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वाणिज्यिक विधि
जिनेवा अभिसमय पंचाट
« »27-Oct-2025
परिचय
जब विभिन्न देशों के कारबार या व्यक्ति आपसी विवादों में उलझते हैं, तो वे प्राय: पारंपरिक न्यायालय मुकदमेबाजी के बजाय माध्यस्थम् का सहारा लेते हैं। भारतीय माध्यस्थम् विधि में जिनेवा अभिसमय के प्रावधान इन अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् पंचाटों को मान्यता देने और लागू करने के लिये एक ढाँचा प्रदान करते हैं।
जिनेवा अभिसमय पंचाट क्या हैं?
- जिनेवा अभिसमय पंचाट, 28 जुलाई, 1924 के बाद जिनेवा अभिसमय पर हस्ताक्षर करने वाले देशों के पक्षकरों के बीच वाणिज्यिक विवादों में लिये गए माध्यस्थम् पंचाट को संदर्भित करता है। इन पंचाटों में कम से कम दो पक्षकार सम्मिलित होने चाहिये, जो अभिसमय देशों के विभिन्न अधिकारिताओं के अधीन हों, जैसा कि भारत की केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया हो।
- मुख्य आवश्यकता यह है कि माध्यस्थम् करार द्वितीय अनुसूची में निर्धारित प्रोटोकॉल के अंतर्गत वैध होना चाहिये, तथा पंचाट तृतीय अनुसूची में उल्लिखित अभिसमय के अंतर्गत मान्यता प्राप्त क्षेत्रों में किया जाना चाहिये।
माध्यस्थम् के लिये संर्दभित का सिद्धांत
- इस ढाँचे का एक मूलभूत पहलू यह है कि भारतीय न्यायालय माध्यस्थम् करारों का सम्मान करते हैं। जब किसी न्यायिक प्राधिकारी को इन प्रावधानों के अंतर्गत आने वाले पक्षकरों से संबंधित कोई विवाद प्राप्त होता है, और एक वैध माध्यस्थम् करार विद्यमान होता है, तो न्यायालय को आवेदन पर पक्षकरों को माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करना चाहिये। यह अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् करारों का सम्मान करने और समानांतर कार्यवाही को रोकने के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- यद्यपि, यदि माध्यस्थम् करार निष्क्रिय हो जाता है या आगे नहीं बढ़ पाता है तो न्यायालय अपनी क्षमता बरकरार रखता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि पक्षकारों के पास कोई विकल्प न बचे।
प्रवर्तनीयता और बाध्यकारी प्रकृति
एक बार जब कोई विदेशी पंचाट आवश्यक शर्तों को पूरा कर लेता है, तो उसे सभी उद्देश्यों के लिये पक्षकारों पर बाध्यकारी माना जाता है। इसका अर्थ है कि पक्षकार ऐसे पंचाटों पर न केवल प्रवर्तन के लिये, अपितु प्रतिरक्षा, मुजराई या भारत में किसी भी अन्य विधिक कार्यवाही के लिये भी विश्वास कर सकते हैं। लागू होने पर, यह पंचाट स्वयं न्यायालय का आदेश माना जाता है, जिससे इसे घरेलू न्यायालय के निर्णय के समान बल प्राप्त होता है।
प्रवर्तन की शर्तें
प्राथमिक आवश्यकताएँ:
- यह पंचाट प्रवर्तित विधि के अधीन वैध माध्यस्थम् प्रस्तुति से उत्पन्न होना चाहिये।
- विषय-वस्तु भारतीय विधि के अंतर्गत माध्यस्थम् द्वारा निपटारे योग्य होना चाहिये।
- अधिकरण का गठन पक्षकारों की सहमति और माध्यस्थम् प्रक्रिया के अनुसार उचित रूप से किया जाना चाहिये।
- यह पंचाट उस देश में अंतिम होना चाहिये जहाँ यह दिया गया हो।
- प्रवर्तन को भारतीय लोक नीति या विधि का उल्लंघन नहीं करना चाहिये।
इंकार के आधार:
- यहाँ तक कि प्राथमिक शर्तें पूरी होने पर भी, यदि पंचाट को उसके अपने देश में अकृत कर दिया गया हो, यदि बचाव पक्षकार को उचित नोटिस नहीं दिया गया हो, या यदि पंचाट माध्यस्थम् प्रस्तुति के दायरे से बाहर हो, तो न्यायालय प्रवर्तन से इंकार कर सकते हैं।
- महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी पंचाट भारतीय लोक नीति के साथ केवल सीमित परिस्थितियों में ही टकराव में आता है: जब वह कपट या भ्रष्टाचार से प्रेरित हो, जब वह मौलिक भारतीय विधि का उल्लंघन करता हो, या जब वह नैतिकता या न्याय की बुनियादी अवधारणाओं का उल्लंघन करता हो। लोक नीति संबंधी चिंताओं की जांच करते समय न्यायालय स्वयं विवाद के गुण-दोष का पुनर्विलोकन नहीं कर सकते।
प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ
- प्रवर्तन चाहने वाले पक्षकरों को मूल पंचाट या प्रमाणित प्रति, उसकी अंतिमता का साक्ष्य, और आवश्यक शर्तों की पूर्ति का सबूत प्रस्तुत करना होगा। विदेशी भाषाओं में उपलब्ध दस्तावेज़ों का अंग्रेजी में अनुवाद और उचित रूप से प्रमाणित होना आवश्यक है।
अपील के अधिकार
- पक्षकारों को माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करने से इंकार करने या विदेशी पंचाटों को लागू करने से इंकार करने वाले आदेशों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। यद्यपि, दूसरी अपील की अनुमति नहीं है, तथापि लागू विधि के अधीन उच्चतम न्यायालय में अपील की सुविधा उपलब्ध है।
निष्कर्ष
जिनेवा अभिसमय पंचाटों की रूपरेखा अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाती है। आवश्यक सुरक्षा उपायों को बनाए रखते हुए मान्यता और प्रवर्तन हेतु स्पष्ट प्रक्रियाएँ प्रदान करके, यह सीमा पार वाणिज्य और विवाद समाधान को सुगम बनाता है। जिनेवा अभिसमय देशों के पक्षकारों के साथ अंतर्राष्ट्रीय कारबार संव्यवहार में संलग्न किसी भी व्यक्ति के लिये इन प्रावधानों को समझना आवश्यक है।