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सांविधानिक विधि

पूर्व-संबंध का सिद्धांत

 13-Aug-2024

राम निवास सिंह एवं 5 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अपर मुख्य सचिव बेसिक शिक्षा लखनऊ एवं 5 अन्य

"संबंध की वापसी का सिद्धांत सेवा मामलों में लागू होगा, विशेष रूप से तब जब किसी कर्मचारी के पक्ष में बाद में दोषमुक्ति या पारित आदेश प्रारंभिक विवाद से संबंधित हो।"

न्यायमूर्ति मनीष माथुर

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राम निवास सिंह एवं 5 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अपर मुख्य सचिव बेसिक शिक्षा लखनऊ एवं 5 अन्य के मामले में माना है कि पूर्व-संबंध का सिद्धांत उस समय से लागू होना चाहिये जब कार्यवाही का कारण उत्पन्न हुआ था।

राम निवास सिंह एवं 5 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, अपर मुख्य सचिव बेसिक शिक्षा लखनऊ एवं 5 अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्तमान मामले में याचिकाकर्त्ता को प्रतिवादी संस्था में सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया था तथा अन्य याचिकाकर्त्ताओं को उसी संस्था में चतुर्थ श्रेणी के पद पर नियुक्त किया गया था। 
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी एक सहायता प्राप्त संस्था है, जिसने वर्ष 1998 में याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति तथा वेतन को रद्द कर दिया था।
  • इसे रिट दायर करके चुनौती दी गई थी, जिसका निपटारा शिक्षा निदेशक को 30 जून 2021 को उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त बेसिक स्कूल (जूनियर हाईस्कूल) (शिक्षकों की भर्ती एवं सेवा की शर्तें) नियमावली, 1978 के अनुसार कर्मचारियों की शिकायत और उनके वेतन अधिकारों पर उचित आदेश पारित करने का निर्देश देकर किया गया था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने वर्तमान याचिका में दलील दी है कि राज्य सरकार ने उनकी नियुक्तियों को वैध मानते हुए उन्हें राज्य कोष के माध्यम से वेतन दिये जाने के लिये योग्य और पात्र पाया है तथा यह पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होना चाहिये।
  • हालाँकि राज्य सरकार ने तर्क दिया कि वेतन पूर्वव्यापी प्रभाव से नहीं दिया जाएगा क्योंकि राज्य सरकार द्वारा आदेश की पूर्वव्यापी प्रयोज्यता के संबंध में कोई निर्देश नहीं थे। 
  • इस विवाद को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष रिट दायर करके प्रस्तुत किया गया था।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पाया कि यह संस्था एक मान्यता प्राप्त सहायता प्राप्त जूनियर हाई स्कूल है, जिसे अनुदान सहायता के तहत लाया गया है तथा याचिकाकर्त्ताओं सहित कर्मचारियों को वेतन का भुगतान राज्य के खजाने से किया जाता है। 
  • न्यायालय ने यह भी नोट किया कि याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति के समय राज्य सरकार के आदेश के माध्यम से राज्य ने याचिकाकर्त्ताओं को वेतन का भुगतान करने का निर्देश दिया था।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिल्ली जल बोर्ड बनाम महिंदर सिंह (2000) के निर्णय का हवाला दिया तथा वर्तमान मामले में संबंध-वापसी के सिद्धांत को लागू किया। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि कार्यवाही का कारण तब उत्पन्न हुआ जब याचिकाकर्त्ता की नियुक्ति रद्द कर दी गई तथा इसलिये वेतन से संबंधित राज्य सरकार के आदेश को पूर्वव्यापी रूप से लागू किया जाना चाहिये, भले ही राज्य सरकार के आदेशों में इसका स्पष्ट उल्लेख न किया गया हो।

पूर्व-संबंध का सिद्धांत क्या है?

परिचय:

  • ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार इस सिद्धांत को ‘एक सिद्धांत के रूप में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार आज किया गया कार्य पहले किया गया माना जाता है’। 
  • इससे तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति द्वारा वर्तमान में किया गया कार्य उसके पिछले कार्यों से संबद्ध हो सकता है। 
  • इस सिद्धांत की अलग-अलग विधियों के साथ अलग-अलग अनुप्रयोज्यता है।

उद्देश्य:

  • यह सिद्धांत न्याय प्रदान करते समय अस्पष्टता को दूर करने के लिये उपयोगी है। 
  • यह किसी मामले में परिसीमाओं एवं प्रतिबंधों से बचने में सहायता करता है। 
  • यह चूक करने की संभावनाओं को और कम करता है।

अनुप्रयोज्यता: 

