भारतीय न्यायपालिका: इतिहास और वर्तमान
« »01-Jul-2024 | चार्वी दवे
भारत अपनी न्याय प्रक्रिया व न्यायपालिका में अगाध विश्वास रखने वाला देश है। यह बात यहाँ आम बोलचाल से लेकर सिनेमा के संवादों तक में परिलक्षित होती है। 2017 में आई एक प्रसिद्ध हिंदी फिल्म 'जॉली एलएलबी 2' के अंतिम दृश्यों में जज सुंदरलाल त्रिपाठी की भूमिका निभा रहे सौरभ शुक्ला कहते हैं कि देश की न्यायपालिका में लंबित पड़े मामलों की भरमार है और न्याय प्रक्रिया की गति मंद है तब भी जब दो लोगों के बीच में झगड़ा होता है तो वे एक दूसरे को कहते हैं, "मैं तुम्हें अदालत में देख लूँगा (I will see you in the court)"। यह वाक्य न्यायपालिका की तमाम प्रकार्यात्मक शिथिलताओं के बावजूद लोकतंत्र के एक स्तंभ के रूप में इसकी महत्ता का परिचायक है। ऐसे में यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय न्याय व्यवस्था की संरचना क्या है, इसका इतिहास क्या रहा है, यह कैसे कार्य करती है व इसकी प्रकार्यात्मक शिथिलताओं में से सबसे बड़ी समस्या (लंबित मामलों की भारी संख्या) कैसे इसके संचालन को प्रभावित करती है?
भारत में न्याय व्यवस्था के ऐतिहासिक साक्ष्यों की बात की जाए तो वे कौटिल्य के समय, अर्थात् मौर्य काल से ही मिलते रहते हैं। हालाँकि यह अनेक वंशों, शासकों व धार्मिक परंपराओं से होकर गुज़री व सभी के अनुरूप इसमें बदलाव भी देखे गए। वर्तमान स्वरूप में भारतीय न्याय व्यवस्था की आधारशिला ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने रखी थी। 1773 में रेग्युलेटिंग एक्ट लागू होने के बाद मार्च 1774 में कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के साथ भारतीय न्यायपालिका के वर्तमान स्वरूप की विकासयात्रा शुरू होती है। उस वक्त बंगाल का गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स था। इसके बाद क्रमशः 1800 व 1823 में बॉम्बे और मद्रास में भी सर्वोच्च न्यायालयों की स्थापना हुई और अंग्रेज़ी स्वरूप में भारतीय न्याय व्यवस्था ने पैर जमाने शुरू किये। इन दोनों न्यायालयों की स्थापना के दौरान बंगाल के गवर्नर जनरल क्रमशः लॉर्ड वेलेज़ली और लॉर्ड हेस्टिंग्स थे।
भारत के न्यायिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण चरण 1861 में हाई कोर्ट्स एक्ट पारित होने के बाद आया। इस समय भारत का वायसराय लॉर्ड केनिंग था। इस अधिनियम के आधार पर 1862 में कलकत्ता, बॉम्बे व मद्रास उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई। इस प्रकार भारतीय न्याय प्रणाली की महागाथा के एक महत्त्वपूर्ण अध्याय के रूप में उच्च न्यायालय भी जुड़ गए। इसके साथ ही कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में सर्वोच्च न्यायालयों और प्रेसीडेंसी शहरों में सदर अदालतों को समाप्त कर दिया गया था। इन उच्च न्यायालयों को भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत भारत के संघीय न्यायालय के निर्माण तक सभी मामलों के लिए सर्वोच्च न्यायालय होने का गौरव प्राप्त था। इसी क्रम में 1884 में कर्नाटक, 1916 में पटना, 1928 में जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई। इसके बाद 1936 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय व 1947 में पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय की स्थापना हुई।
वर्तमान में राज्यों तथा संघ राज्यक्षेत्रों के लिये कुल 25 उच्च न्यायालय हैं। उल्लेखनीय है कि 2014 में आंध्र प्रदेश के विभाजन के पश्चात हैदराबाद स्थित न्यायालय से ही आंध्र प्रदेश व तेलंगाना का उच्च न्यायालय संचालित हो रहा था। परंतु 1 जनवरी, 2019 से दोनों राज्यों के उच्च न्यायालय अलग करते हुए अमरावती में 25वें उच्च न्यायालय के रूप में ‘आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय’ स्थापित किया गया। इनमें से 7 ऐसे उच्च न्यायालय हैं, जो दो या दो से अधिक राज्यों एवं संघ राज्यक्षेत्रों की अधिकारिता का निर्वाह करते हैं।
