बीते दशक के 10 ऐतिहासिक फ़ैसले
« »07-Sep-2024 | वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा
"कानून से जुड़ी सबसे बड़ी और अच्छी बात यह है कि यह स्थिर और अचल नहीं बल्कि बहुत ऊर्जाशील और समय के चलने वाला होता है" -एस रत्नावल पांडियन, अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय
क़ानून की इसी गतिशीलता की रोशनी में बीते दस सालों के दस ऐसे बड़े और ज़रूरी फ़ैसले जिन्होंने आम नागरिक की ज़िन्दगी बदलने में बड़ी भूमिका अदा की। इन फ़ैसलों से उसकी ज़िन्दगी को गरिमा मिली। व्यक्ति, समाज और देश पर गहरा प्रभाव पड़ा। दरअसल ये कुछ ऐसे 'लैंडमार्क जजमेंट्स' रहे जिन्होंने कभी तो सरकारों को सोचने पर मजबूर किया और कभी उसकी सोच को और पुख़्ता ज़मीन दी। भारत का सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ देश का शीर्ष न्यायालय है। इसके द्वारा दिए गए फ़ैसले अंतिम होते हैं और इन निर्णयों के विरुद्ध किसी और अन्य न्यायालयों में अपील नहीं की जा सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यही वह मज़बूत खंबा है जो सरकार को ज़िम्मेदार और जनहित के सरोकार वाली बना सकता है। बेहतर न्याय व्यवस्था हमेशा ताक़तवर लोगों को जवाबदेह ठहराने की दिशा में सतत काम करती है। भारत के अनुच्छेद 129 से 147 तक का संबंध सर्वोच्च न्यायालय से है। आर्टिकल 124 (1)न्यायालय के गठन की व्यवस्था से जुड़े हैं। निजता का अधिकार मौलिक अधिकार, तीन तलाक़, सबरीमाला, धारा 377 और 370 का निरस्त्रीकरण, गर्भपात का अधिकार, से जुड़े कई महत्वपूर्ण फैसले हुए जो देश के नागरिक को सशक्त बनाने के साथ दुनिया के साथ भी कदमताल मिलाते हुए दिख रहे हैं। यही शायद जुडिशल एक्टिविज्म भी है जो आम नागरिकों के हित को सर्वोपरि रखते हुए कई बार अपनी ही सीमाओं की फिर से समीक्षा भी करता है तभी तो धारा 497 को निरस्त करते हुए न्यायाधीश ने अपने ही पिता के फ़ैसले को बदल दिया। इस ब्लॉग में हम बीते 10 सालों के ऐसे 10 ज़रूरी फ़ैसलों पर बात करेंगे, जिन्होंने कहीं न कहीं संपूर्ण देश का न सिर्फ ध्यान खींचा बल्कि कहीं न कहीं उन्हें प्रभावित किया।
1- निजता का अधिकार, 2017
निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है इस फैसले में नौ जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला दिया। अदालत ने माना कि निजता जीवन और स्वतंत्रता के तहत आती है। साल 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। पीठ में मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर, जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस एस.ए. बोबडे, जस्टिस आर.के. अग्रवाल, जस्टिस आर.एफ़. नरीमन, जस्टिस ए.एम. सप्रे, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर शामिल थे।संविधान पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के उन दो पुराने फ़ैसलों को ख़ारिज कर दिया जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था। 1954 में एमपी शर्मा मामले में छह जजों की पीठ ने और 1962 में खड़ग सिंह केस में आठ जजों की पीठ ने फ़ैसला सुनाया था। इससे पहले साल 1948 में भी किसी व्यक्ति की निजता को राज्य के अनुचित हस्तक्षेप से बचाने का पहला प्रयास संविधान सभा में किया गया था, जब काजी सैयद करीमुद्दीन ने अमेरिकी और आयरिश संविधान की तर्ज पर व्यक्तियों को अनुचित तलाशी और जब्ती से बचाने के लिए एक संशोधन पेश किया था। तब हालांकि डॉ. बीआर अंबेडकर ने बताया कि यह खंड, दंड प्रक्रिया संहिता में मौजूद है, लेकिन उन्होंने संशोधन को स्वीकार कर लिया और इसे एक 'उपयोगी प्रस्ताव' कहा, जिसे 'विधायिका की पहुंच से परे' होना चाहिए। हालांकि, निजता के अधिकार को संविधान में कोई निश्चित और स्पष्ट जगह नहीं मिली। निजता के अधिकार को लेकर बहस तब तेज़ हुई जब सरकार ने आधार कार्ड को ज़्यादातर सुविधाओं