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सांविधानिक विधि
सुकन्या शांता बनाम भारत संघ एवं अन्य (2024)
«03-Jan-2025
परिचय
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाने के लिये कई निर्देश दिये।
तथ्य
- द वायर की पत्रकार सुकन्या शांता ने "फ्रॉम सेग्रीगेशन टू लेबर, मनु कास्ट लॉ गवर्नेंस दी इंडियन प्रिजन सिस्टम" नामक शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें भारतीय जेलों में जाति-आधारित भेदभाव को प्रकटित किया गया।
- अपनी जाँच के बाद, उन्होंने जेलों में जाति-आधारित भेदभाव को चुनौती देने के लिये उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की।
- उनकी याचिका में विशेष रूप से राज्य जेल मैनुअल/नियमों में भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त करने के निर्देश देने का निवेदन किया गया था, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 17, 21 एवं 23 का उल्लंघन करते हैं।
- यह मामला मद्रास उच्च न्यायालय के 2014 के पूर्व निर्णय (सी. अरुल बनाम सरकार के सचिव) के प्रत्युत्तर में आया था, जिसमें पलायमकोट्टई जेल में जाति-आधारित भेदभाव की प्रथा को स्वीकार किया गया था।
- याचिका में जेलों में जातिगत भेदभाव के तीन मुख्य पहलुओं की पहचान की गई है:
- जाति के आधार पर शारीरिक श्रम का विभाजन।
- जाति के आधार पर जेल बैरकों का पृथक्करण।
- अधिसूचित जनजातियों के कैदियों एवं "आदतन अपराधी" के रूप में चिह्नित लोगों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण प्रावधान।
- राज्य सरकार ने पहले भी सामुदायिक झड़पों को रोकने के उपाय के रूप में इस तरह के भेभाव को उचित माना था, विशेष रूप से तिरुनेलवेली एवं तूतीकोरिन जिलों में।
शामिल मुद्दे
- क्या जातिगत पहचान के आधार पर कैदियों को अलग अलग करने की जेल अधिकारियों का निर्णय, जिसे संघर्षों को रोकने एवं अनुशासन बनाए रखने के उपाय के रूप में उचित माना जाता है, संवैधानिक है तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 17, 21 एवं 23 के अंतर्गत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के साथ संगत है।
- क्या कैदियों को अलग अलग करने के तर्क के रूप में "आदत", "रिवाज", "जीवन जीने का बेहतर तरीका" और "भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति" जैसे अस्पष्ट एवं अनिश्चित मानदंडों का उपयोग करना एक वैध अंतर के रूप में कार्य करता है या केवल हाशिए के समुदायों के विरुद्ध जाति-आधारित भेदभाव के लिये एक प्रॉक्सी के रूप में कार्य करता है।
टिप्पणी
- न्यायालय ने माना कि जेलों में जाति-आधारित भेदभाव, भले ही अनुशासन बनाए रखने के तर्क को उचित ठहराया गया हो, मौलिक संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन करता है तथा हाशिए पर पड़े समुदायों के विरुद्ध भेदभाव को बढ़ावा देता है।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से "अलग लेकिन समान" सिद्धांत को खारिज कर दिया तथा कहा कि इस तरह के दर्शन का भारतीय संविधान के अंतर्गत कोई स्थान नहीं है और इसका प्रयोग जेलों में जाति-आधारित विभाजन को उचित सिद्ध करने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- न्यायालय ने कहा कि जेल अधिकारियों का अनुशासन बनाए रखने का कर्त्तव्य कैदियों के मौलिक अधिकारों औरएवं सुधारात्मक आवश्यकताओं का उल्लंघन करके पूरा नहीं किया जा सकता है, न्यायालय ने कहा कि वैकल्पिक गैर-भेदभावपूर्ण उपायों को अपनाया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने पाया कि कैदियों के अलग अलग रखने हेतु प्रयोग किये जाने वाले "आदत", "रिवाज", "जीवन जीने का बेहतर तरीका" और "भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति" जैसे मानदंड असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट एवं अनिश्चित थे, जो जाति-आधारित भेदभाव के लिये केवल प्रॉक्सी के रूप में कार्य करते थे।
- न्यायालय ने माना कि जातिगत पहचान के आधार पर वर्गीकरण, चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, समानता एवं सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के सीमित उद्देश्यों को छोड़कर संविधान के अंतर्गत निषिद्ध है।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि कैदियों के जाति-आधारित विभाजन एवं सुरक्षा, सुधार या पुनर्वास के वैध उद्देश्यों के बीच कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है, जिससे ऐसा विभाजन मनमाना एवं असंवैधानिक हो जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि जाति के आधार पर भेदभाव जातिगत मतभेदों एवं दुश्मनी को दूर करने के बजाय उसे और सशक्त करेगा, जिससे जेल प्रणाली के पुनर्वास उद्देश्यों को हानि पहुँचेगी।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय ने जेलों में जाति-आधारित भेदभाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया तथा सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में व्यापक सुधारों का आदेश दिया, तथा जेल प्रणाली के अंदर अनुपालन सुनिश्चित करने एवं भेदभाव को रोकने के लिये एक निगरानी तंत्र की स्थापना की।