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आपराधिक कानून
बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री
24-Sep-2024
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
भारत के उच्चतम न्यायालय ने सिफारिश की है कि संसद को "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से परिवर्तित करने के लिये लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) में संशोधन करना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द अपराध की गंभीरता को कम करता है, क्योंकि यह सहमति और स्वैच्छिक कृत्यों को दर्शाता है, जबकि CSEAM बच्चों के शोषण और दुर्व्यवहार को सटीक रूप से दर्शाता है।
- न्यायालय ने सभी न्यायिक निकायों को इन अपराधों की गंभीरता को उजागर करने के लिये अपने फैसलों में CSEAM का उपयोग करने का निर्देश दिया।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला ने जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस बनाम एस. हरीश के मामले में फैसला सुनाया।
जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस बनाम एस. हरीश मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 29 जनवरी 2020 को चेन्नई के अंबत्तूर में अखिल महिला पुलिस स्टेशन को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की साइबर टिपलाइन रिपोर्ट के बारे में अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त से सूचना मिली।
- रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी नंबर 1 चाइल्ड पोर्नोग्राफी का सक्रिय उपभोक्ता था और उसने अपने मोबाइल फोन पर ऐसी सामग्री डाउनलोड की थी।
- उसी दिन प्रतिवादी नंबर 1 के विरुद्ध सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT अधिनियम) की धारा 67B और लैंगिक अपराधों से बालकों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो) की धारा 14(1) के तहत अपराधों के लिये एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी।
- जाँच के दौरान प्रतिवादी का मोबाइल फोन ज़ब्त कर लिया गया और फोरेंसिक जाँच के लिये भेज दिया गया।
- जाँचकर्त्ताओं द्वारा पूछताछ किये जाने पर प्रतिवादी ने कॉलेज में नियमित रूप से पोर्नोग्राफी देखने की बात स्वीकार की।
- 22 अगस्त 2020 की कंप्यूटर फोरेंसिक जाँच रिपोर्ट में प्रतिवादी के फोन पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी से संबंधित दो वीडियो फाइलों के साथ-साथ सौ से अधिक अन्य अश्लील वीडियो फाइलें पाई गईं।
- जाँच पूर्ण होने पर 19 सितंबर 2023 को प्रतिवादी के विरुद्ध IT अधिनियम की धारा 67B और पोक्सो की धारा 15(1) के तहत अपराधों के लिये आरोप-पत्र दायर किया गया।
- एकत्र किये गए साक्ष्य के आधार पर पोक्सो के तहत आरोप को धारा 14(1) से परिवर्तित कर 15(1) कर दिया गया।
- प्रतिवादी ने मद्रास उच्च न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत एक आपराधिक मूल याचिका दायर की, जिसमें आरोप-पत्र को रद्द करने की मांग की गई।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और 11 जनवरी 2024 को आरोप-पत्र को रद्द कर दिया, जिससे प्रतिवादी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही प्रभावी रूप से समाप्त हो गई।
- अपीलकर्त्ता, जो मूल कार्यवाही में पक्ष नहीं थे, ने मामले में शामिल सार्वजनिक महत्त्व के गंभीर मुद्दे का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने के लिये उच्चतम न्यायालय से अनुमति मांगी।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- मद्रास उच्च न्यायालय:
- उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया, यह फैसला सुनाया कि केवल निजी तौर पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी देखना या रखना, इसे प्रकाशित या प्रसारित किये बिना, POCSO अधिनियम की धारा 14 (1) या आईटी अधिनियम की धारा 67 B के तहत अपराध नहीं बनता है।
- उच्च न्यायालय ने कहा कि इन कानूनों के तहत अपराध बनाने के लिये, इस बात का साक्ष्य होना चाहिये कि आरोपी ने पोर्नोग्राफिक उद्देश्यों के लिये किसी बच्चे का इस्तेमाल किया या सामग्री प्रकाशित/प्रसारित की, जो इस मामले में सिद्ध नहीं हुआ।
