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एससी/एसटी मे उप-वर्गीकरण और क्रीमी लेयर

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   04-Sep-2024 | प्रेमपाल शर्मा



1 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण मुद्दे पर जो फैसला सुनाया है उसने प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ की याद ताजा कर दी। हिंदी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की यह कहानी सभी ने पढ़ी होगी और उसका एक वाक्य बार-बार गूंजता है कि "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगे"? सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच ने वाकई आरक्षण के उस मुद्दे पर ऐतिहासिक फैसला दिया है जिससे हमारे राजनेता और शासन-प्रशासन बचते रहे हैं। फैसले में दो बातें उल्लेखनीय हैं। पहला यह कि एससी/एसटी समुदाय में भी गैर-बराबरी की सैकड़ो परतें हैं इसलिए सबसे अंतिम आदमी या सबसे जरूरतमंद पर सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए उसमें भी वर्गीकरण होना चाहिए। यानि कोटे में कोटा। और दूसरी सिफारिश है कि जैसे ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर है, वैसे ही क्रीमी लेयर यानी कि जो एससी/एसटी व्यक्ति तबके ऊपर उठ चुके हैं, जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति बेहतर हो चुकी है, उनको क्रीमी लेयर में शामिल किया जाए जिससे कि उस वर्ग-जाति के गरीब लोगों तक लाभ पहुंच सके।

मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा क्यों?

हुआ यूं कि वर्ष 1975 में पंजाब सरकार ने एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों में से 50% वाल्मीकि और मजहबी सिखों को देने के आदेश निकाले। इसके खिलाफ देवेंद्र सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और अंततः 2004 में चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोटा के भीतर कोटा की अनुमति संविधान नहीं देता। अंततः ऐसे कई मामला सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच को सौंपे गये। अंततोगत्वा उन सभी का निस्तारण अभी पहली अगस्त के निर्णय से हुआ। निर्णय में उप वर्गीकरण अथवा कोटा के भीतर कोटा की बात मान ली गई है।

आरक्षण के मुद्दे पर महत्वपूर्ण पुराने मामले:

सबसे महत्वपूर्ण मामला ‘इंदिरा साहनी केस’ को कहा जा सकता है जिसे ‘मंडल आयोग केस’ के रूप में भी जाना जाता है। 1990 में ‘मंडल आयोग’ (दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग) की रिपोर्ट लागू करने और उससे देशभर में उठे विवाद के मसले पर सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्य बेंच ने फैसला दिया था। बीपी बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बीपी मंडल) मंडल आयोग के अध्यक्ष थे, जिनके नाम पर कमीशन का नाम ‘मंडल कमीशन’ पड़ा। उनकी नियुक्ति 1977 में आई जनता सरकार ने समाज के अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लिए भी सरकार की नीतियों का लाभ पहुंच सके इस उद्देश्य से गठित की थी। यह रिपोर्ट 1980 में सरकार को सौंप दी गई थी लेकिन उसको तत्कालीन सरकार द्वारा लागू नहीं किया जा सका। वर्ष 1989 में पीएम बने विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी सिंह) ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया जिसके तहत 27 प्रतिशत सरकारी पदों पर ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों की नियुक्ति होने का मार्ग बना। इसके खिलाफ देश भर में आंदोलन हुए और मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मुख्य बातें:

