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सांविधानिक विधि

SC/ST उप-वर्गीकरण मामला

 02-Aug-2024

पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य 

“उप-वर्गीकरण, मूलभूत समानता प्राप्त करने के साधनों में से एक है।”

सात न्यायाधीशों की पीठ  

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के बीच उप-वर्गीकरण को यथावत् बनाए रखा ताकि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों तक पहुँच सके। पीठ में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, विक्रम नाथ, बेला एम. त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा व सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं।

  • उच्चतम न्यायालय ने 6:1 बहुमत से पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य के मामले में यह निर्णय दिया।

पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005):

  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम 2000 को रद्द कर दिया, जिसने अनुसूचित जातियों को चार समूहों में उप-वर्गीकृत किया था। 
  • न्यायालय ने माना कि अनुसूचित जातियाँ अपने आप में एक समरूप वर्ग बनाती हैं तथा उन्हें आगे उप-विभाजित या उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।

उद्भव: 

  • यह मामला पंजाब में अनुसूचित जाति आरक्षण के अंतर्गत बाल्मीकि एवं मज़हबी सिख समुदायों को वरीयता देने के प्रयासों से उत्पन्न हुआ। 
  • पंजाब के राज्य विधानमंडल ने पंजाब अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 पारित किया।
  • इसमें यह प्रावधान किया गया कि सीधी भर्ती में अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत 50% रिक्तियाँ अनुसूचित जातियों में से प्रथम वरीयता के रूप में बाल्मीकि एवं मज़हबी सिखों को दी जाएंगी, यदि उपलब्ध हों। 
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।

हरियाणा सरकार अधिसूचना 1994:

  • 9 नवंबर 1994 को हरियाणा सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर राज्य में अनुसूचित जातियों को आरक्षण के उद्देश्य से दो श्रेणियों - ब्लॉक A एवं B- में वर्गीकृत किया। 
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस अधिसूचना को रद्द कर दिया।

तमिलनाडु अरुंथथियार अधिनियम 2009:

  • अधिनियम में प्रावधान था कि शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित 16% सीटें अरुंथथियारों को दी जाएंगी। 
  • इस अधिनियम की संवैधानिक वैधता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी।

पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2020):

  • 27 अगस्त 2020 को उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने माना कि चिन्नैया मामले में दिये गए निर्णय पर सात न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि चिन्नैया अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण के मामले से जुड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करने में विफल रहा।
  • पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2020) के मामले में इस रेफरल ने वर्तमान संवैधानिक जाँच को जन्म दिया कि क्या आरक्षण सहित सकारात्मक कार्यवाही के लिये अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण वैध है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

मुद्दा 1: क्या अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के अंतर्गत आरक्षित वर्ग का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य है?

  • हाँ, अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के अंतर्गत लाभार्थी वर्गों के भीतर उप-वर्गीकरण सामाजिक पिछड़ेपन के संकेत देने वाले तर्कसंगत आधार पर आधारित होना चाहिये। ऐसे उप-वर्गीकरण के  लिये मानदंड समूहों के बीच परस्पर सामाजिक पिछड़ेपन को दर्शाना चाहिये, जिसे समान या अलग-अलग सामाजिक पहचान के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है।

मुद्दा 2: क्या अनुसूचित जातियाँ समरूप या विषम समूह हैं?

  • निर्णय: जातियों या समूहों को अनुसूचित जातियों के रूप में पहचाने जाने का तार्किक परिणाम यह नहीं है कि इससे समरूप इकाई बनती है।

मुद्दा 3: क्या अनुच्छेद 341, कथित कल्पना के संचालन के माध्यम से समरूप वर्ग बनाता है?

  • निर्णय: भले ही अनुच्छेद 341 एक काल्पनिक कल्पना बनाता हो, लेकिन यह प्रावधान एक एकीकृत वर्ग नहीं बनाता है जिसे आगे उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। यह प्रावधान केवल कुछ जातियों या समूहों या उनके कुछ हिस्सों को अनुसूचित जातियों नामक समूह में रखता है। 
  • मुद्दा 4: क्या उप-वर्गीकरण की परिधि पर कोई सीमाएँ हैं? 
  • निर्णय: आरक्षण के उद्देश्यों के लिये अनुसूचित जातियों के अंदर उप-वर्गीकरण संवैधानिक सीमाओं के अधीन है।
    • राज्य दो मॉडलों में से किसी एक को चुन सकता है: एक वरीयता मॉडल, जहाँ आरक्षित सीटों के लिये कुछ उप-जातियों को प्राथमिकता दी जाती है, या एक विशिष्ट मॉडल, जहाँ सीटें विशेष रूप से उप-जातियों के  लिये आरक्षित होती हैं।

बहुमत की राय:

  • CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा:
    • अनुच्छेद 14 किसी वर्ग के अंदर उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है, यदि वह विधि के उद्देश्य के लिये समरूप नहीं है। 
    • उप-वर्गीकरण केवल अन्य पिछड़े वर्गों तक सीमित नहीं है, बल्कि अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के अंतर्गत लाभार्थी वर्गों पर भी लागू होता है। 
    • अनुच्छेद 341(1) यह कल्पना नहीं करता कि अनुसूचित जातियाँ एक समरूप वर्ग हैं।
    • अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण पर रोक लगाने वाले चिन्नैया निर्णय को खारिज कर दिया गया है।
    • राज्यों को पिछड़ेपन के संकेतक के रूप में राज्य सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर डेटा एकत्र करना चाहिये।
    • अनुच्छेद 335 अनुच्छेद 16(1) एवं 16(4) के अंतर्गत शक्ति को सीमित नहीं करता है, लेकिन सार्वजनिक सेवाओं में SC/ST के दावों पर विचार करने की पुष्टि करता है।
  • न्यायमूर्ति बी.आर. गवई:
    • राज्य को यह सिद्ध करना होगा कि अनुसूचित जातियों की सूची में अन्य जातियों की तुलना में अधिक लाभकारी उपचार प्राप्त करने वाले समूह का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है। 
    • राज्य द्वारा ऐसा औचित्य अनुभवजन्य आँकड़ों पर आधारित होना चाहिये जो दर्शाता है कि उप-वर्ग का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है।
    • राज्य अनुसूचित जातियों के  लिये उपलब्ध 100% सीटों को किसी उप-वर्ग के पक्ष में आरक्षित नहीं कर सकता है, जिससे सूची में अन्य लोगों को बाहर रखा जा सके। 
    • उप-वर्गीकरण की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब उप-वर्ग एवं बड़े वर्ग के लिये आरक्षण हो।
  • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ:
    • न्यायमूर्ति विक्रम नाथ मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई के विचारों से सहमत हैं।
  • न्यायमूर्ति पंकज मित्तल:
    • न्यायमूर्ति पंकज मिथल मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की इस राय से सहमत हैं कि अनुसूचित जातियों (SC) के अंदर उप-वर्गीकरण संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है। 
    • वह न्यायमूर्ति बी.आर. गवई के इस विचार से सहमत हैं कि 'क्रीमी लेयर' सिद्धांत को SC एवं ST पर लागू किया जाना चाहिये।
  • अनुशंसाएँ:
    • आरक्षण नीतियों का पुनर्मूल्यांकन: उन्होंने आरक्षण नीतियों एवं वंचित समूहों के उत्थान के लिये संभावित नए तरीकों पर नए सिरे से विचार करने का सुझाव दिया है, जब तक कि नया दृष्टिकोण तैयार न हो जाए, तब तक मौजूदा प्रणाली को खत्म नहीं किया जाना चाहिये।
    • आरक्षण की सीमा: आरक्षण लाभार्थियों की पहली पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिये। यदि परिवार ने उच्च दर्जा प्राप्त कर लिया है तो अगली पीढ़ियों को ये लाभ स्वतः नहीं मिलने चाहिये।
    • आवधिक समीक्षा: ऐसे व्यक्तियों या परिवारों को बाहर करने के लिये नियमित मूल्यांकन होना चाहिये जो आगे बढ़ चुके हैं तथा जिन्हें अब आरक्षण के लाभ की आवश्यकता नहीं है।
  • न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा:
    • वह मुख्य न्यायाधीश एवं न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की इस राय से सहमत हैं कि अनुसूचित जातियों के अंदर उप-वर्गीकरण संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है। 
    • न्यायमूर्ति एस.सी. शर्मा न्यायमूर्ति बी.आर. गवई के इस दृष्टिकोण से सहमत हैं कि ‘क्रीमी लेयर’ सिद्धांतको SC एवं ST पर लागू किया जाना चाहिये।

उप-वर्गीकरण मामले में असहमतिपूर्ण राय किसने दी?