- उच्चतम न्यायालय:
- न्यायालय ने संसद को निर्देश दिया कि वह लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) में संशोधन करने पर विचार करे, ताकि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से बदला जा सके।
- न्यायालय ने सुझाया कि भारत संघ अंतरिम रूप से अध्यादेश के माध्यम से इस संशोधन को लाने पर विचार करे।
- न्यायालय ने कहा कि, हम न्यायालयों को यह नोटिस देते हैं कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द का उपयोग किसी भी न्यायिक आदेश या निर्णय में नहीं किया जाएगा। इसके बजाय "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) शब्द का समर्थन किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द अपराध की संपूर्ण सीमा को संबोधित करने में असमर्थ है और अपराध को महत्त्वहीन बना सकता है, क्योंकि पोर्नोग्राफी प्रायः वयस्कों के बीच सहमति से किये गए कृत्यों से संबंधित है।
- न्यायालय ने कहा कि CSEAM शब्द अधिक सटीक रूप से इस वास्तविकता को दर्शाता है कि ऐसी सामग्री उन घटनाओं का रिकॉर्ड है, जहाँ किसी बच्चे का यौन शोषण या उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया है।
- न्यायालय ने कहा कि CSEAM शब्द का उपयोग उचित रूप से बच्चे के शोषण और दुर्व्यवहार पर बल देता है, जो कृत्य की आपराधिक प्रकृति और गंभीर प्रतिक्रिया की आवश्यकता को उजागर करता है।
- न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में एक गंभीर त्रुटि की थी, परिणामस्वरूप विवादित निर्णय और आदेश को रद्द कर दिया।
- न्यायालय ने संसद को निर्देश दिया कि वह लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) में संशोधन करने पर विचार करे, ताकि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से बदला जा सके।
IT अधिनियम की धारा 67B क्या संबोधित करती है?
- इलेक्ट्रॉनिक रूप में चाइल्ड पोर्नोग्राफी का प्रकाशन, प्रसारण, निर्माण, संग्रह, ब्राउज़िंग, डाउनलोड, विज्ञापन, प्रचार, आदान-प्रदान या वितरण शामिल है।
- यौन रूप से स्पष्ट कृत्यों के लिये बच्चों को ऑनलाइन संबंधों में फँसाना या उन्हें कृत्य के लिये लुभाना शामिल है।
- पहली बार दोषी पाए जाने पर 5 वर्ष का कारावास या 10 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना हो सकता है।
- बाद में दोषी पाए जाने पर: 7 वर्ष तक का कारावास और 10 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना का प्रावधान है।
IT अधिनियम की धारा 67B का विश्लेषण
- धारा 6767B(a): चाइल्ड पोर्नोग्राफी का प्रसार
- लैंगिक रूप से स्पष्ट कृत्यों में बच्चों को शामिल करने वाली सामग्री के प्रकाशन या प्रसारण पर दंडित करता है।
- वास्तविक प्रकाशन/प्रसारण और प्रक्रिया में आरोपी की भागीदारी की आवश्यकता होती है।
- धारा 67B(b): चाइल्ड पोर्नोग्राफी सामग्री का निर्माण, संग्रह और उससे संबंध
- बच्चों को अश्लील/अशिष्ट/लैंगिक रूप से स्पष्ट चित्रित करने वाले विडियो या छवि-आधारित सामग्री के निर्माण को शामिल करता है।
- ऐसी सामग्री के संग्रह, ब्राउज़िंग, डाउनलोडिंग, विज्ञापन, प्रचार, विनिमय या वितरण को दंडित करता है।
- सामग्री के निर्माण और उससे संबंध आदि, समेत 67B(a) के प्रावधानों से अधिक व्यापक।
- धारा 67B(c): यौन कृत्यों के लिये बच्चों को लुभाना
- कंप्यूटर संसाधनों का उपयोग करके यौन रूप से स्पष्ट कृत्यों में भाग लेने के लिये बच्चों को प्रेरित या लुभाना दंडित करता है।
- वास्तविक प्रलोभन पर्याप्त है; अपराध के लिये बच्चे की भागीदारी आवश्यक नहीं है।
- धारा 67B(d): सुकर ऑनलाइन बाल शोषण
- सुकर ऑनलाइन बाल शोषण के किसी भी रूप को दंडित करता है।
- किसी भी विशिष्ट आशय की आवश्यकता नहीं है; कार्य में ऑनलाइन बाल शोषण में सहायता या सक्षमता की संभावना होनी चाहिये।
- धारा 67B(e): बच्चों से संबंधित लैंगिक कृत्यों की रिकॉर्डिंग
- बच्चे के साथ या उसकी उपस्थिति में यौन रूप से स्पष्ट कृत्यों की रिकॉर्डिंग को दंडित करता है।
- बच्चे को शारीरिक रूप से मौजूद होने की आवश्यकता नहीं है; ऐसे कृत्यों (जैसे- वीडियो के माध्यम से) के संपर्क में आना पर्याप्त है।
POCSO अधिनियम का विधायी इतिहास और उद्देश्य क्या है?