सर्वोच्च न्यायालय में मामला जाने के बाद न्यायालय ने फैसले में जो कहा उसका निचोड़ कुछ इस तरह है:- सरकार का 27% ओबीसी आरक्षण का फैसला सही है। लेकिन कोर्ट के फैसले से ‘क्रीमी लेयर’ जैसा शब्द पहली बार सामने आया यानी ओबीसी समुदाय में जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति अच्छी है, उनको यह लाभ नहीं मिलेगा। निर्णय के बाद, वर्ष 1994 में सरकार द्वारा की गई सीधी भर्तियों में जब यह लागू किया गया तो उस समय क्रीमी लेयर की के लिए आय सीमा ₹1 लाख रुपये प्रति वर्ष अथवा उससे अधिक रखी गई थी यानी इससे नीचे की आय वाले ही इस लाभ के हकदार थे। वर्ष 2018 में इसे बढ़कर 8 लाख रुपये कर दिया गया। और यही 8 लाख रुपये वार्षिक आय की सीमा ही ईडब्ल्यूएस आरक्षण में लागू किया गया है। इंदिरा साहनी मामले में यह भी कहा गया था कि सरकार यदि चाहे तो एससी/एसटी के लिए भी क्रीमी लेयर की संकल्पना पर विचार कर सकती है। फैसले में कहा गया था कि ओबीसी के लिए प्रमोशन में आरक्षण नहीं होगा जबकि एससी/एसटी में यह लागू होगा। फैसले में कहा गया कि सरकार एससी-एसटी के प्रमोशन में उनकी एक बेहतर स्थिति को देखते हुए ज़रूर विचार कर सकती है। लेकिन उस समय यह मामला राजनीतिक दृष्टि से इतना विस्फोटक था कि ना तो क्रिमी लेयर पर विचार हो सका और ना ही प्रमोशन में एससी/एसटी के लाभ रोकने पर। इस निर्णय के बाद एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए तीन बार संवैधानिक संशोधन भी किए गए हैं। एक और महत्वपूर्ण बात इस फैसले की थी कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तक ही रखी जाएगी। लेकिन यह मामला देश के विभिन्न न्यायालयों में लगातार विवादित ही बना रहा है। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट में भी कई बार इस पर विचार हुए।

क्रीमी लेयर में पेंच क्या हैं?

मंडल कमीशन के दौरान बहस में पक्ष-विपक्ष की दलील सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि संविधान में गरीब व पिछड़े वर्गों के लिए रियायत देने की बात की गई है। लेकिन जो लोग समर्थ हो चुके हैं अगर उनको ही बार-बार लाभ मिलता रहा तो नीचे के तबके तक वह लाभ कभी नहीं पहुंचेगा। फिलहाल ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए यह 8 लाख रु. प्रतिवर्ष वार्षिक आय सीमा के रूप में निर्धारित है। यहां यह भी स्पष्ट करते हैं कि क्रीमी लेयर की गणना करने में दोनों में अंतर है। जहां ओबीसी वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए केवल उनके माता-पिता की जमीन व आय ही शामिल होती है किंतु उम्मीदवार की नौकरी अथवा वेतन आदि नहीं, वही ईडब्ल्यूएस के लिए लाभ पाने वाले उम्मीदवार की स्वयं की भी आय शामिल होती है यानी कि यदि कोई ओबीसी वर्ग का उम्मीदवार अच्छे पद पर है ओबीसी कोटे के आरक्षित सीटों के लाभ के लिए उसके वेतन को नहीं जोड़ा जाएगा। सिर्फ उसके माता-पिता की आय ही शामिल की जाएगी जबकि ईडब्ल्यूएस में उम्मीदवार का वेतन/आमदनी भी जोड़ा जाएगा। गरीबों के पक्षधर 8 लाख की सीमा को कम करने की बात कहते हैं। उनका तर्क है कि जब 2024 में प्रति व्यक्ति आय ₹2लाख से भी कम है (उत्तर भारत के राज्यों में तो इससे बहुत कम है) उसके मुकाबले 8 लाख की सीमा बहुत ज्यादा कही जाएगी। जबकि शहरों में रहने वाला वर्ग 8 लाख की सीमा को बढ़ाकर 12 और 15 करने की मांग कर रहा है। यदि सरकार क्रीमी लेयर की सीमा को 8 लाख से आगे बढ़ाने की बात को मानती है तो क्रीमी लेयर का अर्थ विकृति ही हो जाएगा। इसलिए गरीबों के हित में इसे भी कम करने की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के समर्थन के तर्क

सभी राजनीतिक दलों ने फैसले को ऐतिहासिक जरूर बताया लेकिन दक्षिण के राज्यों ने खुलकर इसका समर्थन किया है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और चंद्रबाबू नायडू ने स्वागत करते हुए कहा कि उनकी तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) ने 1996 में वर्गीकरण पर जस्टिस रामचंद्र राजू आयोग का गठन करके पहले ही ऐसा कदम उठाया है। कर्नाटक के सिद्धारमैया ने भी फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इससे सही लोगों तक फायदा पहुंचेगा। इसी तरह से तमिलनाडु और तेलंगाना ने भी समर्थन किया। तेलंगाना ने तो सुप्रीम कोर्ट में वर्गीकरण करने के लिए दलील रखी थी। तथाकथित महार, चमार, जाटव दुसाध इत्यादि वर्ग के लोगों ने कोटा के भीतर कोटा का विरोध किया है तो वहीं दूसरी ओर तथाकथित वाल्मीकि, मंडिगा, मुसहर, हेला, डोम जैसी जातियां कोटा के भीतर कोटा चाहतीं हैं क्योंकि उनके समुदायों तक आरक्षण के लाभ बहुत कम पहुंचे हैं। देश के उन सभी लोगों ने इस फैसले से राहत की सांस ली है जो वर्षों से आरक्षण के लाभ को अंतिम आदमी तक पहुंचाने की वकालत करते रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरोध के तर्क