जहाँ तक सर्वोच्च न्यायालय की बात है तो भारत शासन अधिनियम, 1935 के अंतर्गत 1937 में लॉर्ड लिनलिथगो के कार्यकाल में स्थापित संघीय न्यायालय वर्तमान सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ववर्ती संस्था बना। संघीय न्यायालय के पास प्रांतों और संघीय राज्यों के बीच विवादों को सुलझाने और उच्च न्यायालयों के निर्णयों के खिलाफ अपील सुनने का अधिकार था। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, 26 जनवरी को भारत का संविधान अस्तित्व में आया। साथ ही, भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी अस्तित्व में आया और इसकी पहली बैठक 28 जनवरी, 1950 को हुई।
संविधान लागू होने के साथ ही अब तक एक प्रकार से पृथक-पृथक चली आ रही भारतीय न्यायिक व्यवस्था का एकाकार कर दिया गया और देश में एकीकृत न्यायपालिका की स्थापना की गई। भारत में न्यायपालिका के 3 स्तर बनाए गये हैं, जिनमें शीर्ष पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को सम्मिलित रूप में ‘उच्चतर न्यायपालिका’ (Higher Judiciary) कहते हैं, तो वहीं उच्च न्यायालयों के नीचे के सभी न्यायालयों मिलकर Lower Judiciary या ‘अधीनस्थ न्यायपालिका’ का निर्माण करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित प्रावधान संविधान के भाग-5 के अध्याय-4 के अनुच्छेद 124 से 147 तक वर्णित हैं। इन अनुच्छेदों में सर्वोच्च न्यायालय के गठन, स्वतंत्रता, न्याय क्षेत्र, शक्तियाँ, प्रक्रिया आदि का उल्लेख किया गया है। भारत का सुप्रीम कोर्ट देश की न्यायिक प्रणाली की रीढ़ है और इसकी भूमिका भारतीय लोकतंत्र में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह न केवल कानून की व्याख्या करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि सरकार के तीनों अंग संविधान के अनुसार कार्य करें। वहीं उच्च न्यायालयों से संबंधित प्रावधान संविधान के भाग-6 में अनुच्छेद-214 से 231 के मध्य वर्णित हैं। संविधान के भाग-6 में ही अनुच्छेद 233-237 के मध्य अधीनस्थ न्यायपालिका से संबंधित प्रावधान हैं।
भारतीय न्यायपालिका के इतिहास, संरचना व कार्यप्रणाली को विस्तार से जान लेने के पश्चात इसकी राह में सबसे बड़ी बाधा, न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या का विवरण जानना भी आवश्यक है। गौरतलब है कि वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष 84,185 मामले लंबित हैं। इनमें से 50,000 से अधिक मामले एक वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं, 66,000 से अधिक मामले आपराधिक हैं जबकि शेष दीवानी मामले हैं। उच्च न्यायालयों में स्थिति कहीं अधिक विकट है। देश के सभी उच्च न्यायलयों के समक्ष 61 लाख से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से तीन-चौथाई से अधिक मामले एक वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं तथा 75,000 से अधिक मामले तो 30 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं ( सभी आँकड़े ‘राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड’ पर 28 जून, 2024 तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार हैं)। हालाँकि देश में 17 लाख से अधिक पंजीकृत अधिवक्ता मौजूद हैं परंतु अधिवक्ताओं की इतनी बड़ी संख्या भी न्यायाधीशों की कम संख्या व औसत न्यायालयीन अवसंरचना के आगे लाचार हो जाती है और लोग वर्षों तक न्याय के लिये तरसते रहते हैं।
लेटिन भाषा का एक प्रसिद्ध वाक्य है- "Fiat justitia ruat caelum", इसका अर्थ है- " चाहे आसमान ही क्यों न टूट पड़े, न्याय करने की प्रक्रिया अनवरत जारी रहनी चाहिये।" भारत में लंबित मामलों की संख्या देखते हुए यह उक्ति और चरितार्थ हो उठती है। देश के संविधान निर्माताओं द्वारा सौंपी गई न्यायिक व्यवस्था का उपयोग जब तक लोगों को त्वरित व संतोषजनक न्याय दिलाने में नहीं किया जाएगा तब तक ऐसी व्यवस्था का बहुत अर्थ नहीं है। आवश्यकता है कि न्यायपालिका को अपना समय और ऊर्जा तेज़ी से दीर्घकाल से लंबित मामलों के निबटान में लगाया जाए अन्यथा देरी से मिला न्याय, न्याय न मिलने के समान हो जाएगा।
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