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सिविल कानून
90 वर्ष के बाद विभाजन का मुकदमा दायर करना स्वीकार्य नहीं
« »01-Sep-2023
पी. रामप्रसाद बनाम त्यागराज आर और अन्य अंतिम डिक्री पारित होने के 90 वर्ष बीत जाने के बाद किसी संपत्ति विभाजन के लिये मुकदमा दायर करना स्वीकार्य नहीं है, यदि कब्ज़ा प्रारंभिक और अंतिम डिक्री के अनुसार वितरित नहीं किया गया है। कर्नाटक उच्च न्यायालय |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पी. रामप्रसाद बनाम त्यागराज आर. एवं अन्य के मामले में आदेश दिया है कि प्रारंभिक और अंतिम डिक्री के अनुसार कब्ज़ा नहीं दिया गया है, तो अंतिम डिक्री पारित होने के 90 वर्ष बीत जाने के बाद संपत्ति विभाजन के लिये मुकदमा दायर करना स्वीकार्य नहीं है।
पृष्ठभूमि
- वर्तमान मामला नंजारेड्डी नामक व्यक्ति से संबंधित है, जिनके तीन बेटे थे - रामारेड्डी, लिंगारेड्डी और मुनिरेड्डी।
- इस परिवार के पास बेंगलुरु शहर में संपत्ति थी, 14 मई, 1928 को बेंगलुरु में ज़िला न्यायाधीश के न्यायालय के अंतिम निर्णय द्वारा, नंजारेड्डी परिवार के सदस्यों के बीच एक पारिवारिक विभाजन हुआ।
- इस मामले में वादी नानजुंदा सुपुत्र श्री मुनीरेड्डी का पौत्र है।
- इसमें पहले मुनीरेड्डी को एक निश्चित हिस्सा मिला था, लेकिन मुकदमे के लंबित रहने के दौरान उनकी मृत्यु हो गई और उनके तीन बेटे उत्तराधिकारी बन गए और मुकदमे की संपत्ति में उनके हिस्से के 1/3 हिस्से के लिये कोई हिस्सा नहीं मिला, जिसे न्यायालय ने घोषित कर दिया था।
- इसमें कहा गया कि पीड़ित पक्ष के बीच मधुर संबंध थे और बंटवारे के बाद भी रामारेड्डी के पास कब्ज़ा जारी रहा।
- उनका यह दृढ़ विश्वास था कि उक्त कब्ज़े में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन अब उन्होंने हिस्सा देने से इनकार कर दिया है। इसलिये, उन्होंने एक तिहाई वैध हिस्से के विभाजन की राहत के लिये मुकदमा दायर किया।
- मामले में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें तर्क दिया गया था कि मृतक मुनीरेड्डी के कानूनी उत्तराधिकारियों के बीच विभाजन प्रभावित नहीं हुआ है और वादी मृतक मुनीरेड्डी के कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते हिस्सेदारी का हकदार है।
- प्रतिवादी न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुआ और आपत्ति का एक बयान दाखिल किया और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1973 (CPC) के आदेश 7 नियम 11 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि मुकदमा कानून द्वारा वर्जित है और यह भी कि CPC की धारा 47 के तहत मुकदमा वर्जित है।
- ट्रायल कोर्ट ने अपने समक्ष मामले पर विचार करने के बाद, यह राय दी कि CPC की धारा 47 लागू नहीं होती है और मुकदमा परिसीमा से भी वर्जित नहीं है।
- उक्त आदेश से व्यथित होकर वर्तमान पुनर्विचार याचिका दायर की गयी है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने डॉ. चिरंजी लाल (D) (कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से) बनाम हरि दास (D) बाय (कानूनी प्रतिनिधि के माध्यम से) (वर्ष 2005) के मामले में उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय का संदर्भ दिया, जिसमें न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि डिक्री (विभाजन से संबंधित) को निष्पादित करने के लिये सीमा अवधि की शुरुआत उस तिथि से होती है, यानी यह डिक्री को उसी तिथि से लागू करने योग्य बना देती है।