उत्तर भारत की सामाजिक न्याय का दावा करने वाली ज़्यादातर पार्टियां इसका विरोध कर रही है। कई राजनीतिक दलों ने भी इसके खिलाफ भी आवाज उठाई है। उन्होंने इस बात का डर बताया है कि इससे एससी/एसटी वर्ग के पदों को भरने में परेशानी आएगी। इसलिए जब तक उनके पद नहीं पूरे होते तब तक क्रीमी लेयर लागू नहीं होना चाहिए। उन्होंने बाबा साहब अंबेडकर का हवाला देते हुए यह जोड़ा है कि बाबा साहब ने संविधान में क्रीमी लेयर की कोई बात नहीं की है और इन वर्गों में शामिल होने वाली सभी जातियां भारतीय समाज में छुआछूत की दृष्टि से एक समान ही है। यहां तक कि मौजूदा सरकार ने भी इस फैसले से असहमति जताई है।

निर्णय में शामिल जजों के विचार:

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 उन वर्गों के उप वर्गीकरण की इजाजत देता है जो समान स्थिति में नहीं हैं। लेकिन इसके लिए उप वर्गीकरण में शामिल नौकरियों में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए। उन्होंने माना कि इन जातियों में भी विषम वर्ग हैं और इसलिए राज्य 15 (4) और 16(4) में मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उप वर्गीकरण कर सकते हैं। लेकिन यह तर्कसंगत होना चाहिए।

जस्टिस गवाई, जो स्वयं दलित वर्ग से आते हैं, ने सबसे ज्यादा तर्कसंगत ढंग से क्रीमी लेयर को लागू करने की बात की है। उन्होंने कहा कि अनिवार्य रूप से क्रीमी लेयर इन पर लागू होनी चाहिए जिससे कि आरक्षण के लाभ से इनको बाहर किया जा सके और जरूरतमंद तक पहुंचे। उन्होंने कहा कि राज्यों को ऐसा करने का अधिकार है। उन्होंने एम नागराज और दविंदर सिंह के पुराने फैसलों में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने के लिए दी गई व्यवस्था को भी सही माना है। जस्टिस पंकज मित्तल ने माना कि मौजूदा आरक्षण नीति दलित विरोधी कही जाएगी क्योंकि इसके तहत लगातार फायदा उठा रहे वर्ग को ही फायदा मिलता है और वह फायदा नीचे तक नहीं पहुंचता। उन्होंने अपने निर्णय में मंडल से लेकर 2006 में आईआईटी और एम्स के छात्रों के आरक्षण विरोध, महाराष्ट्र में आरक्षण के खिलाफ उठी आवाज़ों आदि का जिक्र करते हुए क्रीमी लेयर हटाने की वकालत की है! जस्टिस बेला त्रिवेदी अकेली जज है जिन्होंने इस फैसले से असहमति जताई। उनका तर्क था कि अनुसूचित जाति एक समान समूह का प्रबंध करती है और उसमें विभाजन नहीं किया जा सकता। और अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 में जारी राष्ट्रपति की सूची में इसमें बदलाव केवल संसद ही कर सकती है, राज्यों को इसका अधिकार नहीं है।

आरक्षण और प्रशासनिक दक्षता को लेकर नेहरूजी के विचार:-

आरक्षण के प्रश्न पर नेहरू जी शुरू में दुविधा में थे। उनका डर था कि क्लास के अंदर एक और क्लास पैदा होकर इनका और अलगाव बढ़ेगा। 1950 में उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र में लिखा था "मैं आरक्षण के खिलाफ़ हूं लेकिन जो पिछड़े गरीब लोग हैं उनके लिए भी सुरक्षा और अवसर पूरी तरह मिलनी चाहिए। हर हालत में मेरिट और एफिशिएंसी प्रशासन में सबसे जरूरी है। विकास पर आगे बढ़ाने के लिए हमें एक सक्षम नौकरशाही की जरूरत हर शर्त पर चाहिए।” यानी नेहरू जी आरक्षण में सामाजिक न्याय के साथ-साथ प्रशासनिक दक्षता यानी मेरिट, दोनों को बराबर समझते थे; अनिवार्य मानते थे।

