये तथा शेष विधान को संवैधानिक माना जाना चाहिये।
मदरसा अधिनियम क्या है?
अधिनियम का अवलोकन:
- इस अधिनियम का उद्देश्य उत्तर प्रदेश राज्य में मदरसों (इस्लामी शैक्षणिक संस्थानों) के कार्यप्रणाली को विनियमित एवं संचालित करना था।
- इसने उत्तर प्रदेश में मदरसों की स्थापना, मान्यता, पाठ्यक्रम एवं प्रशासन के लिये एक रूपरेखा प्रदान की।
- इस अधिनियम के अंतर्गत, राज्य में मदरसों की गतिविधियों की देखरेख एवं पर्यवेक्षण के लिये उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई थी।
अधिनियम के संबंध में चिंताएँ:
- संवैधानिक उल्लंघन:
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को असंवैधानिक माना है, क्योंकि यह धार्मिक आधार पर अलग-अलग शिक्षा को बढ़ावा देता है, जो भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत एवं प्रदत्त मौलिक अधिकारों का खंडन करता है।
- अधिनियम के उपबंधों की आलोचना इस तथ्य के लिये की गई कि वे संविधान के अनुच्छेद 21A के अनुसार 14 वर्ष की आयु तक गुणवत्तापूर्ण अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहे।
- शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 से मदरसों को बाहर रखने के संबंध में चिंता व्यक्त की गई, जिससे छात्रों को सार्वभौमिक एवं गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा से वंचित होना पड़ सकता है।
- सीमित पाठ्यक्रम:
- मदरसा पाठ्यक्रम की जाँच करने पर, न्यायालय ने पाया कि पाठ्यक्रम इस्लामी अध्ययन पर बहुत अधिक केंद्रित था, जबकि आधुनिक विषयों पर सीमित ध्यान दिया गया था।
- छात्रों को प्रगति करने के लिये इस्लाम एवं उसके सिद्धांतों का अध्ययन करना आवश्यक था, जिसमें आधुनिक विषयों को सामान्यतः वैकल्पिक रूप से शामिल किया जाता था या बहुत कम पढ़ाया जाता था।
- उच्च शिक्षा मानकों के साथ टकराव:
- इस अधिनियम को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) अधिनियम, 1956 की धारा 22 के प्रतिकूल माना गया, जिससे उच्च शिक्षा मानकों के साथ इसकी अनुकूलता पर प्रश्न उठ खड़े हुए।
वे कौन से आधार हैं जिनके आधार पर किसी विधान को रद्द किया जा सकता है?
- इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (1975)
- इस मामले में मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे ने कहा कि किसी संविधि की संवैधानिक वैधता पूरी तरह से विधायी शक्ति के अस्तित्व एवं अनुच्छेद 13 में उल्लिखित स्पष्ट उपबंध पर निर्भर करती है।
- चूंकि संविधि किसी अन्य संवैधानिक सीमा के अधीन नहीं है, इसलिये किसी संविधि की वैधता का परीक्षण करने के लिये मूल संरचना सिद्धांत को लागू करना "संविधान को फिर से लिखने" के तुल्य होगा।
- कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ (2006):
- इस मामले में संविधान पीठ ने कहा कि संविधि को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन करता है।
- संविधि को तभी चुनौती दी जा सकती है जब वे संविधान के उपबंधों का उल्लंघन करते हों।
- सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2016)
- इस मामले में न्यायालय संविधान (99वाँ संशोधन) अधिनियम, 2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 की संवैधानिकता पर विचार कर रहा था।
- इस मामले में न्यायमूर्ति जे.एस. केहर ने माना कि मूल ढाँचे के उल्लंघन के लिये सामान्य संविधि को चुनौती देना केवल एक तकनीकी चूक होगी।