- बच्चों के विरुद्ध यौन अपराधों के संबंध में मौजूदा कानूनों में अपर्याप्तता को दूर करने के लिये अधिनियमित
- बच्चों को यौन दुर्व्यवहार और शोषण से बचाने के लिये एक व्यापक ढाँचा प्रदान करने का लक्ष्य
- साक्ष्य की रिकॉर्डिंग, जाँच और परीक्षण प्रक्रियाओं के संदर्भ में बच्चों के अनुकूल बनाया गया
POCSO की धारा 15 का विश्लेषण
- POCSO के तहत "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" की परिभाषा:
- POCSO की धारा 2(1)(d) के अनुसार "बच्चा" अठारह वर्ष से कम आयु का कोई भी हो सकता है।
- यह परिभाषा लैंगिक-तटस्थ या लैंगिक रूप से अनुकूल नहीं (Gender-Neutral and Gender-Fluid) है।
- धारा 2(1)(da) के अनुसार "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" किसी भी ऐसे दृश्य चित्रण के रूप में है, जिसमें किसी बच्चे से लैंगिक संबंधी व्यवहार किया गया हो
- इसमें वास्तविक बच्चे से अलग दिखने वाली तस्वीरें, वीडियो, डिजिटल/कंप्यूटर-जनरेटेड छवियाँ शामिल हैं
- इसमें बच्चे को चित्रित करने के लिये बनाई गई, अनुकूलित या संशोधित छवियाँ भी शामिल हैं
- पोर्नोग्राफिक सामग्री में "बच्चे" का निर्धारण:
- प्रथम दृष्टया उपस्थिति परीक्षण: सामग्री में विवेकशील मस्तिष्क वाले सामान्य व्यक्ति के रूप में बच्चा होना चाहिये
- उद्देश्यपूर्ण आयु निर्धारण के बजाय व्यक्तिपरक संतुष्टि मानदंड लागू होते हैं
- तर्क: पोर्नोग्राफिक सामग्री में आयु को निर्णायक रूप से स्थापित करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ
- धारा 15 के तहत तीन अलग-अलग अपराध:
- धारा 15(1): चाइल्ड पोर्नोग्राफी को डिलीट/नष्ट/रिपोर्ट किये बिना संग्रहीत/रखना, साझा/प्रसारित करने का आशय
- धारा 15(2): संचारित, प्रदर्शित, प्रचार या वितरण के लिये संग्रहीत/रखना
- धारा 15(3): व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये संग्रहीत/रखना
- कब्ज़े की अवधारणा:
- वर्ष 2019 में हुए संशोधन ने धारा 15 के सभी उपखंडों में "भंडारण" के साथ-साथ "कब्ज़ा" शब्द भी जोड़ा
- इसमें रचनात्मक कब्ज़े की अवधारणा शामिल है: तत्काल भौतिक कब्ज़े के बगैर भी नियंत्रण करने की शक्ति या आशय
- दोषी मानसिक स्थिति की धारणा (POCSO की धारा 30):
- विशेष न्यायालय POCSO के तहत अभियोजन में दोषी मानसिक स्थिति के अस्तित्व की धारणा बनाएगा
- अभियुक्त ऐसी मानसिक स्थिति के दोष को सिद्ध करके इस धारणा का खंडन कर सकता है
- खंडन के लिये साक्ष्य का मानक: उचित संदेह से परे
- "दोषी मानसिक स्थिति" में आशय, उद्देश्य, किसी तथ्य का ज्ञान और किसी तथ्य पर विश्वास करने का कारण शामिल है
बाल यौन शोषण एवं शोषण सामग्री (CSEAM) के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ को क्या सुझाव दिये हैं?