  • हिंदू विधि: 
    • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (HAMA) की धारा 12 में प्रावधान है कि दत्तक किसी भी व्यक्ति को उस संपत्ति से वंचित नहीं करेगा जो गोद लेने से पहले उसके पास निहित है। इस प्रकार, गोद लेने का उस संपत्ति पर कोई प्रभाव नहीं होगा जो पहले से ही किसी व्यक्ति के पास निहित है।
    • HAMA की धारा 12(c) संबंध वापसी के सिद्धांत को नकारती है, जिसे संपत्ति के निहितीकरण एवं विनिवेश के मामले में लागू और प्रयोग किया गया था।
  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC): संहिता के आदेश VI नियम 17 के अंतर्गत संबंध वापसी का सिद्धांत निहित रूप से दिया गया है। यह प्रावधान करता है कि यदि पक्षों के मध्य मुद्दों को निर्धारित करना आवश्यक हो, तो न्यायालय वाद से पहले किसी भी समय किसी पक्ष को दलीलों में संशोधन करने की अनुमति दे सकता है।
  • भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA): ICA के अंतर्गत संबंध वापसी के सिद्धांत का अनुप्रयोग ICA की धारा 196 के अंतर्गत दिये गए अनुसमर्थन की अवधारणा में पाया जा सकता है।
  • परिसीमा अधिनियम, 1963: परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 21 में स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि पक्षों का प्रतिस्थापन या संबंध योजन के सिद्धांत द्वारा शासित होगा।

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • दिल्ली जल बोर्ड बनाम महिंदर सिंह (2000): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि अनुशासनात्मक जाँच के निष्कर्षों को अधिकारी को दोषमुक्त करने के लिये प्रभावी माना जाना चाहिये क्योंकि वे स्पष्ट रूप से उस तिथि से संबंधित हैं जिस दिन आरोप तय किये गए थे। यदि अनुशासनात्मक जाँच उसके पक्ष में समाप्त हुई, तो ऐसा लगता है कि अधिकारी पर कोई अनुशासनात्मक जाँच नहीं की गई थी।

सिविल कानून

विनिर्दिष्ट अनुतोष के लि ये वाद की परिसीमा अवधि

 13-Aug-2024

उषा देवी एवं अन्य बनाम राम कुमार सिंह एवं अन्य

“जब वाद परिसीमा के अंदर संस्थित नहीं किया जाता है तो उसे खारिज किया जा सकता है”। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ एवं न्यायमूर्ति पी.बी. वराले की पीठ ने कहा कि परिसीमा अवधि के बाद संस्थित किया गया वाद खारिज किये जाने योग्य है।

  • उच्चतम न्यायालय ने उषा देवी एवं अन्य बनाम राम कुमार सिंह एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

उषा देवी एवं अन्य बनाम राम कुमार सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में विवाद राँची ज़िले में स्थित एक भूखंड से संबंधित है।
  • बिहारी लाल ने अपने जीवनकाल में ही 22 जुलाई 1983 को वादी के साथ 70,000 रुपए की बिक्री प्रतिफल के लिये एक करार किया था, जिसमें से 1000 रुपए अग्रिम भुगतान किया गया था।
  • इस बिक्री विलेख को 9 महीने के अंदर निष्पादित किया जाना था। हालाँकि बिक्री विलेख निर्धारित समय के अंदर निष्पादित नहीं किया गया था।
  • बाद में 69,000 की राशि का भुगतान किया गया तथा वादी-प्रतिवादियों को उस स्तर पर संपत्ति का कब्ज़ा दे दिया गया।
    • बिक्री विलेख निष्पादित नहीं किया गया था, वास्तव में, 17 दिसंबर 1989 को पक्षकारों के मध्य एक नया करार निष्पादित किया गया था।
    • करार में एक खंड यह प्रावधानित था कि नए करार के संबंध में बिक्री विलेख एक महीने के अंदर यानी 16 जनवरी 1990 तक निष्पादित किया जाना था।
  • चूँकि बिक्री विलेख निष्पादित नहीं किया गया था, इसलिये सितंबर 1993 में विनिर्दिष्ट अनुतोष के लिये एक वाद संस्थित किया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने प्रथम अपीलीय न्यायालय के निर्णय एवं डिक्री की पुष्टि करते हुए प्रतिवादियों द्वारा संस्थित विनिर्दिष्ट अनुतोष के वाद को डिक्री दिया।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इस मामले में कई विषय अंतर्निहित थे लेकिन न्यायालय ने स्वयं को इन विषयों तक सीमित रखा कि क्या वाद परिसीमा अवधि द्वारा वर्जित था।
  • न्यायालय ने पाया कि परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 54 में विनिर्दिष्ट अनुतोष का वाद संस्थित करने के लिये परिसीमा अवधि का प्रावधान है।
  • तथ्यों के अनुसार बिक्री विलेख एक महीने के अंदर यानी 16 जनवरी 1990 तक निष्पादित किया जाना था।
  • एक बार जब विनिर्दिष्ट अनुपालन की तिथि समाप्त हो जाती है, तो परिसीमा अवधि प्रारंभ हो जाएगी।
  • इस प्रकार, यहाँ वाद 16 जनवरी 1993 तक संस्थित किया जा सकता था।
  • हालाँकि वर्तमान तथ्यों में वाद सितंबर 1993 को संस्थित किया गया था। इस प्रकार, न्यायालय ने परिसीमा अवधि के आधार पर वाद को खारिज कर दिया।

विनिर्दिष्ट अनुतोष का वाद क्या है?

