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खदानों के राजस्व पर राज्यों का हक़

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   22-Aug-2024 | वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा



खदानों से जुड़े मामले में ऐसा क्या था कि नौ जजों की संवैधानिक पीठ गठित करनी पड़ी। ये मामला सालों-साल चला और जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो नौ में से एक जज ने अपनी अलग राय रखी। वे इससे पहले आधार, कश्मीर और सबरीमाला से जुड़े मामलों पर भी अपनी अलग राय रख चुकी हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने 25 जुलाई 2024 को दिए महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि खदानों से प्राप्त होने वाले राजस्व और कर में केंद्र के साथ-साथ राज्यों का भी अधिकार है। नौ सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ में फैसला 8 -1से हुआ। लगभग 35 साल बाद अब पुराने फ़ैसले को पलट दिया गया है। तब इसे सात सदस्यीय पीठ ने दिया था। 1989 में सात सदस्यों की पीठ ने कहा था कि खदानों से मिलने वाली रॉयल्टी और कर पर राज्य सरकार का हक़ ना होकर केंद्र का हक़ है जबकि इस बार के फ़ैसले ने राज्यों के अधिकारों को मज़बूत करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि खनन और खनिज सम्पदा पर राज्य कर लगा सकते हैं। जब वे भूमि कर ले सकते हैं तो वे उस ज़मीन के दायरे में आने वाली खदानों और खनीजों पर भी कर लगा सकते हैं। यह वाकई एक ऐतिहासिक फैसला है जो राज्यों के विधायी अधिकार क्षेत्र को संसदीय दखल से बचाता है। दशकों से यही माना जाता रहा कि राज्य अपनी धन-संपदा पर कोई कर नहीं लगा सकते। हां, ऐसा ज़रूर था कि राज्य को रॉयल्टी वसूलने की अनुमति थी यानी राज्य किसी कंपनी से हुए करार के बाद रॉयल्टी ले सकता था लेकिन कर नहीं। साल 1989 में सात न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया था कि खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 तथा संघ सूची की प्रविष्टि 54 के तहत खनन विनियमन पर केंद्र का प्राथमिक अधिकार है। सारी शक्तियां केंद्र के पास सुरक्षित है और केवल संसद के पास ही इसमें बदलाव की शक्ति है।

यहां से शुरू हुआ था मामला

दरअसल, 1989 के ‘इंडिया सीमेंट’ बनाम ‘तमिलनाड़ु सरकार’ के बीच विवाद के बाद यह मामला कोर्ट में गया था। मामला यह था कि कंपनी ने राज्य सरकार से सीमेंट की खदाने ‘लीज’ पर ले रखी थी। यह राजस्व राज्य को जाता था लेकिन तमिलनाडु सरकार ने फिर इस पर सेस भी लगा दिया नतीजतन ‘इंडिया सीमेंट’ ने सरकार को चुनौती देते हुए मद्रास हाई कोर्ट का रुख किया। कंपनी का तर्क था कि राज्य सरकार ने लीज पर ‘कर’ लागू किया है जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। सरकार का तर्क था कि ‘सेस’ तो उस ज़मीन के राजस्व की तरह है जिस पर खदाने हैं। इसके बाद 1989 में सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की पीठ ने निर्णय ‘इंडिया सीमेंट’ के पक्ष में दिया था। तब के और वर्तमान फैसले के बीच ‘केसोराम इंडस्ट्रीज’ बनाम ‘पश्चिम बंगाल सरकार’, 2004 केस का एक नज़रिया भी शामिल है। उस समय पांच सदस्यों की पीठ ने एक संकेत दे दिया था कि ‘रॉयल्टी’ कोई ‘कर’ नहीं है। इसी के मद्देनज़र अब नौ सदस्यों की न्यायिक पीठ ने समीक्षा की और 1989 के पुराने निर्णय को ख़ारिज किया। केंद्रीय कानून, खान एवं खनिज (विकास व विनियमन) अधिनियम-1957 की प्रधानता के कारण राज्य अपनी जमीन से निकाले गये खनिज संसाधनों पर कोई ‘कर’ लगाने की शक्ति से वंचित रहे हैं।

कैसे मिला राज्यों को यह हक़

हालांकि राज्यों को खनिज अधिकारों पर ‘कर’ लगाने का अधिकार सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में प्रविष्टि संख्या 50 के जरिए दिया गया है, लेकिन इसे “संसद द्वारा खनिज विकास संबंधी कानून के मार्फत लगाई गई सीमाओं के अधीन” बना दिया गया। केंद्र सरकार की दलील थी कि 1957 के कानून की मौजूदगी मात्र से खनिज अधिकारों पर कर लगाने की राज्यों की शक्ति सीमित हो जाती है, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने पीठ के लिए अपना फैसला लिखते हुए उपरोक्त अधिनियम के प्रावधानों को जांचा और इस नतीजे पर पहुंचे कि इसमें ऐसी ऐसी कोई सीमा मौजूद नहीं है। वर्ष 1957 के अधिनियम द्वारा प्रस्तावित रॉयल्टी को कतई ‘कर’ नहीं माना गया। सीजीआई ने माना कि ‘माइंस एंड मिनरल्स डेवेलपमेंट एंड रेगुलेशन एक्ट (एमएमडीआर)’ राज्यों के टैक्स वसूलने की शक्ति को सीमित नहीं करता है। केंद्र उम्मीद कर रहा था कि एक बार रॉयल्टी को बतौर ‘कर’ स्वीकार कर लिये जाने पर, उसका इस मामले में संपूर्ण एकाधिकार हो जाएगा और इस तरह राज्यों के पास खनिज अधिकारों पर कर लगाने की गुंजाइश खत्म हो जायेगी। किंतु ऐसा नहीं हुआ और सर्वोच्च अदालत ने रॉयल्टी को खनिज अधिकारों के उपभोग के लिए ‘कांट्रेक्चुअल कंसीडरेशन’ अर्थात ‘समझौते के हिसाब से भुगतान’ के तौर पर देखना पसंद किया। उसने यह भी फैसला दिया कि राज्य प्रविष्टि संख्या-49 (भूमि पर कर लगाने के सामान्य अधिकार) के तहत खनिज भूमि पर ‘कर’ लगा सकते हैं। न्यायालय ने इस तर्क पर ज़ोर दिया कि खनिज अधिकारों पर करारोपण शक्ति पूरी तरह से राज्यों के पास है, जबकि संसद केवल खनिज विकास में मुश्किलों को रोकने के लिये सीमा लगा सकती है।