- इन अपराधों की प्रकृति को अधिक सटीक रूप से दर्शाने के लिये "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से परिवर्तित करने के लिये POCSO अधिनियम में संशोधन करने पर विचार करें। यह संशोधन या अध्यादेश के माध्यम से किया जा सकता है।
- संभावित अपराधियों को रोकने में सहायता करने के लिये CSEAM के कानूनी और नैतिक प्रभावों के बारे में जानकारी शामिल करने वाले व्यापक यौन शिक्षा कार्यक्रम लागू करना।
- पीड़ितों के लिये सहायता सेवाएँ और अपराधियों के लिये पुनर्वास कार्यक्रम प्रदान करना, जिसमें मनोवैज्ञानिक परामर्श, चिकित्सीय हस्तक्षेप तथा शैक्षिक सहायता शामिल है।
- CSEAM की वास्तविकताओं और इसके परिणामों के बारे में जन जागरूकता अभियान चलाना ताकि इसकी व्यापकता को कम करने में सहायता मिल सके।
- समस्याग्रस्त यौन व्यवहार (PSB) वाले युवाओं के लिये प्रारंभिक पहचान और हस्तक्षेप रणनीतियों को लागू करना, जिसमें चेतावनी संकेतों को पहचानने के लिये शिक्षकों, स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों और कानून प्रवर्तन के लिये प्रशिक्षण शामिल है।
- PSB को रोकने में सहायता करने के लिये छात्रों को स्वस्थ संबंधों, सहमति और उचित व्यवहार के बारे में शिक्षित करने के लिये स्कूल-आधारित कार्यक्रम लागू करना।
- स्वास्थ्य और यौन शिक्षा के लिये एक व्यापक कार्यक्रम तैयार करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति के गठन पर विचार करना, साथ ही कम उम्र से ही बच्चों के बीच POCSO के बारे में जागरूकता बढ़ाना।
- न्यायालयों को सभी न्यायिक आदेशों और निर्णयों में "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" के स्थान पर "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) शब्द का प्रयोग करना चाहिये।
आपराधिक कानून
मृत्युदण्ड का लघुकरण
24-Sep-2024
रब्बू उर्फ सर्वेश बनाम मध्य प्रदेश राज्य "यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्त्ता एक दुर्दांत अपराधी है जिसे सुधारा नहीं जा सकता।" न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने एक अपीलकर्त्ता की मृत्युदण्ड को 20 वर्ष के कारावास में परिवर्तित कर दिया।
- उच्चतम न्यायालय ने रब्बू उर्फ सर्वेश बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में यह निर्णय दिया।
रब्बू उर्फ सर्वेश बनाम मध्यप्रदेश मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
इस मामले में अपीलकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 34 के साथ पठित धारा 450, 376 (2) (i), 376D, 376A एवं 302 तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धारा 5 (g)/6 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिये मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, जबलपुर की खण्ड पीठ द्वारा दोषी ठहराया गया था।
- अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 376A एवं 302 के अधीन मृत्युदण्ड एवं धारा 376D के अधीन आजीवन कारावास एवं धारा 450 के अधीन 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई।
- उपरोक्त आदेश एवं निर्णय के विरुद्ध वर्तमान अपील दायर की गई थी।
- अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता ने अपीलकर्त्ता के पक्ष में निम्नलिखित तथ्य रखीं:
- मामला मृत्युपूर्व कथनों पर बना हुआ है और जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, मृत्युपूर्व कथनों में सुधार हुआ तथा इसलिये मृत्युकालिक कथनों के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती।