के लिए ज़रूरी बनाना शुरू कर दिया। अगस्त 2017 को आया यह फ़ैसला सरकार के लिए झटका था। सरकार की दलील थी कि संविधान व्यक्तिगत निजता को एक अविभाज्य मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी नहीं देता है। सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश उन याचिकाओं पर आधारित था जिनमें आधार कार्ड के अनिवार्य उपयोग को चुनौती दी गई थी, जो प्रत्येक नागरिक को 12 अंकों की एक विशिष्ट पहचान प्रदान करता है। आधार डेटाबेस एक अरब से अधिक लोगों के आईरिस स्कैन और फिंगरप्रिंट को जोड़ता है। यह सच है कि आधार नागरिक की बेहद निजी जानकारी स्कैन करता है और इसे साझा न करना नागरिक का अपना अधिकार है लेकिन अधिकांश गैर सरकारी और सरकारी उपक्रम आधार नंबर लेकर ही केवायसी की प्रक्रिया पूरी करते हैं। आलोचकों का कहना था कि आधार पहचान पत्र में पर्याप्त डेटा लिंक किया गया है, जिससे प्रोफाइलिंग संभव हो जाती है, क्योंकि यह व्यक्ति के खर्च करने की आदतों, उसके मित्रों और परिचितों, उसकी संपत्ति तथा अन्य सूचनाओं का व्यापक विवरण तैयार करता है। बहरहाल यहां यह भी उल्लेखनीय है कि निजता को मौलिक अधिकार घोषित करने वाले अपने ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने पिता के फ़ैसले को ही पलट दिया था। उन्होंने प्रसिद्ध एडीएम जबलपुर मामले में 1976 के फैसले को "गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण" बताया था, जिसमें उनके पिता पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के बहुमत वाले फैसले का हिस्सा थे।
2- सबरीमाला केस, 2018
इस केस का निर्णय अक्टूबर, 2018 में आया था। केरल स्थित विश्व के बड़े तीर्थस्थल सबरीमाला अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी। वहां दस से पचास वर्ष की महिला का भीतर जाना वर्जित था। तर्क था कि ये अवतार ब्रह्मचर्य का है और मासिक धर्म एक अपवित्र प्रक्रिया है। रसोई में भी उन दिनों स्त्री का जाना वर्जित होता है। उनका तीसरा तर्क था कि महिलाओं का इतनी लंबी और जंगल से होने वाली परिक्रमा करना ठीक नहीं है। वे मन ही मन ईश्वर का ध्यान कर सकती हैं। केरल के सबरीमाला में हर साल छह करोड़ यात्री दर्शन के लिए आते हैं और यह नाम उस आदिवासी शबरी के नाम पर है जिनके झूठे बेर राम ने खाए थे। माता शबरी जो स्वयं एक स्त्री थीं,उनके ही नाम बने इस मंदिर में महिलाओं को जाने की इजाज़त नहीं थी। मंदिर में स्त्री के प्रवेश को निषेध मानने वालों को सही मानभी लिया जाए तो क्या ये भी मान लिया जाए कि पूजा स्थल भी स्त्री को देह रूप में ही देखते हैं। देह भी वह जो दस से पचास के बीच होती है। पवित्र स्थल के संचालकों को इनसे डर लग सकता है लेकिन भगवान अयप्पा को भी आपने उसी श्रेणी में रख दिया? जब अक्टूबर, 2018 में फैसला आया तब फैसले के लिए गठित पांच सुप्रीम कोर्ट जजों में से चार ने महिलाओं के हक़ में फैसला दिया था जबकि जस्टिस इंदु मल्होत्रा का कहना था कि धार्मिक मामलों को तय करना कोर्ट का काम नहीं है जब तक कि यह सति प्रथा जैसी कोई सामाजिक बुराई न हो। उनका मानना था कि सबरीमाला मंदिर को अपनी व्यवस्था कायम रखने अधिकार भारत का संविधान (आर्टिकल 25) देता है और इसे आर्टिकल 14 की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। उनका यह भी मानना था कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। मामला दस साल बाद निर्णय पर पहुंचा और आधी आबादी को उसका हक़ हासिल हुआ।
3- धारा 377 का हटना, 2018