  • न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने SC/ST उप-वर्गीकरण मामले में एकमात्र असहमतिपूर्ण राय दी।
  • संवैधानिक ढाँचा:
  • अनुच्छेद 341 के अंतर्गत "अनुसूचित जातियों" को निर्दिष्ट करने वाली राष्ट्रपति सूची अधिसूचना के प्रकाशन पर अंतिम हो जाती है।
  • केवल संसद ही अनुच्छेद 341(1) के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित जातियों की सूची में जातियों को शामिल या बाहर कर सकती है।
  • अनुच्छेद 341 अधिसूचना में अनुसूचित जातियों के रूप में सूचीबद्ध जातियों को उप-वर्गीकृत या पुनर्समूहित करने के लिये राज्यों के पास कोई विधायी अधिकार नहीं है।
  • अनुसूचित जातियों की समरूप प्रकृति:
    यद्यपि अनुसूचित जातियाँ विभिन्न जातियों/जनजातियों से आती हैं, फिर भी उन्हें अनुच्छेद 341 के अंतर्गत राष्ट्रपति की अधिसूचना के आधार पर विशेष दर्जा प्राप्त है। 
  • "अनुसूचित जातियों" का इतिहास एवं पृष्ठभूमि उन्हें एक समरूप वर्ग बनाती है, जिसके साथ राज्यों द्वारा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।
  • राज्य की शक्तियों की सीमाएँ:
  • राज्य आरक्षण या सकारात्मक कार्यवाही की आड़ में राष्ट्रपति सूची में बदलाव नहीं कर सकते या अनुच्छेद 341 के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। 
  • अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करने वाली कोई भी राज्य कार्यवाही असंवैधानिक होगी।
  • अनुच्छेद 142 की शक्तियों की सीमाएंँ:
  • अनुच्छेद 142 का प्रयोग संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करके नए उपबंध का निर्माण  करने के लिये नहीं किया जा सकता। 
  • उच्चतम न्यायालय संविधान का उल्लंघन करने वाली राज्य की कार्यवाहियों को वैध नहीं सिद्ध कर सकता, भले ही वे सद्भावना से की गई हों।
  • निष्कर्ष:
  • ई.वी. चिन्नैया मामले में निर्धारित विधि सत्य है तथा इसे यथावत रखा जाना चाहिये।
  • राज्यों के पास अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिसूचित अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करने का कोई अधिकार नहीं है।

भारत में जाति आधारित आरक्षण की यात्रा क्या है?

  • जातिगत भेदभाव का ऐतिहासिक संदर्भ:
    • भारत में जातिगत भेदभाव अत्यंत गंभीर था, जो दुनिया के अन्य भागों में नस्लीय भेदभाव एवं गुलामी से भी अधिक था। 
    • सदियों से निचली जातियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था, उन्हें शिक्षा एवं पानी तक पहुँच जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा जाता था। 
    • डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने निचली जातियों के अधिकारों हेतु लड़ने के लिये महार सत्याग्रह जैसे आंदोलनों का नेतृत्व किया।
  • अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये संवैधानिक प्रावधान
    • अनुच्छेद 341 एवं 342 राष्ट्रपति सूचियों के माध्यम से अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की पहचान करने का प्रावधान करते हैं। 
    • अनुच्छेद 15 एवं 16 अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की उन्नति के लिये आरक्षण एवं विशेष प्रावधानों की अनुमति देते हैं। 
    • अनुच्छेद 46 राज्य को कमज़ोर वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ावा देने के लिये बाध्य करता है।
  • क्रीमी लेयर सिद्धांत
    • इंद्रा साहनी मामले में प्रारंभ में इसे SC/ST पर लागू नहीं किया गया था। 
    • बाद में एम. नागराज एवं जरनैल सिंह जैसे निर्णय ने SC/ST पर क्रीमी लेयर लागू कर दिया।

आरक्षण से संबंधित प्रमुख संशोधन क्या हैं?

क्रम संख्या

संशोधन 

प्रभाव 

1. 

संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951

सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण प्रदान करने हेतु अनुच्छेद 15 में उप-अनुच्छेद (4) को शामिल किया गया।

2.

संविधान (70वाँ संशोधन) अधिनियम, 1995

पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के लिये अनुच्छेद 16 में उप-अनुच्छेद (4) (A) को शामिल किया गया।

3. 

संविधान (81वाँ संशोधन) अधिनियम, 2000

रिक्तियों को आगे की भर्तियों के के लिये अनुच्छेद 16 में उप-अनुच्छेद (4) (B) को शामिल करना।

4. 

संविधान (82वाँ संशोधन) अधिनियम, 2000

अनुच्छेद 335 में परंतुक जोड़कर आरक्षित श्रेणी के व्यक्तियों के लिये अर्हक अंकों में छूट प्रदान की गई।

5.

संविधान (85वाँ संशोधन) अधिनियम, 2002

अनुच्छेद 16(4)(A) में "परिणामी वरिष्ठता के साथ" वाक्यांश को सम्मिलित करके आरक्षित वर्ग को न केवल त्वरित पदोन्नति बल्कि परिणामी वरिष्ठता भी प्रदान की जाएगी।

6.

संविधान (93वाँ संशोधन) अधिनियम, 2006

अनुच्छेद 15 में उप-अनुच्छेद (5) को शामिल करके आरक्षित वर्ग के लिये शिक्षा संस्थानों में प्रवेश की व्यवस्था की जाएगी।

7.

संविधान (102वाँ संशोधन) अधिनियम, 2018 एवं संविधान (105वाँ संशोधन) अधिनियम, 2021

अनुच्छेद 342A को शामिल करके केंद्र एवं राज्यों द्वारा पिछड़े वर्गों की पहचान का प्रावधान किया गया।

8.

संविधान (103वाँ संशोधन) अधिनियम, 2019

अनुच्छेद 16 के उप-अनुच्छेद (6) को सम्मिलित करके समान रूप से कमज़ोर वर्ग EWS के लिये आरक्षण का प्रावधान करना।

आरक्षण से संबंधित प्रमुख संशोधन क्या हैं?

भारत में आरक्षण पर प्रमुख मामले क्या हैं?

  • मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दोराईराजन (1951)
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि शैक्षणिक संस्थानों में जाति-आधारित आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 29(2) का उल्लंघन है।
  • बी वेंकटरमण बनाम मद्रास राज्य (1951)
    • अनुच्छेद 16(1) एवं 16(2) के अंतर्गत सार्वजनिक सेवाओं में जाति-आधारित आरक्षण को असंवैधानिक घोषित किया गया।
  • एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1963)
    • उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण पर 50% की सीमा तय की तथा निर्णय दिया कि सीमा से परे आरक्षण अनुच्छेद 15(4) का उल्लंघन है।
  • टी. देवदासन बनाम भारत संघ (1964)
    • न्यायालय ने रिक्त आरक्षित पदों को आगे की भर्तियों के लिये प्रयोग करने के नियम को अमान्य करार देते हुए कहा कि यह समान अवसर के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
  • केरल राज्य बनाम एन.एम. थॉमस (1976)
    • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये अर्हता अंकों में छूट को यथावत रखा गया, तथा निर्वचन को मौलिक समानता की ओर स्थानांतरित कर दिया गया।
  • इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992)
    • इस ऐतिहासिक निर्णय में OBC आरक्षण को यथावत रखा गया, लेकिन पदोन्नति में आरक्षण के विरुद्ध निर्णय दिया गया। साथ ही कुल आरक्षण पर 50% की सीमा की भी पुनरावृत्ति की गई।
  • भारत संघ बनाम वीरपाल सिंह चौहान (1995)
    • पदोन्नति में सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों के लिये कैच-अप नियम लागू किया गया।
  • अजीत सिंह जनुजा बनाम पंजाब राज्य (1996)
    • आरक्षण को प्रशासनिक दक्षता के साथ संतुलित करने पर जोर दिया गया, तथा कैच-अप नियम को सुदृढ़ किया गया।
  • एस. विनोद कुमार बनाम भारत संघ (1996)
    न्यायालय ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये पदोन्नति हेतु अर्हक अंकों में छूट समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है।
  • एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006)
    • परिणामी वरिष्ठता के साथ पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देने वाले संवैधानिक संशोधनों को यथावत रखा, बशर्ते कि वे प्रशासनिक दक्षता को प्रभावित न करें।
  • अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008)
    • उच्च शिक्षा में OBC के लिये 27% आरक्षण को यथावत रखा गया, लेकिन क्रीमी लेयर को इसकी परिधि से बाहर रखा गया।
  • बीके पवित्रा (द्वितीय) बनाम कर्नाटक राज्य (2019)
    • पदोन्नति में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों के लिये परिणामी वरिष्ठता को यथावत रखा गया, जिससे मूलभूत समानता के सिद्धांत को बल मिला।
  • जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता (2018)
    • उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण लाभ के लिये अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के क्रीमी लेयर को बाहर रखने की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • मराठा कोटा मामला (डॉ. जयश्री लक्ष्मणराव पाटिल बनाम मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र) (2021)
    • उच्चतम न्यायालय ने मराठा समुदाय को आरक्षण देने वाले महाराष्ट्र के कानून को रद्द कर दिया तथा कहा कि यह इंदिरा साहनी के मामले में न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का उल्लंघन करता है।
  • नील ऑरेलियो न्यूंस बनाम भारत संघ (2022)
    • उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण प्रणाली की संवैधानिक वैधता को यथावत रखा तथा मूलभूत समानता के सिद्धांत को सुदृढ़ किया।

सिविल कानून

किसी कंपनी के विरुद्ध धन संबंधी डिक्री का प्रवर्तन

 02-Aug-2024

धनुष वीर सिंह बनाम डॉ. इला शर्मा   

“निष्पादन न्यायालय, मात्र डिक्री के अनुसार कार्य नहीं कर सकता तथा उसे केवल प्रारूप के अनुसार ही निष्पादित कर सकता है।”

न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आशुतोष श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत किसी कंपनी के विरुद्ध जारी आदेश को उस फर्म के कर्मचारी/प्रतिनिधि/निदेशक के विरुद्ध लागू किया जा सके।

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने धनुषवीर सिंह बनाम डॉ. इला शर्मा मामले में यह निर्णय दिया।

धनुषवीर सिंह बनाम डॉ. इला शर्मा मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • वर्तमान मामले में संशोधनवादी, बेनेट कोलमैन के उपाध्यक्ष थे।
  • उन्हें राम देव भगुना नामक व्यक्ति के साथ 9 वर्ष की अवधि के लिये किराये पर पट्टा समझौता करने के लिये विधिवत अधिकृत किया गया था।
  • मकान मालिक ने किरायेदारी समाप्त कर दी और कंपनी से परिसर खाली करने का अनुरोध किया। परिसर खाली नहीं किया गया और वाद बेदखली तथा अंतः कालीन लाभ की वसूली के लिये दायर किया गया।
  • दूसरी ओर कंपनी ने 10 सितंबर 2018 को एक आवेदन दायर किया जिसमें कहा गया कि वह कब्ज़ा सौंपने को तैयार है, परंतु पट्टाकर्त्ता कब्ज़ा नहीं ले रहा है।
  • तद्नुसार, परिसर की चाबियाँ न्यायालय में प्रस्तुत की गईं और यह स्वीकार किया गया कि परिसर का खाली कब्ज़ा विपक्षी पक्ष को सौंप दिया गया था।
  • मकान मालिक द्वारा पहले दायर किये गए वाद पर कार्यवाही की गई और एकपक्षीय डिक्री पारित की गई।
  • डिक्री धारक ने निर्णीत ऋणी के विरुद्ध निष्पादन मामला दायर किया। यह मामला मेसर्स बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड के तत्कालीन महाप्रबंधक श्री विजय साही के विरुद्ध दायर किया गया था।
  • निष्पादन न्यायालय ने माना कि कंपनी के प्रबंध निदेशक के विरुद्ध निष्पादन मामला आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि वह न तो कार्यवाही में पक्ष थे और न ही पक्षों के बीच हस्ताक्षरित पट्टा समझौते में पक्ष थे।
  • डिक्री धारक ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) की धारा 55 के तहत संशोधन कर्त्ता की गिरफ्तारी या अभिरक्षा में लेने के लिये प्रार्थना करते हुए एक आवेदन दायर किया।
  • अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश ने डिक्री धारक के आवेदन को स्वीकार कर लिया तथा पुनरीक्षण कर्त्ता के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया।
  • इसके लिये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण कार्यवाही आरंभ की गई।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय को इस प्रश्न का उत्तर देना था कि क्या किसी लिमिटेड कंपनी के निदेशकों/अधिकृत प्रतिनिधियों को कंपनी के विरुद्ध धन संबंधी डिक्री के निष्पादन के लिये गिरफ्तार किया जा सकता है या सिविल जेल में अभिरक्षा में रखा जा सकता है।
  • न्यायालय ने CPC के विभिन्न प्रावधानों पर विचार करने के बाद माना कि CPC में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो निर्णीत ऋणी के विरुद्ध उसके कर्मचारी, निदेशक या महाप्रबंधक को गिरफ्तार या अभ्रक्षा में लेकर धन संबंधी डिक्री के निष्पादन का प्रावधान करता हो।
  • CPC के आदेश XXI नियम 50 में किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन के लिये उक्त फर्म के भागीदारों की परिसंपत्तियों से संबंधित आदेश पारित करने का प्रावधान है, परंतु किसी कंपनी के निदेशक/कर्मचारी/प्रतिनिधि के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।
  • न्यायालय ने माना कि निष्पादन न्यायालय मात्र डिक्री के अनुसार कार्य नहीं कर सकता। डिक्री निस्संदेह कंपनी के विरुद्ध है और निष्पादन न्यायालय निर्णीत ऋणी के अतिरिक्त किसी और के विरुद्ध या निर्णीत ऋणी के अतिरिक्त किसी और की संपत्ति/संपत्तियों के विरुद्ध डिक्री को निष्पादित नहीं कर सकता।
  • इस मामले में डिक्री धारक द्वारा प्रस्तुत आधारों में से एक आधार ‘कॉर्पोरेट परदे’ को हटाना था। हालाँकि न्यायालय ने माना कि इस मामले में उपरोक्त सिद्धांत को लागू करने का कोई आधार नहीं है।
  • इस प्रकार, इस मामले में उच्च न्यायालय ने माना कि कंपनी का उपाध्यक्ष होने के कारण पुनरीक्षण कर्त्ता के विरुद्ध धन संबंधी डिक्री निष्पादित नहीं की जा सकती।
  • न्यायालय ने कहा कि डिक्री धारक CPC के आदेश XXI नियम 41 के विशिष्ट प्रावधानों का सहारा ले सकता है और तद्नुसार निष्पादन आवेदन में संशोधन कर सकता है।

CPC के अंतर्गत धन डिक्री के निष्पादन के संबंध में क्या विधान हैं?