- इसके अतिरिक्त, अपीलकर्त्ता का मामला यह था कि वर्तमान मामला मृत्युदण्ड देने के लिये दुर्लभतम मामले के दायरे में नहीं आता है।
- यदि न्यायालय दोषसिद्धि के निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने से मना करता है, तो न्यायालय को अपीलकर्त्ता की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, अपराध कारित करने के समय अपीलकर्त्ता की उम्र एवं उसके आचरण और व्यवहार जैसे कारकों पर विचार करना चाहिये जो उसे सजा का उत्तरदायी बनाते हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने सबसे पहले यह पाया कि मृत्युपूर्व दिया गया कथन विश्वसनीय एवं भरोसेमंद था तथा इसलिये न्यायालय ने माना कि न्यायालय द्वारा दोषसिद्धि का पता लगाने में कोई त्रुटि नहीं थी।
- न्यायालय को अब एकमात्र प्रश्न पर विचार करना था कि क्या वर्तमान मामला मृत्युदण्ड की पुष्टि के लिये 'दुर्लभतम मामले' की श्रेणी में आता है या सजा को कम किया जा सकता है।
- न्यायालय ने लघुकरण की अनुमति देते समय निम्नलिखित कारकों पर विचार किया:
- अपीलकर्त्ता का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं वरिष्ठ परिवीक्षा कल्याण अधिकारी की रिपोर्ट अपील कर्त्ता के व्यवहार के विरुद्ध कुछ भी इंगित नहीं करती है।
- जेल में उनका आचरण संतोषजनक पाया गया।
- अपीलकर्त्ता ने 8 वर्ष की उम्र में अपनी मां एवं 10 वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई को खो दिया था तथा उनके पिता ने एकल माता-पिता के रूप में उनका पालन-पोषण किया।
- हालाँकि अपराध करने के समय अपीलकर्त्ता की उम्र पर पूरी तरह से विचार नहीं किया जा सकता है, अन्य कारकों के साथ-साथ अपराध करने के समय अपीलकर्त्ता की उम्र को निश्चित रूप से ध्यान में रखा जा सकता है। अपराध के समय अपीलकर्त्ता की आयु 22 वर्ष थी।
- इसके अतिरिक्त, अपीलकर्त्ता समाज के सामाजिक-आर्थिक पिछड़े समाज से आता है।
- अपीलकर्त्ता एवं उसके परिवार के सदस्यों की कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है।
- यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्त्ता एक कठोर अपराधी है जिसे सुधारा नहीं जा सकता।
- इस प्रकार, उपरोक्त कारकों पर विचार करते हुए न्यायालय ने माना कि यह नहीं कहा जा सकता कि मृत्युदण्ड की पुष्टि उचित होगी।
- हालाँकि, साथ ही हम यह भी पाते हैं कि मृत्युदण्ड अर्थात् क्षमा सहित 14 वर्ष की कैद न्याय के उद्देश्य को पूरा नहीं करेगी।
- इस प्रकार, वर्तमान मामला मध्य मार्ग में ही विफल होने वाला है।
- इसलिये, न्यायालय ने माना कि मृत्युदण्ड को 20 वर्ष की अवधि के लिये बिना छूट के निश्चित कारावास में बदल दिया जाना चाहिये।
- अंत में, न्यायालय ने दोषसिद्धि यथावत रखी तथा मृत्युदण्ड को 20 वर्ष के कठोर कारावास में लघुकरण कर दिया।
सजा के लघुकरण से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 ( BNS) की धारा 5 में सजा कम करने का प्रावधान है।
- यह प्रावधान प्रावधानित करता है कि "युक्तियुक्त सरकार" अपराधी की सहमति के बिना इस संहिता के अधीन दी गई सजा को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 474 के अनुसार किसी अन्य सजा में परिवर्तित कर सकती है।
- "युक्तियुक्त सरकार" शब्द से अभिप्राय होगा:
अपराध के प्रकार |
“प्रासंगिक सरकार” |
ऐसे मामलों में जहाँ सज़ा मृत्युदण्ड है; या यह उस मामले से संबंधित किसी भी संविधि के विरुद्ध अपराध है जिस पर संघ की कार्यकारी शक्ति का विस्तार होता है |
केंद्र सरकार |