नवंबर का वह ऐतिहासिक दिन था जब सुप्रीम कोर्ट ने एलजीबीटीक्यूआईए (LGBTQ+) से जुड़ी धारा 377 को ग़ैरक़ानूनी करार दे दिया था। इस धारा में हर वह व्यक्ति जो प्रकृति से अलग महिला पुरुष या जानवरों से अप्राकृतिक संबंध रखता है उसे अपराधी मानते हुए दस साल की कैद और जुर्माना भरना होता था। एलजीबीटीक्यूआईए के मायने लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्यू यानी क्वीर का ताल्लुक अजीब, अनूठे, विचित्र रिश्तों से हैं, आई से इंटरसेक्स और ए से एसेक्सुअल। उस फ़ैसले के दौरान जस्टिस इंदू मल्होत्रा की एक बार फिर संजीदा टिप्पणी आई थी। उन्होंने कहा था -"इतिहास को इनसे और इनके परिवारों से माफ़ी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों से भोगा, है उसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती है। "दरअसल धारा 377 की विदाई ने इंसान के बुनियादी हक़ को तो बहाल किया ही, उसकी आज़ादी और बराबरी भी सुनिश्चित की है। सर्वोच्च न्यायलय ने प्रेम और निजता को सर्वोच्च माना। मनुष्य को यह बुनियादी हक़ हासिल हो सका कि उसके निजी पल उसके अपने है और वहां वह कैसे ज़ाहिर होता है, उसमें किसी का कोई दखल नहीं होना चाहिए। कोई क़ानून महज़ इसके लिए उसे सलाखों के पीछे नहीं डाल सकता था लेकिन बरसों-बरस तक यही होता रहा। ऐसे रुझान वाले अपमान, अत्याचार और अवसाद की पीड़ा से जूझते रहे। कई बार जेलो में भर दिए गए। ऐसा केवल इसलिए क्योंकि वे समाज के निर्धारित किये गए मानकों से अलग रुझान रखते थे। बात हमारी सभ्यता और संस्कृति की करें तो उसने कभी भी यौन रुझानों के कारण किसी को दंड का भागीदार नहीं माना था। दरअसल हम खुद अपनी असलियत से परे इस विक्टोरियन कानून को 128 साल तक लादेभी रहे थे। जानकर हैरानी हो सकती है कि उस दौर में ख़ुद अंग्रेज़ हुकूमत को अपने देश के कानून की तुलना में भारत में इसे थोड़ा उदार बनाना पड़ा था। हमारे यहां सरकारें कोई भी रही हों, वे दुविधा में ही रहीं। उनके कई बयान हैं जो धारा 377 का समर्थन करते रहे थे लेकिन फिर इस सुप्रीम फैसले के बाद हुए उन्हें यह कहना पड़ा कि जो सुप्रीम कोर्ट कहेगा, हमें मान्य होगा। बेशक यह लैंडमार्क जजमेंट्स' रहा जिसने सरकार को भी सोचने पर मजबूर किया
4- जेंडर जस्टिस धारा 497 निरस्त, 2019
धारा 497 को निरस्त कर दिया गया। इस धारा के तहत, अगर कोई शादीशुदा पुरुष किसी शादीशुदा महिला के साथ रज़ामंदी से शारीरिक संबंध बनाता था, तो उस महिला का पति व्यभिचार के नाम पर इस पुरुष के ख़िलाफ़ केस दर्ज करा सकता था। इस मामले में पुरुष को पांच साल तक की जेल हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को निरस्त करते हुए कहा था कि यह व्यभिचार या अपराध नहीं है। यह कानून महिलाओं के व्यक्तित्व को नुकसान पहुंचाता है। यह कानून महिलाओं के साथ समान व्यवहार और समान अवसर के अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह कानून पुरुषों को मनमानी का अधिकार देता है। यह कानून 150 साल पहले प्रचलित पुरुषों के सामाजिक प्रभुत्व का प्रतिबिंब है। भारत के तत्कालिन न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यों की पीठ ने एकमत से कहा कि व्यभिचार कोई अपराध नहीं है। इसके अलावा, इस बात के समर्थन में कोई डेटा नहीं है कि व्यभिचार को अपराध के रूप में समाप्त करने से "यौन नैतिकता में अराजकता" या तलाक में वृद्धि होगी। मुख्य न्यायाधीश ने लिखा कि विवाहित जोड़े व्यभिचार से कैसे निपटते हैं, यह “निजता का सर्वोच्च मामला है”। यह केस 2017 में न्यायालय के सामने आया जब केरल एनआरआई जोसेफ शाइन ने धारा 497 को असंवैधानिक बताते हुए चुनौती दी कि यह स्त्री और पुरुष में भेद करती है। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि यह धारा पत्नी को पति की संपत्ति मानती है। तब जस्टिस चंद्रचूड़ भी इस पीठ के सदस्य थे और उनकी राय जैसे न्यायिक दस्तावेज बन गई जो धारा 497 को रद्द करने से आगे बढ़कर पितृसत्ता के खिलाफ महिलाओं के सदियों पुराने संघर्ष का हवाला दे रही थी। उन्होंने लिखा -हालांकि व्यभिचार को विवाह से संबंधित अपराध माना जाता है, लेकिन व्यभिचारी की पत्नी के पास अपनी आवाज़ उठाने का कोई अधिकार नहीं है, शिकायत करने का कोई जरिया नहीं है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि अगर विवाहेतर संबंध में शामिल महिला अविवाहित है और उसका कोई पति नहीं है, जिसके साथ अन्याय हुआ है, तो कानून इस स्थिति को पूरी तरह से अनदेखा कर देता है। जैसा की इस लेख के प्रारंभ में ही एक कोट है कि कानून स्थिर और अचल नहीं न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने पिता द्वारा व्यभिचार कानून की वैधता को बरकरार रखने के 33 साल बाद इसे पलट दिया, अपने फैसले में उन्होंने कहा कि पहले के विचार को संवैधानिक स्थिति की “सही व्याख्या” नहीं माना जा सकता।
5- तीन तलाक, फैसला 2019
पहले यह मुद्दा और फिर फैसला दोनों ही बेहद चर्चित रहे। मुस्लिम समुदाय की आधी आबादी के लिए आया यह निर्णय देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण फैसला कहा जा सकता है। “शायरा बानो बनाम भारत सरकार” मामले में निर्णय इस बात का होना था कि यह प्रथा इस्लाम सम्मत है या नहीं और दूसरे क्या तलाक़ ए बिद्दत किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है। शायरा बानो बनाम भारत संघ मामला, तीन तलाक की प्रथा को संविधान के ख़िलाफ़ ठहराने वाला एक ऐतिहासिक मामला था। ट्रिपल तलाक के मसले पर सुप्रीम कोर्ट में चली हर सुनवाई को मीडिया में रिपोर्ट किया जाता था। लगातार दस दिन तक हुई सुनवाई में पहले तीन दिन चुनौती देने वालों को मौका मिला फिर तीन दिन डिफेंस वालों को। कहा गया कि चुनौती देने वालों को बताना पड़ेगा कि धर्म के तहत तीन तलाक नहीं आता। वहीं डिफेंड करने वालों को यह बताना पड़ेगा कि यह धर्म का हिस्सा है। यह बेहद विचारोत्तेजक बहस रही। जब वकील सलमान खुर्शीद इस्लाम में निकाह, मेहर और तलाक को लेकर अपनी दलील दे रहे थे तब जस्टिस रोहिंगटन नरीमन ने उनसे पूछा कि इस्लाम में निकाह और तलाक़ को लेकर मौजूद व्यवस्था में थ्योरी और व्यावहारिकता में जो अंतर है, क्या आप ये बताना चाहेंगे ? क्या आप चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उस व्यवस्था को लागू करे जो इस्लाम में है? इस पर सलमान खुर्शीद ने कहा था कि हां लेकिन कोर्ट को इस मामले में कोई कानून नहीं बनाना चाहिए बल्कि इस्लाम में जो बेहतर तरीका बताया गया है, उसे बताना चाहिए। जब तीसरी बार तलाक बोला जाता है तो वह वापस नहीं हो सकता, लेकिन इसके लिए तीन महीने का वक्त होता है। फिर सलमान खुर्शीद ने कहा कि मेरी निजी राय में ट्रिपल तलाक पाप है, घिनौना है लेकिन तब भी वैध है। जस्टिस कूरियन जोसेफ ने तब पूछा था क्या जो धर्म के मुताबिक ही घिनौना है वह कानून के तहत वैध ठहराया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि जो पाप है क्या उसे शरियत में लिया जा सकता है? इस पर वकील ने कहा कि नहीं ठहराया जा सकता चाहे वो संवैधानिक तौर पर वैध हो तब भी। लोग ये कहकर कि इस पाप को ईश्वर से लिया है, कानून बना सकते हैं ? फिर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि अगर भारत में ट्रिपल तलाक विशिष्ट है तो दूसरे देशों ने कानून बनाकर ट्रिपल तलाक को खत्म क्यों किया? खुर्शीद ने कहा कि इसी तरह की दिक्कतें आईं होगी तो उन देशों को लगा होगा कि इसे खत्म कर देना चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त, 2017 को 3:2 के बहुमत से फ़ैसला सुनाया था। इस फ़ैसले के बाद, 30 जुलाई, 2019 को भारत की संसद ने मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 पारित किया। इस अधिनियम के तहत, तीन तलाक को अपराध घोषित किया गया। एक अगस्त, 2019 से तीन तलाक करना दंडनीय अपराध बन गया।
