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सांविधानिक विधि

SC/ST उप-वर्गीकरण मामला

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 02-Aug-2024

पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य 

“उप-वर्गीकरण, मूलभूत समानता प्राप्त करने के साधनों में से एक है।”

सात न्यायाधीशों की पीठ  

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के बीच उप-वर्गीकरण को यथावत् बनाए रखा ताकि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों तक पहुँच सके। पीठ में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, विक्रम नाथ, बेला एम. त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा व सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं।

  • उच्चतम न्यायालय ने 6:1 बहुमत से पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005):

  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम 2000 को रद्द कर दिया, जिसने अनुसूचित जातियों को चार समूहों में उप-वर्गीकृत किया था। 
  • न्यायालय ने माना कि अनुसूचित जातियाँ अपने आप में एक समरूप वर्ग बनाती हैं तथा उन्हें आगे उप-विभाजित या उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।

उद्भव: 

  • यह मामला पंजाब में अनुसूचित जाति आरक्षण के अंतर्गत बाल्मीकि एवं मज़हबी सिख समुदायों को वरीयता देने के प्रयासों से उत्पन्न हुआ। 
  • पंजाब के राज्य विधानमंडल ने पंजाब अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 पारित किया।
  • इसमें यह प्रावधान किया गया कि सीधी भर्ती में अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत 50% रिक्तियाँ अनुसूचित जातियों में से प्रथम वरीयता के रूप में बाल्मीकि एवं मज़हबी सिखों को दी जाएंगी, यदि उपलब्ध हों। 
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।

हरियाणा सरकार अधिसूचना 1994:

  • 9 नवंबर 1994 को हरियाणा सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर राज्य में अनुसूचित जातियों को आरक्षण के उद्देश्य से दो श्रेणियों - ब्लॉक A एवं B- में वर्गीकृत किया। 
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस अधिसूचना को रद्द कर दिया।

तमिलनाडु अरुंथथियार अधिनियम 2009:

  • अधिनियम में प्रावधान था कि शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित 16% सीटें अरुंथथियारों को दी जाएंगी। 
  • इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी।

पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2020):

  • 27 अगस्त 2020 को उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि चिन्नैया मामले में दिये गए निर्णय पर सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि चिन्नैया अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण के मामले से जुड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करने में विफल रहा।
  • पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2020) के मामले में इस रेफरल ने वर्तमान संवैधानिक जाँच को जन्म दिया कि क्या आरक्षण सहित सकारात्मक कार्यवाही के लिये अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण वैध है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

मुद्दा 1: क्या अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के अंतर्गत आरक्षित वर्ग का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य है?

  • हाँ, अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के अंतर्गत लाभार्थी वर्गों के भीतर उप-वर्गीकरण सामाजिक पिछड़ेपन के संकेत देने वाले तर्कसंगत आधार पर आधारित होना चाहिये। ऐसे उप-वर्गीकरण के  लिये मानदंड समूहों के बीच परस्पर सामाजिक पिछड़ेपन को दर्शाना चाहिये, जिसे समान या अलग-अलग सामाजिक पहचान के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है।

मुद्दा 2: क्या अनुसूचित जातियाँ समरूप या विषम समूह हैं?

  • निर्णय: जातियों या समूहों को अनुसूचित जातियों के रूप में पहचाने जाने का तार्किक परिणाम यह नहीं है कि इससे समरूप इकाई बनती है।

मुद्दा 3: क्या अनुच्छेद 341, कथित कल्पना के संचालन के माध्यम से समरूप वर्ग बनाता है?

  • निर्णय: भले ही अनुच्छेद 341 एक काल्पनिक कल्पना बनाता हो, लेकिन यह प्रावधान एक एकीकृत वर्ग नहीं बनाता है जिसे आगे उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। यह प्रावधान केवल कुछ जातियों या समूहों या उनके कुछ हिस्सों को अनुसूचित जातियों नामक समूह में रखता है। 
  • मुद्दा 4: क्या उप-वर्गीकरण की परिधि पर कोई सीमाएँ हैं? 
  • निर्णय: आरक्षण के उद्देश्यों के लिये अनुसूचित जातियों के अंदर उप-वर्गीकरण संवैधानिक सीमाओं के अधीन है।
    • राज्य दो मॉडलों में से किसी एक को चुन सकता है: एक वरीयता मॉडल, जहाँ आरक्षित सीटों के लिये कुछ उप-जातियों को प्राथमिकता दी जाती है, या एक विशिष्ट मॉडल, जहाँ सीटें विशेष रूप से उप-जातियों के  लिये आरक्षित होती हैं।