CPC की धारा 51:

  • CPC की धारा 51 में डिक्री को निष्पादित करने के तरीके बताए गए हैं।
  • धारा 51 में प्रावधान है कि न्यायालय डिक्री धारक के आवेदन पर निम्नलिखित तरीकों से डिक्री के निष्पादन का आदेश दे सकता है:
    • किसी संपत्ति की विशेष रूप से डिक्री करके उसे सौंपना;
    • कुर्की और बिक्री द्वारा या बिना कुर्की के किसी संपत्ति की बिक्री द्वारा;
    • गिरफ्तारी और जेल में नज़रबंदी द्वारा;
    • रिसीवर नियुक्त करके; या
    • ऐसे अन्य तरीके से जैसा कि दी गई राहत की प्रकृति के लिये आवश्यक हो।
  • धारा 51 के परंतुक में यह प्रावधान है कि जहाँ डिक्री धन के भुगतान के  लिये है, वहाँ कारागार में नज़रबंदी द्वारा निष्पादन का आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा, जब तक कि निर्णीत ऋणी को यह कारण बताने का अवसर न दे दिया जाए कि उसे कारागार क्यों न भेजा जाए, तथा न्यायालय, लिखित में दर्ज कारणों से संतुष्ट न हो जाए-
    • यह कि निर्णय-ऋणी, डिक्री के निष्पादन में बाधा डालने या विलंब करने के उद्देश्य या प्रभाव के साथ- 
      • न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं से फरार होने या बाहर जाने की संभावना है, या
      • उस वाद के संस्थित होने के पश्चात् जिसमें डिक्री पारित की गई थी, अपनी संपत्ति का कोई भाग बेईमानी से हस्तांतरित किया, छिपाया या हटाया है, या अपनी संपत्ति के संबंध में कोई अन्य दुर्भावनापूर्ण कार्य किया है, या
    • यह कि निर्णीत ऋणी के पास डिक्री की राशि या उसके किसी पर्याप्त भाग का भुगतान करने का साधन है या डिक्री की तिथि से उसके पास था और वह उसे भुगतान करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है या कर चुका है या नहीं, या
    • यह कि डिक्री उस राशि के लिये है जिसका लेखा देने के  लिये निर्णीत ऋणी, प्रत्ययी की हैसियत में आबद्ध था।

CPC की धारा 55: 

  • CPC की धारा 55 में गिरफ्तारी या नज़रबंदी द्वारा डिक्री के निष्पादन का प्रावधान है।
  • धारा 55 (1) में यह प्रावधान है कि डिक्री के निष्पादन में, निर्णीत ऋणी को किसी भी समय और किसी भी दिन गिरफ्तार किया जा सकता है तथा उसे यथाशीघ्र न्यायालय के समक्ष लाया जाएगा एवं उसकी नज़रबंदी उस जिले के सिविल कारागार में की जा सकती है जिसमें नज़रबंदी का आदेश देने वाला न्यायालय स्थित है या जहाँ ऐसी सिविल कारागार में उपयुक्त स्थान नहीं है वहाँ किसी अन्य स्थान में जिसे राज्य सरकार ऐसे जिले के न्यायालयों द्वारा निरुद्ध किये जाने के आदेश दिये गए व्यक्तियों के निरुद्ध किए जाने के लिये नियुक्त करे।
  • धारा 55(1) से चार प्रावधान जुड़े हुए हैं:
  • सबसे पहले, इस धारा के अंतर्गत गिरफ्तारी करने के प्रयोजन के लिये सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पूर्व किसी आवास में प्रवेश नहीं किया जाएगा;
    • दूसरे, किसी आवास-गृह का कोई बाहरी दरवाज़ा तब तक नहीं तोड़ा जाएगा जब तक कि ऐसा आवास-गृह निर्णीत ऋणी के कब्ज़े में न हो और वह उसमें प्रवेश करने से इंकार कर दे या किसी भी तरह से रोके, परंतु जब गिरफ्तारी करने के लिये अधिकृत अधिकारी किसी आवास-गृह में सम्यक् रूप से प्रवेश कर लेता है, तो वह किसी भी कमरे का दरवाज़ा तोड़ सकता है जिसके बारे में उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि निर्णीत ऋणी उसमें पाया जा सकता है;
    • तीसरा, यदि वह वास्तव में किसी महिला के कब्ज़े में है, जो निर्णीत ऋणी नहीं है और जो देश की प्रथाओं के अनुसार सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं होती है, तो गिरफ्तारी करने के लिये अधिकृत अधिकारी उसे नोटिस देगा कि वह हटने के लिये स्वतंत्र है, और उसे हटने के लिये उचित समय देने तथा उसे हटने के लिये उचित सुविधा देने के बाद, गिरफ्तारी करने के उद्देश्य से कमरे में प्रवेश कर सकता है;
    • चौथा, जहाँ वह डिक्री, जिसके निष्पादन में निर्णीत ऋणी को गिरफ्तार किया गया है, धन के भुगतान के लिये डिक्री है और निर्णीत ऋणी डिक्री की रकम तथा गिरफ्तारी का खर्च, उसे गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को दे देता है, वहाँ ऐसा अधिकारी उसे तुरंत छोड़ देगा।
  • धारा 55 (2) में यह प्रावधान है कि राज्य सरकार, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा यह घोषित कर सकती है कि कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का वर्ग जिसकी गिरफ्तारी से जनता को खतरा या असुविधा हो सकती है, उसे राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही गिरफ्तार किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं।
  • धारा 55 (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी निर्णीत ऋणी को धन के भुगतान के  लिये किसी डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार किया जाता है और न्यायालय के समक्ष लाया जाता है, तो न्यायालय उसे सूचित करेगा कि वह दिवालिया घोषित किये जाने के लिये आवेदन कर सकता है, और यदि उसने आवेदन के विषय के संबंध में कोई दुर्भावनापूर्ण कार्य नहीं किया है तथा यदि वह वर्तमान में लागू दिवालियापन विधि के प्रावधानों का अनुपालन करता है, तो उसे उन्मोचित किया जा सकता है।
  • धारा 55(4) में यह प्रावधान है कि जहाँ कोई निर्णीत-ऋणी दिवालिया घोषित किये जाने के लिये आवेदन करने का अपना इरादा व्यक्त करता है और न्यायालय की संतुष्टि के लिये सुरक्षा प्रदान करता है कि वह एक महीने के भीतर ऐसा आवेदन करेगा तथा जब बुलाया जाएगा तो वह आवेदन पर या उस डिक्री पर किसी कार्यवाही में उपस्थित होगा जिसके निष्पादन में उसे गिरफ्तार किया गया था, तो न्यायालय उसे गिरफ्तारी से रिहा कर सकता है एवं यदि वह ऐसा आवेदन करने और उपस्थित होने में विफल रहता है तो न्यायालय या तो सुरक्षा प्राप्त करने का निर्देश दे सकता है या डिक्री के निष्पादन में उसे सिविल कारागार में सौंप सकता है।

CPC का आदेश XXI: 