ऐसे मामलों में जहाँ सज़ा (चाहे मृत्युदण्ड हो या नहीं) किसी ऐसे मामले से संबंधित किसी संविधि के विरुद्ध अपराध के लिये है, जिस पर राज्य की कार्यकारी शक्ति का विस्तार होता है |
उस राज्य की सरकार जिसके अंतर्गत अपराधी को सजा दी जाती है। |
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 ( BNSS) की धारा 474 सजा को लघुकरण करने की शक्ति प्रदान करती है।
- उपयुक्त सरकार सजा पाने वाले व्यक्ति की सहमति के बिना निम्नलिखित को कम कर सकती है:
दण्ड का प्रावधान |
न्यूनीकरण के उपरांत |
मृत्युदण्ड |
आजीवन कारावास |
आजीवन कारावास |
सात वर्ष से कम की अवधि के लिये कारावास |
7 वर्ष या उससे अधिक के लिये कारावास |
कम से कम 3 वर्ष की अवधि के लिये कारावास |
7 वर्ष से कम कारावास |
अर्थदण्ड |
किसी भी अवधि का कठोर कारावास |
किसी भी अवधि का साधारण कारावास |
- BNSS की धारा 475 कुछ मामलों में लघुकरण या परिवर्तन की शक्तियों पर प्रतिबंध का प्रावधान करती है।
- यह प्रावधान यह प्रावधानित करता है कि:
- जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने पर आजीवन कारावास की सजा दी जाती है जिसके लिये मृत्यु संविधि द्वारा प्रदान की गई सजाओं में से एक है; या
- जहाँ धारा 474 के अधीन मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया गया है
- उपरोक्त दोनों मामलों में व्यक्ति को तब तक जेल से रिहा नहीं किया जाएगा जब तक कि उसने कम से कम 14 वर्ष की सजा न काट ली हो।
- यह प्रावधान यह प्रावधानित करता है कि:
- BNSS की धारा 476 में प्रावधान है कि मृत्युदण्ड के मामलों में राज्य सरकार को धारा 473 एवं धारा 474 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग केंद्र सरकार द्वारा भी किया जा सकता है।
- BNSS की धारा 477 में प्रावधान है कि कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें राज्य सरकार को केंद्र सरकार की सहमति से कार्य करना चाहिये।
लघुकरण से संबंधित ऐतिहासिक मामले क्या हैं?
- नवास @ मुलानावास बनाम केरल राज्य (2024):
- लघुकरण के मामलों में मूलभूत आधार आनुपातिकता का सिद्धांत है।
- मृत्युदण्ड को आजीवन कारावास में बदलने का निर्णय करते समय न्यायालय जिन गंभीर एवं कम करने वाली परिस्थितियों पर विचार करता है, उनका बिना लघुकरण के अनिवार्य कारावास के वर्षों की संख्या तय करने में भी बड़ा असर पड़ता है।
- कुछ कारक जिन्हें न्यायालय ध्यान में रखते हैं वे हैं:
- उस अपराध के शिकार मृतकों की संख्या एवं उनकी उम्र व लिंग।
- यौन उत्पीड़न सहित चोटों की प्रकृति, यदि कोई हो।
- जिस उद्देश्य से अपराध किया गया।
- क्या अपराध तब किया गया जब दोषी किसी अन्य मामले में ज़मानत पर था।
- अपराध की पूर्वचिन्तित प्रकृति।
- अपराधी एवं पीड़ित के बीच संबंध।
- विश्वास का दुरुपयोग, यदि कोई हो।
- आपराधिक पृष्ठभूमि; एवं क्या दोषी, रिहा होने पर समाज के लिये खतरा होगा।
- स्वामी श्रद्धानन्द बनाम कर्नाटक राज्य (2008):
- इस मामले ने मृत्युदण्ड को लघुकरण करते हुए एक न्यायाधीश को दुविधा का समाधान कर दिया।
- अक्सर ऐसा होता है कि जो मामला दुर्लभतम की श्रेणी में नहीं आता है, वह ऐसा भी हो सकता है जहाँ महज 14 वर्ष की सजा (आजीवन कारावास के लिये सामान्य बेंचमार्क) पूरी तरह से अनुपातहीन एवं अपर्याप्त हो सकती है।
- न्यायालय को यह लग सकता है कि समग्र परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मृत्युदण्ड की आवश्यकता नहीं हो सकती है, लेकिन आनुपातिक दण्ड के लिये 14 वर्ष के बीच की अवधि तय की जाएगी तथा बिना किसी छूट के शेष जीवन तक कारावास की सजा दी जाएगी।
मृत्युदण्ड कब दिया जा सकता है?