  • अभिप्राय:
    • विनिर्दिष्ट अनुपालन, विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) के अंतर्गत प्रदान किया गया एक उपाय है।
    • इसका उद्देश्य वचन के प्रति दायित्व की विनिर्दिष्ट अनुपालन करना है।
    • SRA की धारा 10 में प्रावधान है कि संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन SRA की धारा 11 (2), धारा 14, धारा 16 में निहित प्रावधानों के अधीन लागू किया जाएगा।
    • धारा 11 (2) में प्रावधान है कि न्यासी (ट्रस्टी) द्वारा की गई कोई भी संविदा लागू नहीं की जा सकती है यदि वह:
      • अपनी शक्तियों से अधिक, या
      • विश्वास भंग
    • धारा 14 में प्रावधान है कि निम्नलिखित संविदा प्रवर्तनीय नहीं हैं:
      • जहाँ धारा 20 के अंतर्गत प्रतिस्थापित अनुपालन है।
      • संविदा प्रकृति में निर्धारणीय है।
      • संविदा पक्ष की व्यक्तिगत योग्यता पर इतना निर्भर है कि इसे विशेष रूप से इसकी भौतिक शर्तों में लागू नहीं किया जा सकता है।
    • संविदा में ऐसे कर्त्तव्य का निरंतर अनुपालन निहित है जिसकी समीक्षा न्यायालय नहीं कर सकता।
    • SRA की धारा 16 राहत के लिये व्यक्तिगत प्रतिबंधों का प्रावधान करती है। निम्नलिखित व्यक्ति के पक्ष में विनिर्दिष्ट अनुतोष की अनुमति नहीं दी जा सकती:
      • धारा 20 के अंतर्गत प्रतिस्थापित निष्पादन किसने प्राप्त किया है,
      • कौन:
        • कार्य करने में असमर्थ हो गया है,
        • संविदा की किसी भी आवश्यक शर्त का उल्लंघन करता है,
        • संविदा का पालन किया जाना शेष है,
        • संविदा के साथ धोखाधड़ी करने वाला कार्य करता है,
        • संविदा के साथ जानबूझकर विपरीत कार्य करता है,
        • संविदा द्वारा स्थापित किये जाने वाले संबंध को नष्ट करने वाला कार्य करता है।
      • जो यह सिद्ध करने में असफल रहता है कि उसने संविदा की उन आवश्यक शर्तों का अनुपालन किया है या अनुपालन करने के लिये सदैव तत्पर एवं इच्छुक रहा है, जिनका अनुपालन उसके द्वारा किया जाना है, सिवाय उन शर्तों के, जिनका अनुपालन प्रतिवादी द्वारा रोका गया है या क्षमा किया गया है।
    • इस खंड के प्रयोजन के लिये:
    • जहाँ किसी संविदा में धन का भुगतान शामिल है, वहाँ वादी के लिये प्रतिवादी को वास्तव में कोई धनराशि देना या न्यायालय में जमा करना आवश्यक नहीं है, सिवाय इसके कि जब न्यायालय द्वारा ऐसा निर्देश दिया गया हो;
    • वादी को संविदा के वास्तविक निर्माण के अनुसार उसका निष्पादन, या निष्पादन के लिये तत्परता एवं इच्छा को सिद्ध करना होगा।
  • विनिर्दिष्ट अनुपालन से राहत अनिवार्य या विवेकाधीन:
    • SRA को वर्ष 2018 में संशोधित किया गया था, जिससे अधिनियम में कुछ बड़े परिवर्तन हुए।
    • इस संशोधन के पीछे मुख्य कारण संविदा के प्रवर्तन में अधिक निश्चितता लाना एवं परिणामस्वरूप “संविदा के प्रवर्तन” और “व्यापारिक सुलभता” में भारत की रैंकिंग में सुधार करना था।
    • ग्लोबल म्यूज़िक जंक्शन प्राइवेट लिमिटेड बनाम शत्रुघ्न कुमार उर्फ ​​खेशारी लाल यादव एवं अन्य (2023) मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि वर्ष 2018 में संशोधन के साथ संविदा का विनिर्दिष्ट अनुतोष अपवाद के बजाय एक सामान्य नियम है।
      • न्यायालय ने माना कि विनिर्दिष्ट अनुतोष की प्रकृति न्यायसंगत, विवेकाधीन उपाय से बदलकर सांविधिक उपाय में बदल दी गई है।
  • 2018 संशोधन पूर्वव्यापी या संभावित:
    • भारत के मुख्य न्यायाधीश ए.वी. रमना, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी एवं न्यायमूर्ति हिमा कोहली की तीन न्यायाधीशों वाली पीठ ने माना कि कट्टा सुजाता रेड्डी बनाम सिद्धमसेट्टी इंफ्रा प्रोजेक्ट्स (2022) के मामले में 2018 का संशोधन संभावित है।
    • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि 2018 संशोधन उन लेन-देन पर लागू नहीं होगा जो 2018 संशोधन (1 अक्टूबर 2018) के लागू होने से पहले हुए थे।
    • न्यायालय ने माना कि संशोधन पूर्वव्यापी है क्योंकि यह महज़ प्रक्रियागत अधिनियम नहीं है, बल्कि इसके कामकाज में मूलभूत सिद्धांत अंतर्निहित हैं। इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि संशोधन पूर्वव्यापी नहीं है।
  • तत्परता एवं इच्छा:
    • विनिर्दिष्ट अनुपालन के वाद में सिद्ध की जाने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्यों में से एक है वादी पर संविदा निष्पादित करने के लिये “तत्परता” एवं “इच्छा”।
    • SRA की धारा 16 अनुतोष के लिये व्यक्तिगत प्रतिबंध लगाती है।
    • धारा 16 (c) में प्रावधान है कि किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में विनिर्दिष्ट अनुतोष नहीं किया जा सकता जो यह सिद्ध करने में विफल रहता है कि वह संविदा के अपने हिस्से को पूरा करने के लिये तैयार एवं इच्छुक है।
    • यू.एन. कृष्णमूर्ति बनाम ए.एम. कृष्णमूर्ति (2022) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि
      • तत्परता का अर्थ है संविदा को पूरा करने के लिये पक्ष की क्षमता।
      • इच्छा से अभिप्राय वादी के आचरण से है।