  • आदेश XXI नियम 10 में निष्पादन का आवेदन डिक्री धारक द्वारा किये जाने का प्रावधान है।
    • इसमें यह प्रावधान है कि जहाँ डिक्री का धारक उसे निष्पादित करना चाहता है, वहाँ वह उस न्यायालय को आवेदन करेगा जिसने डिक्री पारित की है या इस निमित्त नियुक्त अधिकारी को (यदि कोई हो) आवेदन करेगा, या यदि डिक्री इसमें पूर्व में अंतर्विष्ट उपबंधों के अधीन किसी अन्य न्यायालय को भेजी गई है तो वह ऐसे न्यायालय को या उसके समुचित अधिकारी को आवेदन करेगा।
  • आदेश XXI नियम 11 A में प्रावधान है कि जहाँ निर्णीत ऋणी की गिरफ्तारी या अभिरक्षा के लिये आवेदन किया जाता है, वहाँ उन आधारों का उल्लेख किया जाना चाहिये जिन पर गिरफ्तारी के लिये आवेदन किया गया है।
  • आदेश XXI नियम 30 में यह प्रावधान है कि धन के भुगतान के लिये प्रत्येक डिक्री, जिसमें किसी अन्य अनुतोष के विकल्प के रूप में धन के भुगतान के लिये डिक्री भी शामिल है, निर्णीत ऋणी को सिविल कारागार में निरुद्ध करके, या उसकी संपत्ति की कुर्की और बिक्री करके, या दोनों तरीकों से निष्पादित की जा सकेगी।
  • आदेश XXI नियम 37 में प्रावधान है कि जहाँ गिरफ्तारी वारंट जारी करने के बजाय गिरफ्तारी द्वारा डिक्री के भुगतान के निष्पादन के लिये आवेदन किया जाता है, वहाँ न्यायालय उसे न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने और कारण बताने के लिये नोटिस जारी कर सकता है कि उसे गिरफ्तार क्यों न किया जाए। जहाँ नोटिस के पालन में कोई उपस्थिति नहीं हुई है, वहाँ न्यायालय निर्णीत ऋणी की गिरफ्तारी के लिये वारंट जारी कर सकता है।
  • आदेश XXI नियम 38 में यह प्रावधान है कि गिरफ्तारी के लिये प्रत्येक वारंट में अधिकारी को निर्देश दिया जाएगा कि वह उत्तरदायी व्यक्ति को शीघ्रता से न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे।
  • आदेश XXI नियम 40 में नोटिस के अनुपालन में या गिरफ्तारी के बाद निर्णीत ऋणी की उपस्थिति पर कार्यवाही का प्रावधान है।
    • खंड (1) में यह प्रावधान है कि जब किसी व्यक्ति को नोटिस या गिरफ्तारी पर न्यायालय के समक्ष लाया जाता है या वह उपस्थित होता है, तो न्यायालय उसकी सुनवाई करेगा और निष्पादन के  लिये आवेदन के समर्थन में सभी साक्ष्य लेगा तथा निर्णीत ऋणी को यह कारण बताने का अवसर देगा कि उसे सिविल कारागार में क्यों न भेजा जाए।
    • खंड (2) में यह प्रावधान है कि उपनियम (1) के अंतर्गत जाँच पूरी होने तक न्यायालय अपने विवेकानुसार निर्णीत ऋणी को न्यायालय के किसी अधिकारी की अभिरक्षा में निरुद्ध रखने का आदेश दे सकता है अथवा आवश्यकता पड़ने पर उसकी उपस्थिति के  लिये न्यायालय की संतुष्टि के अनुरूप प्रतिभूति प्रस्तुत करने पर उसे रिहा कर सकता है।
    • खंड (3) में यह प्रावधान है कि उपनियम (1) के अधीन जाँच के समापन पर न्यायालय धारा 51 के उपबंधों और संहिता के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, निर्णीत ऋणी को सिविल कारागार में निरुद्ध करने का आदेश दे सकेगा तथा उस स्थिति में उसे गिरफ्तार करवा सकेगा, यदि वह पहले से ही गिरफ्तार न हो:
    • परंतु निर्णीत-ऋणी को डिक्री की तुष्टि करने का अवसर देने के लिये न्यायालय, निरुद्धि का आदेश देने से पूर्व निर्णीत ऋणी को न्यायालय के किसी अधिकारी की अभिरक्षा में पन्द्रह दिन तक की विनिर्दिष्ट अवधि के  लिये छोड़ सकेगा या यदि डिक्री की तुष्टि पहले नहीं की जाती है तो विनिर्दिष्ट अवधि की समाप्ति पर उसके उपस्थित होने के  लिये न्यायालय के समाधानप्रद रूप में प्रतिभूति देने पर उसे छोड़ सकेगा।
    • खंड (4) में प्रावधान है कि इस नियम के अंतर्गत रिहा किये गए निर्णीत ऋणी को पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है।
    • खंड (5) में यह प्रावधान है कि जब न्यायालय उपनियम (3) के अंतर्गत निरुद्धि का आदेश नहीं देता है तो वह आवेदन को अस्वीकार कर देगा और यदि निर्णीत ऋणी गिरफ्तार है तो उसकी रिहाई का निर्देश देगा।

किसी कंपनी के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन कैसे किया जाता है?

CPC के आदेश XXI का नियम 50:

  • CPC के आदेश XXI नियम 50 में फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन का प्रावधान है।
    • खंड (1) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री पारित की गई है, वहाँ निष्पादन प्रदान किया जा सकता है- 
      • भागीदारी की किसी भी संपत्ति के विरुद्ध;
      • किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, जो आदेश XXX के नियम 6 या नियम 7 के अधीन अपने नाम से उपस्थित हुआ है या जिसने अभिवचनों में स्वीकार किया है कि वह भागीदार है या भागीदार न्यायनिर्णीत किया गया है;
      • किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिसे भागीदार के रूप में व्यक्तिगत रूप से समन भेजा गया हो और जो उपस्थित होने में विफल रहा हो:
    • परंतु इस उपनियम की कोई बात भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (1932 का 9) की धारा 30 के उपबंधों को सीमित करने वाली या अन्यथा प्रभावित करने वाली नहीं समझी जाएगी।
    • खंड (2) में यह प्रावधान है कि जहाँ डिक्रीदार यह दावा करता है कि वह फर्म में भागीदार होने के नाते उपनियम (1) के खंड (b) और (c) में निर्दिष्ट व्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री निष्पादित कराने का अधिकारी है, वहाँ वह डिक्री पारित करने वाले न्यायालय से अनुमति के  लिये आवेदन कर सकता है और जहाँ दायित्व विवादित नहीं है, वहाँ ऐसा न्यायालय ऐसी अनुमति प्रदान कर सकता है या जहाँ ऐसा दायित्व विवादित है, वहाँ यह आदेश दे सकता है कि ऐसे व्यक्ति के दायित्व का परीक्षण तथा निर्धारण किसी ऐसे तरीके से किया जाए, जिस तरह से किसी वाद में किसी मुद्दे का परीक्षण और निर्धारण किया जा सकता है।
    • खंड (3) में यह प्रावधान है कि जहाँ किसी व्यक्ति के दायित्व का उपनियम (2) के अधीन परीक्षण और निर्धारण किया गया है, वहाँ उस पर पारित आदेश का वही बल होगा एवं वह अपील या अन्यथा के संबंध में उन्हीं शर्तों के अधीन होगा, जैसे कि वह डिक्री हो।
    • खंड (4) में यह प्रावधान है कि साझेदारी की किसी संपत्ति के विरुद्ध को छोड़कर, किसी फर्म के विरुद्ध डिक्री उसमें किसी भागीदार को पट्टे पर नहीं देगी, उत्तरदायी नहीं बनाएगी या अन्यथा प्रभावित नहीं करेगी, जब तक कि उसे उपस्थित होने और उत्तर देने के  लिये समन न दे दिया गया हो।
    • खंड (5) में यह प्रावधान है कि इस नियम की कोई बात आदेश XXX के नियम 10 के प्रावधान के आधार पर हिंदू अविभाजित परिवार के विरुद्ध पारित डिक्री पर लागू नहीं होगी।

वी.के. उप्पल बनाम अक्षय इंटरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड (2010):

  • इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने किसी कंपनी के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन के संबंध में विधान बनाया। न्यायालय ने विधान इस प्रकार बनाया:
    • यद्यपि CPC के आदेश XXI नियम 50 में भागीदारों की परिसंपत्तियों से फर्म के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन का प्रावधान है, परंतु कंपनी के निदेशकों के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है।
    • निष्पादन न्यायालय मात्र डिक्री के अनुसार कार्य नहीं कर सकता।
    • यदि डिक्री कंपनी के विरुद्ध है, तो निष्पादन न्यायालय निर्णीत ऋणी कंपनी के अतिरिक्त किसी अन्य के विरुद्ध या निर्णीत ऋणी कंपनी के अतिरिक्त किसी अन्य की परिसंपत्तियों के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन नहीं कर सकता है।
    • किसी कंपनी के निदेशक या शेयरधारक की पहचान कंपनी से अलग होती है (सोलोमन बनाम सोलोमन (1897))
      • समय के साथ सोलोमन बनाम सोलोमन (1897) में निर्धारित सिद्धांत को कमज़ोर कर दिया गया है क्योंकि कॉर्पोरेट पर्दे को हटाने की अवधारणा विकसित हुई है। धोखाधड़ी और अनुचित आचरण के मामलों में कॉर्पोरेट पर्दे को हटाया जा सकता है (सिंगर इंडिया लिमिटेड बनाम चंद्र मोहन चड्ढा (2004)) परंतु इसके विषय में मामला बनाया जाना चाहिये।

सिविल कानून

विवाह-विच्छेद के विचारण के विषय में परिवार का अधिकार

 02-Aug-2024

अनिकेत अरुण धात्रक (मृत) बनाम शलाका अनिकेत धात्रक

"विवाह-विच्छेद लेने का अधिकार एक व्यक्तिगत अधिकार है जो पूर्ण रूपेण व्यक्ति में निहित है तथा व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत परिवार के सदस्यों द्वारा इसका पालन नहीं किया जा सकता है"।

न्यायमूर्ति मंगेश पाटिल एवं शैलेश ब्रह्मे

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में अनिकेत अरुण धात्रक (मृत्यु) बनाम शलाका अनिकेत धात्रक मामले में निर्णय दिया कि विवाह-विच्छेद मांगने का अधिकार एक व्यक्तिगत अधिकार है तथा व्यक्ति की मृत्यु के बाद परिवार के सदस्यों को उत्तराधिकार में नहीं मिल सकता है।

  • यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब न्यायालय ने मृतक व्यक्ति के परिवार की अपील को खारिज कर दिया है, जिन्होंने कोविड-19 महामारी के दौरान उसकी मृत्यु के बाद उसकी पत्नी के विरुद्ध विवाह-विच्छेद की कार्यवाही जारी रखने की मांग की थी।

अनिकेत अरुण धात्रक (मृत्यु) बनाम शलाका अनिकेत धात्रक मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अनिकेत एवं शलाका ने आपसी सहमति द्वारा 14 अक्टूबर 2020 को विवाह-विच्छेद के लिये याचिका दायर की। 
  • अपने समझौते के अनुसार, अनिकेत ने याचिका दायर करते समय शलाका को 5,00,000 रुपए की गुजारा भत्ता राशि में से 2,50,000 रुपए का भुगतान किया। 
  • विवाह-विच्छेद के लिये दूसरा प्रस्ताव दायर किये जाने से पहले, 15 अप्रैल 2021 को कोविड-19 महामारी के दौरान अनिकेत की मृत्यु हो गई।
  • 28 अप्रैल 2021 को शलाका ने विवाह-विच्छेद के लिये अपनी सहमति की याचिका वापस लेने का बयान प्रस्तुत किया तथा याचिका का निपटान करने का अनुरोध किया। 
  • अनिकेत की माँ एवं भाइयों (अपीलकर्त्ता) ने विवाह-विच्छेद की कार्यवाही जारी रखने के लिये उसके विधिक उत्तराधिकारी के रूप में रिकॉर्ड पर लाने के लिये आवेदन किया। 
  • शलाका ने इस आवेदन का विरोध करते हुए कहा कि अनिकेत की मृत्यु के बाद कार्यवाही का कारण जीवित नहीं रहा।
  • कुटुंब न्यायालय ने अपील कर्त्ताओं को कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में रिकॉर्ड पर आने की अनुमति देने से इनकार कर दिया और शलाका के अनुरोध के अनुसार विवाह-विच्छेद याचिका का निपटान कर दिया। 
  • अपीलकर्त्ताओं ने इस निर्णय के विरुद्ध बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपील की। 
  • ​​मुख्य मुद्दा यह था कि क्या आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद के लिये वाद संस्थित करने का अधिकार मृतक पति के परिवार के सदस्यों के पास तब भी बना रहता है जब दूसरा प्रस्ताव संस्थित होने से पहले उसकी मृत्यु हो जाती है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13-B (2) के अंतर्गत दूसरा प्रस्ताव प्रस्तुत करना आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद का आदेश पारित करने के लिये एक पूर्व शर्त है। 
  • न्यायालय को धारा 13-B (2) में निर्दिष्ट प्रावधान के अनुसार, दोनों पक्षों के संयुक्त प्रस्ताव पर ही आगे का विचारण करने का अधिकार प्राप्त होता है। यह प्रक्रिया स्वचालित नहीं है तथा इसे अकेले एक पक्ष द्वारा प्रारंभ नहीं किया जा सकता है।
  • विवाह-विच्छेद प्राप्त करने का अधिकार एक व्यक्तिगत अधिकार है जो एक्टियो पर्सोनलिस मोरिटुर कम पर्सोना के सिद्धांत के अनुसार विधिक उत्तराधिकारियों तक जीवित नहीं रहता है।
  • दूसरे संयुक्त प्रस्ताव की अनुपस्थिति में, आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद के लिये याचिका दूसरे प्रस्ताव को संस्थित करने से पहले एक पक्ष की मृत्यु पर समाप्त हो जाती है।
  • दोनों पक्षों की आपसी सहमति न्यायालय के लिये धारा 13-B के अंतर्गत डिक्री पारित करने के  लिये एक अधिकारिता है।
  • मृतक पति या पत्नी के विधिक उत्तराधिकारियों को कुटुंब न्यायालय, अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत आपसी सहमति से प्रारंभ की गई विवाह-विच्छेद की कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिये रिकॉर्ड पर लाने का अधिकार नहीं है। 
  • धारा 13-B (2) में निर्दिष्ट 18 महीने की अवधि का उद्देश्य मामलों का त्वरित निपटान सुनिश्चित करना है, न कि सहमति वापस लेने के लिये समय अवधि निर्दिष्ट करना।
  • अधिक विचारण करने और डिक्री पारित करने के लिये न्यायालय का अधिकारिता दोनों पक्षों की संयुक्त पहल पर निर्भर करता है, न कि केवल प्रारंभिक याचिका दायर करने पर। 
  • विवाह-विच्छेद लेने के अधिकार की व्यक्तिगत प्रकृति कार्यवाही में एक पक्ष की मृत्यु के बाद विधिक उत्तराधिकारियों द्वारा इसे जारी रखने से रोकती है।
    • न्यायालय को कुटुंब न्यायालय के आदेश में कोई अवैधता नहीं मिली, इस लिये उसने अपील खारिज कर दी।

आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद क्या है?