- मृत्युदण्ड, जिसे मौत की सज़ा भी कहा जाता है, एक आपराधिक कृत्य के लिये न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद मृत्युदण्ड पाए अपराधी को फांसी देना है। यह किसी आरोपी को दी जाने वाली सबसे बड़ी सज़ा है।
- मृत्युदण्ड देते समय दुर्लभतम मामलों का परीक्षण किया जाना चाहिये।
- बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य, (1980) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा “दुर्लभ मामलों की सबसे दुर्लभतम” पदावली गढ़ी गई थी। और तब से, आजीवन कारावास नियम है तथा मृत्युदण्ड एक अपवाद है क्योंकि भारत में यह केवल सबसे गंभीर मामलों में ही दिया जाता है।
- लघुकरण से तात्पर्य है सज़ा के एक रूप को हल्के सज़ा से परिवर्तित करना।
- भारत के संविधान, 1950 (COI) का अनुच्छेद 72 राष्ट्रपति को मौत की सजा पाए किसी भी व्यक्ति को क्षमा देने का अधिकार देता है।
सिविल कानून
लिखित कथन दाखिल करने के लिये परिवर्धित समय
24-Sep-2024
रमेश फ्लावर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम श्री सुमित श्रीमाल “विलंब को क्षमा करने वाले आदेशों में कारण निहित होने चाहिये तथा इन्हें स्वेच्छा से पारित नहीं किया जा सकता है। हालाँकि विलंब हेतु क्षमा का प्रावधान विवेकाधीन है, कारणों को दर्ज करना अनिवार्य है।” न्यायमूर्ति जी. आर. स्वामीनाथन |
स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, मद्रास उच्च न्यायालय ने रमेश फ्लावर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम श्री सुमित श्रीमाल के मामले में माना है कि ट्रायल कोर्ट अपनी अधिकारिता के अंदर लिखित कथन दाखिल करने के लिये 30 दिनों से अधिक की समय सीमा नहीं दे सकता है तथा पक्षकारों को समय सीमा के विस्तार की मांग के लिये क्षमा के लिये आवेदन करना होगा। यह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 1 के विपरीत होगा।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि न्यायालय के पास विलंब हेतु क्षमा स्वीकार करने का विवेकाधिकार है, लेकिन ऐसी स्वीकृति के लिये कारणों को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिये।
रमेश फ्लावर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम श्री सुमित श्रीमाल मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, प्रतिवादी वादी का पूर्व कर्मचारी था।
- वादी का आरोप है कि प्रतिवादी ऐसे कार्यों में लिप्त है जो उसके हितों के लिये हानिकारक हैं तथा इसलिये उसे उसके पद से पदच्युत कर दिया गया है।
- वादी ने प्रतिवादी को ट्रायल कोर्ट के समक्ष इसे जारी रखने से रोकने के लिये अंतरिम निषेधाज्ञा दायर की।
- ट्रायल कोर्ट ने एकपक्षीय अंतरिम आदेश दिये बिना केवल नोटिस जारी किया।
- ट्रायल कोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने याचिका दायर की, जहाँ अंतरिम निषेधाज्ञा दी गई थी।
- अंतरिम निषेधाज्ञा आदेश के निपटान के बाद, प्रतिवादी ने अंतरिम निषेधाज्ञा के आदेश के विरुद्ध ट्रायल कोर्ट के समक्ष अपना लिखित कथन दायर किया।
- ट्रायल कोर्ट ने लिखित कथन एवं प्रतिवादी द्वारा संलग्न आदेश की प्रति को छोड़ दिया।
- याचिकाकर्त्ता ने लिखित कथन को खारिज करते हुए अर्जी दाखिल की जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया।
- निर्णय से व्यथित याचिकाकर्त्ता ने प्रतिवादी के लिखित कथन की स्वीकृति पर प्रश्न करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष एक समीक्षा याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि:
- न्यायालय की चूक को पक्षकार को मिले लाभ के तौर पर नहीं लेना चाहिये।
- विधि ने लिखित कथन दाखिल करने के लिये समय सीमा दी है तथा पक्षकारों को इसका पालन करना होगा।
- पक्षकारों को विलंब हेतु क्षमा मांगने के लिये पर्याप्त कारण बताना होगा।
- CPC का आदेश VII केवल वादपत्र को अस्वीकार करने का प्रावधान करता है, लिखित कथन को अस्वीकार करने का नहीं, इसलिये लिखित कथन को अस्वीकार करने का निवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने माना कि:
- ट्रायल कोर्ट स्वयं लिखित कथन दाखिल करने के लिये समय सीमा को 30 दिनों से अधिक नहीं बढ़ा सकता है तथा पक्षकारों को समय सीमा के विस्तार की मांग करते हुए क्षमा के लिये आवेदन करना होगा।
- विलंब हेतु क्षमा के लिये न्यायालय द्वारा कारण दर्ज किये जाने चाहिये ।
- न्यायालय ने प्रतिवादी को विलंब हेतु क्षमा के लिये एक आवेदन के साथ नया लिखित कथन दाखिल करने की छूट दी।
लिखित कथन क्या है?