बहुमत की राय:

  • CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा:
    • अनुच्छेद 14 किसी वर्ग के अंदर उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है, यदि वह विधि के उद्देश्य के लिये समरूप नहीं है। 
    • उप-वर्गीकरण केवल अन्य पिछड़े वर्गों तक सीमित नहीं है, बल्कि अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के अंतर्गत लाभार्थी वर्गों पर भी लागू होता है। 
    • अनुच्छेद 341(1) यह कल्पना नहीं करता कि अनुसूचित जातियाँ एक समरूप वर्ग हैं।
    • अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण पर रोक लगाने वाले चिन्नैया निर्णय को खारिज कर दिया गया है।
    • राज्यों को पिछड़ेपन के संकेतक के रूप में राज्य सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर डेटा एकत्र करना चाहिये।
    • अनुच्छेद 335 अनुच्छेद 16(1) एवं 16(4) के अंतर्गत शक्ति को सीमित नहीं करता है, लेकिन सार्वजनिक सेवाओं में SC/ST के दावों पर विचार करने की पुष्टि करता है।
  • न्यायमूर्ति बी.आर. गवई:
    • राज्य को यह सिद्ध करना होगा कि अनुसूचित जातियों की सूची में अन्य जातियों की तुलना में अधिक लाभकारी उपचार प्राप्त करने वाले समूह का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। 
    • राज्य द्वारा ऐसा औचित्य अनुभवजन्य आँकड़ों पर आधारित होना चाहिये जो दर्शाता है कि उप-वर्ग का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है।
    • राज्य अनुसूचित जातियों के  लिये उपलब्ध 100% सीटों को किसी उप-वर्ग के पक्ष में आरक्षित नहीं कर सकता है, जिससे सूची में अन्य लोगों को बाहर रखा जा सके। 
    • उप-वर्गीकरण की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब उप-वर्ग एवं बड़े वर्ग के लिये आरक्षण हो।
  • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ:
    • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई के विचारों से सहमत हैं।
  • न्यायमूर्ति पंकज मित्तल:
    • न्यायमूर्ति पंकज मिथल मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की इस राय से सहमत हैं कि अनुसूचित जातियों (SC) के अंदर उप-वर्गीकरण संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है। 
    • वह न्यायमूर्ति बी.आर. गवई के इस विचार से सहमत हैं कि 'क्रीमी लेयर' सिद्धांत को SC एवं ST पर लागू किया जाना चाहिये।
  • अनुशंसाएँ:
    • आरक्षण नीतियों का पुनर्मूल्यांकन: उन्होंने आरक्षण नीतियों एवं वंचित समूहों के उत्थान के लिये संभावित नए तरीकों पर नए सिरे से विचार करने का सुझाव दिया है, जब तक कि नया दृष्टिकोण तैयार न हो जाए, तब तक मौजूदा प्रणाली को खत्म नहीं किया जाना चाहिये।
    • आरक्षण की सीमा: आरक्षण लाभार्थियों की पहली पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिये। यदि परिवार ने उच्च दर्जा प्राप्त कर लिया है तो अगली पीढ़ियों को ये लाभ स्वतः नहीं मिलने चाहिये।
    • आवधिक समीक्षा: ऐसे व्यक्तियों या परिवारों को बाहर करने के लिये नियमित मूल्यांकन होना चाहिये जो आगे बढ़ चुके हैं तथा जिन्हें अब आरक्षण के लाभ की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा:
    • वह मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की इस राय से सहमत हैं कि अनुसूचित जातियों के अंदर उप-वर्गीकरण संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है। 
    • न्यायमूर्ति एस.सी. शर्मा न्यायमूर्ति बी.आर. गवई के इस दृष्टिकोण से सहमत हैं कि ‘क्रीमी लेयर’ सिद्धांतको SC एवं ST पर लागू किया जाना चाहिये।

उप-वर्गीकरण मामले में असहमतिपूर्ण राय किसने दी?