परिसीमा अवधि क्या है?

  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2(j) के अनुसार "परिसीमा अवधि" का अर्थ अनुसूची द्वारा किसी वाद, अपील या आवेदन के लिये निर्धारित परिसीमा अवधि है।
  • परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 में प्रावधान है कि निर्धारित अवधि के बाद संस्थित किया गया प्रत्येक वाद, अपील एवं आवेदन खारिज कर दिया जाएगा, भले ही परिसीमा अवधि को बचाव के रूप में स्थापित नहीं किया गया हो।

विनिर्दिष्ट अनुपालन के वाद की परिसीमा अवधि क्या है?

  • परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 54 में प्रावधान है कि संविदा के विशिष्ट निष्पादन के लिये वाद संस्थित करने की सीमा अवधि 3 वर्ष है। जिस समय से अवधि की गणना की जाएगी वह है,
    • अनुपालन के लिये निर्धारित तिथि, या
    • यदि ऐसी कोई तिथि निर्धारित नहीं है, जब वादी को सूचना हो कि प्रदर्शन से मना कर दिया गया है।

विनिर्दिष्ट अनुपालन के वाद की परिसीमा अवधि पर निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • राजेश कुमार बनाम आनंद कुमार एवं अन्य (2024):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि विनिर्दिष्ट अनुतोष के सभी वादों को केवल इसलिये नहीं खारिज किया जाएगा क्योंकि यह करार में निर्धारित परिसीमा अवधि की अनदेखी करते हुए परिसीमा अवधि के अंदर संस्थित किया गया है।
    • तथ्य यह है कि परिसीमा अवधि तीन वर्ष है, इससे तात्पर्य यह नहीं है कि कोई क्रेता वाद संस्थित करने के लिये एक या दो वर्ष तक इंतज़ार कर सकता है।
    • न्यायालय ने माना कि तीन वर्ष की परिसीमा अवधि वादी को संविदा के उल्लंघन के विषय में जानने के बावजूद अंतिम समय में वाद संस्थित करने एवं विनिर्दिष्ट अनुतोष प्राप्त करने की स्वतंत्रता नहीं देती है।
  • विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से सब्बीर (मृत) बनाम विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से अंजुमन (मृतक के बाद) 2023:
    • न्यायालय ने माना कि अनुसूची के अनुच्छेद 54 के अनुसार विनिर्दिष्ट अनुतोष का वाद संस्थित करने की परिसीमा अवधि “संविदा द्वारा निर्धारित तिथि” से 3 वर्ष है या यदि ऐसी कोई तिथि निर्धारित नहीं है तो वादी को “सूचना है कि अनुपालन से मना कर दिया गया है”।
  • ए. वल्लियमई बनाम के.पी. मुरली (2023):
    • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहाँ संविदा द्वारा अनुपालन का समय निर्धारित नहीं किया गया है, वहाँ अनुसूची के अनुच्छेद 54 भाग II के अनुसार परिसीमा अवधि उस तिथि से चलेगी, जिस दिन वादी को प्रतिवादी की ओर से संविदा को निष्पादित करने से मना करने की सूचना मिली थी, ताकि परिसीमा अवधि निर्धारित की जा सके।

पारिवारिक कानून

मुस्लिम विधि के अंतर्गत मौखिक उपहार

 13-Aug-2024

“सहस डिग्री कॉलेज सचिव नदीम हसन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य ज़िला मजिस्ट्रेट जे.पी. नगर व अन्य के माध्यम से”।

“न्यायालय ने कहा कि मौखिक मुस्लिम उपहारों के अपंजीकृत लिखित अभिलेखों को भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-A की कार्यवाही से छूट दी गई है”।

न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल

स्रोत:  इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णय दिया कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत मौखिक उपहार, जिन्हें बाद में लिखित रूप में दर्ज कर लिया जाता है, परंतु पंजीकृत नहीं किया जाता, भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-A के अंतर्गत कार्यवाही के अधीन नहीं हैं।

  • न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल ने सहस डिग्री कॉलेज सचिव नदीम हसन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के ज़िला मजिस्ट्रेट जे.पी. नगर व अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