आरक्षण और प्रशासनिक दक्षता को लेकर बाबा साहब अम्बेडकर जी के दृष्टिकोण:

1. सामाजिक और आर्थिक समानता की आवश्यकता
2. अस्थायी व्यवस्था
3. मेरिट और आरक्षण के बीच संतुलन
4. आरक्षण का दायरा विस्तृत करना

इन विचारों से यह स्पष्ट होता है कि अंबेडकर जी ने आरक्षण को एक आवश्यक उपाय माना जो समाज में व्याप्त असमानता को दूर करने में मदद कर सकता है। उन्होंने आरक्षण को एक अस्थायी व्यवस्था भी माना, जिसे मात्र तब तक जारी रखा जाना चाहिए जब तक कि समाज में समानता स्थापित न हो जाए। उन्होंने शुरू में इसे 10 वर्ष तक जारी रखने की वकालत की। उनकी उम्मीद थी कि इन 10 वर्षों में ही संविधान में दिए गए निर्देशों के अनुसार संभावित इसका उद्देश्य पूरा हो जाएगा। साथ ही, उन्होंने मेरिट और आरक्षण के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया और आरक्षण का दायरा विस्तृत करने की आवश्यकता पर जोर दिया ताकि अधिक से अधिक वंचित वर्गों को इसका लाभ मिल सके।

भारत में आरक्षण व्यवस्था और संविधान:-

भारतीय सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता मानी जाती है और इसे देश ही नहीं बल्कि एक महादेश के रूप में दुनिया जानती है जिसमें सैकड़ो जातियां, उपजातियां, धर्म, संप्रदाय इत्यादि एक साथ सदियों से रहते आए हैं। 9वीं-10वीं सदी में मुसलमानो के आने से पहले मुख्य रूप से हिंदू धर्म प्रभावी रहा है। साथ ही साथ बौद्ध जैन और दूसरे मताबलंबी भी मौजूद रहे। संस्कृत साहित्य से लेकर दूसरे साहित्य में समाज में वर्ण व्यवस्था आदि के बहुत सारे ऐसे संदर्भ मिलते हैं जहां बताया जाता है कि जाति जन्म से नहीं थी, उनके कर्म से थी। लेकिन कालांतर में यह रूढ़ होता गया और यह जन्म आधारित हो गई जिसमें ब्राह्मण को सबसे ऊपर उसके बाद क्षत्रिय, फिर वैश्य और सबसे निचले पायदान पर उन लोगों को रखा जिनको आज हम दलित कहते हैं। इसमें सफाई कर्मचारी और सैकड़ो जातियां-प्रजातियां शामिल हैं। मंडल आयोग से लेकर कई आयोग ने सैकड़ो नहीं बल्कि हजारों की गिनती की है। अंग्रेजी शासन में आने के बाद जाति व्यवस्था पर पुनर्विचार का मंथन शुरू होता है और वो इसका प्रमुख कारण यूरोपीय समाज में समानता की बेहतर समझ और प्रक्रिया थी। जहां मनुष्य-मनुष्य को जाति-जन्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता। इस संदर्भ में महात्मा गांधी व बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से लेकर सभी ने जातिप्रथा को इस देश के लिए कलंक माना है। उससे पहले राजा राममोहन राय और दूसरे महापुरुषों ने भी इस भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी। भक्ति काल व हमारे संत कबीर रविदास से लेकर सभी महात्माओं व विचारकों ने मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता की बात की है। अंग्रेजी शासन के प्रभाव में इस वर्ग के लिए कुछ जमीनी संस्थानिक कार्य भी शुरू हुई जिसमें आरक्षण की व्यवस्था की शुरुआत करने का श्रेय साहू जी महाराज और दूसरे राजाओं को भी जाता है जो पूरे समाज की कल्याण की बात करते थे। महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से मुक्ति के साथ-साथ सामाजिक बराबरी का मुद्दा उतना ही महत्वपूर्ण रहा। इसे महात्मा गांधी की आत्मकथा और उनके सैकड़ों लेखों से भी समझा जा सकता है। यहां तक की 1916 में साबरमती आश्रम की स्थापना की पहली शर्त यही थी कि उसमें जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। और जब एक दलित के शामिल होने पर इस आश्रम की वित्तीय मदद करने वालों ने विरोध किया तो महात्मा गांधी ने साफ कह दिया कि मैं उनसे वित्तीय मदद नहीं लूंगा, लेकिन दलितों का प्रवेश रहेगा। वे केवल उन्हीं शादियों में जाना स्वीकार करते थे, जिसमें विवाह करने वालों में कोई एक दलित हो। लेकिन देश की आजादी उनके लिए शायद ज्यादा महत्वपूर्ण रही जबकि बाबा साहब समाज के इन वंचित वर्गों को समानता के लिए ज्यादा प्रतिबद्ध और कटिबंध रहे। उन्होंने इस प्रतारणा व दुख को झेला था। जगह-जगह कुएं से पानी पिलाने से लेकर छुआछूत का भेदभाव इतना ज्यादा था कि वह अंग्रेजों से मुक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण अछूत शब्द से मुक्ति चाहते थे। लेकिन दोनों का ही योगदान सराहनीय रहा और इसी के फल स्वरुप 1935 के एक्ट में ‘पूना पैक्ट’ की रोशनी में संविधान में ‘आरक्षण’ शब्द की शुरुआत भी हुई। 1947 में देश के आजाद होने पर आबादी के अनुसार 15% एससी व 7.5 प्रतिशत एसटी के लिए सभी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर वर्ष 1993 से 27 प्रतिशत आरक्षण ओबीसी वर्ग को भी दिया गया है। 2006 में आरक्षण को शैक्षिक संस्थानों पर भी लागू कर दिया गया। कोर्ट-कचहरी में भी आरक्षण को लेकर संवैधानिक झगड़े कम नहीं रहे। उसकी नीतियों के क्रियान्वयन में संभावित सबसे ज्यादा सरकारी मामले आरक्षण और उसके झगड़ों को लेकर ही कहे जा सकते हैं।