राज्यों में था असंतोष

यह सच है कि ‘फेड्रलिज़्म’ या ‘संघवाद’ और ‘राज्यों की आज़ादी’ के पैरोकार इस तथ्य का खासतौर पर स्वागत करेंगे क्योंकि यह फैसला राज्यों के लिए नये कराधान के रास्ता खोलता है। वे अदालत की इस टिप्पणी का भी स्वागत करेंगे कि राज्यों की कराधान शक्तियों में कमी से लोगों तक कल्याणकारी योजनाओं व सेवाओं को पहुंचाने की उनकी क्षमता पर उलटा प्रभाव पड़ता है। यूं भी बजट को लेकर राज्यों में अक्सर असंतोष देखा गया है कि केंद्र को जिस अनुपात में उनसे राजस्व प्राप्त होता है, उस अनुपात में उन्हें बजट आवंटित नहीं होता। जीएसटी लागू होने के बाद अपने हिस्से का राजस्व प्राप्त करने का यह संघर्ष और बढ़ा है। खनिज पर कर भी उनमें से एक है। केंद्र सरकार ने खनिजों पर ‘कर’ और ‘उप-कर’ लगाना शुरू किया तो कुछ कंपनियों और राज्य सरकारों ने इस पर आपत्ति दर्ज़ कराई। सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकारों और कंपनियों की ओर से कुल 86 याचिकाएं पहुंची थीं। साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने रॉयल्टी से जुड़े इस विवाद को नौ जजों की पीठ को सौंप दिया था। अंतत: 13 वर्ष बाद अब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने साफ़ कर दिया कि खनिजों पर राज्य सरकार का हक़ है। उड़ीसा, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे कमज़ोर राज्यों को लाभ मिल सकता है, जहां कोयला, सीमेंट, लोह अयस्क और पेट्रोलियम आदि की खदाने हैं। फैसला भले ही 8-1 से राज्यों के हक़ में हुआ हो लेकिन जस्टिस बी वी नागरत्ना ने पूर्व के फैसले पर कायम रहते हुए महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया है।

क्यों असहमत हैं एक न्यायाधीश

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने अपनी असहमति में तर्क दिया है कि यह निर्णय 'संघीय ढांचे पर प्रहार' के साथ-साथ 'राज्यों के बीच अनुचित प्रतिस्पर्धा' को बढ़ाएगा। इससे अगर अदालत ने केंद्रीय कानून को राज्यों की कराधान शक्तियों पर सीमा के साथ मान्यता नहीं दी तो इसके अवांछित नतीजे होंगे क्योंकि राज्य अतिरिक्त राजस्व जुटाने के लिए अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में उतरेंगे। इससे खनिजों की लागत में अनियमित और बेतरतीब उछाल आएगा; और खनिजों के खरीदारों को बहुत ज्यादा भुगतान करना होगा, जिससे औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। इसके अलावा, राष्ट्रीय बाजार का इस्तेमाल मूल्यों में अंतर से पैसे बनाने के लिए भी किया जा सकता है। इन संभावित प्रभावों को देखते हुए, यह मुमकिन है कि राज्यों की कराधान शक्तियों पर स्पष्ट सीमा लागू करने या उन्हें खनिज अधिकारों पर कर लगाने से पूरी तरह रोकने के लिए केंद्र कानून में संशोधन की कोशिश करे। हालांकि, ऐसे किसी कदम से खनन गतिविधियां कर दायरे से पूरी तरह बाहर हो सकती हैं, क्योंकि जजों के बहुमत ने यह भी माना है कि संसद के पास खनिज अधिकारों पर कर लगाने की विधायी क्षमता नहीं है। इससे पहले भी जस्टिस नागरत्ना आधार, सबरीमाला और कश्मीर में इंटरनेट से जुड़े मुद्दों पर अपनी अलग राय रख चुकी हैं। आधार पर उनका मानना था कि इसे सभी महत्पूर्ण सेवाओं से जोड़कर नागरिक की निजता से समझौते का खतरा बढ़ जाता है; सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़े फैसले पर भी उनकी राय थी कि अदालतों को धर्म के मामले में दखल नहीं देना चाहिए अन्यथा यह सिलसिला जाने कहां जाकर थमेगा। कश्मीर में लम्बे समय तक इंटरनेट बंद रहने पर उन्होंने सहमत ना होते हुए कहा था कि इंटरनेट शटडाउन नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है। ज़ाहिर है, जस्टिस बी वी नागरत्ना की असहमति वज़न रखने के साथ-साथ भविष्य में कानूनों की व्याख्याओं के लिए अन्य पहलुओं पर विचार-विमर्श के लिए भी संभावनाओं को जिंदा रखती है और संभव है कि संसद इस मामले में कोई नया अध्याय लिखे।



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