  • न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने SC/ST उप-वर्गीकरण मामले में एकमात्र असहमतिपूर्ण राय दी।
  • संवैधानिक ढाँचा:
  • अनुच्छेद 341 के अंतर्गत "अनुसूचित जातियों" को निर्दिष्ट करने वाली राष्ट्रपति सूची अधिसूचना के प्रकाशन पर अंतिम हो जाती है।
  • केवल संसद ही अनुच्छेद 341(1) के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की सूची में जातियों को शामिल या बाहर कर सकती है।
  • अनुच्छेद 341 अधिसूचना में अनुसूचित जातियों के रूप में सूचीबद्ध जातियों को उप-वर्गीकृत या पुनर्समूहित करने के लिये राज्यों के पास कोई विधायी अधिकार नहीं है।
  • अनुसूचित जातियों की समरूप प्रकृति:
    यद्यपि अनुसूचित जातियाँ विभिन्न जातियों/जनजातियों से आती हैं, फिर भी उन्हें अनुच्छेद 341 के अंतर्गत राष्ट्रपति की अधिसूचना के आधार पर विशेष दर्जा प्राप्त है। 
  • "अनुसूचित जातियों" का इतिहास एवं पृष्ठभूमि उन्हें एक समरूप वर्ग बनाती है, जिसके साथ राज्यों द्वारा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।
  • राज्य की शक्तियों की सीमाएँ:
  • राज्य आरक्षण या सकारात्मक कार्यवाही की आड़ में राष्ट्रपति सूची में बदलाव नहीं कर सकते या अनुच्छेद 341 के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। 
  • अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करने वाली कोई भी राज्य कार्यवाही असंवैधानिक होगी।
  • अनुच्छेद 142 की शक्तियों की सीमाएंँ:
  • अनुच्छेद 142 का प्रयोग संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करके नए उपबंध का निर्माण  करने के लिये नहीं किया जा सकता। 
  • उच्चतम न्यायालय संविधान का उल्लंघन करने वाली राज्य की कार्यवाहियों को वैध नहीं सिद्ध कर सकता, भले ही वे सद्भावना से की गई हों।
  • निष्कर्ष:
  • ई.वी. चिन्नैया मामले में निर्धारित विधि सत्य है तथा इसे यथावत रखा जाना चाहिये।
  • राज्यों के पास अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करने का कोई अधिकार नहीं है।

भारत में जाति आधारित आरक्षण की यात्रा क्या है?

  • जातिगत भेदभाव का ऐतिहासिक संदर्भ:
    • भारत में जातिगत भेदभाव अत्यंत गंभीर था, जो दुनिया के अन्य भागों में नस्लीय भेदभाव एवं गुलामी से भी अधिक था। 
    • सदियों से निचली जातियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था, उन्हें शिक्षा एवं पानी तक पहुँच जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा जाता था। 
    • डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने निचली जातियों के अधिकारों हेतु लड़ने के लिये महार सत्याग्रह जैसे आंदोलनों का नेतृत्व किया।
  • अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये संवैधानिक प्रावधान
    • अनुच्छेद 341 एवं 342 राष्ट्रपति सूचियों के माध्यम से अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की पहचान करने का प्रावधान करते हैं। 
    • अनुच्छेद 15 एवं 16 अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिये आरक्षण एवं विशेष प्रावधानों की अनुमति देते हैं। 
    • अनुच्छेद 46 राज्य को कमज़ोर वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ावा देने के लिये बाध्य करता है।
  • क्रीमी लेयर सिद्धांत
    • इंद्रा साहनी मामले में प्रारंभ में इसे SC/ST पर लागू नहीं किया गया था। 
    • बाद में एम. नागराज एवं जरनैल सिंह जैसे निर्णय ने SC/ST पर क्रीमी लेयर लागू कर दिया।

आरक्षण से संबंधित प्रमुख संशोधन क्या हैं?

क्रम संख्या

संशोधन 

प्रभाव 

1. 

संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951

सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण प्रदान करने हेतु अनुच्छेद 15 में उप-अनुच्छेद (4) को शामिल किया गया।

2.

संविधान (70वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995

पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये अनुच्छेद 16 में उप-अनुच्छेद (4) (A) को शामिल किया गया।

3. 

संविधान (81वाँ संशोधन) अधिनियम, 2000

रिक्तियों को आगे की भर्तियों के के लिये अनुच्छेद 16 में उप-अनुच्छेद (4) (B) को शामिल करना।

4. 

संविधान (82वाँ संशोधन) अधिनियम, 2000

अनुच्छेद 335 में परंतुक जोड़कर आरक्षित श्रेणी के व्यक्तियों के लिये अर्हक अंकों में छूट प्रदान की गई।

5.

संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम, 2002

अनुच्छेद 16(4)(A) में "परिणामी वरिष्ठता के साथ" वाक्यांश को सम्मिलित करके आरक्षित वर्ग को न केवल त्वरित पदोन्नति बल्कि परिणामी वरिष्ठता भी प्रदान की जाएगी।

6.