इसके आलावा तलाक़ पर ही एक और महत्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने अप्रैल 2023 में फैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा कि अगर पति-पत्नी के रिश्ते टूट चुके हों और सुलह की गुंजाइश ही न बची हो, तो वह भारत के संविधान के आर्टिकल 142 के तहत बिना फैमिली कोर्ट भेजे तलाक को मंजूरी दे सकता है। इसके लिए 6 महीने का इंतजार अनिवार्य नहीं होगा। कोर्ट ने कहा कि उसने वे कारक भी तय किए हैं जिनके आधार पर शादी को सुलह की संभावना से परे माना जा सकेगा। इसके साथ ही कोर्ट यह भी सुनिश्चित करेगा कि पति-पत्नी के बीच बराबरी कैसे रहेगी। इसमें मेंटेनेंस, एलिमनी और बच्चों की कस्टडी शामिल है। फैसला जस्टिस एसके कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस एएस ओका और जस्टिस जेके माहेश्वरी की संविधान पीठ ने सुनाया था।
6- गर्भपात का अधिकार, 2022
यह निर्णय उस दुनियावी परिदृश्य में आया जब ईरान में महिलाएं को हिजाब से मुक्ति पाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ रही थी और अमेरिका महिलाओं को गर्भपात का अधिकार देने में पीछे हट गया था तब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के फैसले पर स्त्री को हक देकर उसके सशक्तिकरण की दिशा में सहज ही बड़ा कदम बढ़ा दिया था। यह और बात है कि कुछ लोगों ने जो ना स्त्री के शरीर से वाकिफ हैं और ना उसकी भावनाओं से, न्यायालय की व्याख्या को मनमौजी व्याख्या कह डाला था। यह समझना ज़रूरी है कि भारतीय संविधान मानव अधिकारों को सर्वोपरि मानता है, बिना किसी लिंगभेद के और यह उस संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है जहां संतान की पहचान उसकी जन्मदात्री से होती है। कौशल्या पुत्र, देवकीनंदन, कुंती पुत्र या कॉन्तेय की परंपरा के देश में स्त्री की देह पर स्त्री के अधिकार को रेखांकित करनेवाला महत्वपूर्ण फैसला था। इसके तहत हर स्त्री को यह अधिकार है कि वह अपनी मर्जी से 24 हफ्ते के गर्भ पर फैसला ले सकती है फिर चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित। जिस मामले में यह सुनवाई हुई वह एक 25 वर्षीय अविवाहित युवती की याचिका से जुड़ा था। युवती सहमती से एक रिश्ते में थी और उसे पांच महीने का गर्भ था। उसके साथी ने शादी से इंकार कर दिया इसलिए वह बच्चे को पैदा करने और उसकी ज़िम्मेदारी उठाने में असमर्थ थी। दिल्ली उच्च न्यायलय ने उसे गर्भपात की इजाज़त देने से इंकार कर दिया था क्योंकि वह सहमति से बनाए संबंध की देन था लेकिन सर्वोच्च अदालत ने न केवल युवती के हक़ में फैसला दिया बल्कि यह भी नोट किया कि 2021 में एमटीपी (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी) एक्ट यानी सुरक्षित गर्भपात अधिनियम में किये गए संशोधन में अविवाहित महिला को भी शामिल करते हुए पति की बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया था। यह बेहतर था क्योंकि इससे विधवा और तलाकशुदा महिलाओं के लिए भी निर्णय लेना आसान हो गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसके आगे भी देखा है। जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने कहा था कि इस कानून में वैवाहिक दुष्कर्म यानी मैरिटल रेप को भी शामिल माना जाना चाहिए। पीठ का यह भी कहना था कि कानून के उद्देश्य को देखते हुए विवाहित और अविवाहित का यह फर्क बहुत ही कृत्रिम हो जाता है और इसे संवैधानिक रूप से कायम नहीं रखा जा सकता। यह उस रूढ़िवादिता को भी कायम रखना होगा कि केवल विवाहित महिलाएं ही यौन संबंधों में होती हैं।
7- धारा 370 का ख़ात्मा, 2023