सहस डिग्री कॉलेज के सचिव नदीम हसन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य ज़िला मजिस्ट्रेट जे.पी. नगर एवं अन्य के मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • आले हसन ने ग्राम बिलाना, तहसील अमरोहा, ज़िला जेपी नगर स्थित खाता संख्या 76, खसरा संख्या 602/3 व 605/2, कुल रकबा 1.250 हेक्टेयर भूमिधारी भूमि का मौखिक दान (हिबा) 22 दिसंबर 2005 को सरवरी एजुकेशनल सोसायटी के पक्ष में कर दिया।
  • सरवरी एजुकेशनल सोसाइटी ने यह उपहार स्वीकार कर लिया तथा भूमि का कब्ज़ा सोसाइटी को सौंप दिया गया।
  • मौखिक उपहार का ज्ञापन उसी तिथि (22 दिसंबर 2005) को तैयार किया गया था।
  • इसके उपरांत 06 फरवरी 2006 को सरवरी एजुकेशनल सोसाइटी के प्रबंधक के रूप में कार्य करते हुए मोहम्मद असलम ने सहस डिग्री कॉलेज के पक्ष में मौखिक उपहार दिया।
  • सहस डिग्री कॉलेज ने यह उपहार अपने सचिव नदीम हसन (आले हसन के पुत्र) के माध्यम से स्वीकार किया।
  • इस दूसरे उपहार का "याद्दास्त" (लिखित अभिलेख) के रूप में एक ज्ञापन 28 फरवरी 2006 को बनाया गया।
  • दोनों उपहार मुस्लिम पर्सनल विधि के अनुसार मौखिक रूप से दिये गए थे।
  • एकपक्षीय रिपोर्ट के आधार पर भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-A के अंतर्गत कार्यवाही आरंभ की गई।
  • स्टाम्प ड्यूटी में 11,25,000/- रुपए की कमी निर्धारित करते हुए तथा समान राशि का अर्थदण्ड लगाते हुए आदेश पारित किया गया।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने इस आदेश के विरुद्ध अपील की, परंतु अपील अस्वीकार कर दी गई।
  • याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि उपहारों को केवल रिकॉर्ड रखने के उद्देश्य ("याद्दास्त") के लिये लिखित ज्ञापन में दर्ज किया गया था और उन्हें पंजीकृत करने की आवश्यकता नहीं थी, इसलिये उन पर कोई स्टाम्प शुल्क देय नहीं था।
  • याचिकाकर्त्ताओं ने भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-A के अंतर्गत पारित आदेशों को चुनौती देते हुए रिट याचिकाएँ दायर कीं और भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1882 की धारा 2(14-A) (जैसा कि यू.पी. अधिनियम संख्या 38, 2001 द्वारा सम्मिलित किया गया) को असंवैधानिक, शून्य एवं अधिकारहीन घोषित करने की मांग की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत मौखिक उपहार, जिन्हें अपंजीकृत दस्तावेज़ों पर प्रलेखित किया जाता है, भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 की धारा 47-A के तहत कार्यवाही के अधीन नहीं हो सकते।
  • न्यायालय ने पुष्टि की कि भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-A केवल तभी लागू होती है जब कोई दस्तावेज़ पंजीकरण के लिये प्रस्तुत किया जाता है, अन्यथा नहीं।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि प्राधिकारियों का मानना ​​था कि हिबा/उपहार विलेख पर स्टाम्प शुल्क आवश्यक है, तो धारा 47-A के बजाय स्टाम्प अधिनियम की धारा 33 के अंतर्गत कार्यवाही आरंभ की जानी चाहिये थी।
  • हफीज़ा बीबी एवं अन्य बनाम शेख फरीद (मृत) LRs एवं अन्य, 2011 में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने दोहराया कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत उपहार के तीन आवश्यक तत्त्व हैं- उपहार की घोषणा, स्वीकृति, और कब्ज़े का परिदान।
  • न्यायालय ने माना कि संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 129 मुस्लिम विधि के नियम को संरक्षित करती है और संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 123 के अनुप्रयोग को मुस्लिमों द्वारा अचल संपत्ति के उपहार पर लागू होने से रोकती है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उक्त आदेश विधिक दृष्टि से मान्य नहीं हैं, इसलिये उन्हें निरस्त कर दिया तथा निर्देश दिया कि याचिकाकर्त्ताओं द्वारा उक्त आदेश के अंतर्गत जमा कराई गई राशि दो माह के अंदर वापस की जाए।

मुस्लिम विधि के अंतर्गत उपहार क्या है?