संविधान (93वाँ संशोधन) अधिनियम, 2006

अनुच्छेद 15 में उप-अनुच्छेद (5) को शामिल करके आरक्षित वर्ग के लिये शिक्षा संस्थानों में प्रवेश की व्यवस्था की जाएगी।

7.

संविधान (102वाँ संशोधन) अधिनियम, 2018 एवं संविधान (105वाँ संशोधन) अधिनियम, 2021

अनुच्छेद 342A को शामिल करके केंद्र एवं राज्यों द्वारा पिछड़े वर्गों की पहचान का प्रावधान किया गया।

8.

संविधान (103वाँ संशोधन) अधिनियम, 2019

अनुच्छेद 16 के उप-अनुच्छेद (6) को सम्मिलित करके समान रूप से कमज़ोर वर्ग EWS के लिये आरक्षण का प्रावधान करना।

आरक्षण से संबंधित प्रमुख संशोधन क्या हैं?

भारत में आरक्षण पर प्रमुख मामले क्या हैं?

  • मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दोराईराजन (1951)
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि शैक्षणिक संस्थानों में जाति-आधारित आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 29(2) का उल्लंघन है।
  • बी वेंकटरमण बनाम मद्रास राज्य (1951)
    • अनुच्छेद 16(1) एवं 16(2) के अंतर्गत सार्वजनिक सेवाओं में जाति-आधारित आरक्षण को असंवैधानिक घोषित किया गया।
  • एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1963)
    • उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण पर 50% की सीमा तय की तथा निर्णय दिया कि सीमा से परे आरक्षण अनुच्छेद 15(4) का उल्लंघन है।
  • टी. देवदासन बनाम भारत संघ (1964)
    • न्यायालय ने रिक्त आरक्षित पदों को आगे की भर्तियों के लिये प्रयोग करने के नियम को अमान्य करार देते हुए कहा कि यह समान अवसर के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
  • केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस (1976)
    • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये अर्हता अंकों में छूट को यथावत रखा गया, तथा निर्वचन को मौलिक समानता की ओर स्थानांतरित कर दिया गया।
  • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992)
    • इस ऐतिहासिक निर्णय में OBC आरक्षण को यथावत रखा गया, लेकिन पदोन्नति में आरक्षण के विरुद्ध निर्णय दिया गया। साथ ही कुल आरक्षण पर 50% की सीमा की भी पुनरावृत्ति की गई।
  • भारत संघ बनाम वीरपाल सिंह चौहान (1995)
    • पदोन्नति में सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों के लिये कैच-अप नियम लागू किया गया।
  • अजीत सिंह जनुजा बनाम पंजाब राज्य (1996)
    • आरक्षण को प्रशासनिक दक्षता के साथ संतुलित करने पर जोर दिया गया, तथा कैच-अप नियम को सुदृढ़ किया गया।
  • एस. विनोद कुमार बनाम भारत संघ (1996)
    न्यायालय ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये पदोन्नति हेतु अर्हक अंकों में छूट समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है।
  • एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006)
    • परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देने वाले संवैधानिक संशोधनों को यथावत रखा, बशर्ते कि वे प्रशासनिक दक्षता को प्रभावित न करें।
  • अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008)
    • उच्च शिक्षा में OBC के लिये 27% आरक्षण को यथावत रखा गया, लेकिन क्रीमी लेयर को इसकी परिधि से बाहर रखा गया।
  • बीके पवित्रा (द्वितीय) बनाम कर्नाटक राज्य (2019)
    • पदोन्नति में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों के लिये परिणामी वरिष्ठता को यथावत रखा गया, जिससे मूलभूत समानता के सिद्धांत को बल मिला।
  • जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (2018)
    • उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण लाभ के लिये अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के क्रीमी लेयर को बाहर रखने की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • मराठा कोटा मामला (डॉ. जयश्री लक्ष्मणराव पाटिल बनाम मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र) (2021)
    • उच्चतम न्यायालय ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने वाले महाराष्ट्र के कानून को रद्द कर दिया तथा कहा कि यह इंदिरा साहनी के मामले में न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का उल्लंघन करता है।
  • नील ऑरेलियो न्यूंस बनाम भारत संघ (2022)
    • उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण प्रणाली की संवैधानिक वैधता को यथावत रखा तथा मूलभूत समानता के सिद्धांत को सुदृढ़ किया।