6 अगस्त, 2019 को धारा 370 और 35ए को भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर से हटा लिया था। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राज्यसभा की सिफ़ारिश को लागू करते हुए एक घोषणा पत्र, CO 273 जारी किया जिसके बाद अनुच्छेद 370 के सभी खंड समाप्त हो गए, सिवाय खंड 1 के, जिसे संशोधित करके कहा गया कि भारत का संविधान जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू होता है। इसी के साथ क्षेत्र से राज्य का दर्जा भी छिन गया और इंटरनेट सुविधा बंद कर दी गई। हज़ारों लोग गिरफ़्तार हुए जिनमें पत्रकार भी शामिल थे। दिसंबर 2023 अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जम्मू-कश्मीर का किसी भी अन्य भारतीय राज्य के समान राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए। ऐसा बिना किसी अलग स्वायत्तता के अधिकार के“जितनी जल्दी हो सके” उतनी जल्दी होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुनाया कि क्षेत्र का विशेष दर्जा एक "अस्थायी प्रावधान" था और 2019 में इसे हटाना संवैधानिक रूप से वैध था। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा, "राज्य में युद्ध की स्थिति के कारण अनुच्छेद 370 एक अंतरिम व्यवस्था थी।" उन्होंने भारतीय संविधान के उस प्रावधान का जिक्र किया, जिसने मुस्लिम बहुल कश्मीर के हिंदू शासक द्वारा 1947 में भारत में शामिल होने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद विशेष दर्जा प्रदान किया गया था। विलय के साधन के हिस्से के रूप में, भारत ने कश्मीर को अपना संविधान, झंडा और दंड संहिता बनाए रखने की अनुमति दी थी। साल 1953 तक कश्मीर का अपना प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति था। जब नई दिल्ली ने अपने प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया और पद को समाप्त कर दिया, यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र को शेष भारत के साथ एकीकृत करने का प्रयास था।अनुच्छेद 35 ए, 1954 में अनुच्छेद 370 में जोड़ा गया एक और प्रावधान था जो राज्य के विधि निर्माताओं को राज्य के स्थायी निवासियों के लिए विशेष अधिकार और सुविधाएं सुनिश्चित करने का अधिकार देता था। फ़ैसले में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के साथ ही अनुच्छेद 35 ए को भी समाप्त कर दिया गया, जिससे गैर-कश्मीरियों को भी इस क्षेत्र में संपत्ति खरीदने की अनुमति मिली। आशंका व्यक्त की गई कि भारत मुस्लिम बहुल क्षेत्र में "जनसांख्यिकीय बदलाव" लाने की कोशिश कर रहा है। 2019 में ही नरेंद्र मोदी सरकार ने कश्मीर को दो हिस्सों में बांट दिया- पश्चिम में जम्मू और कश्मीर और पूर्व में लद्दाख- जिसका शासन सीधे केंद्र से होने लगा। इससे कश्मीर ने अपना झंडा, आपराधिक संहिता और अनुच्छेद 370 में निहित संविधान खो दिया। ऐसा होते ही कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुईं लेकिन फिर दिसंबर 2023 अपने सुप्रीम फैसले में कोर्ट ने कहा कि जम्मू-कश्मीर का किसी भी अन्य भारतीय राज्य के समान राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए। धारा 370 का कोई वजूद अब क्षेत्र में नहीं बचा था। फैसले पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी थी - "अदालत ने अपने गहन ज्ञान से एकता के उस मूल तत्व को सुदृढ़ किया है जिसे हम भारतीय, सबसे अधिक प्रिय मानते हैं और संजो कर रखते हैं।"
8- अयोध्या फ़ैसला, 2019
इस मामले में अंतिम फैसला 9 नवंबर 2019 को आया। अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला देते हुए केंद्र सरकार को तीन महीने के भीतर मंदिर निर्माण के लिये एक ट्रस्ट स्थापित करने, मंदिर निर्माण की योजना बनाने और संपत्ति का प्रबंधन करने का आदेश दिया था। साथ ही दूसरे पक्ष सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में विवादित ढांचे के आसपास केंद्र सरकार द्वारा अधिगृहित 67 एकड़ भूमि या किसी प्रमुख स्थान पर पांच एकड़ ज़मीन दी जाए। ऐसा माना जाता है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण बाबर के सेनापति ने सन् 1528 में करवाया। बाबर ही वह मुग़ल सम्राट था जिसने भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। विवाद के मूल में वह विश्वास था कि इस ज़मीन पर पहले एक राम मंदिर था जिसे तोड़ कर मस्जिद बनाई गई। विवाद का यह सिलसिला मुग़ल काल से चल कर, फिरंगी