भारत में जेल सुधार: आवश्यकता एवं उपाय
« »11-Jun-2024 | चार्वी दवे
मानव ने जबसे एक समाज के संगठित स्वरूप में रहना शुरू किया है तब से ही अपराध व अपराधी इस समाज में ही एकीकृत हो गए। ऐसे में समाज से अपराधियों को विलग रखने की व्यवस्था निर्मित करने के प्रयास भी लंबे समय से चले आ रहे हैं। प्रारंभ में यह व्यवस्था लोगों को अपराध के लिये मृत्युदंड दिये जाने तक सीमित थी। इसके पीछे विचार यह था कि समाज से अपराधी तत्त्वों विलगाव सुनिश्चित करने का सबसे प्रभावी तरीका है कि जो भी अपराधी तत्व मिले उन्हें जीवित ही नहीं रहने दिया जाए। हालाँकि समय बदलने के साथ यह विचार बदले और उदारवाद का सूत्रपात होने के बाद अपराधियों को भी सुधार का मौका देने की बातें विमर्श में आने लगीं। इसी के समानांतर, जिन अपराधियों को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था, उन्हें समाज से अलग रखने के लिये कारागृहों (Jails/Prisons) की व्यवस्था सृजित हुई और कालांतर में यही कारागृह सुधार गृह (Correctional Facilities) में तब्दील होते गए। सैद्धांतिक रूप से कारागृह का उद्देश्य बंदियों को उनके अपराध का दंड देने के साथ-साथ उन्हे पश्चाताप करने व सुधार करने का अवसर देना भी रहा है। हालाँकि अगर हम कारागृहों की वर्तमान स्थिति देखें (विशेष रूप से भारत के संदर्भ में) तो कारागृह में रहना अपने आप में एक अलग प्रकार का दंड बन गया है। यह दंड, जिन्होंने कोई अपराध किया है, उन्हें तो मिलता ही है, साथ ही वे भी इससे पीड़ित होते हैं, जिनका अपराध अभी सिद्ध भी नहीं हुआ है। ऐसे में पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी कारागृहों की स्थिति में सुधार करने की मांगें बार-बार उठती रहती हैं। अतः भारत के विशिष्ट संदर्भ में यह विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है कि यहाँ कारागृहों के साथ-साथ क्या-क्या समस्याएँ हैं? उनके सुधार के लिये अब तक क्या प्रयास किये गए हैं? विचाराधीन बंदियों की कारागृहों में स्थिति कैसी है और जेल सुधार की दिशा में क्या-क्या अन्य कार्य किया जा सकते हैं।
सर्वप्रथम यदि भारतीय जेलों के साथ समस्या की बात की जाए तो सबसे बड़ी समस्या इनमें अत्यधिक भीड़ होने की है। भारत में अधिकांश कारागृहों में इनकी वहन क्षमता से कहीं अधिक बंदी कैद हैं, जिससे यहाँ रहने वाले कैदियों के लिये अमानवीय स्थितियों उत्पन्न होती हैं। दूसरी सबसे बड़ी समस्या विचाराधीन बंदियों से जुड़ी हुई है। इनके दोषी सिद्ध होने अथवा दोषमुक्त होने में लगातार होने वाली देरी के चलते भारतीय जेलें विचाराधीन बंदियों से भरी हुई हैं। तीसरी समस्या पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं की है। भारतीय जेलों की स्वास्थ्य अवसंरचना भारत की सामान्य स्वास्थ्य अवसंरचना से भी बदतर है। मेडिकल स्टाफ, दवाइयों आदि की कमी के कारण बंदियों को पर्याप्त उपचार नहीं मिल पाता है। चौथी समस्या जेल स्टाफ में कमी होने व इन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिलने की है। अक्सर यह देखा जाता है कि जेल का स्टाफ कैदियों की सुरक्षा करने व उनकी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये समुचित रूप से प्रशिक्षित नहीं होता है। एक अन्य समस्या कारागृहों के अंदर जेल स्टाफ व अन्य कैदियों द्वारा कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन भी है।
भारतीय जेलों की समस्याओं से संबंधित उपर्युक्त विश्लेषण से इनमें सुधारों की आवश्यकता भी रेखांकित ही जाती है। इसी के आलोक में यदि जेल सुधार की दिशा में अब तक किये गए प्रयासों का लेखा-जोखा देखा जाए तो ऐसे प्रयास भारत की स्वतंत्रता से पहले से प्रारंभ होते हैं। वर्ष 1919-20 में सर अलेक्जेंडर कार्ड्यू की अध्यक्षता में जेल सुधारों पर सुझाव देने के लिये नियुक्त ‘भारतीय जेल समिति’ इस दिशा में पहला गंभीर प्रयास माना जाता है। समिति ने जेल के कैदियों के लिये सुधारात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता पर ज़ोर दिया और जेलों में शारीरिक दंड के उपयोग की निंदा की। साथ ही, पुनर्वास के उद्देश्य से रिहा किये गए कैदियों के लिये पश्चवर्ती देखभाल कार्यक्रमों की आवश्यकता को रेखांकित किया। ध्यातव्य है कि इससे पूर्व 19वीं सदी में कारागारों की दशाओं का अध्ययन करने के उद्देश्य से बनी समितियों ने जेलों में बंदियों के साथ और कठोर व्यवहार करने तथा उनसे और अधिक श्रम करवाने के संदर्भ में अनुशंसाएँ की थीं। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने जेलों की स्थिति को देखते हुए अतिशीघ्र सुधारों की आवश्यकता को समझा। इसके फलस्वरूप 1949 में ही पकवासा समिति का गठन किया गया। इस समिति ने बंदियों को सड़क निर्माण कार्य में नियोजित करने की अनुशंसा की। इसके बाद ही बंदियों को श्रम के बदले पैसा मिलने की व्यवस्था शुरू हुई। इसी क्रम में अच्छे व्यवहार वाले बंदियों की सज़ा कम करने की व्यवस्था का भी सूत्रपात हुआ। इसके पश्चात् 1951 में संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध विशेषज्ञ डॉ. रैकलेस को भारतीय कारागारों की स्थिति का अध्ययन करने व इसमें सुधार के सुझाव देने हेतु आमंत्रित किया गया। अपनी रिपोर्ट में इन्होंने जेलों को सुधार संस्थानों के रूप में पुनर्संरचित करने तथा पुरानी हो चुकी जेल नियमावलियों को बदलने की सिफारिश की। इसी के फलस्वरूप 1960 का 'मॉडल प्रिज़न मैनुअल' तैयार किया गया।
परवर्ती वर्षों में मुल्ला समिति ने कैदियों के लिये बुनियादी ढाँचे, और संसाधनो के साथ-साथ पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये जेलों में जनता और मीडिया दौरे के महत्त्व पर प्रकाश डाला। इसके अलावा भारतीय विधि आयोग की (268वीं रिपोर्ट) में उन्होंने अधिकतम सात वर्ष की कैद वाले अपराधियों के लिये सज़ा की एक-तिहाई अवधि पूरी होने के बाद उन्हें रिहा करने का सुझाव दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित न्यायमूर्ति अमिताव रॉय समिति ने जेलों में भीड़भाड़ कम करने के उद्देश्य से व छोटे अपराधों के लिये फास्ट ट्रैक अदालतों के निर्माण का प्रस्ताव रखा। साथ ही, कृष्णा अय्यर समिति ने महिला कैदियों और बाल अपराधियों के लिये बेहतर सुविधाओं, सहायता और महिला पुलिस बल बढ़ाने हेतु सिफारिश की।
इसी क्रम में भारत में जेल प्रशासन की वर्तमान स्थिति की बात की जाए तो इसकी नींव भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा रखी गई, जिसके अंतर्गत जेलों के विषय को केंद्रीय सूची से प्रांतीय सरकारों के नियंत्रण और प्रशासन में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके चलते राज्यों की अपनी जेल नीतियाँ, नियम और प्रक्रियाएँ बनने लगे। यह व्यवस्था संविधान लागू होने के बाद भी जारी रही। भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची-II (राज्य सूची) में प्रविष्टि सं. 4 'जेलों' से संबंधित है। अतः जेलों का प्रशासन राज्य सरकारों के दायरे में आता है। भारत में जेलें प्रमुखतः 'कारागार अधिनियम,1894' और संबंधित राज्य सरकारों के जेल मैनुअल द्वारा प्रशासित होती हैं। इस प्रकार राज्यों के पास मौजूदा जेल कानूनों, नियमों और विनियमों को बदलने की प्राथमिक ज़िम्मेदारी और अधिकार हैं। इसके अलावा भारतीय दंड संहिता, 1860; कैदी पहचान अधिनियम, 1920; भारत का संविधान; कैदियों का स्थानांतरण अधिनियम, 1950; लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951; कैदी (अदालतों में उपस्थिति) अधिनियम, 1955; अपराधियों की परिवीक्षा अधिनियम, 1958; दंड प्रक्रिया संहिता, 1973; मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987; किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000; कैदियों का प्रत्यावर्तन अधिनियम, 2003 आदि ऐसी विधिक व्यवस्थाएँ हैं, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कारागारों के प्रशासन से संबंधित हैं।