निष्कर्ष

21वीं सदी के जिस मोड़ पर 7 सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने जो निर्णय दिये हैं वह सच्चे मायनों में ऐतिहासिक है। संविधान की मूल भावना आर्थिक सामाजिक समानता लाना है, जिसमें छुआछूत को अपराध माना गया है। एससी/एसटी पर अत्याचार के खिलाफ सख्त कानून भी है। आरक्षण व्यवस्था भी थोड़ी बहुत खामियों के बावजूद बहुत प्रभावी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज से 40 साल पहले जनरल कैंडिडेट और आरक्षित वर्ग में मेरिट योग्यता नंबरों के जितना फैसला होता था फिलहाल वह नहीं है, चाहे वह यूपीएससी का एग्जाम हो या स्टाफ कमीशन का या फिर दूसरे परीक्षाओं का हो। और यह ठीक भी है। यदि उनको सुविधा मिले तो सभी मनुष्यों में समान क्षमताएं होती हैं। इस दर्शन को सभी को समझने की जरूरत है, चाहे वह स्वर्ण हो या दलित। इसी तर्क पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने लीक से हटकर 6:1 से फैसला दिया है। माननीय न्यायाधीश श्री गवई जी तो स्वयं तथाकथित दलित वर्ग से आते हैं और उन्होंने एहसास किया कि यदि क्रीमी लेयर नहीं लागू की गई तो इसका फायदा अंतिम लोगों, अंतिम गरीब तक कभी नहीं पहुंच सकता।