परिचय:
- एक लिखित कथन से तात्पर्य आम तौर पर वादी द्वारा दायर वाद का उत्तर होता है। यह प्रतिवादी की दलील है CPC के आदेश VIII में लिखित कथन के संबंध में प्रावधान हैं।
- लिखित कथनन में वादपत्र में आरोपित सभी भौतिक तथ्यों को संबोधित किया जाना चाहिये, चाहे उन्हें स्वीकार किया जाए या विशेष रूप से नकारा जाए।
- इसमें कोई प्रतिदावा भी शामिल हो सकता है जो प्रतिवादी वादी के विरुद्ध करना चाहता है।
- कथन को प्रतिवादी या उनके अधिकृत प्रतिनिधि द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिये ।
CPC का आदेश VIII:
आदेश VIII का नियम 1 लिखित कथन से संबंधित है। इससे अभिप्रेत है-
- समयावधि:
- प्रतिवादी को समन तामील होने की तिथि से तीस दिन के अंदर अपने बचाव में एक लिखित कथन प्रस्तुत करना होगा।
- समय सीमा का 90 दिनों तक परिवर्द्धन
- प्रतिवादी तीस दिनों की उक्त अवधि के अंदर लिखित कथन दाखिल करने में विफल रहता है, तो उसे किसी अन्य दिन, जैसा कि न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है, दाखिल करने की अनुमति दी जाएगी।
- कारणों को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिये, लेकिन जो समन की तामील की तिथि से नब्बे दिन के बाद का नहीं होगा।
- समय सीमा का 120 दिनों तक परिवर्द्धन:
- जहाँ प्रतिवादी तीस दिनों की उक्त अवधि के अंदर लिखित कथन दाखिल करने में विफल रहता है, उसे किसी अन्य दिन, जैसा कि न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है, लिखित कथन दाखिल करने की अनुमति दी जाएगी।
- कारणों को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिये तथा ऐसी लागतों का भुगतान किया जाना चाहिये जो न्यायालय उचित समझे, लेकिन जो समन की तामील की तिथि से एक सौ बीस दिनों के बाद और तामील की तिथि से एक सौ बीस दिनों की समाप्ति पर नहीं होगी।
- ऐसी समय सीमा समाप्त होने के बाद प्रतिवादी लिखित कथन दर्ज करने का अधिकार खो देगा तथा न्यायालय लिखित कथन को रिकॉर्ड पर लेने की अनुमति नहीं देगा।
महत्त्वपूर्ण निर्णय:
- फ़ेडरल ब्रांड्स लिमिटेड बनाम कॉसमॉस प्रेमिसेज प्राइवेट लिमिटेड (2024):
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि CPC लिखित कथन दाखिल करने में विलंब की गणना करते समय विविध आवेदन के लंबित होने के समय को ध्यान में नहीं रखता है।
- यह निर्णय इस तथ्य पर प्रभाव डालता है कि न्यायालय सिविल मामलों में विलंब को कैसे संभालती हैं तथा प्रक्रियात्मक समय सीमा का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करती हैं।
- शिबजी पी.एस. सिंह वि. मंजू देवी एवं अन्य। (2024):
- पटना उच्च न्यायालय ने माना है कि CPC के आदेश VI नियम 17 के प्रावधान पर अपने विचार-विमर्श में, प्रतिवादी को साक्ष्य में दर्ज दस्तावेज़ के साथ सामना करने पर कमियों को भरने के लिये दलीलों में विलंब के कारण संशोधन करने से रोक दिया गया है।
- कैलाश बनाम ननखू (2005):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि CPC के आदेश VIII के नियम 1 का प्रावधान निर्देशिका एवं अनुमेय है तथा अनिवार्य एवं आज्ञार्थक नहीं है।
- सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2005):
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि CPC के आदेश VIII के नियम 10 के अंतर्गत, न्यायालय के पास वाद के संबंध में ऐसा आदेश देने की व्यापक शक्तियाँ हैं जैसा वह उचित समझे।'
- लिखित कथन दाखिल करने के लिये समय बढ़ाने का आदेश नियमित रूप से नहीं किया जा सकता है। केवल अत्यंत कठिन मामलों में ही समय परिवर्द्धित किया जा सकता है।