जेलों से संबंधित सभी समस्याएँ समझने व इनके निराकरण की दिशा में अब तक किये गए प्रयासों तथा जेलों के प्रशासन की संरचना का विश्लेषण करने के पश्चात् इस बिंदु पर चर्चा करना अवश्यंभावी हो जाता है कि भारत में जेलों की स्थिति और बेहतर करने के लिये क्या-क्या किया जा सकता है? इस प्रश्न के उत्तर का पहला पक्ष विधिक व नीतिगत सुधारों से जुड़ता है। विधि व नीतियों के स्तर पर ऐसे प्रयास किये जाना आवश्यक है कि कारागारों में जाने वाले लोगों की संख्या में कमी आए और जो जेलों में रह रहे हैं उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। ऐसा अपराधों के लिये दिये जाने वाले दंड की अवधि में उचित संशोधन करने व जेल मैनुअल्स को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने के माध्यम से किया जा सकता है। इसके अलावा जेलों की मेडिकल अवसंरचना में व्यापक सुधार करते हुए बंदियों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल में सक्षम बनाया जाना चाहिये। जेल स्टाफ को बंदियों की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाया जाना चाहिये। इसके अलावा बंदी दंड की अवधि पूर्ण करने के बाद समाज में सहजता से एकीकृत हो सकें इसके लिये भी जेल के भीतर ही उनके समुचित प्रशिक्षण हेतु कदम उठाए जाने चाहिये। विचाराधीन बंदियों की समस्या से निबटने के लिये न्यायिक सुधारों के माध्यम से ट्रायल्स की गति बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिये। साथ ही, प्रौद्योगिकी के प्रयोग के माध्यम से जेलों को बंदियों के लिये अधिक निवास-योग्य बनाया जाना चाहिये।
जेल सुधारों की दिशा में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कदम, जिसके बारे में अलग से बात की जानी चाहिये, वह हैं खुली जेलें। दरअसल खुली जेलों की अवधारणा दुनिया के लिये नई नहीं है। यूरोप के विभिन्न देशों में खुली जेलें प्रचलन में हैं। यह वह जेल होती है, जिसमें कैदियों को न्यूनतम निगरानी और परिवहन सुरक्षा के साथ पूरी तरह से भरोसेमंद सज़ा दी जाती है। भारत की पहली खुली जेल 1949 में लखनऊ में स्थापित की गई थी। नियंत्रित जेलों की तुलना में खुली जेलों में अपेक्षाकृत कम कड़े नियम होते हैं। खुली जेल का मूल नियम यह है कि जेल में कैदियों के आत्म-अनुशासन पर न्यूनतम सुरक्षा और कार्य होते हैं। कैदी अपने काम के लिये जेल से बाहर जा सकते हैं और उन्हें अपने कार्य घंटों के बाद जेल परिसर में वापस आना होता है। खुली जेल की व्यवस्था के मूल में उद्देश्य यह है कि इससे साधारण जेलों में भीड़भाड़ कम होती है। बंदियों को बाहर जाकर कार्य करने व धनार्जन करने
की अनुमति के फलस्वरूप जेल की परिचालन लागत कम होती है। साथ ही, इससे बंदियों के समाज में एकीकरण में भी सहायता मिलती है। 1996 में, ‘राममूर्ति बनाम कर्नाटक राज्य’ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी खुली जेलों की आवश्यकता को रेखांकित किया। सुप्रीम कोर्ट ने देश में 'अधिक से अधिक खुली जेलों' की स्थापना का आदेश दिया। खुली जेल के अब तक के परिचालन अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी संख्या में वृद्धि के माध्यम से जेल सुधारों की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति की जा सकती है।
यह बात सत्य है कि मनुष्य जन्म से अपराधी नहीं होता परंतु अधिकतर मामलों में सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ उसे अपराधी बनाती हैं। ऐसे में यदि किसी ने अपराध कर दिया है व उसे दंड भी मिल गया है तो एक कैदी के रूप में उसके साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाना चाहिये। कारावास का मुख्य उद्देश्य केवल सज़ा देना नहीं बल्कि सज़ा की अवधि के दौरान अपराधी को सुधारना है ताकि वह समाज में वापस लौटकर गरिमापूर्ण जीवन जी सके। जो लोग अपराध कर चुके हैं उनके प्रति समाज की सहानुभूति एकत्र करना बहुत सरल नहीं है परंतु यह समझना भी महत्त्वपूर्ण है कि किसी समाज की संधारणीयता इसी बात से सुनिश्चित होती है कि वह अपने भीतर के दूषित तत्त्वों को शुद्धीकरण का कितना अवसर देता है। यदि इस आलोक में हम जेलों की वर्तमान स्थिति का आकलन करेंगे तो उनमें सुधारों की गुंजाइश हमारे समक्ष स्वतः ही प्रत्यक्ष हो जाएगी।
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