  • परिचय:
    • आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद बिना किसी दोष के सिद्धांत के अंतर्गत आता है, जहाँ पक्षों को दूसरे व्यक्ति की ओर से दोष सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है। 
    • हिंदू विधि के अंतर्गत आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद को धारा 13 B द्वारा जोड़ा गया था जिसे हिंदू विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधन के माध्यम से शामिल किया गया था तथा यह 25 मई 1976 से लागू हुआ।
  • विवाह-विच्छेद के लिये आवेदन:
    • विवाह के दोनों पक्ष संयुक्त रूप से सक्षम न्यायालय के समक्ष विवाह-विच्छेद के लिये याचिका संस्थित कर सकते हैं, जिसमें आपसी सहमति द्वारा अपने विवाह को भंग करने का निवेदन किया जा सकता है।
  • सहमति:
    • दोनों पक्षों की सहमति स्वैच्छिक एवं स्पष्ट होनी चाहिये, जो विवाह को समाप्त करने तथा सभी संबंधित मुद्दों को सौहार्द्रपूर्ण ढंग से निपटान करने के लिये उनकी आपसी सहमति को दर्शाना आवश्यक है।
  • विवादों का निपटान:
    • पक्षों को गुज़ारा भत्ता, संपत्ति का बँटवारा एवं बच्चों की संरक्षकत्व जैसे सभी मुद्दों पर एक समझौता पत्र प्रस्तुत करना होगा, जिसे दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिये।
  • उपशमन समयावधि:
    • कुछ न्यायक्षेत्रों में, एक अनिवार्य शांत अवधि हो सकती है, जिसके दौरान पक्षकार  विवाह-विच्छेद के अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर सकते हैं।
  • न्यायालयी कार्यवाहियाँ
    • अपेक्षित शर्तें पूरी होने और समझौता प्रस्तुत होने पर, न्यायालय याचिका की समीक्षा करेगी तथा संतुष्ट होने पर आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद का आदेश पारित करेगी।
  • अंतिम डिक्री:
    •  विवाह-विच्छेद को अंतिम रूप तब दिया जाता है जब न्यायालय विवाह-विच्छेद का आदेश जारी करता है, जो विधिक रूप से विवाह को भंग कर देता है।

इस मामले में विधिक प्रावधान क्या हैं?

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 B

  • आपसी सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद के लिये, पक्षों द्वारा संयुक्त रूप से दो याचिकाएँ संस्थित की जानी चाहिये। 
  • धारा 13 B (1) के अनुसार:
    • विवाह विच्छेद के लिये संयुक्त याचिका जिला न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी।
    • चाहे विवाह हिंदू विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 के लागू होने से पहले या बाद में संपन्न हुआ हो।
    • पक्षकार एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हों।
    • याचिका में यह प्रावधान होना चाहिये कि वे एक साथ नहीं रह पाए हैं, तथा वे आपसी सहमति द्वारा इस निर्णय पर सहमत हैं कि विवाह-विच्छेद मिल जाना चाहिये।
  • धारा 13 B (2) द्वारा दूसरे प्रस्ताव का प्रावधान:
    • दायर करने का समय?
      • प्रथम प्रस्ताव प्रस्तुत किये जाने के छह माह से पहले नहीं तथा उक्त के अठारह माह के बाद नहीं।
      • यदि इस बीच याचिका वापस नहीं ली जाती है।
    •  विवाह-विच्छेद का आदेश पारित किये जाने की प्रक्रिया:
      • क्षों का विचारण किये जाने तथा ऐसा विचारण करने के पश्चात् जैसा वह उचित समझे
      • कि विवाह संपन्न हो चुका है तथा याचिका में दिये गए कथन की सत्यता की जाँच 
      • विवाह को डिक्री की तिथि से विघटित करने की डिक्री पारित किया जाना 
  • उपरोक्त प्रक्रिया निर्धारित करने का उद्देश्य पक्षों को अलग होने से पहले साथ रहने की कुछ अवधि देना है। 
  • विवाह किसी भी व्यक्ति के जीवन का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है तथा इसलिये आपसी सहमति द्वारा विवाह को भंग करने से पहले पक्षों को विवाह को भंग करने के अपने निर्णय पर विचार करने के लिये कुछ उचित समय दिया जाना चाहिये।

संदर्भित प्रमुख मामले कौन-से हैं?

  • यल्लावा बनाम शांतावा (1997):
    • उच्चतम न्यायालय के इस मामले में यह तय किया गया कि क्या पति की मृत्यु के बाद पत्नी एकपक्षीय विवाह-विच्छेद के आदेश को रद्द करने के लिये आवेदन कर सकती है। 
    • न्यायालय ने माना कि यदि कोई आदेश पारित नहीं हुआ है तो पति या पत्नी की मृत्यु के बाद  विवाह-विच्छेद की कार्यवाही समाप्त हो जाती है।
  • सुरेष्टा देवी बनाम ओम प्रकाश (1991):
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13-B की व्याख्या करने में उच्चतम न्यायालय का यह मामला महत्त्वपूर्ण है। 
    • इसने माना कि आपसी सहमति केवल याचिका दायर करने के समय ही नहीं, बल्कि डिक्री के समय भी होनी चाहिये।
  • हितेश भटनागर बनाम दीपा भटनागर (2011):
    • उच्चतम न्यायालय के इस मामले ने सुरेष्टा देवी मामले में निर्धारित सिद्धांतों की पुष्टि की। 
    • इसने स्पष्ट किया कि धारा 13-B (2) में उल्लिखित 18 महीने की अवधि के बाद भी सहमति वापस ली जा सकती है।
    • पक्षों को सुनने एवं उचित समझे जाने वाली जाँच करने के बाद, न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि याचिका में दिये गए कथन सत्य हैं; तथा
    • डिक्री पारित करने से पहले किसी भी समय किसी भी पक्ष द्वारा याचिका वापस नहीं ली गई है।
  • स्मृति पहाड़िया बनाम संजय पहाड़िया (2009):
    • उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ के इस निर्णय ने सुरेष्टा देवी मामले में तय अनुपात को स्वीकृति दे दी। 
    • इसने इस बात पर ज़ोर दिया कि धारा 13-B के अंतर्गत विवाह-विच्छेद देने के लिये आपसी सहमति एक अधिकारिता  है।
    • न्यायालय को कुछ ठोस साक्ष्यों के आधार पर पक्षकारों के मध्य आपसी सहमति के अस्तित्व के विषय में संतुष्ट होना होगा, जो स्पष्ट रूप से ऐसी सहमति को प्रकट करती हों।

पारिवारिक कानून

वयस्क संतान का भरण-पोषण अधिकार

 02-Aug-2024

A बनाम B

“हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 में यह प्रावधान है कि न्यायालय, जहाँ तक भी संभव हो, अवयस्क बच्चों की शिक्षा के संबंध में उनकी इच्छा के अनुरूप आदेश पारित कर सकता है”।

न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति अमित बंसल  

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने A बनाम B के मामले में यह व्यवस्था दी है कि एक वयस्क पुत्र तब तक भरण-पोषण पाने का अधिकारी होगा, जब तक वह अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर लेता और आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो जाता।