- न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि अंतिम डिक्री 14 मई 1928 को पारित की गई थी और निष्पादन याचिका दायर करने और कब्ज़ा प्राप्त करने के बजाय, 90 वर्ष बीत जाने के बाद, एक बार फिर विभाजन की राहत के लिये मुकदमा दायर किया गया है, इसलिये कुछ भी निर्धारित किया जाना बाकी नहीं है।
- न्यायमूर्ति एच. पी. संदेश ने उपरोक्त निर्णय पर भरोसा करते हुए मुकदमे को खारिज़ कर दिया और माना कि ट्रायल कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकालने में गलती की है कि मुकदमा परिसीमा से बाधित नहीं है और दृष्टिकोण ही गलत है इसलिये इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1973 (CPC)
आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत वाद पत्र खारिज़ करने का प्रावधान निहित है।
आदेश VII - वादपत्र
नियम 11 - वादपत्र की अस्वीकृति - वादपत्र निम्नलिखित मामलों में खारिज़ कर दिया जाएगा -
(a) जहाँ यह कार्रवाई के कारण का खुलासा नहीं करता है;
(b) जहाँ दावा किया गया राहत का मूल्यांकन नहीं किया गया है और न्यायालय द्वारा निर्धारित समय के भीतर मूल्यांकन को सही करने के लिये न्यायालय द्वारा आवश्यक होने पर वादी ऐसा करने में विफल रहता है;
(c) जहाँ दावा किया गया राहत उचित रूप से मूल्यवान है, लेकिन वाद अपर्याप्त रूप से मुद्रित कागज़ पर लिखा गया है और अदालत द्वारा निर्धारित समय के भीतर अपेक्षित स्टैंप पेपर की आपूर्ति करने के लिये न्यायालय द्वारा आवश्यक होने पर अभियोगी ऐसा करने में विफल रहता है इसलिये;
(d) जहाँ वादपत्र के कथन से वाद किसी विधि द्वारा वर्जित प्रतीत होता है;
(e) जहाँ इसे डुप्लिकेट में फाइल नहीं किया गया है;
(f) जहाँ वादी नियम 9 के प्रावधान का पालन करने में विफल रहता है।
बशर्ते कि मूल्यांकन में सुधार या अपेक्षित स्टाम्प-पेपर उपलब्ध करवाने के लिये न्यायालय द्वारा निर्धारित समय तब तक नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि न्यायालय, दर्ज़ किये जाने वाले कारणों से संतुष्ट न हो जाये कि वादी को असाधारण प्रकृति के किसी भी कारण से रोका गया था। मूल्यांकन को सही करने या अपेक्षित स्टांप-पेपर की आपूर्ति करने से, जैसा भी मामला हो, न्यायालय द्वारा निर्धारित समय के भीतर, और ऐसे समय को बढ़ाने से इनकार करने से वादी के साथ गंभीर अन्याय होगा।
धारा 47 - प्रश्न जिनका अवधारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय करेगा— (1) वे सभी प्रश्न, जो उस वाद के पक्षकारों के या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होते हैं, जिसमें डिक्री पारित की गई थी और जो डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित है, डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा, न कि पृथक् वाद द्वारा, अवधारित किये जाएंगे।
(3) जहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं है वहाँ ऐसा प्रश्न उस न्यायालय द्वारा इस धारा के प्रयोजनों के लिये अवधारित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण 1 – वह वादी जिसका वाद खारिज़ हो चुका है और वह प्रतिवादी जिसके विरुद्ध वाद खारिज़ हो चुका है इस धारा के प्रयोजनों के लिये बाद के पक्षकार हैं।
स्पष्टीकरण 2—(क) डिक्री के निष्पादन के लिये विक्रय में संपत्ति का क्रेता इस धारा के प्रयोजनों के लिये उस बाद का पक्षकार समझा जाएगा जिसमें वह डिक्री पारित की गई है और
(ख) ऐसी सम्पत्ति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधि को कब्ज़ा देने से संबंधित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी तुष्टि से संबंधित प्रश्न समझे जाएंगे।