  • मुस्लिम विधि के अंतर्गत हिबा या उपहार को बिना किसी प्रतिफल के एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को संपत्ति के तत्काल अंतरण के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहाँ प्राप्तकर्त्ता या उनकी ओर से कोई अन्य व्यक्ति अंतरण को स्वीकार करता है।
  • हिबा को नियंत्रित करने वाला विधिक ढाँचा इस्लामी न्यायशास्त्र के तीन प्राथमिक स्रोतों से प्राप्त हुआ है: कुरान, हदीस (पैगंबर मुहम्मद के कथन और कार्य) और इस्लामी विचारधारा के विभिन्न स्कूलों द्वारा व्याख्याएँ।
  • उपहार देने के इस्लामी प्रोत्साहन का आधार पैगंबर मुहम्मद की एक हदीस है, जिसमें कहा गया है: "आपस में उपहारों का आदान-प्रदान करो ताकि प्रेम बढ़े।"
  • आधिकारिक इस्लामी विधिक पाठ "कंज अल दाक्विक" हिबा की एक औपचारिक परिभाषा प्रदान करता है जिसे इस्लामी न्यायशास्त्र में मान्यता प्राप्त है।

वैध उपहार की अनिवार्यताएँ क्या हैं?

  • दानकर्त्ता द्वारा घोषणा:
    • संपत्ति को उपहार में देने या बेचने का इरादा रखने वाले व्यक्ति को घोषणा करनी होगी।
    • मुस्लिम विधि के अनुसार यह घोषणा मौखिक या लिखित हो सकती है।
    • लिखित घोषणा को 'हिबा-नामा' के नाम से जाना जाता है, परंतु इसका पंजीकरण अनिवार्य नहीं है।
    • घोषणा स्पष्ट और सुस्पष्ट होनी चाहिये; निहित घोषणाएँ वैध नहीं हैं।
    • घोषणा स्वतंत्र सहमति और सद्भावनापूर्ण इरादे से की जानी चाहिये।
    • वैध घोषणा के लिये निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी चाहिये:
      • यह मौखिक या लिखित हो सकता है
      • यह स्पष्ट होना चाहिये, निहित नहीं
      • इसे बिना किसी दबाव, अनुचित प्रभाव, धोखाधड़ी, गलती या गलत बयानी के स्वतंत्र सहमति से बनाया जाना चाहिये
      • इसे सद्भावनापूर्ण इरादे से, बिना किसी दुर्भावना के बनाया जाना चाहिये
    • आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि उपहार की घोषणा के लिये:
      • दानकर्त्ता द्वारा सार्वजनिक बयान, या तो साक्षियों की उपस्थिति में या अन्यथा
      • स्पष्ट संकेत कि संपत्ति दानकर्त्ता को उपहार में दी गई है
      • इस बात का साक्ष्य कि दानकर्त्ता ने उपहार प्राप्तकर्त्ता को कब्ज़ा देकर स्वामित्व का अधिकार खो दिया है
      • दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा उपहार की स्वीकृति
    • सार्वजनिक बयान के बिना एकतरफा घोषणा, वैध उपहार स्थापित करने के लिये पर्याप्त नहीं है।
  • दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा स्वीकृति:
    • दान प्राप्तकर्त्ता को हिबा स्वीकार करने की अपनी इच्छा स्पष्ट रूप से व्यक्त करनी चाहिये।
    • स्वीकृति या तो स्पष्ट या निहित हो सकती है।
    • यदि दान प्राप्तकर्त्ता स्वीकृति से इनकार करता है, तो हिबा अमान्य हो जाती है।
    • कोई भी दानकर्त्ता किसी अनिच्छुक प्राप्तकर्त्ता पर हिबा थोप नहीं सकता।
    • कोई भी व्यक्ति जो संपत्ति रखने में सक्षम हो, उपहार का प्राप्तकर्त्ता हो सकता है।
    • हिबा स्वीकार करने के लिये उम्र, लिंग या धर्म के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
    • गैर-मुसलमानों को हिबा का अंतरण वैध है।
    • हिबा के समय दानकर्त्ता को जीवित व्यक्ति के रूप में अस्तित्व में होना चाहिये।
    • अवयस्क के लिये, उनके विधिक अभिभावक की सहमति से स्वीकृति दी जा सकती है।
    • दान प्राप्तकर्त्ता द्वारा वैध स्वीकृति के लिये आवश्यक शर्तों में शामिल हैं:
      • संपत्ति रखने की क्षमता
      • आयु, लिंग, पंथ या धर्म के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं
      • कोई भी विधिक या न्यायिक व्यक्ति हो सकता है
      • इसमें पागल, अवयस्क या अभिभावक (अपने संरक्षक की ओर से) शामिल हो सकते हैं
  • कब्ज़े का परिदान:
    • जब तक कब्ज़ा पूरा न हो जाए, हिबा वैध नहीं है।
    • स्वामित्व का केवल अंतरण ही पर्याप्त नहीं है; कब्ज़ा सौंपना आवश्यक है।
    • परिदान का तरीका उपहार में दी गई संपत्ति की प्रकृति पर निर्भर करता है।
    • मुसलमानों में वैध उपहार के लिये लिखित रूप से देना आवश्यक नहीं है, परंतु कब्ज़े का परिदान आवश्यक है।
    • कब्ज़ा वास्तविक रूप से या रचनात्मक रूप से दिया जा सकता है।
    • जब दानकर्त्ता को संपत्ति पर प्रभुत्व का अधिकार प्राप्त हो जाता है, तो उसे कब्ज़ाधारी माना जाता है।
    • पंजीकरण से उपहार में कब्ज़ा न दिये जाने का दोष दूर नहीं होता।
    • कुछ मामलों में कब्ज़े की परिदान की आवश्यकता नहीं होती:
      • पिता द्वारा अवयस्क या पागल व्यक्ति को हिबा
      • पति और पत्नी के बीच हिबा
      • जब दानकर्त्ता और दान लेने वाला एक ही घर में रहते हों
      • जब दानकर्त्ता और दान प्राप्तकर्त्ता संपत्ति में सह-भागी हों
      • आंशिक वितरण या अमूर्त संपत्ति के मामले
      • जब दान प्राप्तकर्त्ता के पास पहले से ही कब्ज़ा हो

उपहार के लिये आवश्यक शर्तें और प्रतिबंध क्या हैं?