A बनाम B मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में दोनों पक्षों ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधीन विवाह किया था और उनका एक पुत्र भी है।
  • वर्ष 2004 से दोनों पक्ष अलग-अलग रहने लगे थे, बेटा माँ के साथ रहता था।
  • पति ने क्रूरता के आधार पर HMA की धारा 13(1)(ia) के अंतर्गत कुटुंब न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिये याचिका दायर की।
  • विवाह-विच्छेद याचिका के लंबित रहने के दौरान पत्नी ने HMA की धारा 24 के अंतर्गत लंबित भरण-पोषण के लिये आवेदन दायर किया, जिसके लिये कुटुंब न्यायालय ने पति को उसकी पत्नी और बेटे को 18000 रुपए का भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
  • पत्नी ने 20000 रुपए की बढ़ोतरी के लिये भरण-पोषण आदेश की अपील की।
  • 28 फरवरी 2009 को, पत्नी ने पुनः कुटुंब न्यायालय में आवेदन दायर कर पर्याप्त परिवर्तन के कारण अंतरिम भरण-पोषण राशि को बढ़ाकर 1,45,000 रुपए करने का अनुरोध किया।
  • 14 जुलाई 2016 को पति ने अपनी विवाह-विच्छेद याचिका वापस ले ली।
  • 17 जुलाई 2015 को भरण-पोषण याचिका के लंबित रहने के दौरान पति ने पारिवारिक न्यायालय में एक आवेदन दायर किया जिसमें कहा गया कि-
    • उसने स्वेच्छा से भरण-पोषण की राशि बढ़ाकर 65000 रुपए करने की बात स्वीकार की (वृद्धि आवेदन दाखिल करने की तिथि अर्थात 28 फरवरी 2009 से पत्नी को 50,000 रुपए तथा जुलाई 2015 से बेटे को 15,000 रुपए)।
    • उन्होंने आगे दलील दी कि चूँकि उन्होंने विवाह-विच्छेद की याचिका वापस ले ली है, इसलिये न्यायालय HMA की धारा 24 और धारा 26 के अंतर्गत भरण-पोषण भत्ता नहीं दे सकती है तथा न्यायालय अब अधिकारहीन हो गई है।
    • उन्होंने यह भी तर्क दिया कि धारा 26 के अंतर्गत वयस्क पुत्र को कोई भरण-पोषण नहीं दिया जा सकता।
  • पारिवारिक न्यायालय ने आदेश दिया कि- 
    • पत्नी और पुत्र 28 फरवरी 2009 से 14 जुलाई 2016 तक 1,15,000/- रुपए का अंतरिम भरण-पोषण पाने के अधिकारी होंगे।
    • पुत्र 15 जुलाई 2016 से 26 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक भरण-पोषण पाने का अधिकारी होगा तथा 28 मई 2019 से 2 वर्ष के नियमित अंतराल पर वृद्धि पाने का अधिकारी होगा।
  • कुटुंब न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर दोनों पक्षों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि विवाह-विच्छेद की याचिका वापस लिये जाने से पत्नी के HMA की धारा 24 के अंतर्गत भरण-पोषण पाने के अधिकार में कोई कमी नहीं आती। इस तरह के निर्णय से पत्नी को परेशानी होगी।
  • इसलिये, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि पति द्वारा विवाह-विच्छेद की याचिका वापस लेने के बाद भी कुटुंब न्यायालय भरण-पोषण आवेदन पर निर्णय देने के लिये सक्षम है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि HMA की धारा 26 के अनुसार, यदि पति विवाह-विच्छेद की याचिका वापस ले लेता है तो पदेन कुटुंब न्यायालय अधिकारहीन नहीं हो जाता।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 के संदर्भ की व्याख्या करते हुए कहा कि धारा 26 के प्रावधान का उद्देश्य बच्चे की शिक्षा सुनिश्चित करना है और यह कहना अव्यवहारिक है कि कोई बच्चा वयस्क होने पर अपनी शिक्षा पूरी कर सकेगा तथा अपना भरण-पोषण करने में सक्षम हो सकेगा।
  • हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 के अनुसार शिक्षा का दायरा बच्चे के वयस्क होने तक सीमित नहीं किया जा सकता।
  • इसलिये, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि एक वयस्क पुत्र अपनी शिक्षा पूरी करने और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने तक भरण-पोषण पाने का अधिकारी होगा।

भरण-पोषण क्या है?

  • परिचय:
    • यह पिता या पति द्वारा अपने बच्चों या पत्नी को दी जाने वाली वित्तीय सहायता है।
    • भरण-पोषण को गुज़ारा भत्ता भी कहा जाता है, जो आश्रितों के खर्चों और सभी आवश्यकताओं के लिये भुगतान को संदर्भित करता है।
    • हिंदू विधि के अनुसार, भरण-पोषण की राशि प्रदान की जाएगी, भले ही पक्षकार एक साथ रह रहे हों या नहीं और चाहे विवाह-विच्छेद हो गया हो या नहीं।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत भरण-पोषण प्रावधान:

  • धारा 24: लंबित भरण-पोषण और कार्यवाही का खर्च
    • इस प्रावधान में कहा गया है कि जहाँ इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि या तो पत्नी या पति, जैसा भी मामला हो, के पास अपने समर्थन और कार्यवाही के आवश्यक खर्चों के लिये पर्याप्त स्वतंत्र आय नहीं है, यह पत्नी या पति के आवेदन पर, प्रत्यर्थी को याचिकाकर्त्ता को कार्यवाही के व्यय का भुगतान करने का आदेश दे सकता है तथा कार्यवाही के दौरान मासिक रूप से ऐसी राशि का भुगतान कर सकता है, जो याचिकाकर्त्ता की अपनी आय और प्रत्यर्थी की आय को ध्यान में रखते हुए न्यायालय को उचित लगे।
    • परंतु कार्यवाही के व्ययों तथा कार्यवाही के दौरान ऐसी मासिक राशि के भुगतान के लिये आवेदन का निपटान, जहाँ तक ​​संभव हो, यथास्थिति, पत्नी या पति को नोटिस की तामील की तिथि से साठ दिन के भीतर किया जाएगा।
  • धारा 26: बच्चों की अभिरक्षा
    • इस प्रावधान में कहा गया है कि इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी कार्यवाही में, न्यायालय समय-समय पर ऐसे अंतरिम आदेश पारित कर सकता है और डिक्री में ऐसे प्रावधान कर सकता है, जिन्हें वह अवयस्क बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में, जहाँ भी संभव हो, उनकी इच्छाओं के अनुरूप, न्यायसंगत और उचित समझे, और डिक्री के बाद, इस प्रयोजन के लिये याचिका द्वारा आवेदन करने पर, समय-समय पर ऐसे बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण तथा शिक्षा के संबंध में सभी ऐसे आदेश एवं प्रावधान कर सकता है, जो ऐसे डिक्री या अंतरिम आदेशों द्वारा किये जा सकते थे, यदि ऐसी डिक्री प्राप्त करने की कार्यवाही अभी भी लंबित होती, और न्यायालय समय-समय पर पहले किये गए ऐसे किसी भी आदेश और प्रावधान को रद्द, निलंबित या परिवर्तित भी कर सकता है।
    • परंतु यह कि अवयस्क बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आवेदन, ऐसी डिक्री प्राप्त करने की कार्यवाही लंबित रहने तक, जहाँ तक ​​संभव हो, प्रत्यर्थी पर नोटिस की तामील की तिथि से साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा।

HMA की धारा 24 और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 25 के बीच अंतर:

                  HMA की धारा 24

                  CrPC की धारा 25

केवल हिंदुओं पर लागू।

यह नियम सभी नागरिकों पर लागू है, चाहे उनकी धर्म, जाति या मान्यता कुछ भी हो।

भरण-पोषण, विवाह-विच्छेद याचिका के लंबित रहने के दौरान प्रदान किया जाता है, उसके बाद नहीं।

विवाह-विच्छेद याचिका के दौरान और उसके बाद भरण-पोषण प्रदान किया जाता है।

इस धारा के अंतर्गत केवल पति-पत्नी ही भरण-पोषण पाने के अधिकारी हैं।

पति-पत्नी, बच्चे (धर्मज या अधर्मज), माता-पिता सभी इस धारा के तहत भरण-पोषण का दावा करने के पात्र हैं।

भरण-पोषण भत्ता पक्षकारों के जीवन स्तर, आय और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर दिया जाता है।

भरण-पोषण भत्ता दावेदारों की आवश्यकताओं और प्रतिवादी की भुगतान करने की क्षमता के आधार पर प्रदान किया जाता है।

निर्णयज विधियाँ:

  • उर्वशी अग्रवाल और अन्य बनाम इंद्रपॉल अग्रवाल (2021): इस मामले में न्यायालय ने कहा कि एक पिता अपने बेटे की शिक्षा का व्यय उठाने के अपने उत्तरदायित्व से इसलिये मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि बेटा वयस्क हो गया है। भले ही बच्चा वयस्क हो, परंतु वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सकता और स्वयं का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हो सकता।
  • सपना पॉल बनाम रोहिन पॉल (2024): इस मामले में न्यायालय ने माना कि एक पिता का अपने बच्चे के प्रति दायित्व तब समाप्त नहीं होता जब बच्चा वयस्क हो जाता है, भले ही वह अभी भी अपनी पढ़ाई कर रहा हो।
  • रजनेश बनाम नेहा (2021): इस मामले में, न्यायालय ने कहा कि भरण-पोषण राशि में बच्चे के भोजन, कपड़े, निवास, अतिरिक्त कोचिंग या बुनियादी शिक्षा के पूरक के रूप में किसी अन्य व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पर विचार किया जाना चाहिये।