हुकूमत से होता हुआ आज़ाद भारत को भी विरासत में मिला था। गोरों ने सन् 1856 -57 (वही कालखंड जब आज़ादी के लिए पहले क्रांति होने वाली थी) में परिसर को दो भागों में बांट दिया। भीतर का हिंसा मुसलमानों को और बाहरी आंगन हिंदुओं को सौंपा दिया। सीता रसोई और राम चबूतरा इसी हिस्से में थे। आज़ाद भारत में पहली अपील पंद्रह सौ वर्ग गज़ के ज़मीनी टुकड़े के लिए थी जिस पर हिन्दू और मुसलमान दोनों ही हक़ जता रहे थे। सन 1950 में फैज़ाबाद सिविल जज के सामने गोपाल सिंह विशारद ने याचिका दायर करते हुए कहा कि उसे परिसर में स्थित मूर्तियों की पूजा करने की अनुमति दी जाए। यह देश के संवैधानिक मूल्य थे कि दो सौ साल पुराने विवाद को सिलसिलेवार तरीके से सुना गया और फिर अंतिम निर्णय सुनाया गया। हालांकि दिसंबर-1992 में जब उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाया तो पूरा देश सांप्रदायिक आग की चपेट में आ गया था। उक्त विवाद की पृष्ठभूमि में पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार ने सितंबर-1991 में उपासना स्थलों की उस स्थिति को बनाए रखने के लिये एक विशेष कानून ‘उपासना स्थल अधिनियम-1991’ अधिनियमित किया जिसके मुताबिक हर ऐतिहासिक स्थल और प्राचीन भवन को उसी स्थिति में रखा जाए जैसी स्थिति में वह 15 अगस्त, 1947 को था। कोशिश थी कि आगे और विवादों को हवा न मिले। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फ़ैसले के अंत में लिखा गया है कि अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा उस जगह को दोनों पक्षों में बांट दिए जाने के बाद 1885 में ही मंदिर निर्माण की मांग शुरू हो गई थी और चूंकि हिंदू पक्ष का गहरा विश्वास और आस्था है कि यही भगवान राम का जन्मस्थान है और यह तीन गुम्बंदों वाली जगह भी उनके इस भरोसे को डिगा नहीं पाती है, इसलिए यही निष्कर्ष निकलता है कि यही जगह भगवान राम की जन्मभूमि है।
9- निर्भया जजमेंट, 2013 और 2020
16 दिसंबर 2012 की रात पैरामेडिकल छात्रा निर्भया के साथ जो भी देश की राजधानी में हुआ, वह भारत में महिलाओं की स्थिति की परत दर परत पोल खोल रहा था। दुखद यह है कि आज इतने सालों बाद भी कुछ नहीं बदला है। उस दिन चलती बस में सामूहिक दुष्कर्म के बाद फेंक दी गई निर्भया की नग्न देह के पास कोई नहीं ठहरा था। पुलिस वाले डेढ़ घंटे तक बहस करते रहे थे कि यह मामला किस थाने के अंतर्गत आता है। ट्रीटमेंट तो देर से मिला ही, तेरह दिन तक जिंदगी और मौत से जूझने के बाद उसे इलाज के लिए रातों-रात सिंगापुर रैफर कर दिया गया। फिर वहां से वह जिंदा नहीं लौटती। व्यवस्था को जब न्यायलय में चुनौती मिली, तब ताबड़-तोड़ कानून सख्त किए गए। सितंबर 2013 में निचली अदालत ने एक माइनर को छोड़ सभी चार दोषियों के लिए फांसी की सज़ा तय की। इस बीच एक दुष्कर्मी राम सिंह ने तिहाड़ जेल में ही आत्महत्या कर ली। इसके बाद अपराधियों की फांसी रद्द होने किये जाने की याचिकाओं का सिलसिला शुरू हो गया। मार्च 2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने चारों दुष्कर्मियों की फांसी की सज़ा को कायम रखा। मई 2017 सुप्रीम कोर्ट ने भी तमाम याचिकाओं को रद्द करते हुए फांसी की सजा कम नहीं की। लंबी लड़ाई के बाद निर्भया के चार दोषियों- मुकेश सिंह, अक्षय ठाकुर, पवन गुप्ता और विनय शर्मा की फांसी की तारीख 20 मार्च 2020 मुकर्रर हुई। यह ऐतिहासिक फ़ैसला 19 मार्च 2020 को आया था। फांसी से एक दिन पहले ही दोषियों की 5 याचिकाएं खारिज हुई थीं लेकिन रात 10:30 बजे दोषी फांसी रुकवाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचे, जहां एक बार फिर याचिका खारिज हुई। उसके बाद रात 1ः30 बजे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई गई। इस पर कोर्ट ने कहा, दोषियों की दलीलों में दम नहीं, फांसी का फैसला नहीं टलेगा। आख़िरकार आठ साल की लंबी लड़ाई के बाद निर्भया के माता-पिता को इन्साफ़ मिला, मां हर पेशी पर मौजूद रहती थीं।। देश की जनता हर सुनवाई में शामिल होकर उनका मनोबल बढ़ाती थी। यह केस महत्वपूर्ण इसलिए भी रहा कि समाज, सरकार,वकील सब एकजुट होकर निर्भया के लिए न्याय चाहते थे और ऐसा हुआ भी। काश इस सख्त सज़ा के बाद बलात्कार के अपराध में कमी आती लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है।