  • दानकर्त्ता की योग्यता:
    • दानकर्त्ता स्वस्थ मस्तिष्क का होना चाहिये और अवयस्क नहीं होना चाहिये।
    • उसके पास संपत्ति अंतरित करने की विधिक क्षमता होनी चाहिये।
  • उपहार प्राप्तकर्त्ता की योग्यता:
    • दान प्राप्तकर्त्ता को संपत्ति रखने और उसका स्वामित्व रखने में सक्षम होना चाहिये।
    • अवयस्क और अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति अपने अभिभावकों के माध्यम से उपहार प्राप्त कर सकते हैं।
  • संपत्ति का अस्तित्व होना चाहिये: उपहार का विषय वस्तु हिबा के समय मौजूद होना चाहिये, भविष्य की संपत्ति को हिबा के रूप में नहीं दिया जा सकता है।
  • वैध उद्देश्य:
    • उपहार का उद्देश्य मुस्लिम विधि के तहत वैध होना चाहिये।
    • कोई भी ऐसी संपत्ति जो निषिद्ध (हराम) हो, उसे उपहार के रूप में नहीं दिया जा सकता।

मुस्लिम विधि के अंतर्गत उपहार के प्रकार क्या हैं?

  • हिबा-बिल-इवाज़ (विनिमय के साथ उपहार):
    • यह एक ऐसा उपहार है जो बदले में दिया जाता है।
    • इस उपहार में, दाता उपहार पाने वाले को कुछ देता है और बदले में, लगभग बराबर मूल्य की कोई चीज़ प्राप्त करता है।
    • इस तरह के उपहार को पंजीकृत होना चाहिये और मौखिक वादा पर्याप्त नहीं है।
  • हिबा-बा-शर्त-उल-इवाज़:
    • इस प्रकार का उपहार बदले में कुछ प्राप्त करने की शर्त के साथ दिया जाता है, यदि शर्त पूरी नहीं होती है, तो उपहार रद्द किया जा सकता है।
    • उपहार को वैध बनाने के लिये कब्ज़े का परिदान आवश्यक है।
    • उपहार प्राप्तकर्त्ता द्वारा दाता को इवाज़ (वापसी) सौंपे जाने पर उपहार अपरिवर्तनीय हो जाता है।
  • अरीयत:
    • अरीयत स्वामित्व का अंतरण नहीं है, बल्कि लाभ का आनंद लेने का एक अस्थायी लाइसेंस है, जब तक अनुदानकर्त्ता चाहे।
    • दानकर्त्ता की मृत्यु होने पर, संपत्ति दानकर्त्ता को वापस कर दी जाएगी।
  • सदकाः
    • सदका धार्मिक पुण्य प्राप्त करने के उद्देश्य से दिया गया उपहार है।
    • एक बार सदका का उपहार दे दिया गया और कब्ज़ा सौंप दिया गया, तो यह अपरिवर्तनीय हो जाता है।
    • यदि सदका में संपत्ति का अविभाजित हिस्सा शामिल है तो वह वैध नहीं है।

उपहार अंतरण के तरीके क्या हैं?

परिचय:

  • कब्ज़ा अंतरण का तरीका संपत्ति की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। मुख्य तौर पर, कब्ज़ा दो तरीकों से अंतरित किया जा सकता है:
    • वास्तविक कब्ज़ा: मूर्त चल संपत्ति (जैसे- सिक्के, आभूषण) के लिये, वास्तविक कब्ज़े के लिये एक पक्ष से दूसरे पक्ष को संपत्ति का भौतिक अंतरण आवश्यक है। अचल संपत्ति के लिये, केवल दस्तावेज़ ही पर्याप्त नहीं हैं; दाता को संपत्ति को भौतिक रूप से त्यागना होगा तथा दानकर्त्ता को औपचारिक रूप से कब्ज़ा लेना होगा।
    • रचनात्मक कब्ज़ा: इस विधि में प्रतीकात्मक अंतरण शामिल है जब भौतिक वितरण अव्यावहारिक है। अमूर्त संपत्ति के लिये, कार्यों को अंतरण को इंगित करना चाहिये, जबकि भौतिक संपत्ति के लिये, सभी अधिकारों या हितों को औपचारिक रूप से अंतरित किया जाना चाहिये। दानकर्त्ता को स्वामित्व के अंतरण को प्रदर्शित करने वाला एक कार्य करना चाहिये।

कब्ज़े के परिदान की पूर्णता:

  • चल संपत्ति के लिये, कब्ज़े का परिदान तब पूर्ण माना जाता है जब प्राप्तकर्त्ता को संपत्ति भौतिक रूप से प्राप्त हो जाती है। अमूर्त या अचल संपत्ति के लिये, दो सिद्धांत लागू होते हैं:
    • लाभ सिद्धांत: उपहार तब पूरा माना जाता है जब प्राप्तकर्त्ता उपहार के लाभों का आनंद लेना शुरू कर देता है।
    • रुचि सिद्धांत: उपहार की पूर्णता, दाता के इरादे पर निर्भर करती है। न्यायिक निर्णय प्रत्येक मामले के विशिष्ट तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित होते हैं।

उपहार का निरसन:

  • दानकर्त्ता द्वारा कब्ज़ा मिलने से पहले किसी भी समय उपहार को रद्द किया जा सकता है।
  • निम्नलिखित मामलों को छोड़कर, कब्ज़े के परिदान उपरांत भी उपहार को रद्द किया जा सकता है:
    • जब उपहार पति द्वारा अपनी पत्नी को या पत्नी द्वारा अपने पति को दिया जाता है
    • जब दानप्राप्तकर्त्ता का दानकर्त्ता से निषिद्ध संबंधों के भीतर संबंध होता है
    • जब दानकर्त्ता की मृत्यु हो जाती है
    • जब दी गई वस्तु बिक्री, उपहार या अन्य तरीके से प्राप्तकर्त्ता के कब्ज़े से बाहर हो गई हो
    • जब दी गई वस्तु खो गई हो या नष्ट हो गई हो
    • जब दी गई वस्तु के मूल्य में वृद्धि हो गई हो, वृद्धि का कारण चाहे जो भी हो
    • जब दी गई वस्तु इतनी बदल जाती है कि उसकी पहचान नहीं हो पाती, जैसे जब गेहूँ को पीसकर आटे में बदल दिया जाता है।
    • जब दानकर्त्ता को उपहार के बदले (इवाज़ )में कुछ मिला हो।

भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 की धारा 47-A क्या है?

  • भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 47-A, कम मूल्यांकित लिखतों से निपटने के उपायों से संबंधित है।
  • कलेक्टर को रेफर करना: संपत्ति अंतरण से संबंधित किसी दस्तावेज़ के पंजीकरण के समय, यदि पंजीकरण अधिकारी को संदेह हो कि दस्तावेज़ में दर्शाया गया बाज़ार मूल्य या प्रतिफल कम दर्शाया गया है, तो उसे मूल्यांकन और देय उचित शुल्क के निर्धारण के लिये दस्तावेज़ को कलेक्टर को रेफर करना होगा।
  • कलेक्टर द्वारा निर्धारण: कलेक्टर, ऐसा संदर्भ प्राप्त करने पर, पक्षों को सुनवाई का उचित अवसर प्रदान करेगा और निर्धारित नियमों के अनुसार जाँच करेगा। कलेक्टर उचित बाज़ार मूल्य या प्रतिफल और उचित शुल्क निर्धारित करेगा। शुल्क में किसी भी कमी का भुगतान उत्तरदायी पक्ष द्वारा किया जाना चाहिये।
  • कलेक्टर की पहल: कलेक्टर, या तो स्वेछा से या पंजीकरण महानिरीक्षक या ज़िला रजिस्ट्रार के रेफरल पर, दस्तावेज़ के पंजीकरण के तीन साल के भीतर, उसके बाज़ार मूल्य या प्रतिफल की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिये दस्तावेज़ की समीक्षा कर सकता है। कलेक्टर किसी भी अतिरिक्त देय शुल्क का निर्धारण करने के लिये उप-धारा (2) में उल्लिखित प्रक्रिया का पालन करेगा। यह प्रावधान भारतीय स्टाम्प (हिमाचल प्रदेश संशोधन) अधिनियम, 1988 के लागू होने से पहले पंजीकृत उपकरणों पर लागू नहीं होता है।
  • मूल दस्तावेज़ प्रस्तुत न करना: यदि मूल दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है या प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है, तो कलेक्टर, पंजीयन अधिकारी से प्रामाणित प्रतिलिपि का अनुरोध कर सकता है और उप-धारा (3) में वर्णित अनुसार मूल्यांकन के साथ प्रक्रिया आगे बढ़ा सकता है।
  • अपील: उपधारा (2) या (3) के अंतर्गत कलेक्टर के आदेश से व्यथित कोई भी व्यक्ति आदेश की तिथि से तीस दिनों के भीतर ज़िला न्यायाधीश के समक्ष अपील कर सकता है। अपीलों पर इस अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित नियमों के अनुसार कार्यवाही की जाएगी।
  • बाज़ार मूल्य परिभाषा: इस धारा के प्रयोजनों के लिये, संपत्ति का "बाज़ार मूल्य" वह मूल्य है जो संपत्ति को संपत्ति अंतरण से संबंधित दस्तावेज़ के निष्पादन की तिथि पर खुले बाज़ार में बेचने पर प्राप्त होता, जैसा कि कलेक्टर या अपीलीय प्राधिकारी द्वारा अनुमानित किया जाता है।