लगभग 15 वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के एक और न्यायाधीश जस्टिस जोसेफ ने भी ऐसे ही एक मामले की सुनवाई करते हुए आश्चर्य प्रकट किया था कि यदि क्रीमी लेयर ओबीसी में हैं तो वह एससी/एसटी में क्यों नहीं होनी चाहिए? उन्होंने अपनी बात को इस रूप में कहा कि मेरा बेटा और मेरे ड्राइवर के बेटे की सुविधाओं में बहुत अंतर है। मेरे बेटे को वह लाभ नहीं मिलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का वर्गीकरण इसी तर्क पर आधारित है और इसलिए सभी वर्गों को मनाना चाहिए। दूसरा मुद्दा यह है कि इस निर्णय का विरोध करने वाले बार-बार बाबा साहब का नाम ले रहे हैं कि उन्होंने क्रीमी लेयर की बात नहीं की है। कितना भोला तर्क है? आखिर 70-80 वर्ष पहले हम दलितों को मुख्य धारा में लाना चाहते थे और इसके लिए संविधान में उपबंध भी बनाए हैं। उनका कार्यान्वन भी हुआ है। इनके कल्याण के लिए मशीनरी में कई आयोग हैं। उस समय कोई भी क्रीमी लेयर जैसी कल्पना नहीं कर सकता था। और कोई भी पुस्तक हो, संविधान हो, उसे भी बदलते वक्त के साथ बदलने की जरूरत होती है। यहां तक की हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में यदि कहें तो, जो धर्म-परंपराएं, रीति-रिवाज समय के साथ नहीं बदलते, वे खुद नष्ट हो जाते हैं। यानी, धर्म को भी बदलने की यदि जरूरत है तो बदला जाना चाहिए। संविधान की पुस्तक भी ऐसी ही है जिसमें बदलाव की जरूरत होती है और होती रही है। इसीलिए तो अब तक 100 से ज्यादा संवैधानिक संशोधन हुए हैं। केवल राजनीतिक लाभ के लिए ऐसे निर्णयों के खिलाफ 21 अगस्त 2004 को जो भारत बंद हुआ, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह अपनी ही जाति व अपने ही वर्ग के अपने ही भाइयों के खिलाफ कदम है, जिनतक हम यह सुविधा नहीं पहुंचने देना चाहते। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा कभी सवर्ण वर्ग द्वारा आरक्षण का विरोध करना था। जबकि वे खुद डोनेशन देकर डिग्रियां लेते थे। इसके पालन करने से देश के अलग-अलग हिस्सों में उठने वाले आरक्षण विरोधी आंदोलन भी खत्म हो जाएंगे क्योंकि उनका गुस्सा इसी बात पर है कि एक-एक परिवार की तीन-तीन पीढ़ियां आईएएस-आईपीएस बन गई हैं। वे अमेरिका में पढ़ रही हैं, दिल्ली में 50 साल से रह रही हैं, प्रोफेसर हैं, वैज्ञानिक हैं, उनके बच्चे ही सारा फायदा उठाते रहे हैं। केवल राजनीतिक कुर्सी के लिए इसका विरोध उचित नहीं कहा जा सकता और इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन रखते हुए हम सबको इसी तर्कसंगत कसौटियों पर जनता को जागृत करने की जरूरत है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हमें आंकड़े और सभी डाटा ईमानदारी से इकट्ठा करके आगे बढ़ने की जरूरत है। लोकतंत्र में वोट की राजनीति के चलते कुछ स्वार्थी व लोकतंत्र विरोधी ताकतें सरकार पर संसद के द्वारा इसे बदलने के लिए दवाब डालेंगे लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि शाहबानो निर्णय को संसद द्वारा पलटने से कैसे जनता सरकार के विरोध में उठ खड़ी हुई थी। हमारे संविधान में जिस प्रावधान को बाबा साहब और अन्य नेताओं ने बहुत सोच-समझकर बनाया है उसमें कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायक को अलग-अलग जिम्मेदारियां दी गई हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने 6:1 के बहुमत से बहुत सोच-विचारकर यह फैसला किया है, जो सही फैसला है। क्योंकि जनमत के दबाव में ना तो कार्यपालिका ऐसा निर्णय ले पाती और ना ही विधायिका। इसलिए, देशहित में इस फैसले का सम्मान व स्वागत करना चाहिए।

इससे भी महत्वपूर्ण बात है समाज में जाति और उसकी पहचान का विनाश करना। सरकार और समाज, दोनों को इसे जड़ से उखाड़ने के लिए कदम उठाने होंगे। ऐसी निराशा भरी बातें करने की जरूरत नहीं कि "जाति है कि जाती नहीं है।" दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहां जाति की पहचान की ऐसी विकरालता हो, मनुष्य-मनुष्य के बीच ऐसा भेद हो। सभी काम सरकार, सुप्रीम कोर्ट और आयोग ही नहीं करेंगे। समाज के हर हिस्से को भी आगे बढ़कर समानता की तरफ सच्चे मन से कदम उठाने की जरूरत है।



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