10- इलेक्टोरल बांड योजना पर फ़ैसला, 2024
इस साल के फ़रवरी महीने में आए इस फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस योजना को असंवैधानिक बताते हुए सरकार को किसी अन्य विकल्प पर विचार करने के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की आलोचना करते हुए कहा था कि राजनीतिक पार्टियों को हो रही फंडिंग की जानकारी मिलना बेहद जरूरी है। इलेक्टोरल बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा 2018 में शुरू की गई चुनावी बॉन्ड योजना राजनीतिक दलों को गोपनीय तरीके से फंडिंग की अनुमति देती थी। ये बॉण्ड वित्तीय साधनों के रूप में कार्य करते थे और इन्हें वचन-पत्र या वाहक बॉण्ड के समान, विशेष रूप से राजनीतिक दलों को योगदान देने के लिए डिज़ाइन किया गया था। इस स्कीम की घोषणा पहली बार वर्ष 2017 के बजट सत्र में की गई थी। बाद में इसे जनवरी 2018 में चुनावी बॉण्ड को सक्षम करने के लिये वित्त अधिनियम 2017, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, आयकर अधिनियम 1961 और कंपनी अधिनियम 2013 में संशोधन किया गया और राजनीतिक फंडिंग के स्रोत के रूप में अधिसूचित कर दिया गया था। इन संशोधनों ने कंपनियों के लिये दान की सीमा को पूरी तरह से समाप्त करके और चुनावी बॉण्ड के माध्यम से प्राप्त दान का खुलासा करने और उसका रिकॉर्ड रखने की आवश्यकताओं को ख़त्म कर दिया था। चुनावी बॉण्ड को लेकर राजनीतिक दलों को खूब चंदा देने पर एक के बाद कई प्रतिबंधों में कटौती करने की अनुमति दी गई थी।दूसरे शब्दों में जितना मर्ज़ी आए दान दो कोई पूछने वाला नहीं होगा। ये चुनावी बॉण्ड भारतीय स्टेट बैंक (SBI) और इसकी नामित शाखाओं द्वारा जारी किए जाते थे और 1,000 रुपए, 10,000 रुपए, 1 लाख रुपए, 10 लाख रुपए तथा 1 करोड़ रुपए के कई मूल्यवर्ग में बेचे जाते थे। दानकर्ता अपने ग्राहक को जानें (नो योर कस्टमर, KYC) के माध्यम से चुनावी बॉण्ड खरीदते और बाद में राजनीतिक दलों को धन हस्तांतरित कर देते थे। इसके ज़रिये सर्वाधिक धन सत्ताधारी पार्टी को मिला था। दानदाताओं की पहचान बैंक और धन पानेवाले और राजनीतिक दल दोनों के लिये गोपनीय रहती थी। इस दान पर योजना के तहत 100% कर छूट का लाभ मिलता था। खरीदे जाने वाले चुनावी बॉण्ड की संख्या की कोई सीमा भी निर्धारित नहीं थी। कुल मिला कर यह राजनीतिक दलों द्वारा धन हासिल करने का ऐसा डिज़ाइन था जिसमें धन देने पर कोई पूछताछ वाला एंगल शामिल नहीं था। शायद इस डिज़ाइन को ही भांपते हुए अदालत ने माना कि जनता को यह जानने का हक़ है और स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को चंदे का ब्यौरा देने के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी। अदालत ने इसे 'ऑनलाइन ' सार्वजानिक करने के लिए कहा था।
बात साफ़ है कि समय के साथ कानून की गतिशीलता को बनाए रखने के लिए बदलाव ज़रूरी होते हैं जो एक राष्ट्र को ऊर्जा से भरपपूर बनाए रखते हैं, इसीलिए 'निजता के अधिकार' के फैसले के वक़्त अपने मत में तत्कालीन जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ (वर्तमान में सीजेआई) ने कहा-
"जब राष्ट्रों का इतिहास लिखा जाता है और आलोचना की जाती है, तो न्यायिक निर्णय स्वतंत्रता के अग्रदूत होते हैं। फिर भी, कुछ को अभिलेखागार में भेजना पड़ता है, यह दर्शाने के लिए कि वो क्या था, जो कभी नहीं होना चाहिए था।"
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